डॉ राम मनोहर लोहिया हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के एकमात्र ऐसे राजनेता रहे है जिन्होंने गरीब, मजदूर ,दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक, महिला,, युवा, प्रकृति, विदेश नीति, सीमाएं ,विश्व बंधुत्व ,यानी हर विषय पर अपना मौलिक सौच दियाऔर 57 साल की कम उम्र में ही अपना जीवन त्याग दिया, लेकिन इस छोटी उम्र के बावजूद उन्होंने देश और दुनिया के बारे में जोविचार दिये है वह अगर अमल में आ जाए तो दुनिया बदल सकती है ।
समाजवादी आंदोलन के पुरोधा के बारे में हिंदुस्तान के तमाम राजनेताओं और चिंतकों ने अपनी दृष्टि से विचार व्यक्त किएहैं, ऐसे ही कुछ चिंतकों के विचार अग्नि आलोक ने यह विचार आम पाठकों के लिए संग्रहित कर प्रसारितकिया है ।जिसमें करीब अट्ठारह व्यक्तियों के विचार संग्रहित है
लोहिया एक व्यक्ति नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निचोड़ बन गए थे
सुचेता कृपलानी लिखती हैं –13- 1942 के भूमिगत आंदोलन के समय डॉ. लोहिया ने मेरे साथ बड़े सहयोग से काम किया । वे उस छोटे-से कार्यकर्ताओं के दल में थे जो भूमिगत अ॰ भा॰ काँग्रेस कार्यालय चलाते थे । तनाव व उलझन तथा चुनौतियों के उन दिनों में उनके जोशीले, हंसमुख और खतरे से खेलने वाले स्वभाव ने हमारी बहुत मदद की । उनके लिए खतरे और झमेले स्वाभाविकथे और वे हर समय अधिक खतरों को न्योता देते रहते थे । और चीजों के अलावा उनके ऊपर भूमिगत रेडियो स्टेशन चलाने की भी ज़िम्मेदारी थी । मुझे उन दिनों की याद है जब मुंबई की पुलिस को उनके गुप्त रेडियो स्टेशन का पता लग गया और वे लोग रेडियो स्टेशन की खोज और उस पर बोलने वालों को गिरफ्तार करने के प्रयास में व्यस्त हो उठे । तब हम रेडियो स्टेशन को एक स्थान से दूसरे स्थान-अपने दोस्तों के घर-
हटाते फिरते । एक समय ऐसा भी आया जब लगा की पुलिस का शिकंजा कस गया है और तब हम लोगों ने रेडियो स्टेशन बंद करने की सोची । एक बहुत छोटी उम्र की लड़की उषा मेहता रेडियो पर प्रसारण करती थी । मैं उसके लिए बहुत चिंतित रहा करती थी क्योंकि मुझे भय था कि यदि वह रेडियो पर प्रसारण करती हुई पकड़ी गई तो बहुत कड़ी सजा पाएगी । इसलिए मेरा सुझाव था कि हम लोग रेडियो स्टेशन का काम बंद
कर दें । लेकिन लोहिया इस पर एकदम से क्रुद्ध हो उठे । बोले, ‘किसी भी परिस्थिति में हम रेडियो स्टेशन बंद नहीं करेंगे । अगर उषा गिरफ्तार होती ही है तो अच्छा है कि वह प्रसारण करते हुए ही गिरफ्तार हो, क्योंकि हमारी यह ब्रिटिश के खिलाफ पूरी तरह अंतिम लड़ाई है और हम किसी स्थिति में और किसी तरह भी अपने कदम वापस नहीं ले सकते ।’ उस समय मैंने इस नौजवान के दिल में छिपे फौलाद को देखा । उषा
सचमुच प्रसारण करते समय ही बड़ी नाटकीय स्थिति में पकड़ी गई और इसके लिए उसे खूब भुगतना पड़ा ।
लोहिया और हम सब भारत-भर में सब जगह भागते फिरते थे और लोगों में ब्रिटिश से लोहा लेने की हिम्मत जगाते थे । हम जानते थे कि यह हमारी आखिरी लड़ाई है । हमारे सामने एक ही लक्ष्य था – करो या करो । लोहिया की हिम्मत, योग्यता, खुशदिली हमारे लिए शक्ति थी । इसी समय हमें उनमें नेतृत्व की खूबियाँ दिखीं जिन्होंने उन्हें बाद में भारत का महान नेता बनाया ।
सुचेता_कृपलानी
कमलादेवी चट्टोपाध्याय लिखती हैं –15- गांधी जी पर लोहिया का अटूट विश्वास था । यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के बाद अकेले वही थे जिन्होंने गांधी जी की शिक्षाओं को जीवित रखा । सत्ता उनके लिए साधन थी, साध्य नहीं । और सत्ता से जब साध्य की सिद्धि न हो तो उनके विचार में उसका परिहार उचित था । गांधी जी के समान ही उनके लिए व्यक्ति के
स्तर पर सत्य, समाज के स्तर पर अहिंसा और राजनीति के स्तर पर सत्याग्रह का महत्व था । परंतु गांधी जी की अहिंसा में से ब्रह्मचर्य, ईश्वर-विश्वास और राजनीतिक उपवास को निकालकर केवल मानवीय अहिंसा को ग्रहण करते थे । हिंसा के वे खिलाफ थे, इसलिए युद्ध के भी खिलाफ थे । वे कहते थे कि हिंसा हमेशा अपने से दुर्बल को खोजती है, इसलिए भय का वातावरण बनाती है । हर युद्ध दूसरे युद्ध को जन्म देता है
।
मानवीयता के नाते वे विवेकानंद से भी प्रभावित थे । वासुधैव कुटुंबकम की भावना से वे विश्व का एक संघ बनाने और सम्पूर्ण निरस्त्रीकरण के काम में भी लगे हुए थे ।
लोहिया को आजादी के पहले और बाद में कोई 18 बार कैद हुई । जितनी बार वे जेल जाते, अपना सिर मुड़ा
लेते, मानो सन्यास ले रहे हों । एक बार जब सन 1944 से 46 तक वे लाहौर किले में कैद थे, तो पूछताछ के
लिए उन्हें लगातार 13 दिन और 13 रात तक सोने नहीं दिया गया । उनकी नाक से खून बहने लगा और वे
गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए, परंतु अंग्रेज़ सरकार को उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी । जेल में लोहिया का
दार्शनिक चिंतन और भी गहन हुआ । उन्होंने कहा – ‘भय हमेशा भविष्य का होता हैं । वर्तमान तो मनुष्य
हमेशा सह जाता है, या फिर वह मर जाता है ।’
कमलादेवी_चट्टोपाध्याय
लाडली मोहन निगम लिखते हैं –16- लोहिया अनीश्वरवादी थे । ईश्वर पर उनका विश्वास नहीं था, किन्तु वे अकसर कहा करते थे, ‘मेरा विश्वास उन्हीं चीजों पर टिक सकता है, जिनसे मेरा साक्षात्कार हुआ हो और मेरे लिए जीवन में दो ही वस्तुएं दुर्लभ है-एक है नारी और दूसरी है ईश्वर । नारी से साक्षात्कार हुआ है, लेकिन ईश्वर से नहीं । इसलिए ईश्वर है या नहीं इस बहस
में मैं नहीं जाता ।’
उनकी आस्था जीवन-भर देश व समाज के सबसे निचले वर्ग के उत्थान के लिए अर्पित रही । एक बार मैंने पूछा, ‘आपके पास कुछ भी न होते हुए भी ऐसी कौन-सी शक्ति है जिसके भरोसे आप दुनिया तथा देश की सारी बाधाओं से लड़ते हैं । राजनीति में भी आप साधनहीन बिरले राजनीतिज्ञ हैं, शायद दुनिया में अकेले हैं ।’ कुछ देर खामोशी के बाद उन्होंने उलटा प्रश्न मुझसे किया कि ‘तुम बताओ कि तुम मेरे साथ क्यों हो ?
तुमको तो मेरे साथ न रहकर नेहरू के साथ होना चाहिए या जाति के आधार पर जयप्रकाश के साथ ।’ मुझे कोई उत्तर न सुझा तो मैंने कहा, ‘यह तो मैं नहीं कहता कि मैंने आपके सारे मूल्यों और सिद्धांतों को अंगीकृत कर लिया है । लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान की राजनीति में आप ही ऐसे बिरले पुरुष हैं जो सबसे ज्यादा उपेक्षित, प्रताड़ित और पीटे गए हैं ।’ लंबी खामोशी के बाद एक अटूट विश्वास उनके चेहरे पर
झलका और उन्होंने कहा, ‘जानते हो, दुनिया के गरीब-से-गरीब राजनीतिज्ञ को भी वैचारिक राजनीति के लिए न्यूनतम साधनों की जरूरत होती हैं चाहे वो अपने विचारों के अनुरूप संस्थाएं बनाता हो या अपने सहयोगियों की सीधे या परोक्ष रूप से इमदाद करता हो, या उसके पास सत्ता व लालच के दो अस्त्र हों । लेकिन जो मूल प्रश्न तुमने किया है कि मेरी शक्ति क्या है, तो मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि मुझे यह विश्वास है
कि शायद हिंदुस्तान का गरीब मुझको अपना आदमी समझता हैं । और साथ ही साथ बिना स्वार्थ के मेरे साथ देश-भर में दो-चार हजार ऐसे लोग जुड़े हैं, जिनका कि विश्वास कोई संस्था या मूल्य नहीं खरीद सकते । मैं नहीं जानता इतने साथियों का मेरे बाद क्या होगा ? हो सकता हैं बहुत-से मेरा साथ छोड़ दें और दूसरे रास्ते पर चलें । लेकिन अब तक जो कुछ मैंने किया या भविष्य में जो कुछ भी मैं करूंगा, उससे एक विश्वास
मुझमें जन्मा है कि मेरे साथी मेरी राह छोड़ दें, इस देश और दुनिया के लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, लेकिन शायद मेरे मरने के बाद ।’ इसके बाद एक खामोशी का आलम हो गया । उन्होंने मुझसे कहा, ‘एक बात भविष्य के लिए याद रखना-मेरी बात पर अंधविश्वास कभी मत रखना । अगर तुम्हें वह कहीं जँचे तो उसके लिए संकल्प करना । वह संकल्प ही तुम्हारी शक्ति होगा ।’
#
लाडलीमोहननिगम
लाडली मोहन निगम लिखते हैं –17- डॉ.लोहिया ने पिछड़ो के उत्थान के लिए विशेष अवसर का सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था । वे यह भी चाहते थे कि नारियों को पुरुषों के बराबर का दर्जा मिले और कहा करते थे कि इस देश में प्रतिनिधि नारी द्रौपदी है, सीता या सावित्री नहीं । वे चाहते थे कि हिंदुस्तान के नारियों के अंदर द्रौपदी की तेजस्विता पुनः स्थापित हो । वे रजिया
के समान सत्ता का केंद्र बनें ।
एक बार हम लोग झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई के किले को देख रहे थे । वहाँ से आने के बाद हम लोग झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को घोड़े पर सवार प्रतिमा के सामने रुक गए । वे कुछ देर अपलक उस प्रतिमा को देखते रहे । उसके नीचे खुदे हुए पत्थर पर उनकी निगाह पड़ी तो उनका चेहरा गुस्से ले लाल हो गया । गुस्से को जब्त करके कहने लगे, ‘इस देश के राजा इतने राक्षसी हैं, यह मैं कभी कल्पना नहीं कर सकता । यहाँ नारियों
को सम्मान कभी नहीं मिल सकता ।’ मैंने जब सबब जानना चाहा तो उन्होंने झल्लाते हुए कहा, ‘पढ़ो इस पट्टी पर क्या लिखा है ।’ उस पर लिखा था ‘नारी जाति की गौरव महारानी लक्ष्मीबाई ।’ उसके बाद उन्होंने कहा, ‘यह वाक्य लिखने वाला शासक वही होगा जो समता और बराबरी की बात कहता है लेकिन वह कभी समता और बराबरी दे नहीं सकता । क्या झाँसी की रानी नारियों की ही प्रतिनिधि थी ? वह देश व पुरुषों की
प्रतिनिधि नहीं थी ? क्योंकि जानता हूँ कि अगर देश झाँसी की रानी को देश का गौरव समझना चाहता, तो पुरुषोचित अहं को ठेस पहुँचती ।’ उन्होंने कहा कि ‘मैं इस बात को देश-भर में कहूँगा और अगर उसके बाद भी इस देश में इस गलती को नहीं सुधारा गया तो, मैं इस पत्थर को तोड़ दूंगा ।
लाडलीमोहन निगम
मधु लिमये लिखते हैं –18- हमारी पीढ़ी के लोग जानते हैं कि 1942 में महात्मा जी और वर्किंग कमेटी के दूसरे सदस्यों की गिरफ्तार के बाद अँग्रेजी दमन चक्र का विरोध करके प्रतीकार का ज्योति प्रज्वलित करने का काम जिन इने-गिने नेताओं ने किया, उनमें डॉक्टर लोहिया अग्रसर रहे । मुल्क का जो बंटवारा हुआ, उसके वह घोर विरोधी थे । आज मुझे याद आता हैं कि माउंट बेटन योजना पर
वर्किंग कमेटी में जो प्रस्ताव पास किया गया, उसमें उनके और गांधी जी के कहने पर एक यह जुमला डाला गया कि बंटवारा तो हो ही रहा है, लेकिन हम इस बात को नहीं मान रहे कि हिन्दू और मुस्लिम अलग-अलग राष्ट्र हैं और पहाड़ों, नदियों और समुन्द्र की वजह से हिंदुस्तान का रूप बना है, हिंदुस्तान की एकता का वह जो चित्र है, वह हमेशा हृदयंगम रहेगा ।
डॉ. लोहिया मानते थे कि जब तक गोवा आजाद नहीं होगा, जब तक पुंडुचेरी आजाद नहीं होगा और हिमालय के इलाके में स्थित नेपाल, तिब्बत, सिक्किम और भूटान के राज्यों में जब तक लोकतन्त्र के आधार पर नया समाज कायम नहीं होगा, तब तक भारतीय स्वतन्त्रता का कार्य अधूरा ही रह जाएगा । नेपाल में लोकतान्त्रिक क्रांति लाने के लिए और गोवा को आजाद कराने के लिए सबसे पहले डॉ. लोहिया ने पहल की । गोवा
