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 बुजुर्ग माँ-बाप को वरदान समझें, अभिशाप नहीं

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~ज्योतिषाचार्य पवन कुमार

आज माँ बाप ज़ब बूढ़े हो जाते हैं
बच्चो को बोझ से नजर आते हैं
जिनकी उँगली थाम के सीखते हैं चलना
उन्ही का सहारा बनने में कतराते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

अपना पेट काट कर पालते थे जिन बच्चो को
वही बच्चे उन्हें दो वक्त की रोटी का मोहताज बना जाते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

अपनी हर ख़ुशी कुर्बान कर दी जिन बच्चो की खातिर
वही बच्चे दो पल ख़ुशी के उन्हें नहीं दे पाते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

बोलने को शब्द दिए जिन माँ बाप ने
उनसे ही दो बोल प्यार से नहीं बोल पाते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

माँ की ममता के आँचल में सींचे गए
पिता के प्यार में पले बढ़े
फिर भी उनके साथ रहने में हिचकिचाते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

क्या यही है हमारे समाज की आधुनिकता
ऐसी आधुनिकता में तो ये रिश्ते दम तोड़ते नजर आते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

कोई क्या दे सकेगा अपने माँ बाप को उनके प्यार के बदले
दे सको तो दो बोल प्यार के दे देना उन्हें
वो तो बस यही मीठे बोल प्यार के सुनना चाहते हैं
माँ बाप जब बूढ़े हो जाते हैं |

बस थोड़ा- सा समय दीजिये और सोचिये : आप अपनी संतान को कैसे पाल रहे हैं? आप जीवन में तमाम जागह कम्प्रोमाइज- सेक्रेफ़ाइज करते हैं. तमाम त्याग करते है. अपनी सुख-सुविधा संबंधी अपने अरमानो को शूली देते हैं. इसलिए की संतान को बेहतर जीवन दे पाएं. इसके लिए अपनी क्षमता भर आप सबकुछ करते हैं. आपकी पूरी जवानी, उनकी जवानी के लिए खप जाती है.
यही संतान अपना जमाना आने पर आपको कबाब में हड्डी समझकर, फालतू या अभिशाप समझकर फेक दे तब? क्या गुजरेगी आप पर??
अगर आप अपने माँ बाप के साथ ऎसा किये या कर रहे हैं, तब तो आपकी संतान आपके साथ जरूर ऎसा करेगी. प्रभाव आपके आचरण का ही उस पर पड़ेगा, लेखन-भाषण-प्रवचन का नहीं.

आपको क्या लगता है : जो बृद्धाश्रम खुले हैं वे सेवालय है? नहीं वे व्यापारालय हैं. वहाँ उन्ही बूढ़ो को जगह मिलती है, जिनकी ओर से तय रकम उनको मिलती रहती है.
यहाँ जिस एकाकीपन से, अपने बच्चों द्वारा यहाँ रखे जाने पर जिस टीस से वे भरते हैं — उसका हस्र कुदरत किसे देगी?
मैंने कई बृद्धाश्रम देखे है. बदतर दशा है उनकी. इस अध्ययन-क्रम में मेरा संपर्क दिल्ली में सत्यनारायण दुवे द्वारा संचालित “हेरिटेज इण्डिया” से हुआ और मै इसी को अपने अनुरूप स्वीकार किया.
यहाँ हमारी प्रायोरिटी औरो की तरह क़ीमत देने में सक्षम बुजुर्गो को ओल्डएज होम में डालने की नहीं होती है. हमारी प्रायोरिटी इस बात में होती है की बृद्ध के परिजनों का ऎसा मनो-रूपांतरण किया जाये की वृद्ध को उनका अपना घर ही बेहतर लगे. अगर उनके परिजन सक्षम नहीं हैं, तो संसाधन संबंधी सययोग भी हम देते हैं.

