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‘टूवर्ड्स ट्रांसफॉर्मिंग बैंक्स एज पब्लिक इंस्टीट्यूशन’….2003-2019 :जब बैंकों का एनपीए तेजी से बढ़ता गया

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अंजनी कुमार

किसी भी राज्य व्यवस्था के लिए वित्तीय नीति एक केंद्रीय धुरी की तरह होती है। इसमें मुद्रा का प्रयोग, संचयन और वितरण की नीति राज्य के चरित्र को दर्शाता है। टैक्स, ऋण-दर, ब्याज और मुद्रा-मूल्य निर्धारण सीधे आम जन को प्रभावित करता है और देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करने या उसे बर्बाद करने की ओर ले जाता है। भारत के इतिहास में आख्यान बन जाने वाली तुगलकी नीति में मुद्रा एक महत्वपूर्ण मसला था। इसी तरह आधुनिक इतिहास में अमेरीका के उद्भव और साम्राज्यवादी ताकत बनने में उसकी वह मुद्रा नीति थी जिसमें उसने डालर को स्वर्ण मानक में बदल डाला था।

भारत की स्थिति थोड़ी भिन्न है। भारत की आधुनिक मुद्रा नीति पर नियंत्रण ब्रिटिश हुकूमत के अधीन बनी और यह मुख्यतः ब्रिटिश साम्राज्यवादी मुद्रा नीति का एक सहयोगी उपकरण बना रहा। भारत में पूंजी का निर्माण और संपदा का ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर प्रवाह को लेकर काफी बहसें होती रही हैं। और, यह आज भी जारी है। लेकिन, मोदी सरकार ने जब नोटबंदी का ऐलान किया तब मुद्रा का सवाल भारत के हरेक नागरिक के साथ जुड़ गया। वह जिन पैसों को अपना समझ रहा था और उसकी बचत करते हुए भविष्य को सुरक्षित कर रहा था, अचानक ही एक घोषणा के साथ कुछ नोटों को रखना एक आपराधिक कृत्य में बदल दिया गया था।

यह सब काला धन खत्म करने के उद्देश्य से किया गया था। लेकिन, इसकी जद में हरेक नागरिक आ गया। नगद की कमी से सामान्य बाजार व्यवस्था में खरीद, छोटे उद्यमों में उत्पादन और वितरण के लिए आवश्यक मुद्रा की कमी से ठप्प पड़ जाने से लेकर बहुत से नागरिकों की मौत तक की घटनाएं हुई। इसने तात्कालिक तौर पर कई सारी बर्बादियां को जन्म दिया और दूरगामी तौर पर छोटे और मध्यम उद्यम गहरे प्रभावित हुए जिसका सीधा असर रोजगार और सकल उत्पाद पर पड़ा।

आमतौर पर इसे एक जटिल विषय के तौर पर देखा गया है। डॉ आर बंदोपाध्याय ने भारत की वित्त और बैंकिंग व्यवस्था का इतिहास बेहद सरल तरीके से लिखा हैः ‘टूवर्ड्स ट्रांसफॉर्मिंग बैंक्स एज पब्लिक इंस्टीट्यूशन’। पीपीएच प्रकाशन से छपी यह पुस्तक लगभग 650 पेज की है। यह 1947 के पहले के दौर का एक संक्षिप्त परिचय पेश करती है। इसके बाद भारत में बैंकिंग का संकट और राष्ट्रीयकरण की नीति के बारे में कई अध्यायों में विस्तार से लिखा गया। लेकिन, इसका अच्छा खासा जोर 2003-2019 की समयावधि पर है। यह वह समय है जब बैंकों का एनपीए तेजी से बढ़ता गया।

यह पुस्तक बैंकिंग व्यवस्था को एक उपयुक्त नीति द्वारा आमजन तक ले जाने पर जोर देती है। साथ ही, ऐसा न करने की वजह से इसके दुष्परिणामों के बारे में भी बात करती है। यह पुस्तक बैंकों के राष्ट्रीकरण को एक बड़ी घटना के तौर पर देखती है, और इस प्रक्रिया को आगे ले जाने पर जोर देती है। इस पुस्तक का विमोचन 16 अगस्त, 2023 को अजय भवन में प्रोफेसर अरुण कुमार, जया मेहता और ब़ाजिल शेख द्वारा किया गया। पुस्तक विमोचन और बातचीत का आयोजन ‘जोशी अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज’ द्वारा किया गया था। कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत संस्था के संयोजक विनीत तिवारी ने किया।

