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समय~ चिंतन :मुझे धर्म का ज्ञान है, किन्तु मेरी प्रवृत्ति नहीं !

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पुष्पा गुप्ता

  _महाभारत के अनुसार जब भगवान श्री कृष्ण पांडवों की मांगों को मनवाने के लिए दुर्योधन के पास गए और कहा कि दुर्योधन! शर्त के मुताबिक पांडव अपना 12 वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास पूरा कर आ गए हैं इसलिए धर्म अब यही कहता है कि तुम उनका राजपाट वापस करो। दुर्योधन श्रीकृष्ण को जवाब देता है : "जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति:!" यानी कि हे कृष्ण मैं धर्म को जानता हूं पर क्या करूं उस तरफ मेरी प्रवृत्ति नहीं है।_
       आज के युग में मानव की यही पीड़ा है। उसे सही-गलत का भान तो है पर वह करे तो क्या करे क्योंकि उसकी  प्रवृत्ति गलत की ओर ले जाती है। धर्म का पालन करना एक कठिन काम है पर धर्म से विरत रहना मानव के दुख का कारण है।
  _मानव धर्म का मर्म जानता है और यह भी कि जीवन में सही रास्ता धर्म के पंथ पर ही चलना है लेकिन अपने स्वभाव से मजबूर है। और बस दुर्योधन की तरह वह उसी मार्ग पर चलता रहता है जो उसे अंततः दुख और विनाश के मार्ग पर ले जाता है।_
    पांडव आज से नहीं बल्कि हजारों वर्ष से हमारे यहां धर्म के प्रतीक माने गए हैं। वे सदैव धर्म के मार्ग पर आरूढ़ रहे। जो बेहद जटिल मार्ग था और स्वयं भगवान कृष्ण ने इन पांडवों के साथ पक्षपात किया और समझाया कि व्यावहारिक रास्ता वह है तो शठ के साथ शठता करने पर बाध्य करता है।
    _पर फिर भी एक तरफ युधिष्ठिर हैं जो अपने भाइयों को धर्म का मार्ग नहीं छोडऩे को बाध्य करते हैं। युधिष्ठिïर का यही धर्म मार्ग उन्हें सशरीर स्वर्ग ले जाता है। महाभारत में इसका वर्णन अत्यंत मार्मिक है।_
    सैकड़ों वर्ष तक राज्य करने के बाद जब कलियुग निकट आने लगा तो युधिष्ठिर ने अपने भाइयों समेत अपने शरीर त्यागने का मन बनाया और वे सुमेरु पर्वत की तरफ चले। पर सशरीर स्वर्ग तो वही जा सकता है जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हुआ हो।
 _सुमेरु  पर्वत पर चढ़ते हुए क्रमशः द्रोपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम बिछड़ते रहे। पर अकेले धर्मराज युधिष्ठिर और उनका एक कुत्ता चलते रहे। सुमेरु पर्वत के शिखर पर स्वर्ग के राजा इंद्र की तरफ से एक रथवान रथ लेकर आया।_
    वह रथवान युधिष्ठिर के पास आकर बोला- श्रीमान जी देवराज इंद्र की आज्ञा है कि महाराज युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग पर ले आओ इसलिए मैं आपको लेने आया हूं। युधिष्ठिर देवराज को धन्यवाद देते हुए अपने कुत्ते के साथ रथ पर आरूढ़ होने लगे तो रथवान ने कहा कि महाराज स्वर्ग के नियमों के अनुसार मनुष्य के इतर अन्य कोई प्राणी स्वर्ग नहीं जा सकता।
 _युधिष्ठिर ने कहा कि हे रथवान यह कुत्ता सत्यवादी है तथा यह सदैव धर्म के अनुसार आचरण करता रहा इसलिए इसको स्वर्ग जाने का पूरा अधिकार है। पर रथवान नहीं माना और कुत्ते को रथ पर नहीं चढऩे दिया।_
   यह देखकर धर्मराज युधिष्ठिर भी रथ से उतर गए और बोले- रथवान तुम जाकर इंद्रदेव को बोलना कि युधिष्ठिर बिना अपने कुत्ते के नहीं आया। मेरा अकेला स्वर्ग जाना इस निरीह पशु का अपमान है जो पशु होकर सदैव सदाचारी बना रहा।
_यह सुनकर वह श्वान (कुत्ता) अपने साक्षात धर्म के स्वरूप में प्रकट हो गया और बोला- युधिष्ठिर तुम स्वर्ग जाओ मैं धर्म हूं और तुम्हारे धैर्य और धर्म की परीक्षा ले रहा था। अब यहां युधिष्ठिर की प्रवृत्ति धर्ममय है इसलिए उन्हें धर्म के मार्ग से कोई च्युत नहीं कर सकता था।_
   धर्म की परिभाषा भारत में नीतिज्ञों ने बताई है कि जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। धर्म यहां किसी रूपक में नहीं बंधा है। जो लोकोपकारी है, जो प्रशंसनीय है और जो सर्वहितकारी है वही धर्म है। यही कारण है कि भारत में धर्म सहिष्णु है। यहां हर धर्म की कद्र है क्योंकि भारतीय मनीषी मानते रहे हैं कि मनुष्य को हर धर्म का सम्मान करना चाहिए।
_हर धर्म का ध्येय एक है भले ही मार्ग अलग-अलग हों। पंथ की भिन्नता भारत में धर्म के आड़े नहीं आया। इसीलिए भारत में राजा के निजी धर्म से राज्य का कोई वास्ता नहीं रहा। राजा चाहे सनातनी रहा हो, ब्राह्मणी परंपरा को मानने वाला रहा हो अथवा बौद्घ या जैन लेकिन सब को उसने दान दिए और जागीरें दीं।_
हर राजा का मूलमंत्र यही था कि ब्राह्मण, श्रमण व श्रावक को सम्मान दिया जाए। यही है धर्म का असली स्वरूप। जिसने धर्म के इस स्वरूप को माना वही जीता और उसीने राज्य किया। जिस राजा ने संकुचित दृष्टि दिखाई वह विनष्ट हुआ।
 _इसलिए धर्म के स्रोत को जानना और उसके अनुकूल आचरण करना भारतीय दृष्टि मे अति आवश्यक है।_