में वो दो दफा गिरफ्तार हुए थे और अगर महात्मा जी न होते, तो मेरा ख्याल है कि उनको बरसों तक गोवा की कैद में बंद रहना पड़ता । उसी तरह हमारे देश के ही एक भाग, उर्वशीयम, जिसे हम अब भी नेफ़ा कहते हैं, और बाकी हिंदुस्तान में जो अलगाव है, उसी को खत्म करने के लिए उनको सिविल नाफरमानी करनी पड़ी थी ।
मधु लिमये
मधु लिमये लिखते हैं –19- देश की गरीब जनता की मांग को लेकर डॉ. लोहिया को नित्य संघर्ष करना पड़ा । और स्वतंत्रता के बाद भी अठारह दफा उनको जेल जाना पड़ा । उनमें न केवल राष्ट्रीय भावना थी, बल्कि उनके सामने मानव-जाति के कल्याण का भी सपना था । उन्होंने यह कहा है कि मेरी यह इच्छा है कि एक ऐसी दुनिया का सपना साकार हो, जिसमें आदमी को बिना पासपोर्ट लिए हुए
कहीं भी जाने की इजाजत मिलेगी और जहां पर भी वह रहना चाहेगा या मरना चाहेगा, उसकी उसको छुट होगी । यही वजह है कि जब वे अमेरिका में गए थे, तो वहाँ पर वंशवाद को लेकर नीग्रो जनता पर जो अन्याय हो रहा हैं, उसके विरुद्ध किए जा रहे आंदोलन के प्रति उन्होंने केवल शाब्दिक हमदर्दी ही व्यक्त नहीं की, बल्कि एक जगह उन्होंने खुद सिविल नाफरमानी की और वहाँ की पुलिस ने उनको गिरफ्तार किया,
लेकिन अमरीका की सरकार तत्काल जागी, प्रेसिडेंट जानसन ने माफी मांगी और उनको छोड़ दिया गया । डॉक्टर लोहिया उन लोगों में से थे, जिनमें क्षेत्रीयता और संकीर्णता का अंश भी नहीं था । एक ओर वे मानते थे कि हमारी राजनीति का आधार राष्ट्रियता होना चाहिए । उनका कहना था कि जब तक दुनिया में सार्वभौम राष्ट्र रहें और सीमाएं रहें, तब तक हमको भारत की भूमि के किसी भी हिस्से पर विदेशियों का कब्जा
नहीं होने देना चाहिए । लेकिन साथ-साथ वह यह मानते थे कि अंततोगत्वा हमको विश्व सरकार की ओर जाना है और ऐसी विश्व सभा का निर्माण करना है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह सार्वभौम सरकारों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि, इस लोकसभा की तरह मानव-जाति के सीधे चुने हुए प्रतिनिधि जाकर बैठेंगे ।
#
मधु लिमये लिखते हैं –20- अगर मेरे जैसा व्यक्ति लोकसभा में जो एक भारतीय भाषा बोल रहा हैं, तो उसका कारण-एक तो महात्मा जी को धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने और स्वतंत्रता के बाद डॉ. लोहिया ने हमेशा यह आग्रह कि हमारे सार्वजनिक व्यवहारों में, सरकारी काम-काज में, आदालतों और विश्वविद्यालय में माध्यम के तौर पर अँग्रेजी का नहीं, लोकभाषा का इस्तेमाल होना चाहिए । डॉ.
लोहिया को बदनाम करने की कोशिश की गई कि वे गैर-हिन्दी इलाकों पर हिन्दी को लादना चाहते थे, वे किसी के ऊपर हिन्दी को नहीं लादना चाहते थे । वह इस देश की 50 करोड़ जानता पर अँग्रेजी लादने के दुश्मन थे और वे चाहते थे कि सभी क्षेत्रों में लोक-भाषा का प्रयोग हो । इसलिए कभी-कभी अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए कहते थे कि हिन्दी जहन्नुम में जाए, उससे मुझे कोई मतलब नहीं, लेकिन अँग्रेजी जाए ।
इसका मतलब यह नहीं कि वे अंग्रेजों से द्वेष करते थे, वे अंग्रेज गवर्नर-जनरलों की मूर्तियाँ हटाने के हक में थे, लेकिन मेरा ख्याल है कि अगर शेक्सपियर के नाम से या न्यूटन के नाम पर यदि किसी सड़क का नाम दिया जाता तो वह उसका विरोध नहीं करते । वे क्लाइव स्ट्रीट के विरोधी थे, वे डलहौजी स्क्वायर के विरोधी थे, लेकिन शेक्सपियर और बर्नाड शा के विरोधी नहीं थे । इसलिए राष्ट्रियता के साथ-साथ विश्व-बंधुत्व
का उनका दृष्टिकोण हमेशा रहता था और वह चाहते थे कि दोनों में हम लोग समन्वय स्थापित करें ।
#
मधु_लिमेय
रमा मित्र लिखती हैं-21- डॉ. लोहिया को अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान के सर्जन ने राय दी कि जल्द ऑपरेशन करा लेना चाहिए ।ऑपरेशन के सिवाय कोई चारा नहीं। जिस तरह की जिंदगी आप जीते हैं, जिसमें देहातों में जाना होता हैं, उसमें नाना प्रकार के पेचीदगियां पैदा हो सकती हैं और काफी पीड़ा और असुविधा हो सकती है।ऑपरेशन का ख्याल लोहिया को खराब लगता था। वह सिद्धांतः
इसके खिलाफ थे। ऑपरेशन के ख्याल से ही उन्हें अरुचि थी। मैंने उनसे पूछा, क्या वह छुरे से डरते हैं ? यह सवाल मैंने ऐसे आदमी से किया जिसे जिंदगी में किसी तरह के डर का एहसास न था। उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है। वह चुप हो गए तो मैंने कहा, ‘क्या इसका हिंसा और अहिंसा से ताल्लुक है?’ उनका मुख स्नेह की अपूर्व मुस्कान में खिल गया। ‘तुमने बात ठीक पकड़ी। यह चीरने-फाड़ने की बात मुझे पसंद नहीं आती।मुझे
समझ में नहीं आता तुम लोग मुर्गी, मछली और जीवित जानवर खाते हो और फिर चटकारे भी भरते हो।’ उन्हें पेड़ों की शाखाएं काटना भी कभी नहीं भाया। बहुत दफे उन्होंने मुझसे शिकायत की कि माली डाले काट देता है। मैं उनसे कहा करती, ‘यह पेड़ों के भले के वास्ते है, काट-छांट से वे बढ़ते हैं।’ ‘अगर तुम्हारे हाथ-पैर काट दिए जाएं तो तुम्हें कैसा लगे?’ ‘आपकी यह तुलना सही नहीं है,’ मैं कहती। जीवित प्राणी के प्रति
किसी भी प्रकार की निर्ममता उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। वही अकेले आदमी थे, जिन्होंने हिंसा को लेकर जान और माल के बीच फर्क किया। माल इस देश में ज्यादा रक्षणीय रहा है। वह व्यंग्य में कहते, ‘मनुष्य तो मक्खियों की तरह है सो उसके मरने की किसी को क्यों प्रवाह हो।’ एक रात शायद अगस्त का महीना था । उन्होंने अपना हाथ मेरे आगे फैला दिया और कहा, ‘हाथ देखो ।’ मैंने हाथ देखते हुए कहा, ‘आप
प्रधानमंत्री नहीं बनोगे।’ ‘तुम क्या सोचती हो मैं प्रधानमंत्रित्व की कामना करता हूँ? बस, यह बताओ कि मैं क्या कुछ देश का भला, सही मायने में भला कर सकता हूँ? क्या लोग कभी मेरी बात सुनेंगे और काम करेंगे?’ इसके बाद फिर ‘क्या जो होगा वह हिंसक होगा?’ मैंने कहा, ‘कुछ-न-कुछ होकर रहेगा। आपका आयुष्य दीर्घ है और 70 वर्ष तक जियेंगे।’, ‘केवल 70, कुछ और बरस तो दो।’ विरोधी दलों और अपनी पार्टी पर से
विश्वास उठने पर भी जनता में उनका विश्वास कभी नहीं डिगा पर किस तरह जनता को, जो दो हजार साल से भी अधिक पशुओं जैसा जीवन जीती आ रही है, उठाया जाए, जगाया जाए । किस तरह जाति-व्यवस्था का घृण्य प्रभाव दूर किया जाए। ‘तुम इतिहास की कैसी विद्यार्थी हो। क्या तुम्हें हमारे इतिहास की इस सच्चाई की पड़ताल करने की इच्छा नहीं होती? क्या हमारे प्रसिद्ध इतिहासकारों में एक भी आदमी ऐसा नहीं
है कि जो हमारे इतिहास के बारे में वास्तविक अनुसंधान करे? एक नहीं तो इतिहासकारो की टीम ही सही। क्यों विदेशी शासन के आगे हमने बार-बार आत्मसमर्पण किया? विश्व के इतिहास में इस तरह की कोई मिसाल नहीं ।
#
रमा_मित्र
तारकेश्वरी सिन्हा लिखती हैं-22- डॉ. लोहिया ने सिर्फ राजनीतिक और सामाजिक प्रांगण में समानता का अलख नहीं जगाया बल्कि भारत की भाषाओं को भी एक नया मोड़ दिया। उनका यह विश्वास था कि भारत की जनता को अपनी भाषा के लिए स्वाभिमान चाहिए। उन्होंने अंग्रेजी को हटाकर क्षेत्रीय भाषाओं को इसलिए प्रश्रय दिया। कहना तो यह चाहिए कि डॉ. लोहिया के आने
के बाद ही संसद में हमें पहले-पहल महसूस हुआ कि भाषा अपने-आप में कितना महत्व रखती है। क्षेत्रीय भाषाओं का विकाश डॉ. लोहिया की बड़ी देन है। एक बार उन्होंने लोकसभा में सरदार स्वर्ण सिंह की किसी बात पर आलोचना करते हुए कहा कि स्वर्ण सिंह जी, तुम झूठ बोल रहे हो। कांग्रेस दल के लोगों ने इस पर आपत्ति की और कहा कि माननीय सदस्य डॉ. लोहिया गलत और हलके शब्द का प्रयोग करते हैं। सदस्यों ने
मांग की कि वे अपने शब्द वापस लें, पर डॉ. लोहिया अड़े रहे। बाहर आकर मैंने कहा, ‘आप इतने विद्वान हैं, भाषा के ऊपर आपका इतना प्रभुत्व है, फिर आपने ‘झूठ’ शब्द का क्यों इस्तेमाल किया? झुठ की जगह आप सरदार स्वर्ण सिंह से यह कहते कि आप असत्य बोल रहे हैं।’ उन्होंने बहुत ही कटाक्षभरे शब्दों में मुझसे कहा, ‘तारकेश्वरी, ‘असत्य’ तो पढ़े-लिखे लोगों के कोश का शब्द हो सकता है, आम जनता अपनी
बातचीत के लिए ‘झूठ’ शब्द का ही प्रयोग करती है। एक रेहड़ीवाला इसी शब्द का इस्तेमाल करेगा, ‘असत्य’ शब्द का नहीं और इस देश की भाषा वह है जो साधारण जनता बोलती है।’ इस छोटी-सी घटना में उनका जो रूप मैंने देखा इससे मेरा रोआँ-रोआँ गदगद हो गया। देश में आज ऐसा कोई व्यक्ति दिखायी नहीं देता जो उन सभी रास्तों पर चलने की क्षमता रखता हो। वही एक व्यक्ति थे जिन्होंने भगवान को इंसान और
नेता को मानव बनाने की कोशिश की।
#
तारकेश्वरी_सिन्हा
शान्ति नाइक लिखती हैं-23- 1946 में डॉ. लोहिया जब जेल से बाहर आए तो जल्दी ही उन्हें पुर्तगाली जेल में जाना पड़ा। गोवा में वे अपने दोस्त डॉ. जुलियाओ मेंजिस के घर आराम करने गए थे। वहां हजारों लोग उनसे मिलने आए और लोहिया को अपनी शिकायतें सुनायीं। शिकायतें सुनकर लोहिया का मन अंगार-सा भड़क उठा। उन्होंने कहा, ‘इस अन्याय का आप लोग प्रतिकार क्यों नहीं
करते? खामोश क्यों बैठते हो।’ लोगों ने कहा, ‘हमारे में इतनी ताकत कहां है ? आप ही हमारा नेतृत्व करें।’ उसके बाद लोहिया ने मडगाँव में आम सभा में भाषण करने कोशिश की जिसको सुनने के लिए हजारों लोग उमड़ पड़े। उस सभा में ही लोहिया को गिरफ्तार करके जेल भेजा गया। जेल से मुक्त होने के बाद लोहिया ने लोगों से कहा, ‘गोवा की जनता को तीन महीने में नागरिक हक नहीं मिले तो आंदोलन करने के लिए मैं
फिर वापस आता हूँ।’
भारत-विभाजन के मूर्ख फैसले से लाखों लोगों की जान खतरे में पड़ी थी। अकेले गांधीजी ही थे जो लोहिया को साथ लेकर लोगों के मन का मैल साफ करना चाहते थे। उसी समय गोवा में आंदोलन जरूरी था। वहां के नेताओं को 12-14 सालों की सजा हो रही थी। जनता में चेतना निर्माण करने की गांधी जी की शक्ति लोहिया ने हासिल कर ली थी। लोहिया का नाम गोवा के घर-घर में हो गया था। पुर्तगाली सरकार पुलिस और
मलिट्री का राज बना रही थी। अपनी घोषणा के अनुसार लोहिया फिर गोवा आए। उनके साथ गोवा आंदोलन में भाग लेने की अनुमति मैंने ली । हम जब गोवा जा रहे थे तब पूरे रास्ते में मीलों चलकर रात में हजारों लोग लोहिया का दर्शन करने आए थे। बाबूजी उस समय सूबे के मजदूर संगठक थे । उन्होंने लोगों से सिर्फ इतना ही कहा था कि लोहिया इस गाड़ी से गोवा जा रहे हैं। गोवा की हद पर बेलगाम पूरा जगा हुआ था।
बेलगाम में धूमधाम से सभाएं हुईं । वहां से गाड़ी में बैठकर लोहिया, योगेंद्र सिंह, र. वि. पंडित और मैं गोवा चले। लोहिया ने कहा, ‘शान्ति, वे लोग तुम्हें गिरफ्तार करेंगे।’ मैं सिर्फ मुस्करायी । बातें करते-करते किलोम पहुंच गयी। पुलिस लोहिया को मोटर में ले गयी। हम तीनों को वहीं किलोम पुलिस स्टेशन पर कैद में रखा और दूसरे दिन बाहर लाकर छोड़ दिया। बेलगाम में डॉ. नाइक के घर पर कार्यकर्ताओं का जमघट हुआ।
फैसला हुआ कि गोवा की आर्थिक तटबंदी करें। गोवा की सरहद के गांवों में सभाएं हुईं। लोहिया सरल व सीधी हिंदी में बोलते थे जिसे कोंकणी, मराठी, कन्नडी सभी लोग समझते थे। हजारों लोग उनके नए संसार का सपना गौर से सुनते। लोग खुश होकर लोहिया के गले मिलते । एक कार्यकर्ता ने लोहिया से कहा, ‘फटेहाल और बदबू निकलने वाले लोगों से आप गले कैसे मिलते हैं? लोहिया ने कहा, ‘क्या बात करते हो ! उनका
दिल तो देखो!’
