*1. लीक ही लीक हो जहां…!*
सबसे बड़ी अदालत का फैसला एकदम सही है। नीट की इस साल की परीक्षा को अलविदा नहीं कहा जा सकता है। बेशक, ऐसा नहीं है कि नीट की परीक्षा में सब कुछ सही हो। परीक्षा में काफी गड़बडिय़ां हुई हैं। अप्रत्याशित रूप से ज्यादा बच्चों के सौ फीसद नंबर आए हैं। कुछ खास परीक्षा केंद्रों से परीक्षा देने वालों के भर-भरकर नंबर आए हैं। भर-भरकर नंबर दिलाने वाले कुछ परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा देने, देश के कोने-कोने से पैसे वालों के बच्चे आए हैं। कुछ जगहों पर कुछ बच्चों को परीक्षा के समय से काफी पहले पर्चा आउट करा दिया गया था ; सवालों का जवाब रटा दिया गया था। कुछ केंद्रों पर तगड़ा भुगतान करने वाले बच्चों को बता दिया गया था कि पक्का सही जवाब पता हो, तभी उत्तर लिखें, वर्ना उत्तर की जगह खाली छोड़ दें, पक्की जानकारी के आधार पर बाद में भरे जाने के लिए, वगैरह, वगैरह। पर्चा आउट कराने वाले, आउट पर्चे वाले बच्चों की परीक्षा दिलाने वाले, वगैरह पकड़े भी गए हैं। यह सब तो सही है। लेकिन, विरोधी चाहे जितना शोर मचा लें, यह तो सिर्फ पर्चा लीक होना हुआ।
पर्चा लीक बोले तो, जैसे बारिश में मोदी जी के नये संसद भवन में पानी की टपाटप। और प्लास्टिक की बाल्टियों का इंतजाम फटाफट। और यूपी की विधानसभा मेें भी और अयोध्या में राम मंदिर में भी यानी हर नये निर्माण में, पानी की टपाटप। पर लीक का तो मतलब ही है, बड़ी सी चीज में छोटा सा छेद। बल्कि छेद भी जरूरी नहीं है ; कई बार मामूली दरार से भी लीक हो जाता है या कच्ची चिनाई से भी। पर चाहे परीक्षा का पर्चा लीक हो या राम मंदिर की छत लीक हो, लीक तो परिभाषा से ही, बड़ी चीज में किसी छोटी गड़बड़ी का मामला होता है। वर्ना टपाटप की जगह, धड़ाधड़ नहीं हो जाए।
दिल्ली की आइएएस कोचिंग सेंटर वाली बाढ़ नहीं हो जाए, जिसमें कई बच्चों की जान चली गयी। और जब मामला ही छोटी गड़बड़ी का है, तो न्याय के आसन पर बैठने वाला, उसका बड़ा वाला उपचार कैसे कर सकता है? लोकल गड़बड़ी पर नेशनल परीक्षा कैसे रद्द कर कर सकता है। गड़बड़ी छोटी और उपचार बड़ा, यह तो न्याय नहीं होता!
नड्डा जी की बात भी बिल्कुल सही है। आखिर, स्वास्थ्य मंत्री ठहरे। बीमारी और शरीर के रिश्ते को वह नहीं पहचानेंगे, तो और कौन पहचानेगा। उस पर कॉमन सेंस भी तो एक चीज होती है। सही कहा – जैसे बीमारी के कारण शरीर को नहीं मारा जाता, वैसे ही पेपर लीक के कारण नीट की परीक्षा को रद्द कर के दोबारा नहीं कराया जा सकता। एकदम सही बात। जब तक शरीर को बचाने की जरा भी उम्मीद है, तब तक बीमारी पर काबू पाने की और शरीर को बचाने की भरसक कोशिश की जाती है, की ही जानी चाहिए। बल्कि अब तो अगर मरीज मालदार हो और अस्पताल कमाऊ, तो बीमारी पर काबू पाने की किसी उम्मीद के बिना भी दिनों ही नहीं, महीनों और सालों तक, शरीर को मशीनों के सहारे मरने से बचाए रखा जा सकता है। पर नड्डा जी एक बात भूल गए। अगर बीमारी है और बीमारी को काबू करने के लिए जो-जो करना जरूरी है, नहीं किया गया, तो शरीर किसी के मारे बिना, देर-सबेर खुद ही मर जाएगा। बाल्टी में टपाटप कभी छत को भी गिरा सकती है और पेपर लीक, पूरी की पूरी परीक्षा व्यवस्था को। पेपर लीक वाली परीक्षा, परीक्षा नहीं रहती, परीक्षा का तमाशा बन जाती है, जिसमें पास वही होता है, जिसके पास पैसा होता है।