बुजुर्गो के लिए आध्यात्मिक पहलू :
शरीर जब पैदा होता है, तो वह कभी बचपन, कभी जवानी और उसी तरह बुढ़ापा में प्रवेश करता है. अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे अनुभव करें. प्रकृति तो अपना काम करती ही है. हमारे चाहने से कुछ नहीं होता.
इसलिए जिस प्रकार हमने बचपन को उल्लासपूर्ण बनाया, जवानी को प्रेमपूर्ण बनाया, उसी प्रकार बुढ़ापे को भी सहज रूप से स्वीकार करते हुए आनंदपूर्ण बनाने का प्रयास करना है. दुख तो तभी होगा, जब हम प्रतिरोध करेंगे.
बुढ़ापे का विरोध करने से, इसे आत्मग्लानि के साथ स्वीकार करने से अधिक पीड़ा होती है. जो लोग प्रकृति से सहमत हो जाते हैं, उन्हें दुख नहीं होता. जो स्वीकार कर लेते हैं कि बचपन की तरह वे मौज-मस्ती नहीं कर सकते, उन्हें दुख नहीं होता.
जो व्यक्ति परिवार में रहते हैं, उन्हें परिवार के साथ सामंजस्य करना पड़ता है; क्योंकि अब तक वे अकेले परिवार में जी रहे थे, अब परिवार में अन्य कई सदस्य आ गये.
जो बुजुर्ग इन सदस्यों के साथ सामंजस्य करने में कुशल होते हैं, उन्हें दुख नहीं होता.
दुख उन्हें होता है, जो अब भी परिवार में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं. परिवार में किसी बुजुर्ग का आदर, सम्मान और स्वीकृति उसके वर्चस्व के कारण नहीं होती, बल्कि परिवार के सदस्यों के साथ प्रेमपूर्ण सामंजस्य से होती है.
यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना सम्मान अच्छा लगता है. कोई उसे प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है. अगर हमें दूसरों का प्रेम अच्छा लगता है, तो दूसरों को भी हमें प्यार करना चाहिए, क्योंकि परिवार ही ऐसा स्थान है, जहां केवल प्रेमपूर्ण बंधन रहता है. प्रश्न है कि बुढ़ापे को लोग अभिशाप क्यों मानते हैं?
बुढ़ापा अभिशाप तब बनता है, जब आप स्वयं उसे बीमारी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. इस मानसिक स्थिति के कारण लोग इसे अभिशाप मानते हैं. आजकल बुढ़ापे का अर्थ होने लगा है क्रोधी बन जाना, अकारण किसी से झगड़ जाना.
कोई अगर आपको नमस्कार नहीं करता है, तो उससे भिड़ जाना. जब समाज उसे उस रूप में स्वीकार नहीं करता, तो उस अपमान को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता और तब वह महसूस करने लगता है कि बुढ़ापा अभिशाप बन गया है.

