Site icon अग्नि आलोक

*प्रेमयोग की सिद्धि के लिए सेक्स के अतिक्रमण*

Share

       डॉ. विकास मानव

संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था, शैतान से घृणा करो, प्रेम नहीं। राबिया ने वह लाइन काट दी।

    कुछ दिन बाद उससे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा।

    उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा, जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।

राबिया ने कहा- इसे तो मैंने ही काटा है।

संत ने अधीरता से कहा- तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो। शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है।

   इस पर राबिया ने कहा- पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो, लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी,,लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।

   संत ने पूछा- “क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।“

  राबिया बोली- प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी। हम सबकी एक ही तकलीफ है।

  हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं,, देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।

   संत ने कहा- “अब समझा, राबिया!

तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है।दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है।इसलिए हम प्रेम नहीं करते,प्रेम करने का नाटक करते हैं।यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता।“

    वास्तव में प्रेम की परिभाषा ईश्वर की परिभाषा से अलग नहीं है।दोनो ही देते हैं बदले में बिना कुछ लिये। 

   ईश्वर,माता-पिता,प्रकृति सभी बिना हमसे कुछ पाने की आशा किये हमें देते हैं और यह इंतजार करते रहते हैं कि हम कब उनसे और अधिक पाने के योग्य स्वयं को साबित करेंगे और वे हमें और अधिक दे सकेंगे।

    प्रेम को जानना है तो पेडों और फूलों को देखिये तोडे और काटे जाने की शिकायत तक नहीं करते बस देने में लगे हैं.

 *प्रेम क्या है?*

  किसी को पाना या खुद को खो देना ? एक बंधन या फिर मुक्ति? जीवन या फिर जहर? इसके बारे में सबकी अपनी अपनी राय हो सकती हैं लेकिन वास्तव में प्रेम क्या है : आइए जानते हैं। 

    मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं मैं तुमसे प्रेम करता हूं आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है आप उसे खो देते हैं।

   जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।

अगर आप खुद को नहीं मिटाते तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए।

    आपके अंदर का वह हिस्सा जो अभी तक आपका था उसे मिटना होगा जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते तो यह प्रेम नहीं है बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।

जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं जैसे पारिवारिक संबंध वैवाहिक संबंध व्यापारिक संबंध सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं।

     ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम मिटा देने की बात कहते हैं तो हो सकता है यह नकारात्मक लगे।

     जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व अपनी पसंद-नापसंद अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं।

     यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।

   जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका आपके महसूस करने का तरीका आपकी पसंद-नापसंद आपका दर्शन आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है।

    आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं तो आप देखेंगे कि इस ’मैं’ का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।

*एक से अधिक का चक्कर मुसीबत में डालने वाला :*

    प्रेम महत्वपूर्ण है , सीखने के लिए एक अच्छी परिस्थिति , लेकिन केवल सीखने के लिए.

   एक पाठशाला काफी है. दो-तीन पाठशालाएं अधिक हो जाएंगी और एकाधिक स्त्रियों या पुरुषों से तुम कुछ न सीख पाओगे. तुम मुसीबत में फंस जाओगे.

    एक के साथ रहना बेहतर है ताकि तुम समग्रता से उसके साथ जी सको , ताकि तुम उसे अच्छी तरह समझ पाओ और अपनी लालसाओं को भी.

   ताकि तुम कम उलझन में रहो , कम पीड़ा में रहो क्योंकि प्रारंभ में प्रेम एक मूर्छा में हुई घटना है ; यह मात्र जैविक है , इसका कोई अधिक मूल्य नहीं है . केवल जब तुम इसके प्रति सजग होते हो.

    अधिक ध्यानपूर्ण होते हो तो वह मूल्यवान होना शुरू होता है , इसका महत्व बढ़ना शुरू होता है. एक स्त्री या एक पुरुष से घनिष्ठता बेहतर है बजाए बहुत से उथले संबंधों के . प्रेम कोई मौसमी फूल नहीं है. इसे खिलने में वर्षों लग जाते हैं और जब यह खिल जाता है तभी बायोलॉजी , देह के पार जाता है और इसमें अध्यात्म का कुछ रंग आता है.

    कई स्त्रियों या पुरुषों के साथ रहने से तुम उथले रह जाते हो . मनोरंजन तक तो ठीक लेकिन इसमें उथलापन है , तुम व्यस्त भी हो जाते हो लेकिन वह व्यस्तता आंतरिक प्रौढ़ता में सहायक नहीं होती.

