दिव्यांशी मिश्रा
1999 के अक्टूबर में आम चुनाव होने वाले थे। वाजपेयी सरकार सत्ता में थी। वाजपेयी सरकार की हालत पतली थी। जून-जुलाई 1999 में पाक-समर्थित आतंकवादियों द्वारा घुसपैठ होती है और कारगिल युद्ध हो जाता है।
जब चुनाव हो गये, भाजपा जीत गयी तो यह पता चला था कि घुसपैठ लम्बे समय से जारी थी और ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बारे में मई 1999 में ही सूचना मिल गयी थी और तमाम सूत्रों द्वारा बार-बार इस घुसपैठ के बारे में चेताये जाने के बावजूद भाजपा सरकार ने कुछ नहीं किया और चुनाव के क़रीब आने पर कारगिल युद्ध की शुरुआत हो गयी। खुद उस युद्ध के ‘ऑपरेशन विजय’ के प्रमुख सैन्य कमाण्डरों में से एक लेफ्टिनेण्ट जनरल मोहिन्दर पुरी ने बताया कि यह पूरी तरह से ख़ुफ़िया नाकामी और लापरवाही का नतीजा था। लेकिन अगर मई 1999 से ही घुसपैठ की सूचना मिल जाने के बावजूद जून 1999 तक कुछ नहीं किया गया तो अधिकतम सम्भावना इस बात की है कि यह महज़ ख़ुफ़िया नाकामी नहीं हो सकती। कारगिल युद्ध के बाद जो अन्धराष्ट्रवाद की लहर फैली उसमें वाजपेयी नीत-भाजपा की अगुवाई में राजग की सरकार बनी। 2001 में संसद हमला होता है, जिसका इस्तेमाल 2002 और 2007 में गुजरात चुनावों के पहले तक और उसके बाद 2009 में आम चुनावों के पहले तक भाजपा करती रही, हालाँकि यह हमला उस समय हुआ था जब खुद भाजपा की ही सरकार केन्द्र में थी!
उसी प्रकार, 2019 में नोटबन्दी और जीएसटी के भयंकर क़दमों के कारण मोदी सरकार बुरी तरह से अलोकप्रिय थी और उसके चुनाव जीतने के कोई आसार नहीं थे। आज भारत के अग्रणी चुनाव विश्लेषक और वोटिंग पैटर्न के विशेषज्ञ यानी सैफोलॉजिस्ट इस तथ्य को बिना किसी झिझक बताते हैं कि यदि पुलवामा हमला न हुआ होता तो 2019 में मोदी सरकार की चुनावों में हार तय थी। नोटबन्दी ने जिस क़दर जनता को खून के आँसू रुलाये थे, उसे भुलाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद की एक तगड़ी लहर फैलाना मोदी सरकार के लिए ज़रूरी था।
और क्या इत्तेफ़ाक है कि जब भी भाजपा की कोई सरकार ख़तरे में होती है तो या तो पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ होती है, या फिर कोई आतंकी हमला हो जाता है या कहीं दंगा फैल जाता है!
याद करें कि गोधरा की घटना और फिर गुजरात-2002 साम्प्रदायिक नरसंहार भी 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों के ठीक पहले ही हुआ था। ऐसा लगता है मानो जब-जब भाजपा हार रही होती है और उसके नेता दिलो-जान से चाहते हैं कि कोई ऐसी आकस्मिक घटना घट जाये, उसी समय ऐसी आकस्मिक घटना घट ही जाती है! लेकिन पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे भाजपा नेता सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार और डीएसपी देविन्दर सिंह को बाद में मिली जमानत से इस आकस्मिकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। ये घटनाएँ कितनी इत्तेफ़ाकन थीं, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। और बार-बार भाजपा और उसकी सरकारों के संकट में आने पर अचानक “देश संकट में” कैसे आ जाता है, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।
पुलवामा हमले के समय जम्मू–कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने ‘दि वायर’ के करन थापर को दिये साक्षात्कार में साफ़ शब्दों में बताया है कि जहाँ तक पुलवामा हमले का प्रश्न है तो दाल में कुछ काला नहीं है बल्कि पूरी दाल ही काली है। मलिक ने इस साक्षात्कार में बताया कि पुलवामा हमला भी सीधे-सीधे ख़ुफ़िया नाकामी थी। वास्तव में, सरकारी नियमों व मानकों के ही अनुसार, आतंकवाद-प्रभावित क्षेत्रों में 2500 सैनिकों को कभी भी सड़क के रास्ते एक स्थान से दूसरे-स्थान नहीं ले जाया जाता है।
