(मेरे साधनाकालीन जीवन की घटना पर आधारित शब्द-संयोजन)
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*पूर्व कथन :*
आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है.
मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : *”बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें”.*
आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.
सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है. आत्माओं के फोटो तक लिए जा चुके हैं.
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विद्यार्थी जीवन की घटना. उस सिद्धयोगी ने जैसे सब कुछ बतलाया था, उसी के अनुसार मैंने शुरू कर दी मूलाधार की साधना। दो माह का समय निकल गया। आरम्भ में सब कुछ नगण्य। अध्यात्म-साधना में पूर्ण श्रद्धा और पूर्ण विश्वास आवश्यक है। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता रहा।
_एक दिन एकाएक साधना के समय सारा शरीर विचित्र रूप से झनझन करने लगा और उसी के साथ ही गर्म भी होने लगा। सिर भी भारी होने लगा। आंखें अपने आप बन्द होने लगीं। नींद बिल्कुल चली गयी। भूख भी लगना बन्द हो गयी।_
कमरे के बाहर बहुत कम ही निकलता। काम ही क्या था ? एक नौकरानी थी, नाम था चमेली, सवेरे आती, चाय, नाश्ता और साधारण भोजन बनाती, अन्य आवश्यक काम करती और चुपचाप सिर झुकाए चली जाती।
बाजार से जो आवश्यक सामान लाना होता, वह भी चमेली ही लाती। बड़ी ही विनम्र, सीधी और सरल लड़की थी चमेली। मुझे भाईजी कहती।
सुन्दर तो उसे नहीं कहा जा सकता, लेकिन व्यक्तित्व उसका अवश्य ही आकर्षक था। पच्चीस से अधिक की नहीं थी वह। बाल-बच्चे भी नहीं थे। एक बड़ा भाई और उसकी पत्नी थी–वह भी कर्कशा। उन्हीं का आश्रय था उस बालविधवा को।
दो-तीन घर काम-धंधा कर अपना खर्च निकाल लेती थी। भाई रिक्शा चलाता था। शाम को देशी थर्रा पीकर घर वापस लौटता, गाली-गलौज करता, मार-पीट करता और चादर से मुंह ढककर सो रहता। नित्य का यही काम था उसका।
एक दिन न जाने कैसे और क्यों मैंने कहा–चमेली ! तू दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती ? अभी तेरी उम्र ही क्या है ? बाल-बच्चे हैं नहीं। कोई अच्छा-सा लड़का देखकर हाथ थाम ले उसका।
चमेली ने सुना और सुनकर मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में बहुत कुछ दिखलायी दिया उस क्षण–दुःख, पीड़ा, वेदना, विवशता और शोषण–सभी की झलक एक साथ जिसे देखकर करुणा से भर उठी मेरी आत्मा।
सिर झुकाए-झुकाए बोली वह पीडामयी–भाईजी ! कौन भला थमेगा मेरा हाथ। झोपड़ी में रह रहे रिक्शा चलाने वाले शराबी भाई की बहन को कौन आश्रय देगा ? कौन हाथ थमेगा एक विधवा का ?
