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लोकतंत्र के अथक योद्धा डॉ लोहिया

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डॉ सुनीलम/ राष्ट्रीय संयोजक, समाजवादी समागम

डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं- समता और संपन्नता. इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित है. समता और संपन्नता जुड़वा हैं.

उन्होंने समता हासिल करने के लिए 11 सूत्रीय कार्यक्रम देते हुए लिखा कि इनमें से हर मुद्दे में बारूद भरा हुआ है. वे सूत्र हैं- सभी प्राथमिक शिक्षा, समान स्तर और ढंग की हो तथा स्कूल खर्च और अध्यापकों की तनख्वाह एक जैसी हो. प्राथमिक शिक्षा के सभी विशेष स्कूल बंद किये जायें. अलाभकर जोतों से लगान अथवा मालगुजारी खत्म हो.

संभव है कि इसका नतीजा हो सभी जमीन का अथवा लगान का खात्मा और खेतिहर आयकर की शुरुआत. पांच या सात वर्ष की ऐसी योजना बने, जिसमें सभी खेतों को सिंचाई का पानी मिले. चाहे वह पानी मुफ्त अथवा किसी ऐसी दर पर या कर्ज पर कि जिससे हर किसान अपने खेत के लिए पानी ले सके. अंग्रेजी भाषा का माध्यम सार्वजनिक जीवन के हर अंग से हटे. अगले 20 वर्षों के लिए रेलगाड़ियों में मुसाफिरी के लिए एक ही दर्जा हो. अगले 20 वर्षों के लिए मोटर कारखानों की कुल क्षमता बस, मशीन, हल और टैक्सी बनाने के लिए इस्तेमाल हो.

कोई निजी इस्तेमाल की गाड़ी न बने. एक ही फसल के अनाज के दाम का उतार-चढ़ाव 20 प्रतिशत के अंदर हो. और जरूरी इस्तेमाल की उद्योगी चीजों के बिक्री के दाम लागत खर्च के डेढ़ गुना से ज्यादा न हों. पिछड़े समूहों यानी आदिवासी, हरिजन, औरतें हिंदू तथा अहिंदुओं की पिछड़ी जातियों को 60 प्रतिशत को विशेष अवसर मिले. और दो मकानों से ज्यादा मकानी मिल्कियत का राष्ट्रीयकरण, जमीन का असरदार बंटवारा और उसके दामों पर नियंत्रण.

डॉ लोहिया ने विश्व नागरिक और विश्व सरकार का सपना देखा. वे कहते थे कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म. धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है.

यह कथन धर्म और राजनीति को परस्पर पूरक बना देने के साथ-साथ धर्म को रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त करने की प्रेरणा देता है और राजनीति को अधिकार, मद और स्वार्थपरता से दूर रहने की दृष्टि देता है. भारत के तीर्थ, नदियां, हिमालय, संस्कृति, भारतीयों की एकता, भारत का इतिहास, वशिष्ठ, वाल्मीकि, रामायण आदि पर लिखे गये लेख उनकी मौलिक रचनाएं हैं.

डॉ लोहिया ने बार-बार कहा- हमें द्वेष मूलक, मत्सर प्रेरित व स्पर्धात्मक क्रांति नहीं चाहिए, बल्कि क्रोध मुक्त, करुणा प्रेरित, प्रतीकात्मक क्रांति की जरूरत है. उन्होंने राम, कृष्ण और शिव को प्रतीक के तौर पर चुना. द्रौपदी के व्यक्तित्व को रेखांकित किया. आचार्य धर्माधिकारी ने कहा कि लोहिया की गणना प्रतिभा व मौलिकता को लेकर मानवेंद्रनाथ राय, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण की पंक्ति में की जा सकती है.

साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा लिखते हैं कि डॉ लोहिया के आर्थिक चिंतन में तीन पड़ाव हैं- पहला मार्क्सवाद का, जिसे वह अर्द्धसत्य वाला चिंतक मानते हैं. दूसरा गांधी का, जिसे वे पूर्ण मानवीय चिंतक मानते हैं, तीसरा समाजवाद का, जिसे वे भारतीय संबंध में गांधी और उनके विचारों से जोड़कर स्थापित करना चाहते हैं. गांधीजी के जीवन, दर्शन और उनकी आर्थिक नीति को भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण मानते हैं.

किंतु उसमें वह व्यावहारिक मानवीय संदर्भ को व्यापक यथार्थ से जोड़ते हैं. समाजवाद को वह केवल मार्क्स की परिभाषाओं में नहीं बांधते.