अनचाहा, अवांछनीय, अभिशाप नहीं बुढ़ापा :
बुढ़ापा हम में से अधिकतर के लिए एक अनचाहा और अवांछनीय शब्द है। शब्द में ही नहीं, अर्थ में भी ये अवांछनीय है। ‘बुढ़ापा’ शब्द कानों में पड़ते ही जर्जर और कई अर्थों में असहाय शरीर का खाका आंखों के सामने खिंच जाता है।
आम मान्यता है कि बुढ़ापे में आदमी की कार्य क्षमताएं इतनी कमजोर पड़ जाती हैं, कि वह किसी काम का नहीं रहता। यही वजह है कि वृद्ध व्यक्तियों को अमूमन ऐसे काम नहीं सौंपे जाते, जिसमें मेहनत और दिमाग की आवश्यकता पड़ती है।
उनके लिए कह दिया जाता है कि ‘अरे वो ये काम कैसे करेगा, वो तो बूढ़ा है।’ ऐसे लोगों के लिए तो ‘बुढ़ापा’ एक अभिशाप-सा बन जाता है।
बुढ़ापे को लेकर कई मुहावरे भी प्रचलित हैं, जैसे-यानी कोई बूढ़ा व्यक्ति जरा सलीके के कपड़े पहनकर, स्मार्ट बन कर रहना चाहता है, तो उसे ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’ कह कर चिढ़ाया जाता है।
इसी तरह कोई बुजुर्ग अगर कुछ सीखना या पढ़ना चाहे, तो उसके लिए ‘बूढ़ा तोता राम-राम क्या पढ़ेगा’ कहावत बना दी और तो और मुहावरेबाज तो बूढ़ों के खाने-पीने का भी मजाक बनाने से बाज नहीं आए और कह दिया ‘न पेट में आंत, न मुंह में दांत’।
कहने का तात्पर्य यह कि बूढ़े या बुजुर्गों को हर तरह से नकारा मान लिया जाता है। इसे एक अपमानजनक अवस्था मान लिया गया है। लेकिन, वास्तव में ऐसा नहीं है। बुढ़ापा मनुष्य की उम्र का वो पड़ाव है, जिससे हर किसी को गुजरना होता है। इसे एक अपमानजनक तमगा मानकर जीने की जरूरत नहीं है।
बल्कि यह उम्र का वह सुनहरा दौर है, जिसमें व्यक्ति भरपूर जी लेने के बाद पूरी जिंदगी का सार, निचोड़ अपने में संजो लेता है। यह खुशी और संतुष्टी का दुर्लभ दौर है, लंबे इंतजार के बाद संतोष का मीठा फल चखने का दौर। बुढ़ापा निरर्थक बिल्कुल भी नहीं है। उम्र भर की यादों, अनुभवों, जीत-हार, सुख-दुख की अमूल्य और अकूत पूंजी का नाम बुढ़ापा है।
बचपन में एक ही बात बार-बार सभी को समझाई जाती है कि ‘जिंदगी एक पहेली है’। हम इसे एक पिटा-पिटाया मुहावरा या कहावत कह कर इसका उपहास कर सकते हैं. लेकिन सच तो यही है कि ‘जिदगी एक पहेली है’ और इस पहेली का अर्थ हमें बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच कर ही समझ में आता है।

जीवन की अनमोलता और खूबसूरती का सही और सच्चा अनुभव हमें उम्र के इसी दौर में होता है। शायद इसीलिए बुढ़ापे को ‘बचपन का दूसरा दौर’ भी कहा जाता है। कहावत भी है- ‘बच्चा-बूढ़ा एक समान’।
कहीं इसका यह मतलब तो नहीं कि हम चिर-अबोध हैं। सही अर्थों में बौद्धिक परिपक्वता तो बुढ़ापे में ही मिलती है। स्कूलों में शिक्षक और घरों में माता-पिता बच्चों को यही सिखाते-समझाते हैं कि ‘ये जिंदगी बड़ी विकट है, और दुनिया बेरहम’। स्कूली दौर में मिली इस घुट्टी के प्रभाव में ही हम जिंदगी और दुनिया के बारे में अपनी राय बनाते और उसे उसी चश्मे से देखते हैं।
हमारा दृष्टिकोण और व्यवहार पूर्वाग्रह-प्रेरित होता है। हमारी गलती यही रहती है कि हम स्कूलों और घरों से मिले सूत्र-वाक्यों का अर्थ समझने की कोशिश ही नहीं करते। जैसे, हमें बताया जाता है कि ‘जैसा बोएंगे, वैसा पाएंगे’ या ‘ईश्वर भी उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करते हैं’ वगैरह-वगैरह।
लेकिन जब हम ठोकर खाते हैं, तो अध्यापकों और माता-पिता के बताए इन गुरों और मंत्रों का असली मर्म हमारी समझ में आता है। सच तो यह है कि इस तरह के मुहावरे या कहावतें हमारे पूर्वजों या पुरखों द्वारा रचा गया शब्द जाल, कतई नहीं है। बल्कि ये उनके अथाह अनुभव-भंडार सें मिले कुछ अनमोल मोती हैं, जो उन्होंने जीवन को जी कर और समझ कर आने वाली पीढ़ियों के लिए संजो कर रख लिए थे।