यह सुनकर चुप रह जाना पड़ा मुझे। भला मैं क्या जवाब देता।
उस रात साधना-काल में मूलाधार में तीव्र जलन का अनुभव हुआ मुझे। बड़ी विचित्र जलन थी वह। उससे कष्ट भी हो रहा था और सुख भी मिल रहा था। कैसी थी वह जलन और कैसा था वह उत्ताप ?–मेरी समझ में नहीं आ रहा था कुछ।
थोड़ी देर बाद जलन तो कम होने लगी लेकिन उसके बाद ही पूरा शरीर लगा कांपने। बार-बार रोमांच होने लगा। लगभग दो घण्टे रही यही स्थिति। अन्त में हल्कापन का होने लगा अनुभव।
ऐसा प्रतीत होने लगा कि शरीर का कोई भार ही नहीं है लेकिन अभी तो और अनुभव प्राप्त करना शेष था मेरे लिए। उस समय की स्थिति का वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि अब मेरा सिर फिर भारी होने लगा था और उसी भारीपन में लग रहा था कि सिर के एक भाग में बहुत सारी चीटियां रेंग रही हों।
फिर अचानक शून्य हो गया मेरा मस्तिष्क। भीतर-ही-भीतर बड़ी विचित्र स्थिति का अनुभव कर रहा था मैं उस समय। आप विश्वास करें-न-करें, लेकिन जो सत्य था, वह तो लिखना ही पड़ेगा मुझे।
उसी स्थिति में मेरे सामने एक उज्ज्वल प्रकाश-बिन्दु उभरने लगा धीरे-धीरे। लगा–जैसे उस रहस्यमय प्रकाश-बिन्दु के अस्तित्व में मैं तीव्र गति से समाता जा रहा हूँ किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर।
फिर मेरी बाह्य चेतना लुप्त हो गयी। बस, मैं इतना ही जान सका चेतना-शून्य होने से पहले। फिर-फिर ‘टन-टन’ कर बारह का घण्टा बजा रात का। फिर क्या हुआ ?–मैं नहीं जानता और उसी स्थिति में देखा–वह प्रकाश-बिन्दु चारों ओर फैलता गया, फैलता गया और फैलता ही गया।
अब मैं अपने अस्तित्व का बोध उस प्रकाश के विस्तार में कर रहा था एक विचित्र एकाकीपन के साथ। उस प्रकाश में मेरी आँखें चौंधिया रही थीं। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? कहाँ जाऊं ?
यही सोचकर चौंधियाई आंखों से चारों ओर दखने लगा। मगर कुछ और दिखलायी दे तब न ! और तभी एक जोर का झटका लगा और उसी समय कमरे का बन्द दरवाजा ‘धड़ाम’ की आवाज़ के साथ खुला और गिरती-पड़ती और लड़खड़ाती हुई कमरे के भीतर आयी चमेली।
चेहरा तमतमाया हुआ था उसका और आंखें भी खून की तरह लाल हो रही थीं। बड़ा ही डरावना रूप था उस समय चमेली का। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो गया उस सरलचित्त लड़की को।
अपनी लाल हो रही आंखों से मेरी ओर घूरती हुई अपने दोनों हाथ फैलाकर बढ़ने लगी मेरी ओर वह। भयभीत हो उठा मैं एकबारगी। कुछ सोचने-समझने की क्षमता थी ही नहीं उस समय मेरे मस्तिष्क में। आँख बंद हो गई मेरी. खुली तो वहां कोई नहीं था, शून्य के आलावा.
रात का तीसरा प्रहर था शायद। पूरा कमरा वैसे तो अंधेरे में डूबा हुआ था, लेकिन पूरब की ओर की खिड़की खुली हुई थी, उधर से थोड़ा प्रकाश भीतर आ रहा था और तभी उस स्याह अंधकार में एक भयंकर चीख गूँजकर चीथड़े हो गयी। जानते नहीं–मैं डाकिनी हूँ..डाकिनी.. वर्णाक्षररूप बीज की शक्ति। तू मुझे क्यों उद्भासित कर रहा है ?
मैं बोला : बस, त्रैलोक्य के ज्ञान के लिए।
_क्या करेगा त्रैलोक्य का ज्ञान प्राप्त कर ? नरमेध समाधि की उपलब्धि क्या कम है तेरे लिए ? सूक्ष्म जगत में स्वतंत्र विचरण कर रहा है। वहां के लोगों से मिलजुल रहा है। अब और क्या चाहिए तुझे ? छोड़ दे आसन और भाग जा यहां से !_
यह सुनकर स्तब्ध और अवाक रह गया मैं। मेरी समझ में नहीं आ रही थी यह रहस्यमयी लीला। मुँह बाये स्तब्ध-सा देखने लगा था चमेली का तमतमाया हुआ चेहरा। आगे बढ़कर चमेली को पकड़ना चाहा लेकिन ऐसा कर न सका। क्यों ?
