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समय~ चिंतन : श्राद्ध और परा-विज्ञान

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 पवन कुमार

     _वर्ष में 365 दिनों में 16 दिन ऐसे होते हैं जब मृतात्माओं के लिए सवेरा होता है, उनके लिए दिन होता है। 349 दिन उनके लिए रात्रि का अँधेरा रहता है। ये 16  दिन पितृपक्ष के दिन कहलाते हैं। इन महत्वपूर्ण दिनों में मृतात्माओं के नाम पर श्रद्धापूर्वक दिया गया अन्न-जल, वस्त्र ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह सूक्ष्मरूप से उन्हें प्राप्त हो जाता है और पितृ लोग संतुष्ट होकर पूरे वर्ष आशीष की वर्षा करते रहते हैं।_

*देश काल च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्।*

*पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्।।*

 (देश काल को ध्यान में रखते हुए पात्र व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक जो भोजन पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मण को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।) 

  अपने मृत परिजनों के प्रति श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म जो हमें शांति देता है और परलोकगत आत्मा को भी देता है शांति, वह है श्राद्ध।’ 

      श्राद्ध-कर्म आदिकाल से हिन्दू धर्म-संस्कृति का मुख्य भाग रहा है। इस पर थोडा विचार करना उचित है। आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण गीता में वर्णन करते हैं :

     ‘आत्मा जब तक अपने परमात्मा से संयोग नहीं कर लेती तब तक विभिन्न योनियों भटकती रहती है और इस दौरान उसे श्राद्ध-कर्म से संतुष्टि मिलती है।’

    सूक्ष्म रूप से देखें तो श्राद्ध ‘श्रद्धा’ का दूसरा नाम है जिसमें पितरों केे प्रति भक्ति और कृतज्ञता का समावेश होता है। श्राद्ध-कर्म के विषय में अपस्तंब ऋषि कहते हैं–‘जैसे यज्ञ के माध्यम से देवताओं को उनका भाग और शक्ति प्राप्त होती है, उसी प्रकार श्राद्ध और तर्पण से पितृलोक में बैठे पितरों को उनका अंश प्राप्त होता है।

      हिन्दू-पंचांग में पितरों के श्राद्धकर्म के लिए विशेष समय निर्धारित किया गया है जिसे ‘पितृपक्ष’ कहते हैं। यह पितृपक्ष आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक रहता है जिसमें व्यक्ति अपने दादा, परदादा, मृत पिता या माता का श्राद्ध करता है।( जिनके पितरों की तिथि भाद्रपद पूर्णिमा को पड़ती है उनके लिए पूर्णिमा को ही श्राद्ध का विधान है।) श्राद्ध का समय दिन का तीसरा प्रहर होता है क्योंकि पितरों के लिए तीसरा प्रहर ही निर्धारित किया गया है जो दिन के 12 बजे से 3 बजे तक है।

        उसी समय प्रेतलोक या पितृलोक से उनका पथ खुलता है, इससे पूर्व नहीं। जो अज्ञानी जल्दबाज लोग सवेरे से ही श्राद्धकर्म करके ब्राह्मण भोजन, दान-पुण्य करने लगते हैं, उनका वह कर्म वृथा जाता है। वह सब पितरों को प्राप्त नहीं हो पाता है। 12 बजकर कुछ क्षणों के बाद पुत्र को उपयुक्त सामग्री लेकर जल पात्र में तिल, जौ, दुग्ध, चीनी, सफेद पुष्प मिलाकर दक्षिण मुख होकर पितरों को श्रद्धा से अर्पित करना होता है। अर्पित करने से पूर्व गोत्र सहित अपना नाम और पिता का नाम लेकर पितरों का नाम लेकर आवाहन करना अनिवार्य है।

        जलदान करते समय हाथ की दोनों अनामिका उंगलियों में कुश या डाभ की पैंती या स्वर्ण की अंगूठी पहननी आवश्यक है और बाएं हाथ की पैंती की ओर से झुकाकर जलदान करना चाहिए। जल डालते समय ध्यान रखें कि वह नीचे गिरकर पैरों पर उसके छींटे न आएं। उपयुक्त है कि किसी दूसरे बर्तन में जलधार गिराकर उसे अर्पित करें।

      शास्त्र में पितरों की भी कई श्रेणियाँ बतलायीं गयीं हैं। जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि के दिन मृत व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर पितृलोक से उस दिन लौट आता है, जहाँ पर उसकी मृत्यु हुई थी। ( पितरों की मृत्यु जिस स्थान पर हुई है वहां पितर पहुंचते हैं, लेकिन श्राद्धकर्ता पुत्र किसी दूसरे स्थान पर है, या उसने दूसरा घर बना लिया है तो उसे पितरों का आवाहन करना पड़ता है।

          पितृगण तत्काल आवाहन द्वारा उस स्थान पर पहुंच जाते हैं) अगर उसका उस तिथि पर उचित समयावधि में श्राद्ध नहीं होता है, तो वह भूखा-प्यासा दुःखी होकर लौट जाता है और जीवित पुत्र-पौत्रों को श्राप देता है। इससे उस घर पर पितृदोष लग जाता है। घर की सुख-शान्ति चली जाती है।

