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सत्य और सत्य की समझ

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रणधीर कुमार गौतम

हाल ही में मीडिया प्रजाति में शामिल एक .. “पहल टाइम्स” के टाइटल का स्वागत !!! ये एक पोर्टल और ट्यूब की शक्ल में शामिल हुआ है ! इस बेहतरीन कदम का पाठक और श्रोता दोनों की दुनिया में खास एहतराम है ! पिछले ही एक अंक में एक लेख मिला “Truth and Understanding of Truth” लेखक हैं – रणधीर कुमार गौतम ! 1440 के बाद से आज तक जहां कहीं भी शब्द TRUTH पढ़ने या सुनने को मिल जाता है मानव जाति का ध्यान चला जाना एक स्वाभाविक क्रिया है ! यह शब्द इतना व्यापक है कि जल, थल, वायु, आकाश और अग्नि के अलावा पूरे ब्रह्मांड (UNIVERSE) विचरता हुआ कागज और शास्त्रों में समा जाता है ! अगर सत्य के साथ समझ को भी जोड़ दिया जाए तो भोले बाबा का प्रसाद बन पड़ता है ! सत्य और समझ इस लेख से पहले पिछले 6000 साल में एक साथ कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिलती ! इस रहस्य के चलते यह लेख अपने आप में अनूठा है ! सत्य और समझ कोई योजक मुहावरा नहीं है, दोनों अलग-अलग शब्द हैं ! अलग-अलग दायरा है ! समझ के च्यवनप्राश के तौर पर सोशियोलॉजिस्ट …………..को पेश किया गया है ! इसके अलावा भी पश्चिमी समाज शास्त्रियों का संदर्भ दिया गया है ! 1440 के बाद सत्य की खोज का सिलसिला इसलिए भी बाज़ार में बढ़ा और फूला-फला क्योंकि 1440 में प्रिंटिंग मशीन का आविष्कार हुआ ! दुनिया की कुल छपाई का 98% छपाई सभी धर्मों ने कब्जा लिया ! 1440 से आज तक एक बड़ा हिस्सा धार्मिक छपाई का है ! पाठकों की सुविधा के लिए इस लेख में 1440 से आज तक के सत्य, धर्म और समझ का निचोड़ है ! इस लेख से पीछे कहीं जाने की जरूरत नहीं है ! 1703 के अगस्टे कॉम्ट ने जहां दुनिया का विचरण कर विज्ञान का प्रचार-प्रसार किया उसका निचोड़ भी इस लेख में मौजूद है ! इसलिए कॉम्ट को Father of Modern Science कहते हैं ! Modern शायद इसलिए कि बाद में कोई झमेला न पड़े ! मिसाल के तौर पर COVID-19 ! इस लेख का एक प्रभाव अवश्यंभावी है ! 1440 के बाद आज तक धार्मिक किताबों की छपाई और प्रचारक-लेखकों पर किया गया खर्च इस लेख के मुकाबले कुछ ज्यादा ही रहा होगा ! खर्च करने वाले पुरोधा और दोनों विश्व युद्धों के प्रणेता इस विषय पर सोचने को मजबूर होंगे ! लेखक रणधीर कुमार गौतम एक अति-आधुनिक समाज शास्त्री हैं ! सत्य को न समझ पाने के लिए … समझ को जिम्मेदार मानते हैं !!! सत्य और समझ की परिक्रमा के तहत राजनीति की परिक्रमा को स्वाभाविक मानकर चलते हैं ! सत्य की खोज को समझ की खोज तक ले जाना आसान नहीं था !

लेखक ने अपने इस टाइटल का बतौर खुलासा कुछ पश्चिमी समाज शास्त्री, फिलॉसॉफर्स और नोवेलिस्ट्स का जिक्र भी किया जैसे … अर्नेस्ट हाइन्ज़ यूएसए (1978-2011), हांस जॉर्ज गुडमार जन्म 1900 (जर्मनी), जैक्स रानसियर (फ्रेंच फिलॉसॉफर 1940) रॉबर्टो बोलानो (1953-2003) इत्यादि !! इन सभी पश्चिमी चिंतकों के साथ जोड़ा है भारतीय विचारकों जैसे गांधी, अरविंदो, बिनोवा, कृपलानी इत्यादि !! इसी लेख में राजनीति पर भी Truth and understanding of Truth की छाप में समाजवाद की व्याख्या की गई है ! समाजवादी राजनीति में अच्युत पटवर्धन को आध्यात्मवादी (Theosophist) दर्शाया गया है ! लेख का केंद्र बिंदु समाजवादी विचारधारा को आध्यात्मवाद से जोड़ने का रहा होगा ! राजनीति में धर्म या आध्यात्म की कोई जगह नहीं है ! 2014 के बाद से 78 देशों में यह कोशिश एक साथ जारी है ! लेखक चूंकि समाज शास्त्री हैं और समाज शास्त्र एक विज्ञान है (mathematical science) इसलिए आध्यात्म, Truth and understanding of Truth को विषय बनाना और उसपर चर्चा होना लाजमी था !