_वह उस समय पूरी तरह निर्वस्त्र थी। पूरी तरह निर्वस्त्र स्त्री को पहली बार देख रहा था। ग्लानि, लज्जा, उपेक्षा और अवसाद के भाव से भर गया मेरा मन।_
एकाएक कमरे का वातावरण बदल गया। फिर पहले जैसा ही हो गया सब कुछ। आश्चर्य की बात तो यह थी कि न वहां चमेली थी और न तो था उसका रौद्र रूप ही।
सिर घुमाकर मैंने कमरे के दरवाजे की ओर देखा–अरे ! दरवाजा तो भीतर से बन्द था। मैंने ही रोज की तरह बन्द कर सांकल लगाई थी। तब कैसे आयी चमेली कमरे में ?
_हे भगवान ! सिर थामकर बैठ गया मैं एक ओर। सवेरा हुआ। चमेली आयी। पहले जैसी सीधी-सादी, कोई परिवर्तन नहीं। रहा न गया मुझसे, पूछ ही बैठा–चमेली ! तुम कल रात में आई थी यहां ?_
मेरी बात सुनकर चमेली सकपका गयी। उदास चेहरे पर आश्चर्य का भाव उभर आया। सहम कर बोली–नहीं बाबूजी ! मैं कैसे और क्यों आती और वह भी रात में ? मेरा काम तो सवेरे का है। कल तो दोपहर से ही बुखार में पड़ी रही मैं। दवाई ली, थोड़ा आराम हुआ।
सोचने लगा–फिर कौन थी वह चमेली के भेष में ? दौड़ा-दौड़ा अपने प्रेरक सिद्ध योगी के यहां गया और एक ही सांस में सुना दी मैंने उनको पूरी कथा।
सब कुछ सुन लेने के बाद वे निर्विकार भाव से बोले–
_ऐसा होना स्वाभाविक है। डाकिनी शक्ति का उन्मेष हो गया है। कोई भी मानवेतर शक्ति भौतिक सीमा में बंधना नहीं चाहती। चमेली के शरीर में प्रवेश कर तुमको मार्गभ्रष्ट करना चाहती थी वह। सतर्क और सावधान रहो। योग-तन्त्र का साधना मार्ग अत्यधिक कंटकाकीर्ण है।_
सोच-समझकर चलना आवश्यक है। रही प्रकाश की बात तो वह वास्तव में तुरीयावस्था का प्रकाश है। शीघ्र ही तुम्हारा अस्तित्व बोध करेगा उस स्थान का जहां महापण्डित कवीन्द्राचार्य विद्यमान हैं
यह सुनकर मन थोड़ा आश्वस्त हुआ। लेकिन फिर भी चमेली का रूप देखकर मन खिन्न-सा हो गया था। कुछ विचित्र-सा लगने लगा था। न जाने किस संस्कार के कारण और न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर चल पड़ा था मैं योग-तन्त्र के रहस्यमय तिमिराच्छन्न कंटकाकीर्ण मार्ग पर।
रात थोड़ी अधिक हो गयी थी। घर नहीं गया। लालीघाट पर न जाने कब तक बैठा रहा गालों पर हाथ धरे। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। थोड़ी शान्ति मिली उद्विग्न मन को। सोचते-सोचते मन में आया–छोड़ दूँ यह सब। बेकार के चक्कर में पड़ गया, लेकिन फिर विचार आया कि इतनी लम्बी यात्रा तय करने का परिणाम व्यर्थ चला जायेगा। भाव में डूबा हुआ किसी प्रकार घर आया।
बिस्तर पर लेट गया। लेकिन ऐसी विचलित अवस्था में नींद कहाँ से आती। रातभर उधेड़-बुन में ही पड़ा रहा और बिस्तर पर करवटें बदलता रहा।
भोर का समय !
एक चिरपरिचित सुगन्ध से भर उठा कमरा। समझते देर न लगी। पलटकर देखा–सामने रोहिणी खड़ी मुस्करा रही थी, बोली–हो गयी साधना ?