        इनके श्राप से कुल का वंश आगे नहीं बढ़ पाता है अर्थात् वह व्यक्ति पुत्रहीन हो जाता है और मरने पर उसे भी अन्न-जल की प्राप्ति नहीं होती है।

*देह छोड़ी कबतक प्रेतयोनि में रहती है ?*

       मृतात्मा का दूसरा श्राद्ध श्मशान भूमि में किया जाता है, इसलिए कि मृतात्मा स्वयम् के छायाशरीर में प्रवेश न कर सके। जब तक शरीर जलकर भस्म नहीं हो जाता, तब तक मृतात्मा अपनी अतृप्त वासनाओं के वेग के कारण अपने ही छायाशरीर में प्रवेश कर जाती है या अन्य किसी जीवित या मृत शरीर में।

       यह तभी होता है जब मृतात्मा अपनी वासनाओं के अनुकूल तत्काल शरीर निर्माण नहीं कर् पाती। जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि वासना के आधार पर स्वनिर्मित शरीर को ही प्रेत शरीर कहते हैं अथवा कहते है प्रेतात्मा।

        जब तक वासनाओं का वेग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक मृतात्मा प्रेतयोनि में ही रहती है। इसकी कोई अवधि नहीं होती, एक वर्ष भी हो सकती है और एक हज़ार वर्ष भी। माता-पिता की मृत्यु

 *प्रेतात्माओं का देह छोड़ी आत्मा को अपने समूह में मिलाने का प्रयोजन*

       प्रयोजन स्पष्ट है। जो लावारिस मृतात्माएँ होती हैं, जिनका उचित ढंग से अन्तिम संस्कार और क्रिया नहीं की गयी होती है, जिनकी अकाल मृत्यु हुई होती है.

        वे प्रेतात्माएं अपना एक अलग समूह बनाकर रहती हैं। ये प्रेतात्माएं उन मृतात्माओं को अपने समूह में इसलिये मिलाती हैं या मिलाने का प्रयास करती हैं कि मृतात्मा के परिवार के लोग उसकी सुख-शान्ति के लिए, साथ ही उसकी मुक्ति के लिए जो भी दान-पुण्य करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, शैय्या आदि उपयोगी वस्तुएं देते हैं, उन सब वस्तुओं और सामग्रियों में जो तत्व होते हैं, वे तत्व प्रेतात्माओं का समूह ले लेता है और बेचारा मृतात्मा निरीह-सा मुंह ताकता रह जाता है।

       यही दशा गया श्राद्ध में भी है। गया में जितनी प्रेतात्माएँ हैं, उतनी तो संसार भर में नहीं होंगी। जिस मृतात्मा के लिए गया में श्राद्ध या पिण्डदान आदि होता है, उसे वहां की प्रेतात्माएं अपने अधिकार में ले लेती हैं और जो उसके निमित्त वहां किया जाता है, उन सबका तत्व स्वयम् प्राप्त कर लेती हैं। बड़ी ही विचित्र और रहस्यमयी बात है, सब नहीं समझ सकते इसे।

 *इसका कोई उपाय है क्या?*

       उपाय अवश्य है। त्रिपिंडी श्राद्ध और नारायण बलि ही एक ऐसा उपाय है कि उसके अंतर्गत मृतात्मा के निमित्त दिया हुआ दान-पुण्य, भोजन आदि सीधा मृतात्मा को प्राप्त होता है। उन पर प्रेतात्माओं का वश नहीं चलता। उनको ग्रहण करने का सामर्थ्य उनमें नहीं होता।

*स्त्रियों की प्रेतात्माएं :*

       प्रकृति के नियम के अनुसार प्रायः सभी प्रकार की स्त्रियां वासना शरीरधारिणी प्रेतात्माएं होती हैं। किंतु उनमें कुछ विशेष् प्रेतात्माएं होती हैं जिनकी प्रेतयोनि से मुक्ति की आशा बहुत ही कम होती है। गर्भवती स्त्रियां, रजस्वला स्त्रियां, बाँझ स्त्रियां, प्रसव-काल में मृत स्त्रियां, नाजाइज़ गर्भपात कराने वाली स्त्रियां, शिशु की हत्या करने वाली स्त्रियां मृत्योपरान्त भयंकर प्रेतयोनि को उपलब्ध् होती हैं।

           जनसाधारण भाषा में ऐसी ही प्रेतिनियों को डायन, चुड़ैल आदि नामों से जाना जाता है। उनमें प्रबल तामसिक शक्ति होती है। वे कुमारी कन्याओं, गर्भवती स्त्रियों, नवप्रसूता स्त्रियों को विशेष् रूप से परेशान करती हैं।

       _नवजात शिशु पर तो वे बराबर छाया की तरह मंडराती रहती हैं। तन्त्र में इनसे बचने के कई उपाय और क्रियाएं हैं।_

( चेतना विकास मिशन)

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