भारत में 1924 तक समाजशास्त्र को पठन-पाठन का विषय नहीं माना गया ! 1924 के आखिर में गोविंद सदा शिव गुह्यारे (बॉम्बे महाराष्ट्र, बीए संस्कृत, एमए संस्कृत) ने यह बीड़ा उठाया और बॉम्बे यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र विभाग बना दिया और खुद विभाग के अध्यक्ष बन गए ! संस्कृत को समाजशास्त्र से जोड़ने में उन्हें समय नहीं लगा ! दिल्ली यूनिवर्सिटी ने 1959 तक समाजशास्त्र को पठन-पाठन का विषय नहीं माना लिहाज़ा 1960 में इस समाजशास्त्र को दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के साथ जोड़ दिया ! आज तक यह विभाग दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क के नाम से जाना जाता है ! समाजशास्त्र को संपूर्ण विषय मान लेना भारतीय समाज को आज तक (समझ) नहीं आया ! भारत के समाजशास्त्र के संस्थापक लेट श्री गोविंद सदा शिव गुह्यारे ने कुछ पुस्तकें भी लिखी हैं !

* अरविंद जैन*

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राजनीति में सत्य को कभी नहीं माना गया है, और झूठ को हमेशा एक उचित साधन माना गया ‘-हैनाह अरेंट, ‘क्राइसिस ऑफ द रिपब्लिक’.

समझने का सरल नियम क्या हो सकता है? हैंस जॉर्ज गड्मर का मानना था कि किसी चीज़ को समझने के लिए हमें वास्तव में जानने की इच्छा होनी चाहिए और लिखते हैं- “We cannot understand without wanting to understand, that is, without wanting to let something be said…Understanding does not occur when we try to intercept what someone wants to say to us by claiming we already know it.”

इस सन्दर्भ में एक कहानी की चर्चा भी जरुरी जान पड़ती है- एक बार एक राजा किसी फकीर के पास गया  और कहा, “आप ज्ञान बांटते हैं, हमें भी दीजिए.” फ़क़ीर ने कहा, “कल आप आइएगा, लेकिन एक तेल का डिब्बा लेते आइएगा.” राजा ने कहा, “यह कौन सी बड़ी चीज है.” अगले दिन राजा फ़क़ीर के पास गया और कहा, “आपने बुलाया था, तेल ले आया हूँ.” फ़क़ीर ने एक छोटी सी सीसी राजा को दी और कहा, “इसमें तेल भर दो.” राजा के पास बड़ा सा टिन तेल का था. जैसे ही फकीर ने टिन से तेल शीशी में डालना शुरू किया, बहुत सारा तेल बाहर निकल आया. राजा ने कहा, “यह आप क्या कर रहे हैं?”. 

तो फ़क़ीर ने कहा, “ठीक उसी प्रकार, जैसे तेल बाहर निकल गया, आप ज्ञान से भरे हुए हैं. मैं जो ज्ञान दूंगा, वह भी इसी तेल की तरह आपके बाहर निकल जाएगा. जैसे तेल बहता जा रहा है, वैसे ही ज्ञान भी बह जाएगा. इसलिए पहले खुद को खाली करना जरुरी है.”

अर्थ स्पष्ट है कि किसी भी तरह का ज्ञान अर्जित करने के लिए पहले आपको पात्रता अर्जित करनी होती है. पात्रता की सबसे बड़ी बात यह है कि आपको एक जिज्ञासु होना पड़ेगा. किसी भी ज्ञान को समझने के लिए पहले आपको एक अर्जक (recipient) होना पड़ेगा. इसके बिना कुछ भी नया सीखा नहीं जा सकता. 

ध्यान से देखिये तो चारों तरफ ज्ञान देने वालें तो सक्रिय हैं, लेकिन वे कुछ नया सीखने की स्थिति में नहीं है. वे बस कहना चाहते हैं, सुनना नहीं. और अगर किसी तरह सुन भी रहे होते हैं तो प्रतिक्रिया देने के लिए बजाय एक सार्थक संवाद के द्वारा कुछ सीखने के लिए. आप कभी कॉन्फ्रेंस या सेमिनार को ध्यानपूर्वक देखेंगे तो आपको यह सामान्य दिखाई देगा. सब लोग अपनी-अपनी बात कहते रहते हैं और कोई भी किसी को ध्यानपूर्वक समझ नहीं रहा होता है. यह सीखने में सबसे बड़ी बाधा है. 