उसके स्वर में व्यंग्य था। थोड़ा और निकट आकर बोली–
_तुमसे मेरा सैकड़ों वर्षों का सम्बन्ध है। कैसा है वह सम्बन्ध ? वह मैं ही जानती हूँ। दूसरा कोई नहीं जान सकता। तुम भी नहीं जानते। मानव शरीर में हो न ? तब भला कैसे जानोगे ? क्या करूं ? मन नहीं मानता। तुमको थोड़ा-सा परेशान देखती हूं तो मन न जाने कैसा होने लगता है। विह्वल हो उठती हूँ मैं। यक्षलोक में फिर रहा नहीं जाता मुझसे। आना ही पड़ता है तुम्हारे पास।_
क्यों आ जाती हो ?
बन्धु ! में तो यही कहूँगी–रुको मत। पूर्ण श्रद्धा और पूर्ण विश्वास से आगे बढ़ते चलो। सफलता जो मिलनी होगी, वह तो मिलेगी ही अवश्य। नारायण भट्ट जैसे प्रकाण्ड और यशस्वी विद्वान तुम्हारे सम्पर्क में आ गए तो कवीन्द्राचार्य को भी सम्पर्क में आना ही है कभी-न-कभी।
_तुरीयावस्था को उपलब्ध होने पर उन सूक्ष्म शरीरधारिणी विदेही आत्माओं से और उन दिव्य ज्योतिर्मयी आत्माओं से भी सम्पर्क स्वतः स्थापित हो जाएगा और उनके द्वारा आध्यात्मिक क्षेत्र का जो गूढ़ गोपनीय तिमिराच्छन्न विषय है, उस पर भी प्रकाश पड़ेगा। तुमको बतला दूँ कि ऐसी आत्माएं अपना माध्यम बनाने के लिए तुम जैसे लोगों की खोज में रहती हैं, इसलिए कि माध्यम द्वारा अपना विचार और संदेश संसार के कल्याणार्थ प्रेषित कर सकें।_
समथिंग इज नथिंग. नथिंग इज समथिंग. जबसे शून्य की साधना मैंने शुरू की थी, उसके कुछ ही दिनों बाद से मुझे जो कुछ आतंरिक रूप से अनुभव प्राप्त हुआ था, उन सबसे मुझे ऐसा लगता था कई अदृश्य प्राणी मेरे चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं। उनके अस्तित्व का तो स्पष्ट अनुभव होता था पर वे चाहते क्या हैं–यह समझ में नहीं आ रहा था।
दोपहर का समय था। अपने कमरे में तख़्त पर लेटा था। पश्चिम की खिड़की से धूप भीतर आ रही थी। सन्नाटा फैला हुआ था चारों और। तभी चमेली ( काम वाली लड़की) आ गई। उसका काम करने का समय तो सवेरे का था ,इस समय कैसे ?
_आश्चर्य हुआ। फिर सोचा–कुछ मांगने आई होगी। उसकी साँस तेज चल रही थी उस समय। लगा कि–कहीं से दौड़ती हुई आई है वह और आते ही धम्म से बैठ गयी मेरे तख़्त पर। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। उसका चेहरा लाल हो रहा था, होंठ काँप रहे थे। फटी-फटी आँखों से देख रही थी वह मेरी ओर। उन नेत्रों में कौन-सा दावानल धधक रहा था–समझ न सका मैं।_
उसके व्यवहार में सहजता नहीं थी। खुले लम्बे बाल पीठ पर बिखरे हुए थे। मैं कौतूहल और भयमिले भाव से उसकी ओर देख रहा था उसके असामान्य रूप को।
_क्या देख रहा है तू, बोल,पहचाना नहीं ? कैसे पहचानेगा, तू तो मुझे अपनी नौकरानी चमेली समझ रहा है ? मैं चमेली नहीं हूँ। मैं डाकिनी हूँ..डाकिनी.. मूलाधार शक्तिपीठ की महाशक्ति डाकिनी। समझ में आया कुछ ?_
यह सुनकर एकबारगी मैं स्तब्ध रह गया। समझते देर न लगी । चमेली के शरीर में प्रवेश कर आई थी डाकिनी। अपने खुले बालों को बाँधती हुई बोली–