इन सैनिकों ने इस यात्रा के लिए 5 विमानों की माँग भी की थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मोदी सरकार के गृह मन्त्रालय ने साफ़ मना कर दिया था और इतने बड़े क़ाफ़िले को सड़क से जाने को मज़बूर किया था जबकि आतंकी हमले की सम्भावना की सूचनाएँ लगातार मिल रही थीं और कुछ ही दिनों पहले डीएसपी देविन्दर सिंह दो आतंकियों को अपनी कार में घुमाता पकड़ा गया था! पूरे रास्ते में 8 से 10 ऐसी पतली सड़के राजमार्ग से जुड़ती थीं, जिन पर कम-से-कम 10-12 दिनों से 300 किलोग्राम से ज़्यादा आरडीएक्स विस्फोटक लेकर एक कार लगातार घूम रही थी। इन छोटी सड़कों पर निगरानी करने, उनकी रेकी करने और उन्हें ‘सैनीटाइज़’ करने, यानी ख़तरों या जोखिम के लिए उनकी जाँच करके उन्हें सुरक्षित करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया था। और ऐसे रास्ते पर 2500 सैनिकों के क़ाफ़िले को भेज दिया गया! यानी, इस हमले के लिए एक खुला न्यौता दे रखा गया था।
सत्यपाल मलिक ने इसी साक्षात्कार में बताया कि जब हमला हुआ तो नरेन्द्र मोदी जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में अपना फोटो सेशन करवा रहे थे। मलिक ने नरेन्द्र मोदी को फोन किया। बाद में नरेन्द्र मोदी ने एक ढाबे से उनको वापस फोन किया। मलिक ने बताया कि हमले के लिए पूरी तरह सरकार की चूक और लापरवाही ज़िम्मेदार है और इन 40 सैनिकों की मौत की ज़िम्मेदारी इस नाते सरकार की बनती है। इस पर नरेन्द्र मोदी ने मलिक को अपनी ज़ुबान बन्द रखने का आदेश दिया। फिर यही फ़रमान उनको राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल ने दिया कि अपना मुँह बन्द रखो। क्यों? क्या यह पूरी सच्चाई जनता के सामने नहीं आनी चाहिए थी कि यह हमला और 40 सैनिकों की मौत के पीछे सरकार द्वारा कोई सुरक्षा इन्तज़ाम न कराना, हवाई जहाज़ मुहैया न कराना और मानकों को ताक पर रखकर इतने बड़े काफिले को सड़क से भेजना था?
मगर ऐसा होता तो पुलवामा हमले और उसमें मारे गये 40 सैनिकों, जिनमें से अधिकांश आम ग़रीब किसानों व मज़दूरों के ही बेटे थे, को चुनावी मसला बनाकर अन्धराष्ट्रवाद नहीं फैलाया जा सकता था और न ही बालाकोट हमले का मंचन किया जा सकता था। स्वयं बालाकोट हमले में क्या हुआ, इस पर बहुत से पत्रकारों व प्रेक्षकों ने सवाल उठाये हैं। जिस बात का पक्के तौर पर सबूत है वह सिर्फ़ इतना है कि भारत का एक लड़ाकू विमान अपने पायलट को ही पाकिस्तान में गिरा आया था, जिसे बाद में पाकिस्तान ने भारत के हवाले कर दिया। इन सारे वाकयों की पूरी सच्चाई तो कभी भविष्य में ही सामने आ पायेगी। लेकिन सत्यपाल मलिक के खुलासों से इतना स्पष्ट है कि पुलवामा हमला होने की स्थितियों की रेसिपी मोदी सरकार ने ही तैयार कर दी थी।
यहीं पर जम्मू–कश्मीर के डीएसपी देविंन्दर सिंह का रहस्यमय मामला भी सामने आता है। यह आदमी शुरू से ही आतंकियों से अपने सम्बन्धों, कश्मीरी नौजवानों को यातना देने और हत्याएँ करने, घूस लेने और भ्रष्टाचार करने के मामले में कई बार दण्डित हो चुका पुलिस अधिकारी है। लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि हमेशा दण्ड के तौर पर इसे अधिक से अधिक संवेदनशील सुरक्षा विभागों में तैनाती मिलती रही। पुलवामा हमले के कुछ ही दिनों पहले यह शख़्स 11 जनवरी 2019 को अपनी निजी कार में जम्मू में दो आतंकवादियों नवीद मुश्ताक़ और रफ़ी को ले जा रहा था और रंगे हाथों पकड़ा गया था। इसके पहले, अफ़ज़ल गुरू ने भी मौत से पहले भेजे गये अपने पत्र में देविंन्दर सिंह पर आरोप लगाया था कि उसने गुरू को यातना देकर दिल्ली में आतंकियों की मदद करने के लिए बाध्य किया था।
