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समय चिंतन :  मूलप्रकृति से सेकुलर ही होता है जनतंत्र

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 दिव्यांशी मिश्रा

       _सेकुलर हिन्दी समाज में अब विवादास्पद शब्दों में शुमार हो चुका है। अभी कुछ महीने पहले ही किसी विद्वान का आलेख पढ़ रहा था। उन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर शब्द जोड़े जाने की मीमांसा की थी। उन्होंने बहुत बारीक बात की तरफ ध्यान दिलाया कि आजादी के समय ‘संविधान’ को सेकुलर कहने की जरूरत नहीं थी क्योंकि संविधान की परिकल्पना अपनी मूल-प्रकृति में सेकुलर है। उन्होंने बहुत बारीक लेकिन गहरी बात कही।_

          जब कोई देश यह तय कर लेता है कि उसका समाज संविधान से चलेगा उसी दिन यह तय हो जाता है कि धार्मिक विधान की सीमा घर तक रहेगी। घर के बाहर जहाँ संविधान और धार्मिक विधान में मतभेद होगा वहाँ संविधान को प्रमुखता दी जाएगी। दुनिया में ऐसा कोई संगठित धर्म नहीं जिसका विधान वर्तमान अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों को सौ प्रतिशत संतुष्ट कर सके।

दुनिया भर के संविधान और धार्मिक विधान को मूलतः दो मुद्दों पर चुनौती मिलती है, स्त्री और वंचित वर्ग। संविधान और धार्मिक विधान दोनों का दावा है कि वो बेहतर समाज दे सकते हैं। इन दावों की हकीकत जानने का एक ही ठोस तरीका है कि दोनों द्वारा संचालित समाजों का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया जाए। मेरी राय में संविधान से चलने वाले समाज दोनों मामलो में बेहतर साबित हो रहे हैं।

       _यदि कोई व्यक्ति या संस्था अपने समाज के संचालन का अधिकार हासिल करना चाहती है तो उसे इसकी वैधानिकता हासिल करनी होती है। संविधान अपनी वैधानिकता उन लोगों के अभिमत से हासिल करता है जिनके संचालन का वह दावा करता है।  धार्मिक विधान की वैधानिकता इस बात पर टिकी होती है कि उन्होंने ‘ईश्वर’ ने समाज को संचालित करने का अधिकार दिया है।_

        यही कारण है कि धार्मिक विधान को समाज पर थोपने वाले खुद के ईश्वर, ईश्वर का अवतार या अंश या दूत या पुत्र घोषित करते हैं ताकि धर्मभीरू समाज उनकी राय को ईश्वर का आदेश मानकर स्वीकार कर ले। 

राजकाज कैसे चले इसके दुनिया में अलग-अलग मॉडल रहे हैं। लोकतंत्र सबसे आधुनिक या नया मॉडल है। लोकतंत्र के मॉडल ने साबित किया कि किसी समाज का संचालन लोकतांत्रिक तरीके से भी किया जा सकता है। लोकतंत्र से पहले सत्ता पर अधिकार या तो तलवार के दम पर होता था या परवरदिगार के दम पर। लोकतंत्र से पहले यदि कोई राजा किसी दूसरे राजा की सेना को हरा देता था तो वहाँ की जनता का वह भाग्यविधाता बन जाता था।

    _लोकतंत्र में इसे कब्जा करना, हमला करना, कोलोनाइज्ड करना कहते हैं। लोकतंत्र पूर्व शब्दकोश में इन्हीं चीजों को विश्वविजय करना, तीनों लोग जीत लेना, साम्राज्य फतह कर लेने जैसे जुमलों की पाग देकर परोसा जाता था। तलवार के दम पर सत्ता हासिल करने के दौर में सबसे ज्यादा क्षति किसी समाज के संस्कृति (कल्चर) की होती थी।_

       यह अलग बात है कि संस्कृति लम्बे दौर में राजनीति पर भारी पड़ती रही है लेकिन इस प्रक्रिया में उसका काफी अंगभंग हो जाता है। 

लोकतंत्र का पोलिटिकल मॉडल आने के बाद तब समस्या होने लगी जब कोई व्यक्ति ईश्वर के नाम पर लोकतांत्रिक समाज की राजनीति-अर्थनीति-लोकाचार पर अपनी मर्जी थोपने की कोशिश  करता है।

      _मर्जी चलाने की अथॉरिटी वह यह कहकर हासिल करना चाहता है कि इसका अधिकार उसे ईश्वरीय ने दिया है। यानी एक आदमी किसी अदृश्य आदमी का हवाला देकर समाज के बाकी लोगों का भाग्यविधाता बनने का प्रयास करता है। कई बार वह अपने प्रयास में सफल भी हो जाता है।_

        यह विचार का विषय है कि किसी व्यक्ति के पास यदि आध्यात्मिक अनुभव हो तो क्या उसे आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक और वैज्ञानिक मामलों की भी विशेषज्ञता हासिल हो जाती है? मेरे ख्याल से बिल्कुल नहीं। 

लोकतंत्र में समाज का हर बालिग व्यक्ति सत्ता का शेयरहोल्डर होता है। हर बालिग आदमी, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित के पास सत्ता का एक और केवल एक शेयर होता है। इस तरह देश का सबसे अमीर आदमी और सबसे गरीब आदमी के पास सत्ता में एक बराबर एक शेयर का मालिकाना हक होता है।

      _गरीब आदमी अपना वोट अमीर के कहने पर दे दे तो यह उसकी मर्जी है लेकिन सत्ता में एक शेयर की भागीदारी उसे केवल लोकतंत्र देता है। यही कारण है कि हम जैसे सामान्य लोग लोकतंत्र के प्रबल हिमायती हैं। संविधान के प्रबल-हिमायती हैं। धार्मिक-विधान के घर तक महदूद रहने के हामी हैं।_

         धर्म को लेकर आमजन में गहरी भावुकता होती है। धार्मिक-विधान सदियों पुराने हैं इसलिए उनकी जड़ें बहुत ज्यादा गहरी हैं। हमारे देश में संविधान महज 75 साल पुराना है। हजार या दो हजार साल पुरानी आस्थाओं से उसका रोज-बर-रोज सामना होता है।

       _आज भी हो रहा है। यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि किसी एक धार्मिक विधान के मुकाबले किसी दूसरे धार्मिक विधान को बेहतर बताना जड़बुद्धि होना है। लोकतांत्रिक समाज में एक धार्मिक विधान बनाम दूसरे धार्मिक विधान के बीच संघर्ष नहीं है, बल्कि सभी धार्मिक विधानों और संविधान के बीच संघर्ष है।_

हम सबको यह अच्छी तरह समझना होगा कि दुनिया वेदों से पाँच हजार साल आगे, बाइबिल से दो हजार साल आगे और कुरान से एक हजार साल आगे बढ़ चुकी है।

     _जिन्हें लगता है कि वेद नहीं कुरान नहीं बाइबिल ज्यादा सच्ची किताब है, वो मूलतः एक ही पदार्थ का सेवन कर रहे होते हैं, बस ब्राण्ड-ब्राण्ड का फर्क होता है। दुनिया को किसी धर्म से कोई समस्या नहीं होती जब तक कि उसका पोलिटिक्स से गठजोड़ न हो जाए।_

        धर्मान्ध लोग यदि धर्म को स्प्रिचुअल मैटर रहने दें, उसे पोलिटिकल मैटर न बनाएँ तो धर्म के नाम पर होने वाला गालीगलौज और खूनखराबा लगभग समाप्त हो जाएगा।

   {चेतना विकास मिशन)

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