मुनेश त्यागी
पिछले सवा सौ साल से सांप्रदायिकता भारत की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। हिंदू मुस्लिम एकता तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता का सहारा लिया। अंग्रेज भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की हिंदू मुस्लिम एकता की से डर गए थे। उसी समय हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए उन्होंने सांप्रदायिकता का सहारा लिया और फिर 1906 में हिंदू महासभा और 19,07 में मुस्लिम लीग का निर्माण किया और फिर भारत की एकता को तोड़ने के लिए 1925 में आर एस एस का गठन हुआ।
अपने जन्म काल से लेकर आर एस एस की विचारधारा और उसके संगठन आज तक समाज को हिंदू मुसलमान में बांट रहे हैं। सांप्रदायिकता ने इस देश में दंगे कराए हैं, हजारों निर्दोष लोगों की जान की बलि ली है और कमाल की बात यह है कि इनका मेहनतकश जनता से, किसान जनता से, मेहनतकशों से, उनकी समस्याओं से, उनके दुख दर्द से कुछ लेना-देना नहीं है। यहीं पर एक बात और उभर कर आती है कि ये ताकतें पहले लुटेरे साम्राज्यवादी ताकतों अंग्रेजों के साथ थी और आजादी के बाद से लेकर आज तक भी ये ताकतें अमेरिका के नेतृत्व में लुटेरे पूंजीपतियों की खैरख्वाह बनी हुई हैं, उनकी दलाल बनी हुई है और अब तो ये ताकतें सत्ता में बैठी हैं और दिल खोलकर देशी विदेशी पूंजीवादी लुटेरों की मदद कर रही हैं।
यहीं पर हम जानना चाहते हैं और अवगत होना चाहते हैं कि शहीद ए आजम भगत सिंह इन ताकतों के बारे में क्या सोचते थे और इनसे कैसे निजात पाना चाहते थे? शहीदे आजम भगत सिंह ने धर्म के बारे में कहा था,,,,"जो धर्म इंसान को इंसान से जुदा करे,
,,,,मोहब्बत की जगह उन्हें एक-दूसरे से घृणा करना सिखाए,
,,,,अंधविश्वासों को प्रोत्साहन देकर लोगों के बौद्धिक विकास में बाधक हो,
,,,,,दिमाग को कुंद करे,
वह कभी भी मेरा धर्म नहीं हो सकता”
1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक दंगों को भड़काने का खूब प्रचार शुरू कर दिया था। उन्होंने देश में हिंदू मुसलमान दंगे भड़काये और कराए। इसी का प्रतिवाद करते हुए भगत सिंह ने जून 1928 को कीर्ति में एक लेख छापा जिसमें उनके विचार इस प्रकार हैं,,,,,
उन्होंने कहा कि अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे? इन दंगों ने दुनिया की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं, कोई विरला ही हिंदू या मुसलमान या सिख होता है जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के नाम पर डंडे तलवार हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर फोड़ कर मर जाते हैं।
अखबारों के बारे में भगत सिंह लिखते हैं कि अखबारों का असली काम शिक्षा देना, लोगों में से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, आपस में मेल मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की संस्कृति को, शादी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार करके, आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का क्या होगा?
वे आगे कहते हैं सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से परेशान होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है। सच है मरता क्या न करता।
वे आगे लिखते हैं लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है गरीब मेहनतकश किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजिपति हैं। संसार के सभी गरीब चाहे किसी जाति, धर्म या राष्ट्र के हों एक ही अधिकार हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा। इनसे किसी दिन तुम्हारी जंजीरे कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।
वे आगे लिखते हैं कि कलकत्ते से एक अच्छी खबर आई है वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियनों के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया। उन्होंने मुसलमान हिंदू के नाम पर एक दूसरे से मारकाट नहीं की बल्कि वे साथ साथ उठते बैठते और दंगे रोकने के पर्यत्न भी करते। यह इसलिए कि उनमें वर्ग चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग चेतना का यही सुंदर रास्ता है जो सांप्रदायिक दंगे होने से रोकता है।
वे आगे लिखते हैं कि यह बात अच्छी है कि कुछ नौजवानों में सद्बुद्धि आ रही है और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वह भारत के लोगों को धर्म की नजर से हिंदू मुसलमान या सिख रूप में नहीं वरन सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी।
1914-15 के गदर पार्टी के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसे दूसरे धर्म का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह शरबत को मिलाकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट, एकजान रहे जिनमें सिख बढ़-चढ़कर फांसी पर चढ़े थे तो हिंदू मुसलमान भी पीछे नहीं थे।
वे आगे लिखते हैं इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं और झगड़ा मिटाने का यह एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहे अलग अलग ही रहे। हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है उससे हमें बचा लेंगे।