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तीन कविताएं….!

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धर्मनिरपेक्षता एक मिथ है

कुछ हिंदू धर्मनिरपेक्ष हैं या
कुछ धर्मनिरपेक्ष हिंदू हैं
ऐसे ही कुछ मुसलमान भी धर्मनिरपेक्ष हैं
तो कुछ ईसाई, पारसी, जैन, सिख और बौद्ध भी

धर्म भी है पर निरपेक्ष है
संविधान भी निरपेक्ष है
सभी जाति, धर्म, संप्रदायों से निरपेक्ष
सभी को कुछ बुनियादी मौलिक अधिकार प्रदान करता है

सरकार भी निरपेक्ष है
सभी धर्मावलंबियों से उनकी संख्‍या के अनुपात में संवाद करती है
ताकि उनका कल्याण हो सके

राजनीतिक दल परम निरपेक्ष हैं
इसीलिए ढूंढ ढूंढ कर आवश्यक जाति, धर्म, क्षेत्र के निरपेक्ष उम्मीदवार चुनावों में उतार देते हैं
चुनाव आयोग इतना निरपेक्ष है कि इस प्रक्रिया पर चुपचाप अपनी मोहर लगा देता है
वोटर भी निरपेक्ष भाव से अपनी जाति, धर्म, संप्रदाय के उम्मीदवारों को वोट देता है

बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष हैं
वे अल्पसंख्यकों को सीमा में रखते हैं वक्त वक्त पर उनकी औकात याद दिलाते रहते हैं
अल्पसंख्यक भी निरपेक्ष हैं
वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए धार्मिक कट्टरता से परहेज नहीं करते

बुद्धिजीवी ढोल धमाके के साथ निरपेक्षता को ओढ़ते बिछाते हैं
अल्पसंख्यकों पर अन्याय के विरुद्ध तनकर खड़े हो जाते हैं
धर्म सापेक्ष पक्षधरता पर खुलकर इतराते हैं
होली, दीवाली, दशहरा, ईद, बकरीद, मुहर्रम, क्रिसमस, गुरुपर्व पर सबको विश करते हैं
यथासंभव दो चार जगहों पर पहुंच कर अल्पाहार का आनंद भी ले लेते हैं
धर्मनिरपेक्षता पर अक्सर गोल गोल बात करते हैं

पुलिस, प्रशासन अपने आकाओं की इच्छानुरूप निरपेक्ष होते हैं

मीडिया के बारे में क्या कहा जाए
वह धुर निरपेक्ष हैं
जहाँ पैसा वहीं स्वर्ग, इससे आगे नर्कद्वार

अब एक स्वीकारोक्ति
अदालतों की अवमानना करने का साहस मुझमें नहीं है
न्याय अंधा होता है
आँख से देख नहीं पाता, कान से सुनता है
कान कच्चे भी हो सकते हैं
लेकिन तमाम गफलतों के बावजूद
इसमें राई-रत्ती कोई संदेह की गुंजाइश नहीं कि
मैं भी निरपेक्ष हूँ

रहता इसी समाज और तंत्र में हूँ
गली के बूढ़ों से राम राम, दूध वाले राम जी लाल से राधे राधे, बूढ़ी अम्मा से सीताराम, खान साहब से अस्सलाम वालेकुम, जैकब से गुड मॉर्निंग और सतनाम सिंह से सत श्री अकाल बोलकर खुश हो जाता हूँ
अवसरानुकूल दाहिना हाथ उठाकर जम भीम भी कहता हूँ
राम मंदिर के लिए चंदा देता हूँ
भगवती जागरण पर चूनर ओढ़ाता हूँ
गुरुद्वारे में मत्था टेकता हूँ
ख्वाजा की दरगाह पर चादर चढ़ाता हूँ
चर्च जाकर अपने अपराध स्वीकारता हूँ

लेकिन तनिक कनफूज हूँ
मन में सवाल है

धर्मनिरपेक्षता क्या इसी को कहते हैं ?

मौसम बहुत सुहाना है

शैलेन्द्र चौहान

तो आ जाओ
कि भेड़ॊं के बाल मूंड़ कर
ऊन बनाना है
धुली हुई कमीज को लेवोजिन से
चमकाना है
शीशे की ऊंची ऊंची इमारतों में
कम्‍प्‍यूटरों से ढंक जाना है

स्‍टॉक एक्सचेंज में छलांग लगाना है
राजनीति को अंबानी-अडानी के चरणों में
ले जाना है
सोशल मीडिया पर सबको
बहलाना है
लोग अपने मसले खुद ही निपट लेंगे, हमें तो
विधर्मियों को उनकी औकात बताना है
राग भैरवी सुनाना है

ये हुक्‍काम बहुत सयाना है
यूं कद दरमियाना है
पांव तले सिरहाना है

नीति अनीति का भेद मिटाना है
सबको देशभक्ति का पाठ पढ़ाना है
किसी को नक्सली किसी को आतंकी बताना है
किसानों को बॉर्डर से हटाना है
आम्रपाली के मकानों का
धोनी की नाव में ठिकाना है

हर चीज की एक कीमत होती है
यह मंत्र सदियों पुराना है
आवश्‍यक परंपराएं निभाना है

ताली और थाली बजाना है
बिजली बंद कर टॉर्च जलाना है
जरूरी चीजों के दाम बढ़ाना है
जी एस टी लगाना है
मौका भी है दस्तूर भी है
लूटकर भरना खजाना है
अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाना है
पूरी दुनिया में धाक जमाना है

..तो आ जाओ…
ये वक्‍त की पुकार है
कम्‍पटीशन का जमाना है
घुड़दौड़ में अव्‍वल आना है
धन कमाना है
केेेैरियर बनाना है
रिश्‍ते नाते सब भूल जाना है
नाचना है, गाना है, तमंचा लहराना है

अहा..मौसम बहुत सुहाना है।

बौनों के देश में

एक बौना था
उसने घूस खाई
और ठीक से पचाई
ठसक दिखाई
हवा हवाई

पकड़ में आया तो जुगत भिड़ाई
बड़े घूसखोरों तक पहुंच बनाई
लक्ष्मी पहुंचाई
आंख नचाई

छाया बढ़ती गई
वह धंसता गया
नीचे कीचड़ ही कीचड़
ऊपर रस मलाई

बेशरमी की बाड़ लगाई
लोभी चमचों की पांत बनाई
खूब लीला रचाई
लिलीपुट वाली दुनिया बसाई

भिनभिनाती मक्खियां चारों ओर
हो गया वो हलवाई
न साख गंवाई न इज्जत गंवाई
मार के बैठा हिस्सा सवाई
मठाधीश है भाई

बधाई बधाई

बधाई बधाई

संपर्क: 34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो.7838897877

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