समाजवाद को प्रत्येक देश के इतिहास में भूगोल में समाज की अनिवार्यताओं के साथ जोड़कर प्रासंगिक बनाते हैं. सैद्धांतिक और शास्त्रीय स्तर पर डॉ लोहिया जिस अर्थव्यवस्था को व्याख्यायित करते हैं, उसके आधारमूल तत्व हैं- जाति और वर्ग उन्मूलन, विकेंद्रीकरण, राष्ट्रीयकरण, भूमि वितरण, अन्न सेना का गठन, भू सेना का निर्माण, खर्च पर सीमा, आय नीति और मूल्य नीति. उनके संपूर्ण चिंतन का मूल, व्यक्ति-गांव कैसे प्रतिभा संपन्न और अर्थ संपन्न बनें, इसी पर आधारित हैं.

डॉ लोहिया का जीवन अपरिग्रहपूर्ण रहा. उन्होंने धन एकत्रित करने की लालसा कभी नहीं पाली. यही कारण है कि जब उनकी मौत हुई, तब उनका न कोई बैंक अकाउंट था और न ही कोई संपत्ति. बिना संसाधनों को इकट्ठा किये राजनीति की जा सकती है, इसका उन्होंने सफल प्रयोग किया.

यूरोप से जब वे कोलंबो होकर लौट रहे थे, तब उनके पास केवल चेन्नई तक पहुंचने का किराया था. ऐसे फक्कड़ सादगीपूर्ण जीवन बितानेवाले विचारक और राजनेता बहुत कम हैं, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सब कुछ कुर्बान कर देने के बाद भी स्वयं के लिए स्वतंत्र भारत में कुछ नहीं चाहा. 26 सितंबर, 1962 को नागार्जुन सागर में डॉ लोहिया ने कहा था, ‘लोग मेरी बात सुनेंगे, मेरे मरने के बाद.’

डॉ लोहिया की मृत्यु के बाद उनकी बात तो सुनी गयी. लोहिया के चेलों को सत्ता भी मिली. लेकिन उन्होंने जिस समतावादी समाज की रचना का सपना देखा, वह आज भी अधूरा है. विचारवान लोग आज लोहिया को पढ़ना और समझना चाहते हैं. लोहिया के विचार अब भी जिंदा हैं.

देश के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों में गिने जानेवाले डॉ लोहिया जीवन-पर्यंत भारत में समाजवादी विचारों के अनुरूप समानता स्थापित करने के लिए संघर्षरत रहे. गांधी, नेहरू तथा जेपी के निकट सहयोगी के रूप में संघर्ष करते हुए वे कई बार जेल गये. आजाद भारत में उन्होंने गरीब और पिछड़े समाजों की समस्याओं के पक्ष में आवाज बुलंद की.

उन्हीं के मार्गदर्शन में 1967 में देश में अनेक राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई थी. उनकी रचनाएं आज भी लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के लिए प्रमुख प्रेरणास्रोत हैं.

हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टिभेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है.

चार बड़े और ठोस सवालों- वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के बारे में हिंदू धर्म उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है.

चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी, क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं.

तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनायेगा, ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके.

करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊंची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था.

अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते, तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है, जिसमें हिंदुओं की तर्क बुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है. व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गये हैं, लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं. इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो. कट्टरपंथियों ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है.

उनके उद्देश्य हमेशा संदिग्ध नहीं रहे. उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए. मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता, जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो. जब भी भारत में एकता या खुशहाली आयी, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था. हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है.

मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल, जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आयी, जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था.

जब तक हिंदुओं के दिमाग में वर्णभेद बिल्कुल ही खतम नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या संपत्ति और व्यवस्था के संबंध को तोड़ा नहीं जाता, तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी. अन्य धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बंधे हुए नियमों का धर्म नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है, और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध कभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आये हैं, जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी.

(डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा जुलाई, 1950 में लिखी पुस्तिका का संपादित अंश)

डॉ राम मनोहर लोहिया जन्म : 23 मार्च, 1910. निधन : 12 अक्तूबर, 1967. जन्म स्थान : अकबरपुर, (अब अंबेडकरनगर), उत्तर प्रदेश शिक्षा : स्नातक (कलकत्ता विश्वविद्यालय), डॉक्ट्रेट (बर्लिन विश्वविद्यालय). राजनीतिक विचारधारा : समाजवाद. प्रकाशित कृतियां : गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन, हिंदू बनाम हिंदू, इंडिया, चाइना एंड नॉर्दर्न फ्रंटियर्स, मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म.

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