_तुम जैसे लोग सोचते हैं कि मुफ़्त में सब कुछ मिल जाय, लेकिन मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता। मूल्य चुकाना होगा। जितना मूल्य देने के लिए तैयार होगे, उतने ही तुम पात्र बनते जाओगे। जितनी तुम्हारी तैयारी है, उतना तुम्हें अवश्य मिल जायेगा। इसमें संदेह नहीं। जो व्यक्ति जितना पात्र होता है, उससे कम या ज्यादा उसे नहीं मिलता। ‘योग्यता’ और ‘प्राप्त होना’–एक ही चीज़ के दो नाम हैं। यही कारण है कि हम आध्यात्मिक शक्ति पाने के लिए इधर-उधर भटकते फिरते हैं पागलों की तरह। कहीं कुछ मिल जाय, कोई सिद्धि उपलब्धि हो जाय। किसी सन्त-महात्मा की कृपा मिल जाय। तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो, वह कभी समाप्त होने वाला नहीं है। तुम जितनी योग्यता प्राप्त करोगे, उतनी ही होगी उपलब्धि।_
थोडा रुक कर डाकिनी बोली—
_मैं तुमको सिद्ध हो चुकी हूँ। जो भी साधक मूलाधार पर अधिकार कर लेता है, उसी को सिद्ध हो जाती हूँ मैं–इसमें संदेह नहीं। मेरी सिद्धि जीवन के हर मोड़ पर तुम्हारे लिए सहायक सिद्ध होगी। वह मोड़ कैसा भी हो। बार बार इस तरह मेरा आना सम्भव नहीं है। लेकिन बिना आये काम भी तो नहीं चलता। क्या करूँ ? विवश जो हूँ। तुमसे बात करने के लिए इतनी व्याकुल थी कि चमेली के शरीर को माध्यम बनाना पड़ा मुझे। अब तो मेरा आना असंभव है पर मेरी अगोचर उपस्थिति का आभास समय-समय पर मिलता रहेगा।_
डाकिनी की रहस्यमयी बातें सुनकर अवाक् और स्तब्ध रह गया मैं। कुछ सोचूं, कुछ समझूँ कि उसके पहले कमरे में एक चीख गूंज गई और उसी के साथ चमेली लुढ़क कर गिर गयी कमरे के फर्श पर।
बेहोशी की स्थिति में थी चमेली। हतप्रभ-सा देखता रह गया मैं चमेली को। कोई साधारण व्यक्ति इस समय देखता तो मेरे बारे में क्या सोचता ?
दूसरे दिन सुनने में आया कि उसी रात बिना कुछ कहे चमेली चली गई कहीं। यह सुनकर मैं सन्न रह गया। कहाँ गयी होगी वह भोली- भाली लड़की ? चरित्र की स्वच्छ स्वस्थ थी चमेली।
मैं उसी समय प्रेरक बाबा के पास गया। सारी कथा सुनाई उनको मैंने। बाबा ने ध्यान से सब सुना ,बोले कुछ नहीं, आँखे बंद किये रहे। जाने क्या सोचते रहे बाबा? बाद में बाबा ने जो कुछ मुझे बतलाया, उसे सुनकर मैं दंग रह गया एक बारगी।
उनके अनुसार चमेली पूर्व जन्म की मेरी शिष्या थी. उसे डाकिनी ने गायब किया है. इसी क़ीमत की बात वह कर रही थी. चमेली ही उसका मूल्य है.
दो वर्ष बीत गए. बात आई गई हो गई क्योंकि चमेली का कोई पता नहीं चला.
एक दिन शाम के समय दुर्गाजी के दर्शन करते समय राम अवतार पाण्डेय मिल गए। मुझे देख कर मुस्कराये और उसी मुद्रा में बोले-
_आपने सुना मानवजी, बड़े आश्चर्य की बात है। जो रिक्शावाला बिहारी खोजवां में रहता था, उसकी बहन चमेली जो आपके यहाँ काम करती थी और अचानक भाग गयी थी, जानते हैं वह आज वापस लौट आई है ?_
क्या?
