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लिव इन रिलेशन सामाजिक कमिटमेंट से मुक्ति का प्रयास 

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सुब्रतो चटर्जी

।लिव इन रिलेशन दरअसल सामाजिक कमिटमेंट से मुक्ति का प्रयास है । इसे सही या ग़लत नहीं कह कर एक प्रयोग के रूप में देखना चाहिए और नतीजे का इंतज़ार करना चाहिए । 

समाज न एक दिन में बनता है और न ही एक दिन में बदलता है । 

आदमी ने जब विवाह नाम की संस्था की नींव रखी होगी, उस समय भी इस संस्था में विश्वास नहीं करने वाले लोगों की बहुतायत रही होगी और उनकी भी विवाह के बारे वैसी ही प्रतिक्रिया होगी जैसी प्रतिक्रिया आज हमारा अपरिपक्व समाज लिव इन रिलेशन के बारे देती है । 

दरअसल, आधुनिक सभ्यता की कई परतें हैं । एक तरफ़ गाँव की रूढ़िवादी संस्कार हैं तो दूसरी तरफ़ छोटे शहरों और क़स्बों की पारंपरिक सोच और सामाजिक sensitivities भी हैं । इन शहरों के बच्चों के मन में ऐसी सोच से मुक्ति पाने की छटपटाहट भी है । 

जब यही बच्चे ऊँची तकनीकी शिक्षा की तलाश में बड़े महानगरों का रुख़ करते हैं, तब वहाँ के खुले वातावरण या faceless civilisation से उनका सामना होता है । Anonymity या पहचान हीन होने का सुख एक अलग ही सुख है । इसे आप अपने पहचाने हुए शहर या गाँव में ज़िंदगी बीता कर नहीं समझ पाएँगे । 

महानगरों को जब हम cosmopolitan कहते हैं तो इसका अर्थ है कि ये सभी प्रकार के धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों का संगम स्थली हैं । ऐसे में विचार उन्मुक्त होते हैं और जड़ता से मुक्ति मिल जाती है । 

यही कारण है कि इन शहरों में नए सामाजिक प्रयोग होते रहते हैं । अंतरजातीय या अंतरधर्मीय विवाह भी सामाजिक प्रयोग ही हैं, जिनकी शुरुआत महानगरों से हुई और आज गाँव तक फैल गई हैं । 

इसका दूसरा पक्ष cultural gap  या सांस्कृतिक दूरी है । अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले बच्चे पूरी दुनिया के संपर्क में रहते हैं और धीरे-धीरे विवाह, संतानोत्पत्ति आदि सामाजिक विषयों के बारे उनकी धारणाएँ परिष्कृत होती जाती हैं । फलतः, वे एक अलग वैचारिक जगत में जीते हैं, जिनसे हमारा कोई राब्ता नहीं है । हम एक दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं । 

तीसरा पक्ष आर्थिक है । तकनीकी शिक्षा से लैस अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले बच्चों को न समय से विवाह करने की फ़ुरसत है और न ही आर्थिक आज़ादी । ज़्यादा सैलरी का मतलब ज़्यादा आर्थिक आज़ादी नहीं होती, क्यों कि leisure की कमी के कारण आर्थिक संपन्नता को उपभोग करने की फ़ुरसत जब आपके पास नहीं हो तो उस संपन्नता का अर्थ कुछ नहीं रह जाता । 

इस संदर्भ में मुझे जे एन यू से सत्तर के दशक में निकलने वाली एक पत्रिका “गाँधी “ १९७७ में लिखा एक लेख The Problem of Leisure याद आता है, जिसे मैंने अपने स्नातकोत्तर के दिनों में पढ़ा था । इस लेख में आधुनिक पूँजीवादी मॉडल पर बने हुए शहरों की संरचना से लेकर नौकरियों की परिस्थितियों का गहन अध्ययन किया गया था । लेखक का नाम तो याद नहीं है, लेकिन मूल बातें याद हैं । 

पहली बात तो ये है कि महानगरों की संरचना कुछ इस प्रकार हुई कि सबसे क़ीमती जगहों में आपको सारे ऑफिस मिलेंगे और रिहायशी इलाक़े उनसे बहुत दूर , सस्ती जगहों पर मिलेंगे । नौकरी जितनी छोटी होगी, उतनी ही दूर आपके ऑफिस से आपका घर होगा , क्यों कि सस्ते इलाक़े शहर की periphery पर होते हैं । नतीजतन, आपका commuting time इतना ज़्यादा होगा कि कहने को तो आप आठ घंटे की ड्यूटी कर रहे हैं, लेकिन दरअसल आप १२ घंटे खपा रहे हैं । 

इसी क्रम में आज हम ऐसी परिस्थिति में पहुँच गए हैं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने फ़रमान जारी कर दिया है कि हरेक कर्मचारी चौबीसों घंटे काम करने के लिए तैयार रहे । यह सिर्फ़ आपके श्रम का शोषण नहीं है, यह आपके leisure का भी शोषण है । 

फ़ुरसत के पलों को ख़त्म करने के पीछे की सोच दरअसल मनुष्य को स्वतंत्र सोच विकसित करने के मौक़े से ख़ारिज करना है । क्यों, शायद बताने की ज़रूरत नहीं है । स्वतंत्र सोच वाले आविष्कारक भी हो सकते हैं, कलाकार भी और विद्रोही भी । यानि creative हो सकते हैं, लेकिन पूँजीपतियों को ग़ुलाम चाहिए, स्वतंत्र सोच वाले विद्रोही नहीं । 

इस परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति के पास सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबद्धता का ह्रास होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । इसे मैं lack of commitment कहता हूँ । 

लेकिन, उम्र और हॉर्मोन का अपना तक़ाज़ा है । ऐसे में बिना सामाजिक प्रतिबद्धता के लिव इन रिलेशन की ज़रूरत पड़ती है । वेश्या गमन से यह बेहतर है । जिस दिन आप अपने बच्चों की इन मजबूरियों को समझ कर उनसे सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करेंगे, उस दिन आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबद्धता को भी परखा जाएगा । 

गाली देना सबसे कमजोर लोगों के लिए सबसे आसान काम है । बिना समझ की आलोचना बांझ होती है ।

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