#
शान्ति_नाइक
#
धनिकलाल मंडल लिखते हैं-24- मैं 60-61 में सोशलिस्ट पार्टी का प्रधान मंत्री था। सोशलिस्ट पार्टी का देशव्यापी सत्याग्रह चल रहा था। हैदराबद में श्री बदरी विशाल पित्ती के नेतृत्व में एक विशाल जनसमूह अंग्रेजी के नामपट काला पोतता चल रहा था तथा पुलिस और अधिकारी भीड़ को तीतर-बितर कर पित्तीजी को गिरफ्तार करने की असफल कोशिश कर रहे थे। घंटे-दो घंटे तक
अपने प्रयास में विफल होने पर पुलिस ने लाठी चार्ज एवं आम गिरफ्तारी शुरू की। हम केंद्रीय कार्यालय के सब साथी बाहर निकल आये और लोहिया जी की गाड़ी में, जो जुलूस से दूर चल रही थी, जा बैठे। केंद्रीय कार्यालय में पहुंचकर मैं प्रेस ट्रस्ट को उसदिन के सत्याग्रह का विवरण देने लगा। लोहिया जी से नहीं रहा गया और उन्होंने श्री मुरहरि को मुझसे टेलीफोन ले लेने को कहा । गुस्से में बोले, ‘झूठ बोलते हो।’ शांत होने पर
उन्होंने समझाया कि झूठ नहीं बोलना चाहिए। पूर्ण सत्य तो शायद गांधी भी नहीं बोलते थे, किन्तु झूठ नहीं बोलते थे। यदि सत्य बोलना पार्टी या देश हित में न हो तो चुप रहो, किन्तु झूठ मत बोलो। इससे किसी का भी भला नहीं होता।
उन्हीं दिनों की बात है। डॉक्टर साहब कहीं बाहर से हैदराबाद आए थे। हम सभी स्टेशन से स्वागत कर उनको ले आए। उनके चेहरे पर थकान की स्पष्ट झलक थी। सभी के कमरे से चले जाने पर झुंझलाहट के स्वर में उन्होंने कहा कि ‘तुम निकम्मे हो।’ मैंने उत्तर दिया कि मेरी इच्छा तो उनके मुँह से निकले एक-एक शब्द को साकार कर देने की रहती है। किंतु मैं या मेरे जैसे लोगों को सभी बातों को समझने में समय लगता है,
हमारी बुद्धि अविकसित है। डॉक्टर साहब ने कहा कि मैं तुमसे अधिक नहीं जानता हूँ। तुम्हारी और मेरी बुद्धि में बहुत अंतर नहीं है, अंतर है दृष्टि का। मेरी दृष्टि स्नेह और समता की दृष्टि है। जिस दिन तुम्हारी दृष्टि भी स्नेह और समता की होगी, तुम्हें सब दिखाई देने लगेगा।
हैदराबाद की ही बात थी। डॉक्टर साहब के नाम चिट्ठी-पत्री केंद्रीय कार्यालय के पते से ही आती थी। मैं खुद उन सभी चिट्ठियों को एक फ़ाइल में जमा करता था और उनके आने पर उन्हें देता था। किसी पत्र से उनको लगा कि उनकी चिट्ठी-पत्री गायब भी हो जाती हैं। उनको नहीं मिलती हैं। डॉक्टर साहब बहुत दुखी हुए। करुण स्वर में उन्होंने कहा कि अपने देश में लोग बहुत दुःखी हैं, बेसहारे हैं और संतोषी हैं। जब उन्हें बहुत
दुःख होता है और कोई सहारा नहीं मिलता है तभी पत्र लिखते हैं। हम यदि कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम पत्र का उत्तर तो अवश्य दें और उसे किसी पत्र में प्रकाशित करा देवें।
डॉक्टर साहब शेरघाटी सम्मेलन से लौटकर बोधगया डोरमेट्री में विश्राम कर रहे थे। शेरघाटी से चलते समय उन्होंने मुझसे भी साथ चलने को कहा। मैंने दूसरे दिन उनसे बोधगया में मिलने का वादा किया। दूसरे दिन जब मैं डोरमेट्री पहुंचा, डॉक्टर साहब गंभीर मुद्रा में बिस्तर पर लेटे हुए थे। मैं बगल में कुर्सी पर बैठ गया। उसी मुद्रा में बोल उठे, ‘काश, मेरे पास पचास लाख रुपया होता। तब मैं श्री नेहरू को बता देता कि मैं
राजनीति करता हूँ या सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक आंदोलन।’ मैंने कहा कि यदि आपका आदेश हो तो हम लोग तिलक लेकर शादी करें और रकम उनको सुपुर्द कर दें। इस प्रकार उनके शिष्यों के मार्फत काफी रुपया मिल सकता है। डॉक्टर साहब पहले तो हंसे, फिर बोले, ‘देखो, ऐसी गलती कभी मत करना । पाप पर पुण्य की मुहर लगाने से कोई लाभ नहीं होता।’
#
धनिकलाल_मंडल
लाडली मोहन निगम लिखते हैं-25- सितंबर, 1967 के अंतिम दिनों, 29 या 30 सितंबर को, डॉ. लोहिया की प्रोस्ट्रेट ग्रंथि का ऑपरेशन हुआ। 24 अक्टूबर को वे विदेश जाने वाले थे। मुझे उनके ऑपरेशन का पता नहीं था। उन दिनों देश में नौ राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें थीं। मुझे यह भी पता चला कि उनके कुछ अंतरंग लोगों ने (जिनमें विदेशी भी थे) विदेश
में ऑपरेशन कराने का सुझाव दिया था, लेकिन उन्होंने कहा कि ‘हम आज विदेश का अनाज खाते हैं, तो क्या इलाज भी विदेश में होगा? मरना हैं तो अपने देश के डॉक्टरों के हाथों ही मरना बेहतर होगा।’ शल्यक्रिया में कुछ लापरवाही हुई थी जो कि जानलेवा साबित हुई। अपने जीवन के अंतिम 10-12 दिन वे मौत से लगातार जूझते रहे। डॉक्टर उनकी इच्छा शक्ति देखकर हैरान थे। तीसरे रोज उनकी हालत इतनी बिगड़ी कि
उनको देश के किसी और हिस्से में ले जाना संभव नहीं था, न ही पुनः ऑपरेशन करके गलती सुधारी जा सकती थी। देश के बड़े-बड़े डॉक्टर आए। विदेश के भी विशेषज्ञ आए। रह-रहकर डॉक्टर साहब सन्निपात की अवस्था में पहुंच जाते थे। अर्धचेतन व सन्निपात की अवस्था में भी जब कभी बड़बड़ाते या बोलते रहते, उस समय भी उनके मुंह पर हमेशा देश की समस्याओं का ही जिक्र रहता, मसलन बेमुनाफे की खेती पर लगान
का क्या हुआ, फलां कार्यक्रम सरकार पूरा कर रही है या नहीं। ऐसी गंभीर अवस्था के उन क्षणों में भी ऐसी असम्बद्ध बातें बोलते रहते थे, जिनको समझ पाना परिचर्या में लगे हुए के लिए असंभव था। शायद जो कुछ भी बोल रहे थे, यदि वह टेप किया जाता तो देश कुछ निष्कर्ष निकाल सकता था या उससे कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता था।
जिस बात ने मेरे मर्म को छुआ वह यह थी कि अचेतन अवस्था में बोलते या बड़बड़ाते हुए भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि उन्होंने देश के विकास के लिए यह संकल्प लिया था कि जब तक अंग्रेजी रहेगी देश उठ नहीं सकता। अमूमन वे तीन भाषाएँ बोलते- या तो जर्मन, या बंगला या हिंदी। बंगला उनके बचपन के साथ जुड़ी हुई थी। गो कि पैदा वे उत्तरप्रदेश (जिला फैजाबाद, अकबरपुर) अवध में
हुए थे, लेकिन उनका बचपन का कुछ समय बंगाल में बीता था। जर्मन उनकी शिक्षा व डॉक्टरेट की डिग्री की भाषा थी। हिंदी उनकी मातृ भाषा थी। गोकि अंग्रेजी का उनका ज्ञान विपुल था, लेकिन उन्होंने सोचा कि आजाद हिंदुस्तान में अंग्रेजी हिंदुस्तान की प्रगति एवं समाज के विकास में बाधक है। वह गरीबों को ऊपर उठने से रोकती है। यह जबान रोटी और रोजगार के साथ जुड़ी है। तब से उन्होंने अंग्रेजी के सार्वजनिक
इस्तेमाल का सैद्धान्तिक विरोध किया। और जब खुद इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया तो वे इसका कैसे इस्तेमाल करते? लेकिन सबसे अधिक ताज्जुब मुझे तब हुआ जब अचेतन अवस्था में भी उन्होंने अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं किया था। यह एक ऐसे साधक के लिए ही संभव था, जो अपने सिद्धांतों के प्रति सिर्फ चेतन रूप में ही समर्पित नहीं होता, वरन उन्हें अपने अचेतन में भी उतार लेता हैं। दूसरी बात, जब मनुष्य घोर
पीड़ा से गुजर रहा होता है तब उसको अपने लोग व ईश्वर याद आते हैं। विकट पीड़ा के क्षणों में भी जब वे मौत से जूझ रहे थे, उनके मुंह से एक बार भी भगवान का नाम नहीं निकला और न उन्होंने माता-पिता को याद किया। ऐसे क्षणों में भी आसपास खड़े लोगों से यही पूछते रहे कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने बेमुनाफे की खेती पर लगान खत्म किया कि नहीं, या इतिहास की बात कि रजिया को उसके सूबेदार ने ही मारा। पता नहीं
इस बात से उनका क्या आशय था। जो कुछ भी मेरी जानकारी है उसके आधार पर मैं इस बात का एक ही मतलब निकाल सका हूँ कि सत्ता के केंद्र में रजिया के पहले कोई महिला सत्तारूढ़ नहीं हुई। और जब हुई तो पुरुषोचित अहं उसको बर्दाश्त नहीं कर सका और उसके ही लोगों से उसको बगावत मिली।
लाडलीमोहननिगम
रेवती कांत सिंह लिखते हैं-26- डॉक्टर साहब अपने व्यवहार से किसी को भी मोह लेते थे। और, वह भी इस प्रकार से कि वहआदमी हमेशा के लिए उनका श्रद्धालु हो जाए। इसका बहुत बड़ा प्रमाण मिला था अक्टूबर, 1967 में, डॉक्टर साहब की बीमारी के समय। रीवां की वह पानवाली तथा दिल्ली का वह टैक्सी ड्राइवर। डॉक्टर साहब को कम-से-कम मैंने कभी पान खाते नहीं देखा था। फिर
भी आदमी तो मौजवाले थे न। मौज में आ गये और कभी रीवां में एक बूढ़ी पानवाली से पान खा लिया। लेकिन वह पान खाना भी ऐसा जैसे विदुर के घर कृष्ण ने साग खा लिया। वह पानवाली हो गई डॉक्टर साहब की भक्त। जब डॉक्टर साहब की बीमारी की खबर उसने सुनी तो एकमात्र अपनी रोटी का सहारा – दुकान बंद करके चल पड़ी दिल्ली की ओर । दिल्ली के उस मनहूस विलिंग्डन अस्पताल के हाते में, आंगन में, वह बूढ़ी
पानवाली बैठी रहती थी और बराबर हाथ जोड़कर डॉक्टर साहब की जिंदगी के लिए भगवान से प्रार्थना करती रहती थी। जब कोई कह देता कि डॉक्टर साहब को अभी कुछ आराम है तो खुशी से उसका चेहरा चमक उठता, और यदि कोई बीमारी बढ़ जाने की खबर देता तो उसका चेहरा उत्तर जाता था । डॉक्टर साहब ने अपने को आम जनता में बिल्कुल एकाकार कर लिया था।
