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भ्रमण यात्रा और इंग्लिश में Suffer

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शशिकांत गुप्ते

पर्यटन मतलब भ्रमण। सम्पन्न लोग शोक मौज के लिए पर्यटन करतें हैं। विपन्न लोग मजबूरी में,या रोजगार के लिए पर्यटन करतें हैं। बहुत से भिक्षावृत्ति में निपुण होकर भिक्षा प्राप्त करने के लिए पर्यटन करतें हैं। बहुत से चुना लगाने वाली कहावत को चरितार्थ करने के लिए देश की वित्तीय संस्थानों को चुनते है। कहावत पूर्ण रूप से चरितार्थ करने पर विदेश में पर्यटन करने निकल पडतें हैं। वहाँ पहुँच कर विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करतें हैं। आलोचना करने वालें इन्हे भगोड़े कहतें हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता,वे तो आश्वश्त होतें हैं और देश की व्यवस्था में विराजमान अपने सहयोगियों का एहसान कभी भूलते नहीं है।
भ्रमण मतलब यात्रा, यात्रा को उर्दू में सफ़र कहतें हैं। देश का औसत आदमी हमेशा अंग्रेजी का Suffer करता रहता है। Suffer मतलब कष्ट,पीड़ा आदि.
पिछले कुछ दशकों से एक पर्यटन की एक नई योजना विकसित हुई है।
जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व त्याग कर समूह के साथ पर्यटन के लिए गोपनीय तरीके से निकल जाते हैं।
इस गोपनीय अभियान का कोई स्वयम्भू सरदार बनता है। यह सरदार अपने ही कुनबे में सेंधमारी करने के लिए,कहावत वाले मौसेरे भाइयों को एकत्रित करता है।
इसतरह के पर्यटन करने वाले मेजबानो द्वारा बहुत ही मेहमान नवाजी रहस्यमय होती है। पाँच सीतारा होटल में पूर्ण रूप से ऐशोआराम मुहैया होता है।
यह सुविधा उपलब्ध करवाने वाला परोपकारी कुनबा इतना उदारमना होता है कि,बेतहाशा धन खर्च ने के बाद भी कहता है, नहीं यह सुविधा हमने उपलब्ध नहीं करवाई है। इतना ही नहीं इस पर्यटन करने वाले समूह से हमारा कोई लेना देना नहीं है।
इतना लिखकर मैने सीतारामजी से सम्पर्क किया और पूछा आगे क्या लिखना चाहिए?
सीतारामजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और मुझे सन 1973 में पदर्शित फ़िल्म के गाने की पैरोडी गाकर सुनाने लग गए।
यह गीत लिखा है गीतकार
आंनद बक्शीजी ने
विविध रंगों का ये बाजार है
खरीददार है कौन,कोई न जाने
चेहरों पे सबकी
आँखे झुकी है
होठों पे सबके कितनी बाते रुकी है
मुश्किल हुआ कुनबे का जीना
बेदील सौदागर दिल
का सौदा करेंगे
उल्फत में बनावटी
आहें भरेंगे
कुछ अदाए बिकेंगी
बहुत सी वफाएं बिकेंगी
हर एक बिकने वाले चेहरे पर
देखो कितनी हसीं है
यहाँ स्वार्थ नीलाम होगा
क्या जाने अंजाम होगा
खरीददार है कौन यह जानकर
अंजान है

मैने पूछा इस पैरोड़ी का का मेरे व्यंग्य से क्या सम्बंध है।
सीतारामजी ने क्रोध में कहा यदि इतना भी नहीं समझते हो तो व्यंग्य लिखना छोड़ दो।
आपने अपने व्यंग्य में पिछले दशकों से विकसित होने वाले पर्यटन का ज़िक्र किया है।
बस इशारों में समझ जाओ।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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