11 जनवरी 2019 को पकड़े जाने के बाद पहले देविंन्दर सिंह ने पहले तो गोलमाल किया और फिर पूछताछ करने वाले अधिकारी को बोला कि “मेरा दिमाग़ फिर गया था कि मैं ऐसा काम कर रहा था।” बहरहाल, देविंन्दर सिंह गिरफ्तार हो जाता है। कुछ दिनों बाद ही पुलवामा हमला होता है। उसके बाद जून 2020 में देविंन्दर सिंह को ज़मानत भी मिल जाती है, जिसे गोदी मीडिया में कहीं सुर्खियाँ नहीं बनाया जाता! क्या आतंकियों की मदद करने वाले किसी व्यक्ति को जिस पर यूएपीए के तहत मुक़दमा दर्ज़ हुआ हो और जो आतंकियों को अपनी कार में घुमाता रंगे हाथों पकड़ा गया हो, उसे इतनी जल्दी ज़मानत मिलती है? यहाँ तो बेगुनाह ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को यह क़ानून लगाकर जेल में ही मार दिया जाता है या वहीं सालों–साल सड़ा दिया जाता है, जबकि कोई प्रमाण तक नहीं होता, लेकिन देविंन्दर सिंह को ज़मानत मिल जाती है। ये सारी बातें बहुत से सवाल खड़े करती हैं।
जो भी हो, इतना तय है कि पुलवामा हमले पर सत्यपाल मलिक के खुलासों ने भाजपा, संघ परिवार और मोदी-शाह सत्ता के मंसूबों पर गम्भीर सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं। यही वजह है कि पूँजीवादी विपक्ष के तमाम नेताओं को ईडी व सीबीआई के ज़रिये डराने-धमकाने के सिलसिले में अब सत्यपाल मलिक को भी डराने का प्रयास किया जा रहा है।
निश्चित ही, यह शासक वर्ग के भीतर का अन्तरविरोध है और बुर्जुआजी के तमाम धड़ों के बीच के ये अन्तरविरोध तभी उभरकर सामने आते हैं जबकि शासक ब्लॉक (यानी, आज मोदी-शाह निज़ाम) के भीतर और शासक वर्ग के शासक ब्लॉक व उसके अन्य ब्लॉकों के बीच के अन्तरविरोध गहराते हैं और एक राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा होती है। आज देश में बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी और साथ ही भाजपा के अभूतपूर्व और रिकार्डतोड़ भ्रष्टाचार के सामने आने के साथ ये अन्तरविरोध गहरा गये हैं। मोदी सरकार की नीचे गिरती लोकप्रियता के सन्दर्भ में तमाम मसले और विभिन्न खुलासे शासक वर्ग के अलग-अलग खित्तों के बीच से ही निकलकर सामने आ रहे हैं, तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
ग़ौरतलब है कि समूचा गोदी मीडिया एकदम बेशर्मी से पुलवामा पर हुए खुलासों को ब्लैकआउट कर रहा है और मलिक पर ही सवाल उठाने की कोशिश कर रहा है कि उन्होंने पुलवामा हमले के तुरन्त बाद ही ये खुलासे क्यों नहीं किये। इसका जवाब सत्यपाल मलिक खुद ही दे चुके हैं कि पुलवामा हमले के तुरन्त बाद उन्होंने खुफिया चूक की ओर सार्वजनिक तौर पर इंगित किया था, जिसके बाद मोदी और अजित डोवल ने उन्हें जुबान बन्द रखने की हिदायत दी थी। लेकिन सन्तोष की बात यह है कि गोदी मीडिया की सच्चाई हर बीतते दिन के साथ जनता के बड़े से बड़े हिस्से के सामने आती जा रही है और अब आलम यह है कि लोग टेलीविज़न के गोदी चैनलों को देखने की बजाय सोशल मीडिया पर चलने वाले स्वतन्त्र न्यूज चैनलों और पत्रकारों को ज़्यादा देख और सुन रहे हैं।
तमाम आन्दोलनों व प्रदर्शनों से गोदी मीडिया के दलालों को जनता ही मारकर भगा रही है। यही तो कारण है कि मोदी सरकार अब सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है ताकि उसकी स्वीकार्यता का तेज़ी से गिरता ग्राफ़ सम्भाला जा सके। लेकिन वह इस मुग़ालते में है कि वह ऐसा करने में सफल हो पायेगी। सोशल मीडिया पर पूर्ण नियन्त्रण लगाने की कोशिश कई देशों की दमनकारी और तानाशाह सरकारें कर चुकी हैं, लेकिन यह माध्यम ही ऐसा है जिस पर पूर्ण नियन्त्रण करना अभी तक शासक वर्ग के लिए सम्भव सिद्ध नहीं हुआ है। कल को ऐसा हो भी गया तो जनता बहुत रचनात्मक होती है और वह दूसरे माध्यम ढूँढ लेगी। वैसे भी, जैसे-जैसे लोगों के जनवादी अधिकारों का दायरा भयाक्रान्त फ़ासीवादी मोदी सरकार कम करती जायेगी, वैसे-वैसे जनता का प्रतिरोध बढ़ेगा न कि घटेगा।