इस मौके पर प्रो अरुण कुमार ने पुस्तक की तारीफ करते हुए कहा कि भारत के बैंकिंग के इतिहास को एक साथ समेटते हुए लिखना एक बहुत ही बड़ा काम है। उन्होंने आर बंदोपाध्याय की पुस्तक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण को चिन्हित करने के बारे में कहा कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था में भी एक निर्णायक मोड़ आया।

उन्होंने पुस्तक की सीमाओं को चिन्हित किया। खासकर, 1990 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव और संसद में इससे संबंधित दस्तावेजों को छुपा ले जाने की बात को याद दिलाते हुए कहा, यह दौर बैंक और भारत के विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था जिस पर इस किताब में थोड़ा और लिखा जाना चाहिए था।

बैंकों में आई समस्या के बारे में बोलते हुए प्रो अरुण कुमार ने कहा कि यह सरकार की नीतियां ही हैं, जिसकी वजह से बैंकों की हालत खराब होती गई; लेकिन निश्चित ही बैंक की ट्रेड यूनियनों ने भी जितनी दबाव की राजनीति करनी चाहिए थी उसमें भी कमी दिखती है।

रिजर्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारी बाजिल शेख ने कहा कि बैंकिंग का बड़ा मसला उसका निजीकरण है, इसे ही बैंकिंग की सारी समस्या का हल बताया जा रहा है। यदि आर बंदोपाध्याय की पुस्तक को देखा जाए तब हमें बैंक का इतिहास इसकी विपरीत दिशा में दिखता है। बैंकों का विकास ही सार्वजनिक क्षेत्र में ले जाने की वजह से हुआ। इसलिए, बैंकिंग की समस्या का हल निजीकरण हो ही नहीं सकता। आज समस्या यही हो गई है कि एनपीए का सारा भार सार्वजनिक बैंकिंग पर लादा जा रहा है। सारी सामाजिक गतिविधियों की जिम्मेदारी भी इन्हीं सार्वजनिक बैंकों पर है। ये वे बैंक हैं जिनके माध्यम से सरकार की सामाजिक पहुंच संभव बनती है।

उन्होंने जोर देते हुए कहा कि बैंक को वैसे ही देखना चाहिए जिस तरह से सार्वजनिक उपयोगिता वाले क्षेत्र हैं। मसलन, पानी की आपूर्ति, बिजली आपूर्ति, सीवेज या इंटरनेट सर्विस। बैंक जनता के लिए इन्हीं की तरह की रोजमर्रा जरूरी उपयोगिता वाला क्षेत्र है। इसे निजी हाथों में सौंपने का अर्थ इन उपयोगिताओं को एक ऐसे हाथ में दे देना है, जो इसे सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाने की नजर से देखेगा, जन की उपयोगिता की नजर से देखेगा ही नहीं।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता ने महाराष्ट्र के पालघर इलाके में अपने फील्ड वर्क का हवाला देते हुए कहा कि आज भी बैंक की जरूरत उन लोगों के लिए है जिन्हें भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी बचत को बैंक में रखना है। समस्या यही है कि आज भी बैंक लोगों की पहुंच से बहुत दूर हैं। इससे चाहे वे सरकारी मदद हो या उनकी अपनी बचत, दोनों का हासिल करना और सुरक्षित रखना एक मुश्किल काम बना हुआ है।

उन्होंने कहा कि बैंक निश्चित ही एक सार्वजनिक उपयोग वाली संस्था है। इसके राष्ट्रीयकरण का अर्थ सिर्फ इतना नहीं था कि एक नीति की घोषणा हो गई। इसके तहत बैंक के कर्मचारियों ने काफी काम किया। वे दूर-दराज के इलाकों में बैंक की शाखा को लेकर गये और लोगों को वित्त की नीतियों में प्रशिक्षित किया, उन्हें बैंक से जोड़ा और उसके लाभ को वितरित करने का भरपूर प्रयास भी किया। इसमें बैंक कर्मचारियों के ट्रेड यूनियन का भी बड़ा हाथ था।

उन्होंने कहा कि इस संस्था में आज कई बदलाव दिख रहे हैं और उससे पैदा होने वाली समस्याओं को भी हम देख रहे हैं। लेकिन, यहां हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि एक सरकार की कोई नीति इधर-उधर हो सकती है, लेकिन राज्य की नीतियों में एक स्थिर गति होती है। यदि राज्य की नीतियों में बदलाव आता है, तब यह गंभीर स्थिति को पैदा करता है। हमें इस बात पर ज़रूर ध्यान रखना होगा।

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