यद्यपि इस प्रकार के हजारों उदाहरण उनकी जिंदगी में मिलते हैं, जो यों तो अपने-आप में अत्यंत ही महत्वहीन लगते हैं, मगर उन छोटी-छोटी बातों से ही आदमी का व्यक्तित्व निखरता है। 1965 में 10 अगस्त को गिरफ्तार होकर हम लोग हजारीबाग केंद्रीय कारावास में पहुंचे थे। चूंकि डॉक्टर साहब की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ स्वीकृत हो चुकी थी, इसलिए 20 अगस्त को डॉक्टर साहब को
हजारीबाग से दिल्ली ले जाया गया। जब वे वार्ड से विदा होने लगे तो हम राजनीतिक कैदियों से मिलने से पहले, जिन्हें जेल की भाषा में ‘बाबू कैदी’ कहा जाता है, उन्होंने परिचारकों से, जो बाबू कैदियों की सेवा के लिए साधारण कैदियों में से ही नियुक्त होते हैं, मिलना पसंद किया। सबसे पहले वे उस सेल में गए, जिसमें वार्ड का सफैया – योगी हरि रहता था। डॉक्टर साहब को देखकर जैसे ही योगी अपने सेल से बाहर आया,
डॉक्टर साहब ने उसे पकड़कर अपनी छाती से लगा लिया और कहने लगे – ‘जा रहा हूँ, पता नहीं फिर हम लोगों की भेंट होगी कि नहीं।’ योगी डॉक्टर साहब के आलिंगन में खड़ा अविरल रो रहा था और डॉक्टर साहब उसकी पीठ थपथपा रहे थे। लगता था जैसे परिवार के दो सदस्य आपस में बिछुड़ रहे हों। उसके बाद डॉक्टर साहब ने सभी परिचरों – पनिहा, रसोइया, पहरा, मेट- को गले लगाया और बाद में हम लोगों की बारी आई,
जिनमें किसी की पीठ थपथपाई, किसी को प्यार की चपत लगाई तो किसी से सिर्फ नमस्कार ही किया।
#
रेवतीकांतसिंह
राजनारायण जी लिखते हैं-27- डॉक्टर लोहिया की प्रतिभा चतुर्दिक थी। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, भाषाविज्ञान, राजनीतिशास्त्र सभी के पंडित थे। जब वे अध्यात्मवादियों से बात करते थे तो अध्यात्मवादी उन्हें भौतिकवादी मानता था और जब भौतिकवादियों से तर्क करते थे तो भौतिकवादी उन्हें अध्यात्मवादी मानता था। लोहिया जी जड़ और चेतन, दोनों को एक ही सिक्के के
दो पहलू मानते थे। लोगों का चेतन प्रथम, जड़ बाद में, या जड़ प्रथम, चेतन बाद में, इस विवाद में पड़ना अनावश्यक तथा निरर्थक है। वे ऐसा समझते थे। यही कारण है कि लोहिया शुद्ध मानववादी थे। वे मानव से प्रेम करते थे। इसलिए मानव से मानव की दूरी समाप्त कर समता तथा समृद्धि का समाज बनाने के लिए निरंतर व्यग्र रहते थे।
कश्मीर में हिन्दू-मुश्लिम तनाव हो गया था। तनाव का सिलसिला एक कश्मीरी ब्राह्मण की लड़की और मुसलमान का लड़का दोनों के बीच हुई शादी से शुरू हुआ था। लड़की बालिग थी, लड़का भी बालिग था। दोनों का परस्पर प्रेम, विवाह-संबंध में परिणत हो गया। कश्मीर में कश्मीरी ब्राह्मण की लड़की और मुसलमान लड़का में एक नहीं अनेकों शादियां पहले हो चुकी थी।
मगर इस शादी का भयंकर बवंडर खड़ा किया गया। वास्तविकता तो यह थी कि कश्मीरी ब्राह्मण ने इस शादी का बहाना बनाकर साम्प्रदायिक झगड़ा खड़ा किया था। इसके पीछे शुद्ध आर्थिक संघर्ष था। अभी तक कश्मीर में सभी बड़े-बड़े सरकारी ओहदों पर तथा सरकारी नौकरियों में कश्मीरी ब्राह्मण भरे थे। अब मुसलमानों में भी आबादी के अनुपात में पढ़े-लिखे लोगों को नौकरी में जगह मिले, इस मांग को लेकर नव-चेतना
आयी। इस चेतना का सीधा असर कश्मीरी ब्राह्मणों पर पड़ा और उसने आर्थिक संघर्ष को साम्प्रदायिकता का रूप दे दिया। लोहिया जी ने मुझे कश्मीर जाने और सच्ची घटना का पता लगाने का आदेश दिया था। मैं कश्मीर से लौटकर दिल्ली आया था । रपट लिखकर लोहिया जी को देने के लिए तैयार किया था। उसी अवसर पर वे 95, साउथ एवेन्यू में आ गए, बोले – ‘चलो आज तुमको बाहर खाना खिलाएंगे।’ मैंने कहा- ‘डॉ.
साहब 11 बजे हैं। तेज धूप है। खाना जल्दी ही घर बन जाएगा। होटल में क्यों चलते हैं।’ वे रूक गए। करीब 3 घंटे रुके। कश्मीर से लेकर देश-विदेश और पार्टी की आंतरिक स्थिति पर व्यापक चर्चा हुई। देश और समाज के लिए वो हमेशा चिंतित रहते थे।
#
राजनारायण
राजनारायण जी लिखते हैं-28- लोहिया जी एक दिन करीब ग्यारह बजे आ गए। ‘निकलो और बाहर घूमों।’ दो घंटे तक घूमे। ‘तुम्हारे मुल्क में जात-पात की दीवार जब तक रहेगी समाजवाद क्या जनतंत्र का बचना भी मुश्किल है। तुम्हारे दल में भी चितपावन ब्राह्मणों का गट है। आपस में लड़ते हैं। मगर अंत में दूसरे के मुकाबिल एक हो जाते हैं। वशिष्ट परंपरा को कैसे काटोगे। पिछडो को जब
तक ठोस ढंग से विशेष अवसर देकर नहीं बढ़ाओगे तब तक सब विकास की बातें व्यर्थ हैं। नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा आ गई। अगर देश में गिरावट का क्रम यही जारी रहा तो इंदिरा का कोई बेटा भी इंदिरा के बाद आ सकता है। राजनीति में वंशवाद नेहरू ने चला दिया है। इसे रोकना है। लोकशाही बिना लोकभाषा कैसे चलेगी? ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन को तेज करना है। अंग्रेजी के रहते पिछड़ो के हाथ में सच्ची ताकत नहीं
जा सकती। यह पेट भी मारता है। दिमाग भी मारता है। चरण सिंह क्या करेगा? क्या आने वचन को चबा जाएगा? दो रूपया तक लगान देने वाले किसानों का सम्पूर्ण लगान माफ नहीं करेगा? चाहे जो हो, यदि चरण सिंह वचन तोड़ते हैं तो अपने लोगों को सरकार से हटाना होगा। तुम्हारे यहां भी तो लोग अजीब हैं। एकबार कुर्सी पकड़ लेते हैं तो छोड़ते नहीं। देखो, बिहार में गोलीकांड की न्यायिक जांच तिवारी ने नहीं कराई ।
विन्देश्वरी मंडल हमारी बात मान गए होते तो वह चमक जाते। देखो, आज हमारे लोगों में हिम्मत की कमी है। हिम्मत के साथ आदमी को धीरज लेकर आगे बढ़ना चाहिए। पथ ठीक है तो पथिक को राह के संकट से घबराकर पथ नहीं छोड़ना चाहिए। अकेले भी रहो तो भी चलो । देखो ! अपने लोगों को समझाओ । यह सरकार न तो गरीबी हटा सकती है, न बेकरी दूर कर सकती हैं। इसकी योजना मुट्ठी भर लोगों के लिए है।
इसने खपत की आधुनिकता बढ़ाई है, उपज की नहीं। चंद लोगों को योरोपियकरण हुआ है, जैसे वाईस चांसलर, सचिव, कलक्टर इत्यादि , मगर खेत मजूर, सामान्य कामगार, चतुर्थ श्रेणी व तृतीय श्रेणी के सरकारी कर्मचारी, इन सबके लिए सरकार के पास योजना नहीं हैं। इसने नीचे के तल्ले उठाने की जगह ऊपर का तल्ला उठाया है। यही कारण है कि धनी और गरीब की खाई चौड़ी हो गयी है। तुम्हारा ही एक मुल्क है जिसकी
सीमा घटी है। 15 अगस्त 1947 के बाद से तुम्हारा मुल्क सिकुड़ा है। सरकार की अपनी कोई विदेश नीति नहीं है। वह पारी-पारी से अमरीका-रूस की ओर देखती, भूकती और उनके दबाव में काम करती है। इस समय कोई ऐसा दल हो जो सभी असंतोषों को बटोरे और सभी हरिजनों, पिछड़ों, गरीब मुसलमानों और गरीब ठाकुर, ब्राह्मण-बनियों को एक खेमे में लाकर मौजूदा सरकार को धराशायी करे।
#
राजनारायण
राजनारायण जी लिखते हैं-29- शरद ऋतु की रात थी। बनारस में मणिकर्णिका घाट के सामने दूर गंगा में दशाश्वमेध घाट से चलकर बजड़ा रुक गया। रात को 11 बजे से 3 बजे तक बजड़े की छत पर खुली चांदनी में दरी पर बिछी चादर पर दो-चार मसनद थे।
तारों का वर्णन था। सप्तऋषि मंडल कहाँ है, शुक्र कहाँ है, कुम्भ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, विषयों की चर्चा थी। देश-विदेश की राजनीति, धर्म, समाजशास्त्र और दार्शनिक मुद्दों पर गंभीर विचार-विनिमय था किंतु लोहिया की दृष्टि मणिकर्णिका घाट पर गड़ी रहती थी। बीच-बीच में गांधी, राम, कृष्ण की चर्चा विचारों को उलझाये रहती थी। सन 52 के सार्वजनिक निर्वाचन में राम के प्रभाव-क्षेत्र में समाजवादी दल, कृष्ण के
प्रभाव क्षेत्र में धर्म-सम्प्रदाय प्रधान पार्टियां, शंकर के प्रभाव-क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद आयी, ऐसा क्यों? प्रश्न का उत्तर ढूंढा ही जा रहा था कि बीच ही में डॉ. लोहिया बोल उठे- ‘देखो, देखो, चिता पर घी छोड़ा जा रहा है। मालूम होता है, यह धनी घर का मुर्दा है। पहले जी चिता थी, उसमें ऊंची लहर नहीं उठी थी, इतनी देर तक लाश जली भी नहीं थी, बेचारा किसी गरीब घर का था। अधजले शरीर को ही नदी में फेंक
दिया गया। तुम्हारे घर का मुर्दा कहाँ जलाया जाता है राजनारायण?’
‘डॉ. साहब ! हमारे यहां के लोग तो हरिश्चन्द्र घाट पर जलाए जाते हैं। काशीराज के पारिवारिक लोग। सामने मंच बना है, उसी बगल में मालवीय जी की भी चिता लगी थी डॉ. साहब।’
‘क्या तुम लोगों ने मालवीय जी को जलते देखा था?’
‘हां, मैंने काशी विश्वविद्यालय से मालवीय जी के शव को ले चलने वाली टिकटी के बांस से कंधा हटाया ही नहीं। सड़कों पर बहुत भीड़ थी। फूल और माला का बोझ बढ़ता जाता था, उसे उतार-उतारकर हल्का किया जाता था। चंदन की लकड़ी पर मालवीय जी का शव रखा गया था। कनस्तर का कनस्तर घी डाला गया था। लोहबान, धूप और अन्य सुगंधित वस्तुएं डाली गयी थीं। मालवीय जी के शव को जलाने में बहुत देर न
लगी’
‘भारत ऐसे गरीब देश में लाश जलाया जाना भी एक समस्या बन जाता है। गरीब घर के मुर्दे अच्छी तरह से जलते भी नहीं। बेचारों के पास मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं । घी और चंदन की बात कहां!’
