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यात्रा, सफ़र और अंग्रेजी का Suffer?

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शशिकांत गुप्ते

तीर्थ यात्रा में आपार भीड़ हो रही है। क्षमा करना भीड़ नहीं श्रद्धालुओं का समूह है। तीर्थ यात्रा करने से दो लाभ होतें हैं, एक तो मान्यता के आधार पर पापकर्मो से मुक्ति मिलती है। दूसरा पर्यटन हो जाता है। एक पंथ दो काज हो जातें हैं। सुनने,पढ़ने में आरहा है कि, तीर्थ क्षेत्र में खाना, रहना, पानी महंगा बिक रहा है। पुण्य कमाने के लिए सब जायज है।
यात्रा का सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और व्यक्तिगत महत्व होता है।
धार्मिक महत्व को हम भुगत चुके हैं, क्षमा करना धार्मिक यात्रा जो रथ पर आरूढ़ होकर की गई थी,उसका अनुभव अविस्मरणीय है। इस यात्रा के दौरान कईं धर्मप्रेमी देशवासियों ने अपने प्राण गवाएं थे।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व चंद्रशेखरजी ने भी यात्रा की थी। कुष्ठ रोगियों के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले बाबा आमटेजी भी Knit India मतलब भारत जोडों आंदोलन कर चूकें हैं।
बहुत से लोगों को जुनून होता है। साइकल पर या पैदल, या दुपहिया वाहन पर अकेले या समूह के साथ यात्रा करतें हैं।
अब पुनः यात्रा करने का ऐलान हुआ है। यह यात्रा भी भारत को जोड़ने के लिए ही की जाएगी?
यात्रा मतलब Travel. इसे उर्दू में सफ़र कहतें हैं।
तमाम यात्राओं का नतीजा जो भी कुछ हुआ है या भविष्य में होगा?
महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि,आम आदमी को क्या मिलेगा। (आम आदमी मतलब देश के आमजन की बात की जारही है। यहाँ देहली और पंजाब में मुफ्त की खैरात बांटने वाले आप की बात नहीं की जा रही है।)
महत्वपूर्ण सवाल पुनः दोहरातें हैं, आमजन का क्या होगा?
आम तो बेचारा दशकों से अंग्रेजी का Suffer कर रहा है, मतलब त्रासदी को झेल रहा है, महंगाई को सहन कर रहा है। हरतरह के कष्टों को भुगत रहा है।
सियासी यात्रा पूर्ण सरक्षण के साथ होती है। सारी सुविधाओं के साथ होती है। सियासी यात्राओं का नतीजा चाहे कुछ भी हो, लेकिन प्रचार का प्रसार बहुत होता है।
दुर्भाग्य से देश का आमजन अनिवार्य सुविधाओं से वंचित ही रह जाता है।
वर्णमाला में सदियों से ‘आ: अक्षर का सम्बंध आम से जोड़ा गया है। आम को फलों का राजा जरूर कहतें हैं। हक़ीक़त में आम यदि कच्चा हो सिलबट्टे पर पीस कर या मिक्सर में घुमा कर उसकी चटनी बनाई जाती है। आम पकने पर उसे काट कर या चूस कर खाया जाता है। आम को चूसने के पूर्व हाथों की उंगलियों से मसलतें भी हैं।
यही आम की नियति है। आम के लिए कितनी ही लुभावन नीति बने, नीति को लागू करने वाली तमाम नीतियों पर व्यापक बहस होनी चाहिए। बहस भी नीति को जुमला शब्द में परिवर्तित होने के पूर्व होनी चाहिए।
बहरहाल वर्णमाला में ‘आ’ अक्षर स्वर में गिना जाता है।
यथार्थ में आम का कोई स्वर सुनाई ही नहीं देता है। यह कहना ज्यादा सटीक होगा की आम के स्वर को सुना ही नहीं जाता है।
जो यात्रा होने वाली है,उस यात्रा में आमजन का स्वर सुना जाएगा? या परंपरा का निर्वाह करते हुए, किसी झुग्गी झोपड़ी में एक रात गुजार कर समाचार माध्यमों में वाह वाही लूटी जाएगी?
अभीतक का अनुभव यही है कि दलित,शोषित समाज के यहाँ पंगत में बैठ कर दलित शोषित समाज की कन्याओं के पाव धोते हुए विज्ञापन रूपी समाचार दिखाई दिए हैं। इसतरह के सामाचारों के उपरांत भी दलितों की उत्पीड़न की खबरों में कोई कमी नहीं आती है?
यात्रा निकालो, यात्रा करो,यही निवेदन है कि, आमजन की पीड़ा को समझों,मुफ्त में दान देकर आमजन को अकर्मण्य मत बनाओं। देश के कर्णधार युवाओं रोजगार देखर आत्म निर्भर बनाओं। सिर्फ विज्ञापनों में नहीं यथार्थ में बनाओं।
आपकी यात्रा सफल हो लेकिन आमजन अंग्रेजी के suffer होने बचें यह महत्वपूर्ण मुद्दा भी ध्यान में रखना जरूरी है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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