कर्नाटक में आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के हारने की ही ज़्यादा सम्भावना है।
अगर ऐसा होता है तो बाकी राज्यों में आसन्न चुनावों में भी वोटरों के रवैये पर उसका असर पड़ेगा। और इन राज्यों में भी यदि भाजपा का ग्राफ़ नीचे जाता है तो 2024 के आम चुनावों में भी उसके ग्राफ़ के नीचे जाने की सम्भावना अधिक होगी। ऐसे में, मोदी-नीत भाजपा की हार की सम्भावनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं, जिनकी अभी तीन-चार महीने पहले तक भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। अधिकतर राजनीतिक चुनाव विश्लेषकों के लिए 2024 का चुनाव एक पहले से तय मुद्दा था, लेकिन अब मोदी के प्रति सकारात्मक रुख रखने वाले विश्लेषक भी इतनी द्वन्द्वमुक्त भाषा में बात नहीं कर पा रहे हैं। सच्चाई यह है कि मोदी का सितारा तेज़ी से गर्दिश में जा रहा है।
ऐसे में, फ़ासीवादियों की पुरानी ट्रिक रही है साजिशाना तरीके से दंगे भड़काना (जिसके प्रयास रामनवमी और हनुमान जयन्ती के उत्सवों को मुसलमान–विरोधी दंगों में तब्दील करने की कोशिशों के साथ संघ परिवार शुरू कर चुका है), अन्धराष्ट्रवाद की लहर फैलाना, कोई छोटा–मोटा युद्ध भड़का देना। इसी दौरान ऐसे संयोग घटित होते हैं कि आतंकी हमले हो जाया करते हैं, गोधरा काण्ड जैसी कोई घटना हो जाती है, कारगिल युद्ध भड़क जाता है, पुलवामा हमला हो जाता है या संसद पर हमला हो जाता है। ग़ौरतलब है कि नात्सी जर्मनी में हिटलर ने वहाँ की संसद राइखस्टाग में आग लगवाई थी और उसका इल्ज़ाम समाजवादियों, सामाजिक जनवादियों व कम्युनिस्टों पर लगाकर अपने तानाशाहाना आपवादिक कानूनों को थोप दिया था और यह सबकुछ “राष्ट्र” और “देश” की सुरक्षा के नाम पर जनता में एक भय पैदा करके किया गया था, ताकि लोगों को यह बताया जा सके कि हिटलर जी जैसा मज़बूत नेता ही अब जर्मनी को बचा सकता है! बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी को बाद में देख लेंगे। पहले से सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा के कारण भय और प्रतिक्रिया में जी रही टुटपुँजिया आबादी में ख़ास तौर पर यह भावना पैदा की जा सकती है, लेकिन मज़दूर वर्ग के कई हिस्से, विशेषकर संगठित क्षेत्र के बेहतर वेतन वाले मज़दूर और लम्पट मज़दूर आबादी भी इससे अप्रभावित नहीं रहते हैं।
ऐसे में, आप 2024 के पहले मोदी सरकार की ख़राब होती हालत के मद्देनज़र किन बातों की अपेक्षा कर सकते हैं? पता नहीं हमें ऐसा क्यों लग रहा है कि 2024 के आम चुनावों के पहले भी कोई आतंकी हमला हो सकता है, कोई कारगिल युद्ध जैसा छोटे पैमाने का युद्ध हो सकता है, कहीं दंगा भड़क सकता है (अमित शाह ने तो कर्नाटक की जनता को धमकी दे ही दी कि अगर भाजपा को हराया तो कर्नाटक में दंगे होंगे!), किसी शीर्ष के भाजपा नेता पर कोई “जानलेवा” हमला हो सकता है (और हमें यह भी लगता है कि इस “जानलेवा” हमले में उक्त नेता इस प्रकार “बाल–बाल बचेगा” कि उसका बाल भी बाँका नहीं होगा!), या इसी प्रकार की कोई अन्य घटना घट सकती है। इसका कोई कारण नहीं है कि हमें ऐसा क्यों लग रहा है, बस अभी तक का इतिहास देखकर हमें ऐसा महसूस हो रहा है, जिसे आप छठवीं इन्द्री की अस्पष्ट-सी अनुभूति कह सकते हैं! हम दिल से प्रार्थना करते हैं कि ऐसी कोई अप्रिय घटना न हो, लेकिन कभी-कभी ऐसी आशंकाएँ दिल में उभर ही आती हैं!