‘आज हमारा देश इतना गरीब हो गया है, दोनों में धन और विचार से अकिंचन हैं, न तो समृद्धि बढ़ रही है और न विचारों की सड़ान दूर हो रही है। देश कैसे बनेगा? प्रधानमंत्री पर 30 हजार रुपये रोज खर्च हों, लोग तीन आना-चार आना प्रति व्यक्ति पर गुजर करें। इस स्थिति को फौरन बदलना है। कैसे बदलें? मन-मस्तिष्क की दरिद्रता और धन-दौलत की दरिद्रता जब तक दोनों दूर नहीं होंगे तब तक पिछड़े रहोगे। क्या तुम्हारी
पार्टी यह काम करेगी? करेगी कहते हो। कहाँ हैं तुम्हारे लोग? कितने लोग हैं, जो अपने को मिटाकर दूसरों के हित की रक्षा करें ? क्यों नहीं तुम्हारे लोग इस बात का आंदोलन करते कि गरीबों के मुर्दों को बिजली से जलाये जाने का हर जगह सरकारी स्तर पर प्रबंध हो, जिससे गरीब लोग आसानी से बिना किसी चिंता के पूरी तरह जलाए जा सकें और नदियों का पानी भी स्वच्छ रहे। हाँ, ठीक है, क्या ठीक है? तुम इसका आंदोलन
करोगे। याद रखो, मेरा शव वैज्ञानिक ढंग से बिजली से जलाया जाए। मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद भी मेरे शव से गरीबों को प्रेरणा मिले। और धनी और गरीब के शव को जलाने का वह फर्क मीट जाए कि एक घी और चंदन से जले और दूसरे का शव अधजला ही पानी में बहा दिया जाए। मैं मरकर भी अमीर और गरीब का फर्क मिटाऊं इसलिए चाहूंगा कि तुम लोग साधारण आदमी की तरह मेरी लाश जलाना जिससे गरीबों में
आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना जागे और विज्ञान की नवीन मान्यताओं को अपनाकर पुरानी रूढ़ियों और कुसंस्कारो के बंधन से समाज मुक्त होकर समता और समृद्धि की ओर बढ़े। इस प्रकार बिजली से शव जलाए जाने पर ब्राह्मणवाद और जातिवाद के मिटने की प्रक्रिया शुरू होगी और कर्मकांड के व्यामोह से हिन्दू समाज मुक्त होगा।’
‘तीन बज रहे हैं डॉ. साहब । ठंडक भी बढ़ रही है। अब यहां से चलिए, निवासस्थान पर आराम कीजिए।’ मैंने कहा।
‘ठीक कहते हो।’ कहकर सदरी उठाए, कंधे पर रखे और चल दिए। पीछे हम लोग भी चल दिए।
राजनारायण
रामकिशोर शास्त्री लिखते हैं-30- सोशलिस्ट पार्टी के प्रति मेरा रुझान विद्यार्थी जीवन से ही था। हमारा गांव समाजवादी विचारधारा का केंद्रीय क्षेत्र रहा। सन 1957 में मैंने हाई स्कूल परीक्षा उतीर्ण की । उसी वर्ष उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी ने 10 मई से निमांकित प्रमुख मांगों को लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का भी फैसला किया-
- बिना मुनाफे की खेती से लगान उठा लिया जाय ।
- निःशुल्क अनिवार्य और एक तरह की शिक्षा जूनियर हाई स्कूल तक दिया जाय।
- बेकारों को काम मिले या बेरोजगारी भत्ता।
- न्यूनतम और अधिकतम आमदनी और खर्च में 1:10 का अनुपात हो।
- अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद किया जाय।
जब मैंने सोशलिस्ट पार्टी का माँग-पत्र देखा तो मन में सत्याग्रह कर जेल जाने की प्रबल इच्छा हुई। लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य कि 10 मई को सत्याग्रह न कर सका। सत्याग्रह करने का इरादा कुछ दिन के लिए टल गया। अगस्त के मध्य में जिला सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री की ओर से एक पत्र प्रकाशित किया गया जिसमें कहा गया था कि उन्नाव जिले से सत्याग्रहियों का एक जत्था नौ सिंतबर को लखनऊ रवाना होगा।
नौ सिंतबर को प्रातः काल हम सत्याग्रही साथी लखनऊ के लिए रवाना हुए। हम लोग ‘सोशलिस्ट पार्टी-जिंदाबाद’, ‘डॉ. लोहिया-जिंदाबाद’ आदि नारे लगाते हुए विधानसभा पहुंच गए। हमारे साथ-ही-साथ पुलिस भी चल रही थी। विधानसभा भवन के समक्ष हम लोग गिरफ्तार किए गए और जिला जेल लखनऊ भेज दिए गए।
जेल के फाटक पर पहुंचते ही बड़ी उत्सुकता थी कि जेल देखूं। आखिर जेल के अंदर हम घुसने लगे- मन में कुछ उदासी छा गयी। हमारे अन्य साथी पहले से ही हमारे स्वागत में नारे लगा रहे थे। हम लोग परस्पर गले मिले। सबका परिचय एक-दूसरे से किया गया। दूसरे दिन से ही हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया। प्रातःकाल उठकर पढ़ना-पढ़ाना और सत्याग्रह के बारे में जानकारी प्राप्त करना। पता चला कि हम लोग ‘क्रिमिनल ला
एमेंडमेंट एक्ट 7’ के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए हैं और हमारी पेशी 23 सिंतबर को है।
इसी बीच डॉक्टर लोहिया का बयान निकला- ‘सोशलिस्ट पार्टी ने उत्तर-प्रदेश से सत्याग्रह वापस ले लिया है। यदि सरकार सत्याग्रहियों को एक महीने के अंदर नहीं छोड़ती तो वे व्यक्तिगत सत्याग्रह करके अपने-आप को गिरफ्तार कराएंगे।’ इसका प्रभाव सरकार पर नहीं पड़ा। अन्ततः हम लोगों का मुकदमा 23 तारीख को न हिकर 28 सिंतबर को हुआ और मुझे 4 माह की सजा हुई। अब जेल में मुझे अच्छा लगने लगा। जेल के
अंदर मैंने समाजवादी साहित्य और संस्कृत साहित्य का अध्ययन शुरू किया। वहां पर श्रद्धेय राम सागर मिश्र, अश्वनी कुमार शुक्ल, कृष्णनाथ शर्मा, करुणा शंकर दीक्षित के संपर्क में रहकर मैंने बहुत कुछ सीखा। मेरा अपना अनुभव है कि राजनीतिक बंदी यदि जेल में अपने जीवन में सुधार नहीं ला सकता है तो अन्यत्र रहकर सुधार असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य है। इस तरह जेल में लगभग दो माह बीत गए। इसी बीच डॉ.
लोहिया का एक व्यक्तव्य निकला कि वे दो नवंबर को व्यक्तिगत सत्याग्रह करेंगे।
दो नवंबर को किसी ने सूचना दी, ‘आप लोगों के कोई बड़े नेता जेल में आ रहे हैं।’ देखा, डॉ. लोहिया चले आ रहे हैं। सब लोग चिल्ला उठे- ‘डॉ. लोहिया-जिंदाबाद’, ‘सोशलिस्ट पार्टी-जिंदाबाद।’ डॉ. साहब को सबने प्रणाम किया। मैंने अपने को धन्य समझा। आज मेरे समक्ष वह व्यक्तित्व है जिसने अपने वंश को नष्ट करने वाले ब्रह्मराक्षस को मात दिया है। डॉ. साहब बैठ गए। सबका कुशलक्षेम पूछा और स्नान कर खाने का
आदेश दिया। अपराह्न डॉ. साहब का बिस्तर आदि भी आ गया। दूसरे दिन शीघ्रातिशीघ्र नित्य-कर्म से निवृत हुआ। दिन-भर डॉ. साहब के पास ही रहा। सायं काल सभा का आयोजन हुआ। डॉ. साहब ने बताया -सत्याग्रह कोई खेल नहीं है। यह जालिम के सुधार की औषधि है। सत्याग्रही को सदैव यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उसके कार्यों से जनमानस में कैसा असर पड़ता हैं। पहले दिन का विषय सत्याग्रह तक ही
सीमित रहा। इसी तरह नित्य सायंकाल सभा होती थी। डॉ. लोहिया कुछ न कुछ अवश्य बताते। कभी-कभी व्यक्तिगत बातें भी बता देते थे। 12 तारीख को डॉ. साहब के दांत में भीषण दर्द हुआ। हम लोग बेचैन थे। डॉ. लोहिया कार में बैठकर मेडिकल कॉलेज गए। ईश्वर की कृपा से ठीक हो गए। इसके पूर्व आचार्य कृपलानी डॉ. लोहिया से मिलने आए। किन्तु अधिकारियों के हठ के कारण मुलाकात न हो सकी। कारण यह था कि
डॉ. साहब की मुलाकात उनके बैरक में ही होती थी। किन्तु उस समय ऐसा नहीं किया गया। आचार्य कृपलानी को अनुमति नहीं मिली कि वे डॉ. साहब से उनके कमरे में मिल सकें। 16 दिसंबर को जेल के भीतर ही हम लोगों ने ‘लोहिया दिवस’ मनाया। 17 नवंबर को श्री रामनारायण त्रिपाठी भी उनसे मिलने आये। किन्तु उस समय उनके कार्य पार्टी-हित में न होने के कारण डॉ. साहब ने बात नहीं की। त्रिपाठी जी पार्टी के आदेश न
होने पर भी अमरीका चले गए थे।
रामकिशोर_शास्त्री
रामकिशोर शास्त्री लिखते हैं-31- जेल में अभी तक हम सच्चे समाजवादी न बन पाये थे। छुआछूत की बीमारी से मुक्त न थे। हम लोगों ने अछूत कहे जाने वालों के द्वारा परोसा भोजन करने से इनकार कर दिया और अनसन पर बैठे। दो-तीन दिन बाद डॉ. लोहिया को पता लगा तो उन्होंने हमें बुलाया। लोहिया जी ने कुर्सी पर बैठने को कहा। बैठ गया। इसके बाद पूछा- तुम इतने
उदास क्यों रहते हो? मैंने खाना न खाने का कारण बताया। बोले- तुम इस पाखंड में क्यों पड़े हो? किस दर्जे में पढ़ते हो ? मैंने उतर दिया- कक्षा 11 में पढ़ता हूँ। उन्होंने कहा -घबराओ नहीं। पढ़ने-लिखने में मन लगाया करो। वार्तालाप के मध्य मैंने कहा-डॉक्टर साहब, मुझे आप अपने पास ही रख लीजिए। उन्होंने कहा -अभी और ज्ञान प्राप्त करो। बी. ए. पास होने पर हम तुम्हें अपने पास बुला लेंगे। आगे उन्होंने कहा कि जेल में
सभी को हिल-मिलकर रहना चाहिए। कुछ बाहरी किताबें पढ़ना चाहिए। इसके अतिरिक्त उन्होंने मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त की। उन्होंने पुनः कहा-शाबाश बेटे! तुम डरो नहीं, तुम सरकार से लड़ने आए हो। सदैव योग्य बनने की कोशिश करनी चाहिए। जब तुम इन अछूतों का छुआ खाना नहीं खाओगे तो ये लोग तुम्हारे हाथ का कब खाएंगे? मेरे भ्रम का परदा दूर हो गया। उसी समय छुआछूत न मानने
का संकल्प किया। लगभग आधा घंटा तक वार्तालाप चलता रहा। यह मेरा प्रथम निकटतम साक्षात्कार था।
इसके बाद लोहिया के प्रति मेरे विचारों में प्रौढ़ता का प्रादुर्भाव हुआ। सत्याग्रह की सार्थकता का मनन किया क्योंकि डॉ. लोहिया सदैव यही कहा करते थे कि सभी लोग भली-भांति यह जान लें कि वे जेल क्यों आये हैं और जेल से छूटने पर उनका कर्तव्य क्या होगा।
आखिरकार वह दिन भी देखने को मिला जिस दिन (30-11-1957) हम लोगों के ऊपर पशुवत लाठीचार्ज किया गया। लोहिया जी ने हाइकोर्ट में अपील की थी कि उन्हें उत्तरप्रदेश की निचली अदालतों में विश्वास नहीं है। किन्तु उसी दिन यह पता चला कि आज लोहिया जी का मुकदमा है। हम लोग करीब 15 आदमी उस समय लोहिया जी के समीप थे। तभी जेलर, डिप्टी जेलर सहित बहुत-से जमादार कैदी आए और डॉ. लोहिया के
मुकदमों की सूचना दी। लोहिया जी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष जाने में असमर्थता प्रकट की। कुछ देर बाद लगभग 300 सिपाहियों ने एकदम से हम लोगों पर धावा बोल दिया। सिपाही बड़ी निर्दयता से हमें मार रहे थे, उधर लोहिया जी हमें शांत रहने को कह रहे थे। हमें मारकर और पकड़ कर बलात बैरकों में ठूंस दिया गया। उधर लोहिया जी को कुर्सी पर बैठाकर मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश किया गया। लोहिया जी कुछ नहीं बोले,
उनका अंगूठा सादे कागज पर जबरदस्ती लगवाया गया। उधर हम लोग रात-भर ठंड के मारे सिकुड़ते रहे। खाना भी उस दिन नहीं दिया गया। श्री कृष्णनाथ शर्मा को नग्नावस्था पीटा गया और तत्क्षण उनको रायबरेली जेल भेज दिया गया। डॉ. लोहिया को भी चोट आयी। उन्हें अस्पताल के वार्ड में रख दिया गया।
इसके बाद हमारी बैरक सुनी-सी रहने लगी। हमारे साथी अपनी सजा पूरी करके एक-एक कर छूटने लगे। हम लोग भी 17-12-1957 को जेल से रिहा हुए। रात-भर पान दरीबा कार्यालय में रहा। सुबह की गाड़ी से घर पहुंचा।