    लेकिन एक पुरुष व्यक्ति के साथ लंबे समय के लिए रखे गए संबंध अत्यंत लाभदायक सिद्ध होते हैं क्योंकि तुम एक – दूसरे को गहराई से समझ पाते हो . ऐसा क्यों है ? और स्त्री या पुरुष को समझने की आवश्यकता ही क्या है ?

    आवश्यकता इसलिए है क्योंकि प्रत्येक पुरुष में स्त्रैण रूप भी है और प्रत्येक स्त्री में रूप , इसे समझने का सरलतम , सर्वाधिक प्राकृतिक ढंग एक ही है : किसी के साथ गहरे आत्मीय संबंध स्थापित करना , यदि आप पुरुष हैं तो किसी स्त्री के साथ गहरे आत्मीय संबंध बनाएं , विश्वास को जन्मने दें ताकि सब बाधाएं मिट जाएं , एक – दूसरे के इतने नजदीक आ जाएं कि आप स्त्री के भीतर गहरे झांक सकें और स्त्री आपके भीतर गहरे झांक सके.

   एक दूसरे के साथ बेईमानी न करें , और यदि आपके अनेक संबंध हैं तो आपको बेईमान होना पड़ेगा , निरंतर झूठ बोलना होगा 

*सेक्स का अतिक्रमण :*

     सेक्स का विषय बहुत सूक्ष्म और नाजुक है, क्योंकि सदियों से किए जाने वाला शोषण, भ्रष्टाचार, सदियों से चले आ रहे विकृत विचार, धर्म और समाज द्वारा दिया अनुशासन और आदतें इन सभी को जोड़कर ही जो शब्द बनता है वह है सेक्स। 

    क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है कि एक विशिष्ट आयु में आकर सेक्स अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। चौदह वर्ष की आयु अथवा उसके निकट की आयु में अचानक सेक्स के साथ ऊर्जा की बाढ़ सी आती है।

    ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे अंदर मानो ऊर्जा की आई बाढ़ को रोकने वाले दरवाजे खोल दिए गए हों। ऊर्जा के सूक्ष्म स्रोत जो अभी तक खुले नहीं थे, एक साथ खुल जाते हैं, और तुम्हारी पूरी ऊर्जा सेक्स के साथ कामवासना बन जाती है।

     तुम सेक्स के बारे में ही सोचते हो, तुम सेक्स के बारे में ही गुनगुनाते हो, तुम चलते हुए भी सेक्स के बारे में ही सोचते हो, और प्रत्येक चीज कामुक हो उठती है। प्रत्येक कृत्य जैसे उसी के रंग में रंग जाता है। ऐसा स्वयं घटता है। तुम उस बारे में करते कुछ भी नहीं। यह सभी स्वाभाविक है।

     सेक्स का अतिक्रमण बिना किसी प्रयास के होता है। तुम्हारा उसमें कोई पार्ट नहीं होता। यदि तुम कोई प्रयास करोगे तो वह दमन होगा क्योंकि उसका तुम्हारे साथ कोई लेना देना नहीं। वह तुम्हारे शरीर में जीवविज्ञान के अनुसार जन्मजात है। तुम कामुक अस्तित्व से ही उत्पन्न होते हो, उसने कुछ भी गलत नहीं है। जन्म लेने का केवल यही एक तरीका है। मनुष्य होना ही कामुक होना है।

     जब तुम गर्भ में आये तुम्हारे माता और पिता प्रार्थना नहीं कर रहे थे, वे लोग किसी पादरी का उपदेश नहीं सुन रहे थे। वे किसी चर्च में नहीं बैठे थे, वे आपस में प्रेमालाप कर रहे थे। यह सोचना ही कि जब तुम गर्भ में आये, तो तुम्हारे माता और पिता प्रेम कर रहे थे, बहुत कठिन लगता है। वे आपस में प्रेम कर रहे थे, उनकी काम ऊर्जाएं एक दूसरे से मिलकर एक दूसरे में समाहित हो रही थीं।

    एक गहरे कामुक कृत्य के बाद ही तुम गर्भ में आए। पहला कोष ही सेक्स कोष था, लेकिन आधारभूत रूप से प्रत्येक कोष में कामवासना होती है। तुम्हारा पूरा शरीर सेक्स के कोषों से ही बना हुआ है, जिसमें लाखों कोष हैं, और जिसमें विरोधी सेक्स के प्रति मौन आकर्षण होता है।