वस्तुत:, इस प्रकार के सूत्र-वाक्य कह कर हमारे अध्यापक और माता-पिता हमें हतोत्साहित नहीं करते, बल्कि जीवन और दुनिया को समझने के कुछ नीति-निर्देश प्रदान करते हैं। उनका उद्देश्य तो हमें हर तरह के संघर्ष के लिए मजबूत बनाना होता है, वो भी ऐसा मजबूत जिसमें बुद्धि या ज्ञान का मेल भी हो, क्योंकि बिना ज्ञान के मजबूती अधूरी और असुरक्षित रहती है।
इसीलिए अपने दादा-दादी तथा अन्य बुजुर्गों की पुरानी या पिटी-पिटाई-सी लगने वाली बातों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। ये हमारे बुजुर्ग ही हैं, जो किसी भी और कैसे भी संकट से हमें उबारते हैं।
बुढ़ापे की कई विशेषताएँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता ये है कि बूढ़े आदमी में बचपना तो कुछ हद तक रहता है, पर वो अबोध नहीं रहता। परिपक्वता आ जाती है उसमें। कोई घटना या हादसा उसके लिए नया नहीं रहता, वह चौंकता या हतप्रभ नहीं होता।
इसका कारण यह है कि वह स्वयं भी ऐसी स्थितियों से गुजर चुका होता है। प्रेम-प्रसंग से लेकर निजी और व्यावसायिक ऊंच-नीच तक वह सभी कुछ अच्छी तरह देख और समझ चुका होता है. समग्र रूप से, सच्चाई यही है कि बुढ़ापा न तो अवांछनीय है, न अभिशाप।
बल्कि ये समाज और व्यक्ति के लिए और पूरी मानवता के लिए एक वरदान है। इसे तुच्छ या निरर्थक नहीं समझना चाहिए। हमें अपने बड़े-बूढ़ों और बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए। वे हमारे लिए प्यार, अनुभव और ज्ञान की ऐसी पूंजी हैं, जिसे हम कितना भी धन खर्च करके भी कभी प्राप्त नहीं कर सकते।

बुढ़ापा बरदान होता है : अनुभवों की खान होता है
बुढ़ापा जीवन में सच्चा वरदान होता है।
बुढ़ापा अनुभवों की एक खान होता है।।
सफर का आखिरी, मुकाम नहीं यह तो।
फिर दुबारा चलने ,का ही नाम होता है।।

उम्र से बुढ़ापे का लेना देना, नहीं होता है।
विचार हों जवां तो बुढ़ापा कहीं और खोता है।।
जीने की चाह और राह , नहीं हो अगर।
आदमी जवानी में भी, बुढ़ापे सा ही रोता है।।

जीवन की शाम नहीं यह तो दूसरी पारी है।
जो नहीं कर पाये अब तो उसकी बारी है।।
कोई बंदिश नहीं उम्र की नया सीखने के लिए।
कुछ नया करने और सोचने की तैयारी है।।

नये पुराने दोस्तों संबंधियों ,से अब तो मिलना है।
साथ- साथ मिल कर हँसना और खिलना है।।
उठाना बोझ अपना जिंदा को कंधा नहीं मिलता।
स्वास्थ्य की तुरपन को भी तुम्हें खुद ही सिलना है।।

वरिष्ठ नागरिक का दर्जा तो सम्मान का होता है।
कुछ काम का और कुछ विश्राम का होता है।।
जिंदगी में अभी भी कुछ नया करना है बाकी।
पूरे करने को उन सभी अरमान का होता है।

समाज और परिवार को अब नई राह दिखायें।
पर सुने बच्चों की ज्यादा, बस अपनी ना चलायें।।
तृप्ति और संतोष का यह मार्ग अब सर्वोत्तम है।
वृद्धावस्था को जीवन का आदर्श काल बनायें।।

(चेतना विकास मिशन)

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