सत्याग्रह में लगभग पांच हजार हमारे वीर साथियों ने विभिन्न जेलों में यातनाएं सहीं । सत्याग्रह में दो माह से लेकर उन्नीस माह तक की सजाएं हुईं। सत्याग्रह की तेजी और उसके समर्थन में शक्तिशाली जनमत के सामने सरकार को झुककर कुछ मांगें स्वीकार करनी पड़ीं-
- अंग्रेजों की मूर्तियां सार्वजनिक स्थानों से हटाई गई।
- 100 रु. मासिक से कम पाने वाले सरकारी कर्मचारी की पांच रुपये मासिक तरक्की हुई।
- कक्षा 6 तक निःशुल्क शिक्षा हो गई।
- वृद्धावस्था की पेंशन स्वीकार की गई।
#
रामकिशोर_शास्त्री
v
लोहिया एक व्यक्ति नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निचोड़ बन गए थे
तारकेश्वरी सिन्हा लिखती हैं-2 – डॉ. लोहिया को संसद में जब किसी विषय पर भाषण देना होता तो उस विषय की गहराई में जाने के लिए महीनों समय लगाते थे । और इसलिए जब किसी बात को उठाते थे तो उस विषय के आंकड़े उनकी उँगलियों पर थिरकते रहते । वैसे उनके घर जाने का मौका मुझे कम मिला, पर जब भी गयी तो देखा एक मजमा लगा रहता । उसमें कुछ शिक्षक, कुछ मजदूर, कुछ किसान और कुछ
कार्यकर्ता होते थे । डॉ. लोहिया का यही परिवार था, जिसके वे अभिभावक नहीं, सहयोगी थे । उनके बारे में यह कहा जा सकता था –
दलित आ जा, थकित आ जा
व्यथित आ जा, तृषित आ जा ।
मिल न पाया प्यार जिन को
आज उनको प्यार मेरा ।
किसी भी विषय पर चर्चा करना हो तो जिस तरह वकील किसी को ‘क्रॉस एक्जामिन’ करता है उसी तरह से वे पूछताछ करते थे । मुझे भी जब कभी किसी विषय पर बातचीत करने का मौका मिला तो वे इतनी ज्यादा छानबीन करते कि कभी-कभी अंदर से गुस्सा आ जाता था । ऐसा लगता था जैसे किसी बात के पीछे ही पड़ गए हैं । पर दूसरे ही क्षण यह महसूस होने लगता कि यह भी डॉ. साहब की एक खूबी थी । वे किसी भी
विषय को समुद्र मानकर उसकी गहराई में जाने का प्रयत्न करते । इसके अलावा हर व्यक्ति उनके लिए महान था । इसलिए डॉ. लोहिया एक व्यक्ति नहीं बल्कि अपने-आप में सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निचोड़ बन गए थे । खानाबदोशी की ज़िंदगी थी और कार्यकर्ताओं के अलावा न उनके पास कोई पूंजी थी, न बैंक-बैलेन्स । रामसेवक यादव जी ने एक बार मुझसे कहा था कि डॉ. लोहिया को हम प्यार इसलिए करते हैं कि
अपने या पराए का भेद उनके जीवन में नहीं ।
तारकेश्वरी सिन्हा लिखती हैं-3- एक बार केंद्रीय कक्ष में डॉ. लोहिया बैठे हुए थे । आमतौर पर जहां वे बैठे होते वहाँ अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती । संसद के सदस्य और अखबारवाले उन्हें घेर लेते । देखा कि डॉ. साहब एक बड़ी भीड़ में घिरे बैठे हैं और हंसी-मज़ाक का फव्वारा छुट रहा है । संसद में वे जीतने कठोर रहते, संसद के केंद्रीय कक्ष में उतने ही नम्र और स्नेह से भरपूर । संसद में कटु आलोचना करने के बाद बाहर
निकलने पर अगर डॉ. साहब की नजर हम लोगों पर पड़ जाती थी तो तुरंत बुलाकर बैठा लेते थे, जबरदस्ती समोसा और आइसक्रीम खिलाते थे और बिना कॉफी पिलाए वहाँ से हटने नहीं देते थे । शनिवार का दिन था, इसलिए संसद का अधिवेशन तो नहीं था, पर केंद्रीय कक्ष खुला हुआ था । मैं अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर उनको आइसक्रीम खिलाने के लिए केंद्रीय कक्ष में आयी । डॉ. साहब ने देखते ही बुलाया । जब वहाँ
पहुंची तो किसी विषय पर चर्चा हो रही थी । मैंने बातचीत के सिलसिले में एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी मजमे में जब कुछ पुरुष हतोत्साह दिखाई देने लगे तो मैंने उन लोगों से कहा कि आप पुरुष होते हुए भी महिलाओ से भी बदतर हो गए हैं । अच्छा यह होगा कि आप चूड़ी पहनकर बैठ जाएँ । डॉ. साहब बहुत गुस्सा हो गए और उन्होंने मेरी लड़की से कहा, ‘देखती हो- तुम्हारी माँ तुम्हारे खिलाफ कितनी बड़ी
बात कह रही है । चूड़ी क्या कमजोरी का प्रतीक है ? एक महिला के मुंह से इस बात का निकलना कि तुम जन्मजात कमजोर हो, कतई उचित नहीं ।’ और फिर एक बार मेरी लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम्हारी माँ को तुम्हें कमजोर बनाने का कोई हक नहीं । मेरी लड़की एकटक उनका मुंह देख रही थी । सारे सदस्य हंस रहे थे और मैं भीतर ही भीतर इस क्रांतिकारी इंसान को तोलने की कोशिश कर रही थी ।
रमा मित्र लिखती हैं-4- 1946 की फरवरी का महीना था । तब बंगाल के ‘जनता’ कार्यालय का जिम्मा मुझ पर था । हमारा कलकत्ता में, चौरंगी में एक कमरा था, जो अरुणा (आसफ अली) और लोहिया तथा दूसरे साथियों के एक मित्र का था जो दाँत के डॉक्टर थे और विदेश गए हुए थे । वही कमरा हमें दिया गया था । जिसके हिस्से कर लिए गए थे, आधा कमरा ‘जनता’ के लिए और दूसरा आधा हिस्सा एक क्रांतिकारी, पत्रकार
और लोहिया के अभिन्न मित्र अश्विनी कुमार गुप्ता के पास था । दूसरे और लोगों के साथ लोहिया हाल ही में जेल से छूटे थे और छुटकर सीधे कलकत्ता आए थे और अश्विनी के कब्जे वाले आधे कमरे में उन्हें रहने की जगह दी गयी थी । अतः यह नितांत स्वाभाविक था कि मेरी उनसे भेंट होती । और उनसे मिलने पर जो पहला प्रभाव पड़ा और सदा जो छवि मन पर अंकित रही- एक प्रभावी व्यक्तित्व, खुशमिजाज और उपस्थित
स्त्रियों की प्रशंसा करने वाला (मेरी प्रशंसा भी) । वह सदा की भांति धब्बा-रहित हाथ की बुनी सफेद धोती और कुर्ता पहने थे और हाथ के बुने गर्म कपड़े की जैकेट (सदरी) जो बड़ी लापरवाही से कंधे पर पड़ी थी । यही वह महान विप्लवी था जिसने ब्रिटिश साम्राज्यी शेर की हड्डियों में कंपकंपी भर दी थी – आराम से बैठा, बेपरवाही से सिगरेट फूंकता और कमरे के नीचे सड़क-पटरी की चाय दुकान से चाय मंगाकर पी रहा था । उससे
मित्रता व घनिष्ठता बढ़ाना कितना सरल-सहज था, जैसे किसी आत्मीय से मिलना । तब क्या मुझे निराशा हुई थी कि आतंकपूर्ण चर्चाओ का नायक लोहिया इतना साधारण व्यक्ति है ? मुझे याद नहीं, लेकिन जो याद है कि मैं बहुत खुश थी, बहुत सहज और बहुत असतर्क । मैं हद से अधिक सहज व असतर्क थी । मैं बड़े आदमियों के सामने सदा बहुत असहज और सतर्क रहती रही हूँ । लेकिन उनके साथ जो सहज और असतर्क
परिचय हुआ वह घनिष्ठ परिचय और संबंध इक्कीस वर्षों तक एक जैसा रहा, जबकि उन्हें मौत ने छीन लिया ।
कुछ दिनों बाद वे कलकत्ता से चले गए । जाते समय कुछ रुपये एक कागज में सहेजकर, जिस कागज में मेरे लिए कुछ लिख रखा था, देते गए । मेरे लिए यह उनका पहला लिखित संदेश या पत्र था जिसे बाद में लपरवाही से खो दिया । इस पुरज़े में उन्होंने रुपयों के संबंध में लिखा था – मेरे दफ्तर से उन्होंने जो टेलीफ़ोन किया था उसके बारे में । यह समझना आसान बात थी कि वे यह बात भूल जाते, जैसे लापरवाह और
मस्तमौला स्वभाव के वे थे । लेकिन रुपये-पैसे के मामले में वे सदा ही बड़े सतर्क थे, विशेषकर यदि सार्वजनिक कोष के रुपये हों । बाद में मैंने सीखा कि एक-एक पैसे का हिसाब रखना चाहिए, और वह मुझे सदा इसके लिए सतर्क करते रहते थे ।
रमा मित्र लिखती हैं-5- गर्मी के दिनों में मैंने बहुत हिचकिचाते हुए डॉ. लोहिया से कहा मैं एक रूम कूलर आपके लिए लेना चाहती हूँ । ‘माफ करो, मेरे कमरे के लिए नहीं । ये सुख-सुविधाएं मेरे लिए नहीं हैं हालांकि इससे मुझे काम करने में ज्यादा मदद मिलेगी । नहीं, कतई नहीं ।’
इससे काफी पहले जब वह पहली बार संसद के सदस्य चुने गए तो उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें मोटर खरीद देने की बात कही । मोटर का ऑर्डर भी दे दिया गया । मैं मोटर देखकर आई और उन्हें बताया । उस बार वह नाराज नहीं हुए थे । उन्होंने मुझे बैठाया और मोटर के खर्च का अंदाजा लगाने लगे और फिर विजयोल्लास में कहा, ‘टॅक्सी सस्ती रहेगी ।’ उन्होंने इस संभावना की भी गवेषणा की कि ऐसे 6-7 दोस्त हो सकते हैं जो
उन्हें एक महीने में चार बार मोटर देंगे, इस तरह 28 दिन मोटरवाले हो जाएँगे । पर वे एक दोस्त ही जुटा पाए और उसकी मोटर भी नियमित नहीं आ पायी । पैसों की बरबादी के बारे वे बहुत ज्यादा आगाह रहते थे । जनता के बीच जो कहते उसी को हमेशा सबसे पहले अपने ऊपर लागू करते ।
डॉ. धर्मवीर भारती लिखते हैं-6-लोहिया जी से मेरी मुलाकात का किस्सा कम दिलचस्प नहीं है | जितेन्द्र सिंह ने उनसे मिलने का दिन और समय निश्चित किया था | शनिवार को सुबह 8 बजे | जहां वे थे, वह जगह 18-19 किलोमीटर दूर थी, यानी कम-से-कम एक घंटा तो लग ही जायेगा | तडके सुबह हम चार-पांच लेखक मित्र उठे, तैयार हुए, साइकिलों की जांच-पड़ताल की, हवा भरवायी | एक अदद इक्का, एक अदद रिक्शा और
दो अदद साइकिलों पर हिंदी का उस समय का तरुण साहित्यकार लदकर लोहिया से मिलने चल पड़ा |
मिलने की जगह भी अनोखी थी | वे उस समय नेहरु सरकार के मेहमान हो कर नैनी जेल में डेरा डाले हुए थे | उनके कुछ वक्तव्यों और भाषणों के कारण उन पर मुकादमा चलाया गया था | स्वतंत्र भारत की वह विलक्षण घटना थी जब गांधी जी और अहिंसा का नाम लेने वाली सरकार एक चोटी के देशभक्त को जेल में डालने पर अमादा थी | जहां तक मुझे याद है उस मुकदमे में लोहिया जी ने कोई वकील नहीं किया था, खुद बहस
की थी और उनकी वह बहस हम तमाम युवकों में एक नयी उमंग जगा गयी थी, एक नयी दृष्टि दे गयी थी |
वैसे हम सब, नए साहित्यिक जागरण का झंडा उठाये काफी टेढ़े किस्म के बुद्धिजीवी थे | आसानी से किसी से प्रभावित होना हमें मंजूर नहीं था, आपस में भी झगड़ते रहते थे | हममें से कुछ नेहरु के प्रशंसक थे, कुछ जयप्रकाश के, कुछ विनोबा के, कुछ सुभाष बोस के, लेकिन अकस्मात हम सबका मन लोहिया ने जीत लिया था | न हमने उन्हें तब देखा था, न उनकी सभाओं में गये थे, पर अब हम उनसे मिलने को उत्सुक थे |
डॉधर्मवीरभारती
रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-7-जब डॉ. राममनोहर लोहिया संसद में आये, मैं सेन्ट्रल हॉल की ओर फिर से जाने लगा, क्योंकि लोहिया साहेब के साथ बातें करने में मुझे ताजगी महसूस होती थी और मजा आता था | वे अक्सर मुझसे पूछते थे, यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांतिकारी हो मगर संसद में कांग्रेसी सदस्य ? इसका जो जवाब मैं दिया करता था उसका निचोड़ मेरी ‘दिनचर्या’ नामक कविता में दर्ज है –
तब भी माँ की कृपा, मित्र अब भी अनेक छाये हैं,
बड़ी बात तो यह कि लोहिया संसद में आये हैं |
मुझे पूछते हैं, दिनकर कविता में जो लिखते हो,
वह है सत्य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो ?