मेरी बात काटकर वे बोले : लेकिन चमेली वह चमेली नहीं रही, सन्यासिनी बन गई है। ढेर सारा रुपया है उसके पास। न जाने कहाँ से लेकर आई है। बिहारी का तो ठाट-बाट देखते ही बनता है। दस-बारह रिक्शे रख लिए हैं उसने। आलीशान चार मंजिला मकान और कई दुकानों का मालिक बन गया है वह।”
आश्चर्य और कौतूहल के भाव से भर गया मेरा मन। समझते देर न लगी मुझे। चमेली के शरीर का मूल्य चुका दिया डाकिनी ने इस रूप में। रहा न गया मुझसे। उसी समय चल पड़ा बिहारी से मिलने। चमेली को भी देखने की प्रबल इच्छा थी मन में।
सचमुच बिहारी का मकान बहुत सुन्दर और आलीशान था। बिहारी मिला और सन्यासिनी भी मिली पर चमेली नहीं मिली। भारी भीड़ थी मकान के सामने। दरवाजे के पास चमेली का शव गेरुआ वस्त्र में लिपटा हुआ पड़ा था।
_डाकिनी छोड़कर चली गयी थी चमेली के शरीर को। भला मेरे सिवाय कौन जानता था इस रहस्य को। विषण्ण मन से लौट आया मैं।_
रात में काफी देर तक नींद नहीं आई। कभी चमेली के सम्बन्ध में तो कभी डाकिनी के सम्बन्ध में सोचता रहा मैं। भोर के समय तंद्रिल अवस्था में देखा–
_एक सुन्दर स्त्री मेरे सामने खड़ी मुस्करा रही थी। आयु अधिक नहीं थी, बस, अठारह वर्ष के लगभग। गोरा रंग, छरछरा बदन, घने बाल, कजरारी ऑखें, गालों पर लावण्य के कण, पतले गुलाबी ओंठ, गले में रत्नजड़ित स्वर्णहार, हाथों में कंगन और देह पर गुलाबी रेशमी साड़ी।_
कौन है या ? क्या काम है मुझसे ? मेरे पास क्यों आई है ? अभी यही सब सोच रहा था कि युवती का कोमल स्वर कानों में पड़ा–
_पहचाना नहीं तुमने ? कैसे पहचानोगे भला ? चमेली की काया के भीतर जो नहीं हूँ।_
सुनकर रोमांचित हो उठा मैं एकबारगी। तुम..तुम..डाकिनी हो ?
_हाँ, मैं डाकिनी ही हूँ–ठीक पहचाना। जिस काया को तुम देख रहे हो वह चमेली की नहीं है, किसी और की भी नहीं है। स्वयं इस शरीर की रचना अपने आपको प्रकट करने के लिए मैंने की है। जब कभी तुम्हारे पास आना होगा तो इसी रूप में आऊँगी मैं। समझे न ?_
लेकिन क्यों आओगी, क्या आवश्यक है आना ? झल्ला उठा मैं।
_ऐसा मत कहो। तुमने तो मुझे सिद्ध कर लिया है अर्थात् अपने वश में कर लिया है। अब मैं तुम्हारी सिद्धि हूँ। मैं कैसे अलग हो सकती हूँ भला तुमसे ?_
मैं मुंह बाये देखता रह गया उस युवती के रूप में डाकिनी रूपी सिद्धि को। आगे कुछ बोलना चाहा लेकिन गले से आवाज़ ही नहीं निकली।
वह अति-सुंदरी बोली–
_डरता क्यों है तू मुझसे ? मैं तो तेरी सहयोगिनी हूँ। जब मेरी इच्छा होगी तब चली आऊँगी तेरे पास। या जब भी तू मेरा आवाहन करेगा तो खिची चली आऊँगी।_
इतना कहकर वह गायब हो गयी।
सवेरा हो चुका था।