     स्मरण रहे यौन सम्बन्धों के कारण ही तुम अस्तित्व में हो। एक बार तुम इसे स्वीकार लो, तो सदियों से उत्पन्न हुआ संघर्ष समाप्त हो जाता है, एक बार तुम उसे गहराई से स्वीकार कर लो, और बीच में कोई दूसरे विचार न हों. जब सेक्स के बारे में तुम उसे स्वाभाविक मानकर जीते हो, तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि खाने का कैसे अतिक्रमण किया जाये, तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि सांस का कैसे अतिक्रमण किया जाए क्योंकि किसी भी धर्म ने तुम्हें सांस का अतिक्रमण करना नहीं सिखाया है, अन्यथा तुम पूछते सांस का अतिक्रमण कैसे किया जाए?”

    तुम सांस लेते हो, तुम सांस लेने वाले प्राणी या एक जानवर हो, तुम साथ ही सेक्स अंगों वाले भी एक जानवर हो। लेकिन इसमें एक अंतर है। तुम्हारे जीवन के चौदह वर्ष जो शुरू के होते हैं, लगभग बिना सेक्स के होते हैं, अधिकतर केवल प्राथमिक पैमाने के यौन अंगों के खेल जैसे ही होते हैं, जिनमें वास्तव में कामवासना नहीं होती।

    केवल तैयारी होती है, पूर्वाभ्यास होता है, सब कुछ बस इतना ही होता है। अचानक चौदह वर्ष की अवस्था में ही सेक्स ऊर्जा परिपक्व होती है।

      जरा निरीक्षण करें। एक बच्चा जन्म लेता है.. तुरंत तीन सेकिंड में ही बच्चे को सांस लेनी होती है। अन्यथा वह मर जाएगा। तब सांस लेना पूरे जीवन भर होता रहता है, क्योंकि वह जीवन के प्रथम कदम पर आया है। उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। यह हो सकता है कि मरने के केवल तीन सेकिंड पहले वह रुक जायेगा, लेकिन इससे पहले नहीं।

     हमेशा याद रहे, जीवन के दोनों छोर, प्रारंभ और अंत ठीक एक जैसे है संगतिपूर्ण है। बच्चा जन्म लेता है और सांस लेना तीन सेकिंड के अंदर शुरू कर देता है। जब बच्चा बूढ़ा होकर मर रहा है, उसी क्षण वह सांस लेना बंद करता है और तीन सेकिंड के अंदर मर जाता है।

     बच्चा चौदह वर्ष की आयु तक बिना सेक्स के रहता है और सेक्स का प्रवेश काफी देर से होता है। और यदि समाज बहुत अधिक दमन करने वाला नहीं है, और कामवासना ने मन को पूरी तरह आवेशित ही नहीं कर दिया तो बच्चा इस तथ्य के प्रति पूरी तरह भूल जाता है कि सेक्स या उस तरह की कोई चीज अस्तित्व में भी है।

    बच्चा पूरी तरह निर्दोष बना रह सकता है। यह निर्दोषिता भी उनके लिए सम्भव नहीं है। जो लोग बहुत अधिक दमित हैं। जब दमन होता है तब उसके साथ ही साथ पहले से ही मन में जड़ जमाये अनेक भ्रम भी होते हैं।

    इसलिए अपने मन में सेक्स के विरुद्ध एक भी विचार लेकर मत चलो, अन्यथा तुम कभी भी उसके पार न जा सकोगे। वे लोग जो सेक्स का अतिक्रमण कर गए ये वही लोग थे जिन्होंने उसे सहज स्वाभाविक रूप में स्वीकार किया। यह बहुत कठिन है। मैं जानता हूं क्योंकि तुमने जिस समाज में जन्म लिया है।

     वह सेक्स के बारे में इस तरह या उस तरह से मानसिक रूप से विकारग्रस्त है। लेकिन यह मानसिक विक्षिप्तता सभी जगह एक ही सी है। इस मानसिक दशा से बाहर निकलना बहुत कठिन है, लेकिन यदि तुम थोड़े से सजग हो, तो तुम उससे बाहर आ सकते हो। 

     सेक्स सुंदर है। सेक्स अपने आप में एक स्वाभाविक लयबद्ध घटना है। यह तब घटती है, जब शिशुगर्भ में आने के लिए तैयार होता है और यह अच्छा है कि ऐसा होता है, अन्यथा जीवन का अस्तित्व ही न होता। जीवन का अस्तित्व सेक्स के ही द्वारा है, सेक्स उसका माध्यम है। यदि तुम जीवन को समझते हो, यदि तुम जीवन को प्रेम करते हो, तो तुम उसमें प्रसन्नता का अनुभव करोगे.