मैं कहता हूँ कि मित्र, सत्य का मैं भी अन्वेषी हूँ,
सोशलिस्ट ही हूँ, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूँ
बिल्कुल गलत कम्यून, सही स्वाधीन व्यक्ति का घर है,
उपयोगी विज्ञान, मगर मालिक सबका ईश्वर है |
इस कविता में एक जगह गरीबी की थोड़ी-सी प्रशंसा-सी है –
बेलगाम यदि रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा.
मात्र गरीबी-छाप सभ्यता से संसार बचेगा |
यह बात तो लोहिया जी को बिल्कुल पसंद नहीं थी | वे निश्छल आदर्शवादी थे और गरीबी के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं थे | ईश्वर का खंडन तो उन्होंने मेरे समक्ष कभी नहीं किया, मगर भाग्यवाद या नियतिवाद के प्रबल विरोधी थे |
संसद में आते ही विरोधी नेता के रूप में लोहिया साहब ने जो अप्रतिम निर्भीकता दिखायी थी, उसकी बड़ाई बानगी तौर पर कांग्रेसी सदस्य भी करते थे और उस निर्भीकता के कारण लोहिया साहेब पर मेरी बड़ी गहरी भक्ति थी | सन 1962 ई. में चीनी आक्रमण से पूर्व मैंने ‘एनार्की’ नामक जो व्यंग काव्य लिखा था, उसमें ये पंक्तियाँ आती हैं-
तब का लोहिया महान है,
एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है |
रामधारीसिंहदिनकर
———-
लोहिया
निर्मलकुमार बोस लिखते हैं-8- अगस्त, 1947 के अंत में दंगे भड़क उठे । इस बार हिन्दू नवयुवकों ने बमबारी और आगजनी से मुसलमानों को हिन्दू मोहल्लों से एकदम खदेड़ देने की ठानी । गांधी जी बहुत चिंतित और दुःखी थे । सितम्बर के पहले सप्ताह में कलकता की शांति और सद्बुद्धि के लिए उन्होंने अनशन शुरू कर दिया । सौभाग्यवश हिन्दू, मुसलमान, सिख नेताओं द्वारा अपने लोगों के बीच प्रयत्न किए जाने से
दंगे रूक गए और गांधी जी ने बहतर घंटे के बाद अपना अनशन तोड़ दिया ।
इसी वक्त डॉ. राममनोहर लोहिया ने जो किया उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को हमेशा उनका कृतज्ञ होना चाहिए । वे शहर के कई हिस्सों में स्टेनगन और हथगोला से लैस युवकों से मिलने गए । उनसे लगातार बहस की और उन्हें बहस से राजी किया कि वे अपने सारे शास्त्रों का गांधी के आगे समर्पण करें । उन्होंने युवकों को कहा कि स्वतंत्र भारत में दंगे कभी नहीं होने चाहिए, क्योंकि हिन्दू और मुसलमानों को भारत के समान
नागरिकों की तरह एक नयी जिंदगी बनानी है । दरअसल राममनोहर लोहिया गांधी जी के संदेश को उनस्थानों में भी ले गए, जहां वह पहले कभी पहुंचा न था और न असरदार हुआ था ।
और चमत्कार हुआ । बहुत-से हिन्दू नवयुवक आए और उन्होंने गांधी जी के चरणों पर अपने शस्त्र रख दिये । एक नवयुवक ने तो गांधी जी को कहा कि आखिरकार मैं हार गया । कल तक मुझे ‘हीरो’ माना जा रहा था पर आपके अनशन के कारण मुझे प्रत्येक आदमी ‘गुंडा’ मान रहा है ।
कलकता के युवकों पर गांधी जी के अनशन की इस नैतिक विजय का बहुत कुछ श्रेय राममनोहर लोहिया और शचीन मित्र और स्मृतीश बेनर्जी जैसे लोगों था । शचीन मित्र और स्मृतीश बेनर्जी ने तो शांति की इस यात्रा में अपने प्राणों की बलि ही दे दी ।
#निर्मलकुमार_बोस
लोहिया को हम मानवता के अधिकार के सत्य और प्रतीक के रूप में याद करते हैं
कुमारी रूथ स्तेफेन (अमरीका) लिखती हैं-9- बहादुर, दबंग, विद्वान… लोहिया को हम मानवता के अधिकार के सत्य और प्रतीक के रूप में याद करते हैं । …. उनकी अमरीका यात्रा में मिसिसिपी, जैक्सन में हम दोनों पुलिस लारी में थे । भूरे रंग के भारतीय लोहिया अपने देश के कपड़े पहने और मैं विशुद्ध अमरीकी लिबास में । गोरे लोगों के लिए बने होटल में एक साथ खाना खाने के प्रयास में गिरफ्तार हुए थे । होटल के
मैनेजर ने हमें दरवाजे पर रोका था जब हमने वापस जाने से इन्कार किया तो हमें पुलिस ने गिरफ्तार किया था । मैं नहीं जानती थी कि आगे क्या होगा । हम दोनों पुलिस की बंद गाड़ी में अकेले थे । एक-दूसरे के साथ बैठे थे । लोहिया ने कहा ‘हमने सिद्ध कर दिया कि हम मनुष्य होने के अधिकारी हैं ।’
जेल जाने के पहले शायद लोहिया कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कारण हम छोड़ दिये गए । गिरफ्तारी की बात सुनते ही वाशिंगटन के ‘स्टेट डिपार्टमेंट के अंडर सेक्रेटरी’ ने और भारतीय दूतावास के प्रमुख अधिकारी ने फोन करके उनसे माफी मांगी । … आज लोहिया के ये शब्द मुझे बार-बार याद आते हैं- हमने सिद्ध कर दिया कि हम मनुष्य होने के अधिकारी हैं ।
कुमारीरूथस्तेफेन
एक ‘मनुष्य’ से मिलना कितना अच्छा होता है
हैरिस बोफोर्ड (‘जूनियर’- अमरीका) लिखते हैं-11- राममनोहर लोहिया से जब भी भेंट होती थी तो वे एक सवाल मुझसे बराबर पुछते थे – ‘तुम जेल कब जाओगे ?’
यही सवाल उन्होने अमरीका आने पर 1951 में सभी अमरीकी युवकों से पूछा था, विशेषकर नीग्रो युवकों से । इसी यात्रा में उन्होने अपने लगभग सभी भाषणों में सिविल नाफरमानी की व्यापक व्याख्या करके अमरीकी युवकों की इस ओर प्रेरित किया था । बाद में तो मार्टिन लूथर किंग ने इसे सिद्धान्त रूप में स्वीकार किया ही था । …..
….. यही 1951 में लोहिया ने कहा था – ‘मैं चाहता हूँ कि सारी दुनिया में राजनीतिकों की एक ऐसी बिरादरी बने जो सत्ता के बिना ही अपना काम करना सीखे ।’….
1951 में लोहिया आइन्स्टीन से मिलने फ्रिस्टन गए थे । तब आइन्स्टीन और लोहिया- दोनों एक-दूसरे से बातें करते समय जिस प्रकार मुक्त हंसी हँसे थे- लगा था कि दोनों ने ही कुछ क्षणों के लिए दुनिया के अस्तित्व को भुला दिया था ।
लोहिया ने कहा था – ‘डॉ. आइन्स्टीन ! क्या मैं एक प्रश्न करूँ आपसे ? राजनीति के बारे में नहीं । मैं यहाँ आपसे कुछ सीखने आया हूँ । राजनीति में तो मैं समझता हूँ कि मैं ही बहुत कुछ आपको बता सकूँगा । लेकिन मानव-मस्तिष्क के उच्च स्तर पर हमें आपकी सहायता चाहिए । बर्लिन में मैंने कहा था कि हमारे युग ने केवल दो विचार दिए हैं- महात्मा गांधी और अणु-शक्ति । एक तो चला गया और आपका आविष्कार मौत
का साधन बन गया । मानव-मस्तिष्क इस जकड़न से कैसे छूटे ?…
जब दोनों अलग होने लगे तो आइन्स्टीन ने लोहिया को बाहों में भरकर कहा था-‘एक ‘मनुष्य’ से मिलना कितना अच्छा होता है – नहीं तो कितना अकेलापन रहता है ।’
एक जगह लोहिया ने लिखा है -‘ईश्वर और औरत, जीवन के ये दो ही ध्येय होते हैं । मैंने ईश्वर को नहीं देखा, और औरत मुझे मिली नहीं, लेकिन एक मनुष्य मिला था, जिसकी स्मृति से रास्ता चमक पड़ता है ।’
लोहिया ने यह गांधी के लिए कहा था । यही शब्द मैं लोहिया के लिए दोहराता हूँ ।
हैरिस_बोफोर्ड
संजीव रेड्डी लिखते हैं –12- डॉ. लोहिया के लिए राजनीति पेशा नहीं था वरन एक ऐसे प्रायश्चित सरीखी थी जिसे बहुत तकलीफ झेलकर पूरा करना पड़ता है । अपने को शायद उन्होने इस बारे में एक छुट दी थी कि अपने अनुयायियों का हाल बेहाल न हो, इस बारे में अपनी व्यक्तिगत चिंता और ध्यान की वजह से वह अपने प्रत्येक अनुयायी से वफादारी और निष्ठा प्राप्त कर सके । अपने चरित्र के इसी गुण की वजह से वह
अपने दल के भीतर विभिन्न मतों के लोगों को एक छत के नीचे भी ला सके ।
हमारे देश के इतिहास के बारे में डॉ. लोहिया की व्याख्या आम व्याख्याओं से भिन्न थी । उनकी यह मान्यता थी कि हमारा देश शासकों की फूट के कारण विदेशी आक्रमण का शिकार नहीं हुआ, वरन उसके शिकार होने का कारण बहुतांश जानता का उदासीन होना था । जनता के रवैये में इसी तरह की उदासीनता का बना रहना उन्हें खतरा जान पड़ता था । उनको यह महसूस हुआ कि काँग्रेस का आंदोलन भी-जो शायद हाल के
इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन था – सिर्फ समाज के विशिष्ट वर्ग को ही अपनी ओर खींच सका । जब तक राजनीति जनता में सक्रियता लाने में सक्षम नहीं होती तब तक देश का भविष्य नहीं बन सकता । यह उदासीनता स्थायी बन गई है और जनता की आदत बन गई है । इसकी जड़े गहरी और व मजबूत है सो इसको दूर करने के लिए अपरम्परागत और नए तरीकों की जरूरत है । डॉ. लोहिया ने जिन नीतियों को चलाया वे
इस बुनियादी तथ्य से उत्पन्न हुई थीं ।
यदि हम लोहिया की नीतियों और तरीकों के इस बुनियादी आधार को याद रखें तो हम इस बात को अच्छी तरह देख पाएंगे कि वह क्यों आंदोलनात्मक राजनीति चाहते थे । आंदोलन से भारतीय राजनीति के सड़े व मृत ढांचे में प्राण फूंके जा सकेंगे । उन्हें आशा थी कि आंदोलन के साथ रचनात्मक कार्यक्रमों का बारी-बारी से मेल बैठाकर जनता को परंपरागत उदासीनता का शिकार होते रहने से रोका जा सकेगा ।
डॉ. लोहिया समाजवाद और समानता की वकालत करते हुए वर्गहीन समाज की मांग कर रहे थे । भारत में वर्गहीन समाज का मतलब- दो बातें होंगी- एक तरफ वर्गभेद को बढ़ने से रोका जाये और दूसरे अतीत के वर्गभेद से, जो जाती के रूप में है, निपटा जाय । वर्णभेद और जात-प्रथा की समस्या से निपटने के लिए वह केवल समान अवसर के अधिकार की बात से संतुष्ट नहीं थे, उन्होंने पिछड़े लोगों को विशेष अवसर दिये जाने
की वकालत की ।
डॉ. लोहिया की नीतियों से सहमति या असहमति हो सकती है पर उनकी निष्ठा, सच्चाई और लगन के प्रति सबके मन में आदर व सम्मान था । हर एक व्यक्ति यह महसूस किए बिना नहीं रहता था कि उनका दिमाग अत्यंत सक्रिय व तेज है और उनका व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक और गतिमान है । वह जो महसूस करते थे वही बोलते थे । उन्हें लाग-लपेट नहीं सुहाती थी और इस मामले में वे किसी को भी नहीं बख्शते थे – उनके
अनुयायी हों, मित्र हों या विरोधी । वह अपने सिद्धान्त पर अडिग थे और सिद्धान्त को लेकर कोई समझौता करने की बात उनके मन में कभी आई ही नहीं ।
संजीव_रेड्डी
सुचेता कृपलानी लिखती हैं –13- 1942 के भूमिगत आंदोलन के समय डॉ. लोहिया ने मेरे साथ बड़े सहयोग से काम किया । वे उस छोटे-से कार्यकर्ताओं के दल में थे जो भूमिगत अ॰ भा॰ काँग्रेस कार्यालय चलाते थे । तनाव व उलझन तथा चुनौतियों के उन दिनों में उनके जोशीले, हंसमुख और खतरे से खेलने वाले स्वभाव ने हमारी बहुत मदद की । उनके लिए खतरे और झमेले स्वाभाविक थे और वे हर समय अधिक खतरों को
