अग्नि आलोक

*संघर्षों से जिनकी हैसियत बनी अब वे ही हिंदूवादी हो गए*

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रजनीश भारती*

जमींदारी प्रथा के खिलाफ तेलंगाना, नक्सलवाड़ी, तेंभागा, श्रीकाकुलम किसान विद्रोह समेत सैकड़ों किसान विद्रोह हुए। कम्यूनिस्ट क्रान्तिकारी ही इन किसान विद्रोहों का नेतृत्व कर रहे थे। कई हजार कम्यूनिस्ट क्रान्तिकारी मारे गए। तब इन किसान विद्रोहों के ताप से भयभीत होकर शोषक वर्ग ने थोड़ी-बहुत जमीन बंटवाया। जमींदारी विनाश अधिनियम भी इसी लिए बनाना पड़ा था। कुछ जमींने देना पड़ा था। तब कुछ लोगों को जमीन मिल पाई। वरना तीन पीढ़ी पहले सारी जमीन जमींदारों, राजे-रजवाड़ों, नवाबों की थी। कोई किसान जमीन न तो खरीद सकता था और ना ही खरीदने की हैसियत में था। 

कम्यूनिस्टों के संघर्षों से थोड़ी जमीन मिली, तब पेट भरा, तब पढ़ने गये तो कुछ लोग अफसर बन गए तो अब बड़के हिन्दू बन गये हैं, और अब कम्यूनिस्टों को मुस्लिम तुष्टीकरणवादी कहकर गाली देते हैं। 

जमीन मिलने से कुछ दलितों, पिछड़ों का पेट भरा, तब पढ़ने गये, तब आरक्षण का फायदा उठाने लायक बन गये और आरक्षण का फायदा उठाकर कुछ ये बुद्धिजीवी लोग सरकारी ओहदों पर पहुँच गये। अब कार, बंगला, गाड़ी, बैंक बैलेंस सब हो गया, कुछ जमीन भी खरीद लिया, अच्छे स्कूलों में बच्चों को पढ़ा लिया तो अब कह रहे हैं कि कम्यूनिस्टों ने हमारे लिए क्या किया? कुछ दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि संविधान की देन है कि हल की मुठिया और हलवाही छूट गयी वरना…. जब कि सच्चाई यह है कि ट्रैक्टर आ गया वरना भूमिहीन व गरीब किसानों को ही हलवाही करना पड़ता।

इसी तरह दबंगों के पास ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, जेसीबी आदि अनेकों आधुनिक औजार हो गए हैं, अब इन आधुनिक कृषि उपकरणों के कारण दबंगों के यहां ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ की तर्ज पर हरवाहों, चरवाहों, बेगारों की जरूरत  नहीं के बराबर रह गयी। अब कोई जरूरत ही नहीं कि दलितों, पिछड़ों को मारपीट करके उनसे अपने खेतों में बेगारी करायें। इसका भी श्रेय संविधान को देकर घमण्ड से कुछ लोगों का सीना 56″ इंच का हो गया है। कहते हैं… संविधान की देन है कि बेगारी छूट गयी। कल को ईंट जोड़ने वाली मशीन आ जायेगी तो कहेंगे कि ‘संविधान की देन है कि ईंट-गारा छूट गया वरना….

ये बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि ये जो बोल रहे हो ये संविधान की देन है। हम पूछते हैं, रैदास और कबीर से ज्यादा बोलने की आजादी मिली है क्या? अगर बोलने की आजादी है तो बोलने वालों को जेलों में क्यूं ठूंस रहे हो? क्यूं उनकी हत्या कर रहे हो?

ये बुद्धिजीवी लोग एक तरफ तो कम्यूनिस्टों की उपलब्धियों को नजरअंदाज कर देते हैं और दूसरी तरफ वैज्ञानिक आविष्कारों का भी श्रेय संविधान को देकर शोषक वर्ग का साथ देते हैं।

जब इन बुद्धिजीवियों का पेट भरने लगा तो इन को गरीबी से ज्यादा जातीय अपमान खटकता है, अब तुलसीदास की चौपाई रट रहे हैं-

 जदपि जगत दारुन, दुख, नाना। 

 सब से अधिक जाति अपमाना।। 

तीन दिन खाना न मिले तो नानी याद आ जाएगी। मगर अब पेट भर गया है तो ये लोग जमीन की लड़ाई छोड़कर जातीय अपमान की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ लोग तुलसीदास के इस चौपाई का अनुसरण करते हुए बामसेफ-दामसेफ, असपा-बसपा… जैसी पार्टियां बनाकर 40-50 साल से इस जाति अपमान के विरुद्ध असली चन्दा लेकर नकली लड़ाई लड़ रहे हैं। ये बुद्धिजीवी लोग दलित, अतिदलित, मूलनिवासी, अगड़ा, पिछड़ा, अतिपिछड़ा, हिजड़ा, अतिहिजड़ा करके जनता को बांटते रहे हैं। इनकी लड़ाई का मतलब ‘फूट डालो, वोट बेचो, दोना चाटो’…

इन जातिवादियों की तथाकथित लड़ाई की यही उपलब्धि रही है कि कांग्रेस को हटाकर भाजपा को सत्ता में ला दिये। कम्यूनिस्टों को एकदम हासिए पर ढकेल दिया, मानो यही कम्यूनिस्ट ही इनके सबसे बड़े दुश्मन थे। और क्या उपलब्धि रही? सरकारी संस्थान सब बिक गए जिससे आरक्षण लगभग खत्म हो गया, जमींदारी प्रथा के विरुद्ध किसान विद्रोहों से जो जमीन मिली थी, उसमें से बहुत सी जमीनें दबंगों ने खरीद लिया अथवा कब्जा कर लिया। दूसरी तरफ जातियों के सौदागर वोट बेच कर मालामाल हो गए। मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी, कालाबाजारी, अश्लीलता, अंधविश्वास, अंधभक्ति, काँवरिया-सांवरिया-बावरिया की बाढ़ आ गई।

इन शातिर बुद्धिजीवियों की उपलब्धियों और इनके कारनामों से यह सिद्ध हो जाता है कि ये लोग फोटो तो अम्बेडकर का लगाते हैं, और वास्तव में  काम अम्बेडकर के विचारों खिलाफ करते हैं। सही मायने में आरएसएस का ही काम करते हैं।

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