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सावरकर के दो रूप … पहला भारत की आजादी के लिए लड़ने वाला और 1911 के बाद लगातार माफी मांगने वाला

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,मुनेश त्यागी 

    वी डी सावरकर के दो रूप हैं। पहला भारत की आजादी के लिए लड़ने वाला और 1911 के बाद लगातार माफी मांगने वाला, झूठ बोलने वाला, अंग्रेजों की वकालत करने वाला और हिंदुत्व की विभाजनकारी नफरत और हिंसा की राजनीति करने वाला। 1911 तक के वी डी सावरकर बहुत ही सम्मानित, आदरणीय और श्रद्धेय हैं क्योंकि अपने जीवन के शुरुआती दिनों में वे एक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। उन्होंने अट्ठारह सौ सत्तावन पर एक बड़ी अहम किताब लिखी है,,, “भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” और उसमें हिंदू और मुसलमानों को भाई भाई बताया था।

     मगर 1911 के बाद,जेल की सजा से डरकर सावरकर ने अंग्रेजों को 6 माफीनामे लिख कर दिए और जेल से रिहा होने के लिए लगातार गिडगिडाता रहा। अपने माफीनामों में उसने ब्रिटिश सरकार को सर्वश्रेष्ठ और अपना माईबाप बताया था और उसने अंग्रेजों के कानून की,अंग्रेजों के शासन की, अंग्रेजों के सुधारों की वकालत की थी, उनका समर्थन किया था और इन्हीं को मध्य नजर रखते हुए उसने छः माफीनामे अंग्रेजों को दिए थे।

     सावरकर ने “राजनीति का हिंदू करण करो” और “हिंदुओं का सैन्यीकरण करो”  की नीति अपनाई। उसने लुटेरे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के सामने दंडवत समर्पण कर दिया था। वह अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए, दूसरों से अपराध और हत्याऐं करवाता था और फिर पकड़े जाने पर अपने कूकृत्यों के लिए माफी मांग लेता था। उसने 1923 में एक निबंध लिखा “हिंदुत्व” जिसमें उसने लिखा कि “यहां दो राष्ट्र हैं, एक हिंदू और दूसरा मुसलमान। ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते।” और इस प्रकार दो राष्ट्रों का सिद्धांत सबसे पहले सावरकर ने ही प्रतिपादित किया था।

     फिर 1925 में अंग्रेजों को एक पत्र लिखा जिसमें उसने लिखा कि “स्वराज” के विचार से उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह इसे संबंध नहीं रखता। 20 फरवरी 2002 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने सावरकर को आर एस एस का सिद्धांतकार बताया था। सावरकर नफरत, हिंसा, घृणा और हत्या का सौदागर था। वह केवल और केवल डरपोक और माफीवीर था, वह लगातार माफी मांगता रहा और पूंजीपतियों से मदद पाता रहा।

     उसने 1937 में हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में फिर से द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत दोहराया। यही सिद्धांत बाद में मुस्लिम लीग के जिन्ना ने दोहराया और अंग्रेजों ने भारत के टुकड़े टुकड़े कर दिए, जिसका इन दोनों ने कोई विरोध नहीं किया। सावरकर ने जेल में दूसरे कैदियों के लिए नहीं, बल्कि अपनी सुविधाएं बढ़ाने के लिए लड़ाई लड़ी। उसे फोरमैन बनाया गया। उसने जेल में कैदियों को हड़ताल के लिए उकसाया, मगर हड़ताल में शामिल नहीं हुआ। कहीं उसकी फोरमैनशिप न जाए। 

     सावरकर ने अपनी जिंदगी में लगातार अपमानजनक शर्तों पर माफीनामें मांगे। पहले अंग्रेजी सरकार से और बाद में भारत सरकार से। उसे साझी संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र, साझी विरासत, साझी सियासत और साझी इबादत से कुछ लेना-देना नहीं था। वह और उसका संगठन भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं था। उसकी राजनीति और अंतिम लक्ष्य भारत में “हिंदू राष्ट्र” कायम करना था जो उसके चेले आज भी कर रहे हैं।