न्योता देते रहते थे । और चीजों के अलावा उनके ऊपर भूमिगत रेडियो स्टेशन चलाने की भी ज़िम्मेदारी थी । मुझे उन दिनों की याद है जब मुंबई की पुलिस को उनके गुप्त रेडियो स्टेशन का पता लग गया और वे लोग रेडियो स्टेशन की खोज और उस पर बोलने वालों को गिरफ्तार करने के प्रयास में व्यस्त हो उठे । तब हम रेडियो स्टेशन को एक स्थान से दूसरे स्थान-अपने दोस्तों के घर- हटाते फिरते । एक समय ऐसा भी
आया जब लगा की पुलिस का शिकंजा कस गया है और तब हम लोगों ने रेडियो स्टेशन बंद करने की सोची । एक बहुत छोटी उम्र की लड़की उषा मेहता रेडियो पर प्रसारण करती थी । मैं उसके लिए बहुत चिंतित रहा करती थी क्योंकि मुझे भय था कि यदि वह रेडियो पर प्रसारण करती हुई पकड़ी गई तो बहुत कड़ी सजा पाएगी । इसलिए मेरा सुझाव था कि हम लोग रेडियो स्टेशन का काम बंद कर दें । लेकिन लोहिया इस पर
एकदम से क्रुद्ध हो उठे । बोले, ‘किसी भी परिस्थिति में हम रेडियो स्टेशन बंद नहीं करेंगे । अगर उषा गिरफ्तार होती ही है तो अच्छा है कि वह प्रसारण करते हुए ही गिरफ्तार हो, क्योंकि हमारी यह ब्रिटिश के खिलाफ पूरी तरह अंतिम लड़ाई है और हम किसी स्थिति में और किसी तरह भी अपने कदम वापस नहीं ले सकते ।’ उस समय मैंने इस नौजवान के दिल में छिपे फौलाद को देखा । उषा सचमुच प्रसारण करते समय ही
बड़ी नाटकीय स्थिति में पकड़ी गई और इसके लिए उसे खूब भुगतना पड़ा ।
लोहिया और हम सब भारत-भर में सब जगह भागते फिरते थे और लोगों में ब्रिटिश से लोहा लेने की हिम्मत जगाते थे । हम जानते थे कि यह हमारी आखिरी लड़ाई है । हमारे सामने एक ही लक्ष्य था – करो या करो । लोहिया की हिम्मत, योग्यता, खुशदिली हमारे लिए शक्ति थी । इसी समय हमें उनमें नेतृत्व की खूबियाँ दिखीं जिन्होंने उन्हें बाद में भारत का महान नेता बनाया ।
सुचेता_कृपलानी
कमलादेवी चट्टोपाध्याय लिखती हैं –14- लोहिया की बुद्धि बहुत प्रखर थी, उनका चिंतन विवेकपूर्ण और गहरा था । साथ ही साथ, उनके पास समाज में आमूल क्रांति की एक व्यापक और सम्पूर्ण दृष्टि थी । सत्य के मामले में उनके बड़े मौलिक विचार थे । वे कहते, सत्य या तो सम्पूर्ण होता है, या बिल्कुल नहीं । उसके टुकड़े नहीं हो सकते । जिस प्रकार किसी पूर्व-निश्चित मत के लिए तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता,
उसी प्रकार एक मत में सब तथ्यों का प्रवेश कर उसे विकृत नहीं किया जा सकता । जीवन के हर वस्तु के संबंध में उनका यही दृष्टिकोण रहता था, क्योंकि जीवन प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक सम्पूर्ण तथ्य होता है ।
लोहिया के सामने एक ही प्रश्न था । अन्याय और असमानता को कैसे खत्म किया जाए ? जीवन में उन्हें जल्दी ही अनुभव हो गया था की समाज में सबसे अधिक अन्यायों की जड़ में नारी पर लगे प्रतिबंध हैं । पुरुष भी तब तक स्वतंत्र नहीं होगा जब तक नारी पूर्णतया स्वतंत्र नहीं होती । नारी-स्वतन्त्रता की बात उनके लिए महज नारा नहीं था । उसे वे व्यावहारिकता के स्तर तक ले आए थे । अपने समय की कई प्रखर
बुद्धिवाली स्त्रियों से उनके मैत्री-संबंध हुए, परंतु प्रचलित विवाह-पद्धति में स्त्री को नीचा स्तर दिये जाने के कारण उन्होंने विवाह किसी से नहीं किया । वे कहते थे कि ‘आजाद हिंदुस्तान में हर आदमी अपने हक से राजा होगा । स्त्रियाँ भी अपने हक से राजा होंगी, किसी की पत्नी होने के नाते नहीं ।’
जीवन-भर विरोध करते-करते वे बड़ी जीवंत, खुरदरी, शहरी बनावट से दूर गाँव की धूलभरी भाषा का प्रयोग करने लगे थे । लोकसभा में नेहरू जी से झड़पों के समय कोई कह नहीं सकता था कि वे संस्कृत-साहित्य में निष्णात हैं और कालिदास की व्याख्या कर सकते हैं । चीन के आक्रमण के बाद उन्होंने यह सिद्ध करने के लिए कि ‘हिमालय हमारा है’, संस्कृत-साहित्य से बड़े सशक्त प्रमाण प्रस्तुत किए थे और कैलाश-
मानसरोवर की भूमि तक अपना कब्जा करने की बात कही थी । चीन के इरादों को वे 1959 में ही भाँप गए थे जब उसने तिब्बत को समेट लिया था । लोहिया ने उस कृत्य को शिशु-हत्या कहा था । उस समय उन्होंने लखनऊ में एक ‘हिमालय नीति सम्मेलन’ बुलाया था और हिमालय-क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिए हिमालय-नीति बनाने पर जोर दिया था ।
कमलादेवी_चट्टोपाध्याय
मैं यही मानूँगा कि तुम्हारा दिमाग भ्रष्ट है
तारकेश्वरी सिन्हा लिखती हैं : एक दिन मैं लोकसभा के दरवाजे के पास अपनी गाड़ी का इंतजार कर रही थी कि देखा कि डॉ. लोहिया आकर खड़े हो गए । मैंने पूछा कि डॉ. साहब, कहाँ जाना है ? मैं वहाँ पहुंचा दूँ ?उन्होंने कहा कि कॉफी हाउस जाना है, वहीं पहुंचा दो । वे गाड़ी में बैठ गए । कॉफी हाउस के नजदीक गाड़ी पहुंची तो उन्होंने गाड़ी से उतरते समय मुझसे भी उतरने के लिए कहा । मैंने कहा, ‘नहीं, डॉ. साहब, जहां आप जा
रहे हैं, वहाँ बहुत हँगामा रहता हैं, मैं नहीं जाऊँगी ।’ मेरी इस बात को सुन उन्होंने मुझे बहुत डांटा और कहा, ‘जिस-तरह की जनता यहाँ आती हैं उस जनता-जनार्दन को तुम हंगामा कहती हो ! तारकेश्वरी, मुझे बड़ा अफसोस है कि तुम्हारे दिमाग में इस तरह का भेद हैं । मैं यह मानता हूँ कि यहाँ आम जनसमूह आता है-गाड़ीवाला, बैलगाड़ीवाला, रेहड़ीवाला, टैक्सीवाला, सरकारी दफ्तर में काम करने वाला कर्मचारी । तुम समझती
हो कि इन लोगों के बीच तुम्हारा जाना शान के खिलाफ है ? अगर तुम ऐसा समझती हो तो मैं यही मानूँगा कि तुम्हारा दिमाग भ्रष्ट है ।’ मुझे याद है कि मैं ऊपर से नीचे तक तिलमिला उठी थी और साथ ही यह भी महसूस किया था कि मेरे मन में अगर इस तरह का पाप है तो मुझे उसको निकालकर फेंक देना चाहिए ।
राजनारायण जी लिखते हैं-29- शरद ऋतु की रात थी। बनारस में मणिकर्णिका घाट के सामने दूर गंगा में दशाश्वमेध घाट से चलकर बजड़ा रुक गया। रात को 11 बजे से 3 बजे तक बजड़े की छत पर खुली चांदनी में दरी पर बिछी चादर पर दो-चार मसनद थे।
तारों का वर्णन था। सप्तऋषि मंडल कहाँ है, शुक्र कहाँ है, कुम्भ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, विषयों की चर्चा थी। देश-विदेश की राजनीति, धर्म, समाजशास्त्र और दार्शनिक मुद्दों पर गंभीर विचार-विनिमय था किंतु लोहिया की दृष्टि मणिकर्णिका घाट पर गड़ी रहती थी। बीच-बीच में गांधी, राम, कृष्ण की चर्चा
विचारों को उलझाये रहती थी। सन 52 के सार्वजनिक निर्वाचन में राम के प्रभाव-क्षेत्र में समाजवादी दल, कृष्ण के प्रभाव क्षेत्र में धर्म-सम्प्रदाय प्रधान पार्टियां, शंकर के प्रभाव-क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद आयी, ऐसा क्यों? प्रश्न का उत्तर ढूंढा ही जा रहा था कि बीच ही में डॉ. लोहिया बोल उठे- ‘देखो, देखो,
चिता पर घी छोड़ा जा रहा है। मालूम होता है, यह धनी घर का मुर्दा है। पहले जी चिता थी, उसमें ऊंची लहर नहीं उठी थी, इतनी देर तक लाश जली भी नहीं थी, बेचारा किसी गरीब घर का था। अधजले शरीर को ही नदी में फेंक दिया गया। तुम्हारे घर का मुर्दा कहाँ जलाया जाता है राजनारायण?’
‘डॉ. साहब ! हमारे यहां के लोग तो हरिश्चन्द्र घाट पर जलाए जाते हैं। काशीराज के पारिवारिक लोग। सामने मंच बना है, उसी बगल में मालवीय जी की भी चिता लगी थी डॉ. साहब।’
‘क्या तुम लोगों ने मालवीय जी को जलते देखा था?’
‘हां, मैंने काशी विश्वविद्यालय से मालवीय जी के शव को ले चलने वाली टिकटी के बांस से कंधा हटाया ही नहीं। सड़कों पर बहुत भीड़ थी। फूल और माला का बोझ बढ़ता जाता था, उसे उतार-उतारकर हल्का किया जाता था। चंदन की लकड़ी पर मालवीय जी का शव रखा गया था। कनस्तर का कनस्तर घी डाला
गया था। लोहबान, धूप और अन्य सुगंधित वस्तुएं डाली गयी थीं। मालवीय जी के शव को जलाने में बहुत देर न लगी’
‘भारत ऐसे गरीब देश में लाश जलाया जाना भी एक समस्या बन जाता है। गरीब घर के मुर्दे अच्छी तरह से जलते भी नहीं। बेचारों के पास मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं । घी और चंदन की बात कहां!’
‘आज हमारा देश इतना गरीब हो गया है, दोनों में धन और विचार से अकिंचन हैं, न तो समृद्धि बढ़ रही है और न विचारों की सड़ान दूर हो रही है। देश कैसे बनेगा? प्रधानमंत्री पर 30 हजार रुपये रोज खर्च हों, लोग तीन आना-चार आना प्रति व्यक्ति पर गुजर करें। इस स्थिति को फौरन बदलना है। कैसे बदलें? मन-
मस्तिष्क की दरिद्रता और धन-दौलत की दरिद्रता जब तक दोनों दूर नहीं होंगे तब तक पिछड़े रहोगे। क्या तुम्हारी पार्टी यह काम करेगी? करेगी कहते हो। कहाँ हैं तुम्हारे लोग? कितने लोग हैं, जो अपने को मिटाकर दूसरों के हित की रक्षा करें ? क्यों नहीं तुम्हारे लोग इस बात का आंदोलन करते कि गरीबों के मुर्दों
को बिजली से जलाये जाने का हर जगह सरकारी स्तर पर प्रबंध हो, जिससे गरीब लोग आसानी से बिना किसी चिंता के पूरी तरह जलाए जा सकें और नदियों का पानी भी स्वच्छ रहे। हाँ, ठीक है, क्या ठीक है? तुम इसका आंदोलन करोगे। याद रखो, मेरा शव वैज्ञानिक ढंग से बिजली से जलाया जाए। मैं चाहता हूँ कि
मेरे मरने के बाद भी मेरे शव से गरीबों को प्रेरणा मिले। और धनी और गरीब के शव को जलाने का वह फर्क मीट जाए कि एक घी और चंदन से जले और दूसरे का शव अधजला ही पानी में बहा दिया जाए। मैं मरकर भी अमीर और गरीब का फर्क मिटाऊं इसलिए चाहूंगा कि तुम लोग साधारण आदमी की तरह मेरी
लाश जलाना जिससे गरीबों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना जागे और विज्ञान की नवीन मान्यताओं को अपनाकर पुरानी रूढ़ियों और कुसंस्कारो के बंधन से समाज मुक्त होकर समता और समृद्धि की ओर बढ़े। इस प्रकार बिजली से शव जलाए जाने पर ब्राह्मणवाद और जातिवाद के मिटने की
प्रक्रिया शुरू होगी और कर्मकांड के व्यामोह से हिन्दू समाज मुक्त होगा।’
‘तीन बज रहे हैं डॉ. साहब । ठंडक भी बढ़ रही है। अब यहां से चलिए, निवासस्थान पर आराम कीजिए।’ मैंने कहा।
‘ठीक कहते हो।’ कहकर सदरी उठाए, कंधे पर रखे और चल दिए। पीछे हम लोग भी चल दिए।
#
राजनारायण