सुकरात का तरीका एक विधि के रूप में चर्चित है जिसे एलेन्खस की विधि (प्राचीन ग्रीक: ἔλεγχος, रोमनकृत: एलेन्खोस, जिसका अर्थ है ‘असत्यापन या खंडन का तर्क; जाँच-परख, परीक्षण, विशेषकर खंडन के उद्देश्य से’) के नाम से भी जाना जाता है. यह व्यक्तियों के बीच तर्कपूर्ण संवाद का एक रूप है, जो प्रश्न पूछने और उत्तर देने पर आधारित है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि बार-बार प्रश्न पूछने की इस विधि का उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि कोई भी व्यक्ति ज्ञान का दावा तर्कसंगत रूप से सही नहीं ठहरा सकता. 

इसी तरह प्लेटो की संवादवाद “थिएटेटस” में, सुकरात अपनी विधि को “दाईंत्य” के रूप में वर्णित करते हैं क्योंकि इसे उनके संवादकों की समझ को विकसित करने में मदद के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जैसे कि गर्भ में एक बच्चा विकसित होता है. सुकरात की विधि सामान्य रूप से माने गए विश्वासों से शुरू होती है और इन्हें प्रश्न पूछकर जाँचती है ताकि उनकी आंतरिक संगतता और अन्य विश्वासों के साथ उनकी साझेदारी का निर्धारण किया जा सके और इस प्रक्रिया से सभी को सत्य के पास ले आए. पर ध्यान रहे कि सत्य स्वयं आपके पास कभी नहीं आता. 

और एक और बात ध्यान में रखने की है कि सुकरात न्यायाधीश की भूमिका निभाते हैं. वे पोलेमिक नहीं हैं. वे नहीं कहते कि कौन सही या गलत है. वास्तव में, वे हमें यह भी नहीं सिखाते कि कैसे सोचें. उन्होंने हमें यह सिखाया कि हम उस स्थिति तक पहुंच सकते हैं जहां सोचना संभव हो, जो अलग तरीके से सोचने की संभावना को जन्म दे सके.

इसके अतिरिक्त सहमति और असहमति के बीच के अंतर को भी समझना जरूरी है, जैसा कि  Jacques Rancière ने कहा है- “Disagreement is not the conflict between one who says white and another who says black. It is the conflict between one who says white and another who also says white but does not understand the same thing by it.” इसी तरह Roberto Bolaño ने कहा- “People see what they want to see and what people want to see never has anything to do with the truth.” 

बौद्धिक समझ और आनुभविक समझ के बीच में जो गैप रहता है उसका क्या कारण है? ज्ञान को प्राप्त करने के लिए क्या प्रेरणा होनी चाहिए? भारतीय परंपरा में इस प्रक्रिया के लिए योग था, ध्यान था और कई सारे माध्यम से लोग ज्ञान और शरीर को एक करने की परंपरा में थे. बुद्ध का मार्ग, पतंजलि का मार्ग और अनेक अन्य मार्ग भारतीय परंपरा में रहे हैं इन विषयों पर. समझ का मूल अर्थ यह है कि वह ज्ञान जो हमारे आत्मा से बाहर है, उसे हम अपने आत्मा में और चेतना में कैसे बैठाएं. इस संदर्भ से लाकान की बात  को ध्यान में रखना होगा जिसमें वे कहते हैं समझ और समझ के भ्रम का अंतर भी हमें समझना चाहिए. 

परसेप्शन और कांसेप्शन के डाइमेंशन को नॉलेज में समझना होगा और इसमें बुद्ध की बात आपको याद रखनी पड़ेगी, जिसमें बुद्ध आनंद को कहते हैं कि, आओ आनंद देखो, तो आनंद कहता है क्या देखें. “SEE things as they are not as they appear”. इस तरह की दृष्टि के लिए अलग तरह की योग्यता चाहिए, जो गीता में “दिव्य दृष्टि” की बात कही गई है. दिव्य दृष्टि का मतलब है सत्य को कैसे देखें. जैसे कि गांधीजी की दृष्टि और हमारी दृष्टि में फर्क है.

महात्मा गांधी और कृपलानी जी के मामले में, गांधीजी का वक्तव्य और उनकी आदर्शों की शक्ति उन्हें ऐसी सम्मान प्राप्त करवाती थी जिससे लोग उनके सलाह को मानते और उसके अनुसार चलते थे. कृपलानी जी ने भी अपने जीवन में देश की सेवा में अपना समय और योगदान दिया, जिससे उनके विचार और निष्ठा ने उन्हें लोगों के दृष्टिकोण में विशेष स्थान दिलाया. इस प्रकार की कनविक्शन को समझने के लिए, व्यक्ति के आदर्शों, निष्ठा और सेवाभाव को माना जाता है, जो उनके विचारों की मान्यता और प्रभाव का कारण बनते हैं. जिससे कुछ स्थापनाएं निकलती हैं-  

1. कभी भी गहरा आकर्षण हमेशा अमूर्त का होता है, ठोस का नहीं.

