सी पी सिंग
यह लगभग रोज़ ही होता है। जब भी कार से बाहर निकलता हूं तो शहर के मुख्य लालबत्ती चौराहों पर कार रुकते ही फटे कपड़ों में या अधनंगे ही छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां खिड़की के शीशे खटखटाकर कुछ देने की या कोई छोटी-मोटी चीज खरीदने की विनती करते मिल जाते हैं।
हमें अपने तथा हमउम्र दोस्तों के बचपन की यादें बहुत रोमांचित करती हैं। हम कैसे स्कूल से बचने के लिए किसी चारपाई के नीचे घुस जाते थे। कैसे कंचे खेलते थे। होली दिवाली में कैसे हमें नए नए कपड़े मिलते थे। हर साल जुलाई में नई किताबें और नए बस्ते हमारे लिए असीम खुशियां लेकर आते थे। हमारे घर के बड़े हमें मेला ठेला दिखाने ले जाते थे। गांव के पोखर में डुबकी मार कर घंटों नहाने में कितना मजा आता था। गेंद या लट्टू को लेकर आपस में गुत्थमगुत्था होने पर और स्कूल की शिकायत पर कैसे हमारी पिटाई होती थी और फिर बीच में आकर अम्मा या दादी हमें और पिटने से कैसे बचा लेती थीं। दूध रोटी, दाल भात, रोटी सब्जी, रोटी चटनी, सत्तू कैसा भी खाना हो मां के वात्सल्य और स्नेह से सराबोर कितना स्वादिष्ट लगता था!
ये हमारे बचपन की रोमांचक स्मृतियां हैं। पर सड़क के इन छोटे छोटे बच्चे बच्चियों के जीवन की शुरुआत ही सहज बचपन के अभाव के साथ होती है। इस कच्ची उम्र में जब उन्हें माता पिता की छाया, समाज का दुलार और स्कूल की शिक्षा मिलनी चाहिए थी तब वे अपनी जिंदगी का बोझ बिना किसी भौतिक व भावनात्मक संबल के खुद उठाने के लिए अभिशप्त हैं। राज्य और समाज को इन बच्चे बच्चियों का बचपन लौटाने और उनके भविष्य को संभालने के लिए क्या यथेष्ट संवेदनशील नहीं होना चाहिए?
हमारे देश में लाखों बच्चे अपना बचपन सड़क पर गुजारने के लिए मजबूर हैं। ऐसे बच्चों की संख्या एक से डेढ़ करोड़ के बीच होने का अनुमान है। संख्या कुछ कम ज्यादा भले ही हो पर कड़वा सच यही है कि पूरी दुनिया में कहीं भी इतनी बड़ी संख्या में बच्चे सड़क पर अपना जीवन गुजारने के लिए नियतिबद्ध नहीं हैं।
सड़क के बच्चे भयानक अभाव, गरीबी, गंदगी, बीमारी और अनेक तरह के खतरों में जीते हैं। ये बच्चे आखिर आते कहां से हैं? सड़क के बच्चों में से कुछ तो ऐसे होते हैं जिनका जन्म ही सड़क पर या आसपास की झुग्गियों में होता है और अकल्पनीय गरीबी के कारण उनके माता-पिता ही उनसे सड़क पर भीख मंगवाने के लिए विवश होते हैं। कुछ बच्चे बहला फुसलाकर या चुराकर लाए गए होते हैं। अपराधी गिरोह बच्चों को चुराकर या अगवा कर उनसे भीख मंगवाते हैं। अनाथ, पारिवारिक हिंसा के पीड़ित और अन्य कारणों से घर छोड़कर भागे हुए बच्चे भी सड़क के बच्चे बनकर रह जाते हैं।
सड़क पर जीवन निर्वाह करनेवाले बच्चों का जीवन इतना दर्द भरा होता है कि उसे शब्दों में व्यक्त किया जाना असंभवप्राय है। इन बच्चों को भरपेट खाना नहीं मिलता है जिससे ये कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। घोर गरीबी तो इनके जीवन की मूल परिभाषा ही है। राज्य, समाज व किसी बड़े का संरक्षण न उपलब्ध होने के कारण इनके साथ मानसिक एवं शारीरिक हिंसा की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे बच्चों के यौन शोषण और उनकी तस्करी का भी खतरा रहता है। निरंतर अस्वास्थ्यकर स्थितियों में रहने के कारण ये बच्चे तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इस तरह के तमाम बच्चे मादक पदार्थों की लत के भी शिकार हो जाते हैं।
सड़क के बच्चे गरीबी, अभाव, शोषण व अत्याचार तो सहते ही हैं, साथ ही वे भोजन, आवास, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। हमारा राज्य आर्थिक संसाधनों के मामले में बहुत सशक्त है और समाज में भी करोड़पतियों, अरबपतियों की भरमार है। ये करोड़पति अरबपति बेशुमार दौलत अपनी शान के लिए खर्च करने में जरा भी नहीं झिझकते हैं। क्या राज्य और समाज की यह अनिवार्य जिम्मेदारी नहीं है कि भयावह स्थितियों में सड़क पर जीने को मजबूर इन बच्चों को उनका बचपन लौटाए और उनके भविष्य को सुधारने के लिए ठोस एवं समयबद्ध उपाय करे।
हमारे देश में जो अरबपति अपने आधुनिक महलों, आयातित कारों, निजी विमानों और वैभव प्रदर्शन के अन्य आडंबरों पर अरबों खर्च करते रहते हैं क्या उनकी मानवीय संवेदना उन्हें सड़क के बच्चों के लिए कुछ करने को जरा भी नहीं झकझोरती है? सड़क के बच्चों को उनका बचपन लौटाने और उनके गरिमापूर्ण पुनर्वास के लिए राज्य और समाज के अर्थ सक्षम लोग बहुत कुछ कर सकते हैं बशर्ते उनमें ऐसे बच्चों के प्रति करुणा और मानवीय संवेदना का संचार हो।