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*साहित्य को अदब से समझो*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी पूर्णतया साहित्यिक मानसिकता में हैं।
ज्ञान राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिनी की तरह, कदापि आदरणीय नहीं हो सकती।
साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती है।
उपर्युक्त अनमोल विचार मूर्धन्य साहित्यकार स्व. महावीर प्रसाद द्विवेदीजी द्वारा प्रतिप्रदित हैं।
साहित्य के माध्यम से ही वैचारिक क्रांति संभव है।
महान क्रांतिकारी शहीदे आज़म भगत सिंह ने कहा है।
“पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है”
साहित्य की महिमा का बखान करने के पीछे यही उद्देश्य है कि, आज हर एक क्षेत्र में नैतिकता पतन का रहा है,उसका मुख्य कारण साहित्य की अवहेलना।
हास्य विनोद भी होना चाहिए लेकिन फूहड़ पन नहीं, मजाक भी स्वस्थ और मर्यादित होनी चाहिए।
भाषा की विकृति संस्कार,सभ्यता और आचरण की विकृति है।
साहित्य समाज का दर्पण है।
आज साहित्य के नाम द्विअर्थी संवादों,हास्य कविता के नाम पर फुहड़ता परोसने वालों पर भी अंकुश जरूरी है।
साहित्य को पढ़ने वालें,साहित्य के महत्व को समझने वालें शास्त्रों का गहन अध्ययन करते हैं।
समाजशास्त्र का गहन अध्ययन करने वाले संकीर्ण सोच को त्याग कर समाज के व्यापक स्वरूप को समझते हैं।
राजनीति शास्त्र (Political science ) जो विश्व विद्यालय में पढ़ाया जाता है।
राजनीति को व्यापक दृष्टि से समझते हैं। ऐसे लोग तार्किक बहस करते हैं। ऐसे लोगों द्वारा जो नीति बनाई जाती है,वह साफ सुथरी होती है,कारण ऐसे लोगों की नीयत में खोट नहीं होती है?
इसी प्रकार अन्य शास्त्र पर भी गहन अध्ययन होता है।
साहित्यकारों का दायित्व है कि, समाज को दर्पण दिखाए।
पहले स्वयं भी दर्पण देखे।
निम्न स्लोगन को याद रखना चाहिए।
हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा
अंत में सीतारामजी ने शायर
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
निम्न शेर प्रस्तुत किया।
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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