      इसलिए जब कभी भी तुम किसी भी कार्य को आधे— अधूरे हृदय से करते हो, तो वह लम्बे समय तक कहीं अटका रहता है। यदि तुम मेज पर बैठे हुए आधे— अधूरे हृदय से भोजन कर रहे हो, और तुम्हारी भूख बनी ही रहती है तो तुम पूरे ही दिन भोजन के ही बारे में सोचते रहोगे। तुम उपवास करने की कोशिश कर सकते हो और सोचते रहोगे।

     तुम उपवास रखने की कोशिश कर सकते हो और तुम देखोगे कि तुम निरंतर भोजन के बारे में ही सोचते रहोगे। लेकिन तुमने भरपेट तृप्ति से भोजन किया है, और जब मैं कहता हूं भरपेट तृप्ति से तो मेरा अर्थ नहीं है कि तुमने डूंस— ठूंस कर भोजन किया है, सम्यक भोजन करना एक कला है।

    ध्यानतंत्र कहता है—कि किसी भी स्त्री या किसी भी पुरुष से प्रेम करने के पूर्व पहले प्रार्थना करो क्योंकि वहां दो ऊर्जाओं का दिव्य मिलन होने जा रहा है। परमात्मा तुम्हारे चारों ओर ही होगा। जहां भी दो प्रेमी होते हैं, वहां परमात्मा होता ही है। जहां कहीं भी दो प्रेमियों की ऊर्जाएं मिल रही हैं। एक दूसरे में समाहित हो रही हैं, वहां जीवन और जीवंतता अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में है और परमात्मा चारों ओर से घेरे हुए है।

     चर्च खाली पडे हैं और जिन कक्षों में प्रेम किया जा रहा है, वे सभी परमात्मा से भरे हुए हैं। यदि तुमने प्रेम का स्वाद उस तरह से लिया है जिस तरह से उसका स्वाद लेने को तंत्र कहता है यदि तुम प्रेम करने की वह विधि जानते हो जिसे जानने की बात ताओ कहता है तो बयालिस वर्ष की आयु तक पहुंचने पर प्रेम स्वयं ही अपने आप तिरोहित होना शुरू हो जाता है।

    तुम उसे गुडबाई कह देते हो, क्योंकि तुम अहोभाव और उसके प्रति कृतज्ञता से भरे हुए हो। वह तुम्हारे लिए परम प्रसन्नता और परमानंद बन कर रहा है, इसीलिए तुम उसे गुडबाई कहते हो।

    बयालीस वर्ष की आयु ध्यान के लिए बिलकुल ठीक आयु है। सेक्स विसर्जित हो जाता है, वह अतिरेक से बहती हुई ऊर्जा अब वहां नहीं है। कोई भी ऐसा व्यक्ति कहीं अधिक शांत हो जाता है। वासना चली जाती है, करुणा का जन्म होता है। अब वहां वह ज्वर और ज्वार नहीं अब कोई भी किसी दूसरे में रुचि नहीं ले रहा है। सेक्स के विलुप्त होने के साथ ही दूसरा व्यक्ति अब केंद्र में रहा ही नहीं। अब वह अपने स्वयं के स्रोत की ओर वापस आना शुरू कर देता है। वापस लौटने की यात्रा का शुभारंभ हो जाता है।

     सेक्स का अतिक्रमण तुम्हारे किन्हीं प्रयासों के द्वारा नहीं होता। वह तभी घटता है यदि तुम समग्रता से जिये हो। इसलिए मेरा सुझाव है कि सभी जीवन— विरोधी व्यवहार छोड़ कर वास्तविक सच्चाई को स्वीकार करो। सेक्स है, इसलिए तुम उसे छोड़ने वाले होते कौन हो?

   है कौन, जो उसे छोड़ने का प्रयास कर रहा है? वह केवल अहंकार है। स्मरण रहे सेक्स ही अहंकार के लिए सबसे बड़ी समस्या उत्पन्न करता है।

Exit mobile version