यहां यह आश्चर्यजनक लगता है कि जब भारत में धर्म की इतनी सूक्ष्म व्याख्या है तो क्योंकर लोग साम्प्रदायिक उन्माद फैलाते हैं और क्यों एक-दूसरे से भिन्न दिखना चाहते हैं। क्या भारतीय समाज अपने मनीषियों के चिंतन का सम्मान नहीं करता? जिस देश में धर्म साक्षात सहिष्णुता का अवतार रहा हो वहां धर्म को लेकन इतना संकुचन क्यों?
इसका आसान सा जवाब शायद यही होगा कि भारतीय धर्म अध्यात्म चिंतन से निखरा और भारतीय समाज अपनी गति से बढ़ा। समाज में दुर्योधन की सीख ज्यादा गहरी है बजाय युधिष्ठिर के क्योंकि युधिष्ठिर का मार्ग कठिन है और दुर्योधन का मार्ग सहज व आसान।
यानी एक तरफ धर्म का आदर्श रहा तो दूसरी तरफ एक तरह की अराजकता और पाखंड। राजा भी इसी पाखंड में रमे और जनता भी। यही कारण है कि यह विभेद बहुत गहरे तक दीखता है। आज जिस तरह का समाज है उसमें धर्म की यह व्याख्या अति आवश्यक है।
एक बार लोकसभा में प्रधानमंत्री ने ‘जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति:’ की एक अलग व्याख्या की। उन्होंने इस पूरे श्लोक को एक दल विशेष की मानसिकता से जोड़ दिया। लेकिन यहां मेरा आग्रह है कि यह प्रवृत्ति सभी पर लागू होती है। जब तक देश के सारे राजनेता और राजनीतिक दल धर्म को इसी कल्याणकारी रूप में नहीं लेंगे तब तक यही माना जाएगा कि भारत के राजनेताओं की प्रवृत्ति धर्म की तरफ नहीं है भले ही वे जानते सब कुछ हों।
सब कुछ जान लेने से धर्म का मर्म नहीं बदलता बस उसे मानने वाले लोगों की प्रवृत्ति पता चलती है।
अतः यह सब पर लागू होता है कि धर्म को समझें पर उसी के साथ-साथ अपनी प्रवृत्ति भी बदलें।
🔥चेतना विकास मिशन

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