ऐसे में, हम व्यापक मेहनतकश जनता को आगाह करना चाहते हैं कि अगर ऐसा कोई संयोग घटित हो ही जाता है, तो कतई साम्प्रदायिकता या अन्धराष्ट्रवाद की लहर में न बहें। आज तक के अपने तजुरबों पर निगाह डालिये। जब भी हम ऐसी किसी प्रतिक्रियावादी लहर में बहे हैं, तो सबसे ज़्यादा हमारा ही नुकसान हुआ है। अपने असली मुद्दों से एकदम फेवीक्विक का जोड़ लगाकर चिपके रहें: यानी बढ़ती बेरोज़गारी, घटती मज़दूरी, बढ़ते काम के घण्टे, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, बढ़ती महँगाई, पहुँचे से दूर होती शिक्षा, चिकित्सा और रिहायश, अभूतपूर्व रूप से बढ़ता भ्रष्टाचार, पूँजीपतियों को फोकट में जनता की मेहनत से खड़ी सम्पदा को सौंपा जाना, आदि। ये हमारे असल मसले हैं और हमें इन्हीं पर अड़कर खड़े हो जाना चाहिए, चाहे 2024 के आम चुनावों के पहले उपरोक्त में से कोई भी संयोग घटित क्यों न हो जाये, जैसे कि साम्प्रदायिक दंगा, युद्ध या आतंकी हमला, अपना ध्यान भटकने न दें।
इसके अलावा, हमें ईवीएम के खिलाफ देश स्तर पर एक जनान्दोलन खड़ा करने की ज़रूरत है। तमाम बुर्जुआ विपक्षी पार्टियों में यह दम नहीं बचा कि वह इस मसले को उठाकर यह अल्टीमेटम दे दें कि यदि ईवीएम को बन्दकर बैलट बॉक्स की व्यवस्था बहाल नहीं की जाती तो वे सभी चुनावों का बहिष्कार करेंगे। ऐसे में, जनता को ही एकजुट होकर आवाज़ उठानी होगी। ईवीएम वास्तव में पूँजीवादी जनवाद को भी फ़ासीवाद द्वारा हड़प लिये जाने के वास्ते इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या आपको पता है कि मोदी के सितारों के गर्दिश में जाने की शुरुआत होते ही यह ख़बर आयी कि एक–तिहाई वीवीपैट मशीनें ख़राब हो गयीं, जिसके आधार पर आप वोट डालने के बाद यह जाँच कर सकते हैं कि आपका वोट उसी उम्मीदवार को गया है, जिसे आपने वोट डाला है! यानी 6.5 लाख वीवीपैट मशीनें ख़राब हो गयीं और इसके बारे में कहीं कोई ख़बर तक नहीं आयी! ज़ाहिर है, भाजपा का आखिरी सहारा ईवीएम हो सकता है। यह दीगर बात है कि पूरे देश के पैमाने पर इतनी बड़ी धाँधली भयंकर सामाजिक असन्तोष और उथल-पुथल की स्थिति पैदा करेगी। फ़ासीवादी ताक़तें उस स्थिति की भी तैयारी कर रही हैं और अपने सशस्त्र व अर्द्धसशस्त्र दस्तों को तैयार कर रही हैं। फ़ासीवादी मोदी सरकार इतनी आसानी से सत्ता की कुर्सी नहीं छोड़ने वाली है। ऐसे में, मज़दूरों, मेहनतकशों, ग़रीब किसानों, निम्न मध्यवर्ग के लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। ‘आकाश के नीचे सबकुछ भयंकर उथल-पुथल में है’, यह जनता के तैयार होने पर एक ‘शानदार स्थिति’ भी हो सकती है, और जनता के तैयार न होने पर किसी और भी ज़्यादा तानाशाहाना उभार की पूर्वपीठिका भी बन सकती है। (चेतना विकास मिशन)