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जो डरे हुए होते हैं, वही लोगों को डराते हैं

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कुछ वक्त पहले एक दोस्त राजा भैया की कॉन्स्टीटूएंसी से लौटा था। वो अभिभूत था, बता रहा था, ‘क्या जलवा है, एकदम भोकाल है। चार-चार बॉडीगार्ड साथ-साथ चलते हैं। जहाँ जाते है, लग्जरी गाड़ियों का काफिला जाता है। वहाँ के लोग एकदम चमके रहते हैं उनसे, आदि-आदि।’

मैंने कहा, ‘वो डरा हुआ है, जो डरे हुए होते हैं, वही लोगों को डराते हैं।’ वो मेरी बात पर जोर से हँसा… फिर बोला, ‘अरे उसने सबको एकदम डराकर रखा हुआ है, जो डराकर रखता है, वो डरा हुआ कैसे हो सकता है? तुम्हारे तो लॉजिक ही उल्टे हैं।’

एक रिश्तेदार हैं, उनका माइंडसेट राष्ट्रवादी है, लेकिन इसमें भी उनका कस्टमाइजेशन चलता है। 2016 में उन्होंने घोषणा की थी कि अब वे किसी भी मुसलमान से कोई काम नहीं करवाएँगे। उस वक्त तक वे अपनी गाड़ी को एक मुस्लिम के गैराज पर ले जाया करते थे।

कुछ वक्त बाद, जब उन्हें अपने संकल्प से परेशानी हुई और राष्ट्रवाद महँगा पड़ने लगा तो वे फिर उसी मुस्लिम गैराज मालिक के पास पहुँच गए। कुछ वक्त पहले तक बीजेपी के नेताओं से संबंध बनाए हुए थे। पिछले कुछ वक्त से कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को भी साध रहे हैं।

इस सिलसिले में उनका तर्क ये है कि पोलिटिशयंस से संपर्क होने चाहिए। जब पूछा कि क्यों, तो जवाब मिला, ‘पता नहीं कब इनसे काम आ जाए।’ ‘क्या काम आ सकता है?’, पूछने पर जवाब मिला, ‘कुछ भी काम पड़ सकता है। ताकत से सब काम होते हैं!’

एक और दोस्त हैं, जो राष्ट्रवादी उस तरह से नहीं हैं, मगर मुसलमानों से घृणा के मामले में राष्ट्रवादियों की विरासत ही आगे बढ़ाते हैं। जिन दिनों मैं हिंदू मुस्लिम बहसें किया करती थीं, उन दिनों उन्होंने कहा, ‘तुम्हें तब पता चलेगा जब मुसलमान तुम्हारे घरों की बहू-बेटियों को उठाकर ले जाएँगे!’

मैं चौंकी थी, इसी तरह का तर्क एक खाँटी राष्ट्रवादी दोस्त के मुँह से कई साल पहले सुना था, एक और दोस्त, जिसके परिवार को विरासत से राष्ट्रवाद की घुट्टी मिली है, उसने भी ठीक यही बात दोहराई थी। पहली बार लगा था कि दरअसल ये नफरत डरा कर पैदा की गई है।

कुछ चार पाँच महीने बीते होंगे। उसी दोस्त ने कहा, ‘उस दिन तुम सही थी। डरा हुआ आदमी ही दूसरे को डराता है।’ कुछ वक्त से देश के अलग-अलग हिस्सों में बहुत ही भड़काने वाली चीजें हो रही हैं। ये चीजें अलग-अलग तरीके से अलग-अलग वक्त पर दोहराई जा रही हैं।

ऐसा नहीं था कि 2014 से पहले आसपास राष्ट्रवादी लोग नहीं थे। थे और वे आसानी से चिह्नित हुआ करते थे। मगर आसपास के लोगों में बहुसंख्या ऐसे लोगों की लगती थी जो राजनीतिक मामलों में उदासीनता दिखाया करते थे। आज वही लोग राजनीतिक मामलों में सर्वाधिक मुखर हैं।

मतलब राष्ट्रवाद का उभार आज दिख रहा है, मगर अंडरकरेंट ये था ही। पिछले कई दिनों से सोच रही हूँ कि आखिर ये अंडरकरेंट क्यों था? राजनीतिक तौर पर जो पार्टी लगातार मुखर विरोध कर रही थी, उसी के अनुयायी इतने चुप्पे और उदासीन कैसे थे! औऱ आज ऐसा क्या हो गया है कि ये इतने मुखर हो गए हैं!

आज सारे उदासीन लोग न सिर्फ मुखर हो गए हैं, बल्कि जिस डर से आज तक पीड़ित थे वही डर दूसरों को दिखाने की कोशश कर रहे हैं। ऐसा कैसे हो गया? इन सालों में ऐसा क्या बदला है कि डरे हुए लोग अपने डर से न सिर्फ बाहर निकले हैं, बल्कि दूसरों को डराने लगे हैं।

जाहिर है, इन सालों में इनके हाथ सत्ता आई है या फिर सत्ता का प्रश्रय आया है। औऱ अब जबकि सत्ता इनकी तरफ हैं, ये अपनी कुंठा का प्रदर्शन दूसरों को डराने में कर रहे हैं। जो निर्भय हैं उन्हें किसी को डराने की जरूरत ही नहीं लगती हैं।

डर हमेशा ताकत की तरफ झुकता है, डरे हुए लोग सत्ता के बहुत काम आते हैं।

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