    उसका हिंदुत्व, हिंदूवाद से बिल्कुल अलग था हिंदुत्व यानी दो राष्ट्रों की विचारधारा, जो हिंदू मुस्लिम विभाजन नफरत और हिंसा की धुरी थी, को 1923 में सावरकर द्वारा ही गढा गया था। उसका कहना था कि मुझे हिंदूवाद यानी “वसुदधैव कुटुंबकम” और और “विश्वबंधुत्व” जैसी विचारधारा से कुछ लेना देना नहीं है। आज नफरत, आग और जहर उगलने वाले इस माफी वीर को राष्ट्रीय हीरो के रूप में पेश किया जा रहा है।

     सावरकर 1937 से 1942 तक हिंदू महासभा का अध्यक्ष रहा। उसका शुद्धि आंदोलन धार्मिक नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से राजनीतिक था यानी हिंदू राष्ट्र की राजनीति। सावरकर कि हिंदू महासभा सत्ता की भूखी थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में  फजलुल हक की सरकार में और हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग की सरकार में सिंध सरकार में मंत्रालय में पद स्वीकार किए थे और उस में भाग लिया था।

     सावरकर और हेडगेवार की सलाह मशवरे के से ही आर एस एस का गठन किया गया था। ये दोनों एक दूसरे के समारोह में आते जाते रहते थे। सावरकर, महात्मा गांधी की हत्या का आरोपी था। आत्माराम ने सरकार के इशारे पर पुख्ता सबूत के अभाव का बहाना बनाकर सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया था। 1969 में जस्टिस जीवनलाल कपूर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सावरकर ने ही गांधी की हत्या की साजिश रची थी। गांधी हत्या को लेकर सावरकर के बारे में सरदार पटेल की भी यही राय थी।

     सावरकर ने गांधी की हत्या कराई क्योंकि वह राष्ट्रीय स्तर पर, गांधी जैसा नेता बनना चाहता था। गांधी हत्या में अधिकांश अपराधी  सावरकर के चेले और भक्त थे। गांधी हत्या के लिए गांधी हत्यारों को सावरकर ने अपने घर से यह कहकर  भेजा था कि “जाओ और कामयाब होकर लौटो।”, सावरकर की राजनीति हिंदुत्व की राजनीति थी। वह 1911 के बाद से ही हिंदू मुस्लिम एकता के खिलाफ काम करता रहा और उसके तमाम चेले पहले अटल और अब आडवाणी, r.s.s., हिंदू महासभा और आर एस एस के तमाम संगठन यही काम आज भी कर रहे हैं।

    सावरकर साम्राज्यवादी अंग्रेज लुटेरों के लिए काम कर रहा था और आज उसके समस्त चेले हिंदू मुस्लिम एकता तोड़कर, देश और दुनिया के साम्राज्यवादी लुटेरों के साम्राज्य और मुनाफे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। भारत की जनता, किसानों, मजदूरों और नौजवानों की समस्याओं, दुख तकलीफों से उनका कोई लेना देना नहीं है। सावरकर भारत के केंद्र में आने की प्रतीक्षा करता रहा और वह प्रतीक्षारत ही मर गया। केंद्र में कैसे आता? वहां तो भारत के राष्ट्रपिता यानी बापू बैठे थे।

     सावरकर अंग्रेजों का वफादार सेवक बन बैठा और तमाम जिंदगी पहले उनका और  बाद में भारत के धन्ना सेठों का वफादार बना रहा, भारत को तोड़ने की, द्विराष्ट्र की प्रस्तावना करता रहा, सारी जिंदगी हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने की चाले चलता रहा। सावरकर भगवा झंडे की बात करता था और अपने घर पर तिरंगा लगाता था कितना बड़ा ढोंगी था सावरकर। सांप्रदायिक भड़काऊ भाषण देता था, माफी मांगता था यह कैसी वीरता है वह कैसा वीर था?

    ऐसे आदमी को वीर नहीं कहा जा सकता। वह सबसे बड़ा माफी मांगने वाला था। सबसे बड़ा कायर था। भारत की जनता की एकता को तोड़ने का सबसे बड़ा विभाजनकर्ता था। ऐसे आदमी को भारत का हीरो और वीर नहीं कहा जा सकता।

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