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संवैधानिक गणराज्य और हिंदुत्व राज्य की दो समानांतर विचारधारा

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सुहास पालशिकर

देश की राजनीति और राज्य व्यवस्था का स्वरूप धीरे-धीरे अलग दिशा में बढ़ रहा है। यहां पर दो तरह की विचारधाराएं और दो तरह की अवधारणाएं हैं। एक तरफ संवैधानिक गणराज्य की बात होती है और दूसरी तरफ गतिविधियों और वक्तव्यों में हिंदुत्व राज्य के प्रभाव के संकेत मिलते हैं। देश में संवैधानिक गणराज्य और हिंदुत्व राज्य की दो अलग-अलग अवधारणाएं एक दूसरे के समक्ष खड़ी नजर आती हैं। हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख ने कहा कि वास्तविक स्वतंत्रता उस दिन मिली, जब अयोध्या में राम मंदिर का प्राण-प्रतिष्ठा समारोह संपन्न हुआ।

आरएसएस प्रमुख के इस विचार को उनके मानने वालों और आरएसएस और उन्हें सम्मान देने वालों ने भी गंभीरता से लिया। असल गणराज्य को असल न मानने की यह बातें उस वक्त हो रही हैं जब देश 1950 में बने गणराज्य की स्थापना का उत्सव मनाने जा रहा है। आरएसएस प्रमुख ने सीधे तौर पर यह कहा कि स्वतंत्रता संग्राम और 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त आजादी के बाद बने गणतंत्र में “स्व” यानी भारत की आत्मा की कमी थी।

आरएसएस प्रमुख का यह दावा भारतीय गणराज्य की स्थापना और 15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है। उनका कहना है कि इन घटनाओं में “स्व” यानी भारत की असली आत्मा का अभाव था। इस तरह की विचारधारा राज्य व्यवस्था के दो चेहरों को उजागर करती है। एक व्यवस्था तो संवैधानिक और आदर्शवादी और दूसरी हिंदुत्व की विचारधारा से सिंचित। अब स्थिति यह है कि मौजूदा समय में इन दोनों को जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन दोनों व्यवस्थाओं के सह-अस्तित्व की यह स्थिति देश की राजनीति में तनाव और असहमति का कारण बन रही है। 

पिछले एक वर्ष के दौरान यह देखा गया कि 1950 के संवैधानिक गणराज्य को चुपचाप हिंदुत्व राज्य से बदलने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। भले ही राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह ने तत्कालीन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पर्याप्त लाभ न पहुंचाया हो, लेकिन इसके प्रतीकात्मक महत्व को कम करके आंकना गलत होगा। राम मंदिर आंदोलन ने पिछले तीन दशकों में पूरे देश में हिंदुत्व विचारधारा की नींव रखी। अयोध्या में राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह ने इस विचार को और मजबूत किया कि राज्य और धर्म के बीच गहरा संबंध होना चाहिए। प्रधानमंत्री को इस समारोह में न केवल एक भक्त के रूप में बल्कि मेजबान और पुजारी की तरह प्रस्तुत किया गया। साथ ही आरएसएस प्रमुख को प्रमुख स्थान देकर यह संदेश दिया गया कि यह समारोह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आधिकारिक था।

इस समय हिंदुत्व राज्य सुनिश्चित करने का काम कई स्तरों पर हो रहा है। संवैधानिक मूल्यों की जगह राज्य और धर्म के सह अस्तित्व का नया प्रतीकवाद ले रहा है। संवैधानिक मानदंडों को धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। न्यायपालिका, पुलिस और अन्य संस्थानों के कुछ हिस्से अब संविधान के आदर्शों से विचलित होते दिख रहे हैं।

हर जगह ऐसी नियुक्तियां की जा रही हैं जिनसे संवैधानिक नियंत्रण और संतुलन कमजोर हो जाएं और राज्य हिंदुत्व के अनुसार कार्य करे। इन घटनाओं के बीच कई सवाल खड़े होते हैं। दोनों राज्य व्यवस्थाओं का सह-अस्तित्व क्यों हो रहा है? संवैधानिक गणराज्य के खिलाफ प्रतिरोध क्यों नहीं है? हिंदुत्व राज्य द्वारा सीधा नियंत्रण क्यों नहीं लिया जा रहा? इससे भी अहम सवाल यह है कि यह जटिल समय भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय आत्मा को किस दिशा में ले जाएगा।

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां दो तरह की राज्य व्यवस्थाएं समानांतर रूप से कार्य कर रही हैं। हिंदुत्व राज्य लंबे समय से अस्तित्व में है और आक्रामक रूप से उभर रहा है, जबकि संवैधानिक राज्य भी मरा नहीं है। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और वैचारिक भी है, जो भारत के भविष्य को परिभाषित करेगा। इस समय, यह जरूरी है कि हम इन सवालों के जवाब खोजें और समझें कि यह टकराव भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय आत्मा को किस दिशा में ले जाएगा।

(सुहास पालशिकर का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार लेकर हिंदी में अनुवाद किया गया है।)

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