2. अपने अंदर का आकर्षण जितना गहरा होता है, वह उतना ही अधिक अमूर्त होता है. 

3. कोई दो रोटी के लिए जान नहीं देगा. भगत सिंह ने भी दो रोटी के लिए जान नहीं दी थी. उन्होंने उस मूल्य के लिए जान दी थी, जो हम जीने के लिए रखते हैं.

4. स्वतंत्रता की अवधारणा अपने आप में एक तरह का अमूर्त विचार ही है.

गांधी और विनोबा जी के अध्ययन भी यह बताते हैं कि अध्यात्म व्यक्ति को इस अवस्ट्रिक्शन की ओर ले जाता है। यह व्यक्ति को क्षण से दूर ले जाता है और शाश्वत की ओर लेकर जाता है. ऊपरी खोज में धीरे-धीरे यूटिलिटी आ जाती है, इसीलिए व्यक्ति को आध्यात्मिक गहरी खोज की प्रेरणा की तलाश करनी चाहिए. अच्युत पटवर्धन थियोसॉफिस्ट हो जाते हैं, इसी तरह रामनंदन मिश्र आध्यात्मिक दिखने लगते हैं और न जाने कितने क्रांतिकारी आध्यात्मिक की ओर उन्मुख हो जाते हैं. इसमें बहुत बड़ी संख्या समाजवादियों की भी है. जिस चीज की यह समाजवादी नेता जो आध्यात्मिक की ओर उन्मुख हुए, उन्हें राजनीति नहीं दे सकती, इसीलिए वे शाश्वत की ओर और अध्यात्म की प्रेरणा की ओर मुड़ गए.

चिंतन की धारा को संवर्धन करने का साहस जिसमें है वही एक चिंतक हैं. बाकी सब तो फूट सोल्जर है. मनुष्य की त्रासदी है कि वह हमेशा रिलेटिव ट्रुथ के ऊपर ही एक्शन कर सकता है. भारत की परंपरा रही है कि भारत में विवेचना या व्याख्या से सत्य को नहीं ढूंढा जाता है. जैसे एक गुंगा ने अगर गुड़ खाया तो वह गुण के स्वाद को कह नहीं सकता है तो कई बार विवेचना से सत्य की हिंसा भी हो जाती है. इसके उलट वैज्ञानिकतावाद में हमें प्रकृति के हर रहस्य को जानने की प्रेरणा देता है साथ ही हर चीज की व्याख्या करने का आग्रह भी करता है; हालांकि महर्षि अरविंदो जैसे विचारक मानते हैं कि दुनिया में हर चीज की व्याख्या नहीं की जा सकती. Umberto Eco ने एक बार कहा था- “I have come to believe that the whole world is an enigma, a harmless enigma that is made terrible by our own mad attempt to interpret it as though it had an underlying truth.” Bertrand Russell की एक बात याद आती है- “The scientific state of mind is neither sceptical nor dogmatic. The sceptic holds that the truth is undiscoverable, while the dogmatist holds that it is already discovered. The man of science holds that the truth is discoverable though not discovered, at any rate in the matters which he is investigating. But even to say that the truth is discoverable is to say rather more than the genuine man of science behaves, since he does not conceive his discoveries as final and absolute, but as approximations subject to future correction. Absence of finality is the essence of the scientific spirit. The beliefs of the man of science are therefore tentative and undogmatic”. 

सुंदरता मनुष्य को ऊँचाई पर ले जाती है. जो लोग ज्ञान से ऊँचाई पर नहीं पहुँच सकते, सुंदरता उनको ऊँचाई पर ले जाती है. सुंदरता सिर्फ सांसारिक अर्थों में नहीं होती, बल्कि कलात्मक और आध्यात्मिक पक्ष में भी होती है. ज्ञान से ज्यादा कला समाज को परिवर्तित करती है.

अमूर्त चीजे जैसे प्रकृति, प्रेम, और कला मनुष्य को ऊँचाई पर ले जाती है. यह ‘निर्दोषिता के परिक्षेत्र’ की ओर ले जाती है. छोटी चालाकियों को भूलना ही ऊँचाई पर उठना है. जो लोग विनम्रता और पवित्रता के साथ संबंध बनाते हैं, वे सही मायने में ऊँचाई पर पहुँचते हैं. पवित्रता कभी भी छुपाई नहीं जा सकती, वह अपने आप प्रकट होती है.

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