खैर! स्वास्थ्य मंत्री का बीमारी और शरीर के रिश्ते का ज्ञान तो फिर भी ठीक है, पर आला अदालत के फैसले पर शिक्षा मंत्री का खुशी से फूले-फूले फिरना, समझ में नहीं आया। कह रहे हैं, यह सत्य की विजय है। और यह भी कि झूठ के बादल कुछ समय के लिए सच्चाई के सूर्य को छिपा सकते हैं, लेकिन सच्चाई हमेशा जीतती है, वगैरह। पर इसमें उन्हें अपनी काहे की जीत नजर आ रही है? पेपर लीक हुआ है, क्या इससे आला अदालत ने इंकार किया है? मंत्री जी की एनटीए के निखट्टपने से पेपर लीक हुआ होगा, इतना तो अदालत ने भी माना है। यानी पक्के तौर पर अब भी एक ही सत्य है — पेपर लीक। वास्तव में अदालत में अगर किसी सत्य की जीत हुई है — पेपर लीक की हुई है। पेपर लीक हुआ है, पर उसका कुछ कर नहीं सकते ; इसे क्या पेपर लीक ही जीत नहीं कहेंगे? पेपर लीक का कुछ नहीं कर सकने का कारण चाहे यह हो कि यह लीक सिर्फ पैसा देने वालों के लिए लीक था, पर्चा आउट होने की आम बाढ़ नहीं थी या कारण यह हो कि लीक व्यवस्थागत नहीं था यानी पूरी की पूरी छत ही छन्ने की नहीं थी, इससे सत्य पर फर्क नहीं पड़ता। पूरे मामले में सत्य एक ही है — पेपर लीक। शिक्षा मंत्री क्या इसी सत्य की जीत पर खुश हैं?
पर यह तो सत्य है कि पेेपर लीक साबित हो गया, शिक्षा मंत्री फिर भी खुश हैं। भ्रष्ट तरीकों से पैसे वालों के बच्चों का मेडिकल कालेज में दाखिला होना तय हो गया है, स्वास्थ्य मंत्री को फिर भी लग रहा है कि उनकी सरकार ने स्वास्थ्य व्यवस्था के शरीर को बचा लिया है। दिल्ली में संसद से लेकर, अयोध्या में राम मंदिर तक, पहली बारिश में हरेक छत लीक कर रही है, सरकारें फिर भी कह रही हैं कि जरा से लीक को क्यों देखते हो, पूरी छत को देखो, जो बाकायदा सिर पर तनी हुई है और ज्यादातर अकेले-अकेले ही और जहां-तहां बाल्टी की मदद से, नीचे वालों को बारिश से बचा तो रही है।
अगर संसद का लीक होना मंजूर है, तो नीट वगैरह में पेपर लीक पर ही इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है। छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ क्यों बनाया जा रहा है और वह भी सिर्फ इसलिए कि नेहरू जी के टैम में ऐसा लीक नहीं था। हमें तो लगता है कि नेहरू जी ने तो लीक के ही डर से न संसद भवन बनवाया, न राम मंदिर और न नीट जैसी परीक्षाएं करायीं। कम से कम मोदी जी ने यह सब किया तो और करने वालों की शान में ही किसी शायर ने कहा है — गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें।
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*2. अथ लीक महात्म्य!*
विपक्ष वाले भी कितने नादान हैं। मोदी जी के नये संसद भवन की छत जरा सी टपकने क्या लगी‚ इन बैरियों ने हंगामा ही खड़ा कर दिया है। छत से टपकते पानी को जमा करने के लिए रखी गई प्लास्टिक की बाल्टी के मीम सोशल मीडिया में ऐसी तेजी से तैर रहे हैं‚ जैसी तेजी नालों के उफनते पानी में‚ शहरों का कचरा भी नहीं तैरता होगा।
हद तो यह है कि संसद भवन के लीक को भारत मंडपम के लीक करने से जोड़ा जा रहा है और बैरी पूछते हैं कि मोदी जी ने जो भी बनवाया है और बिमल पटेल ने जिसमें भी हाथ लगाया है‚ सब पहली बारिश में ही बाल्टी क्यों मांगने लगता हैॽ
लेकिन‚ पूछता है भारत कि क्या इस बारिश में सिर्फ वही लीक किया है‚ जिसे मोदी जी ने बनवाया हैॽ कत्तई नहीं। गा–बजाकर लीक तो अपनी यूपी की विधानसभा भी कर रही है‚ जबकि उसमें‚ न मोदी जी का हाथ लगा है और न बिमल पटेल का। साफ है कि लीक का इशारा कुछ और ही है ; कुछ बड़ा‚ कुछ ऊँचा इशारा‚ निर्माण में भ्रष्टाचार–वष्टाचार टाइप का तुच्छ इशारा नहीं। वह इशारा क्या हैॽ इशारा है‚ वास्तुकला की खांटी‚ सौ टंच भारतीयता का। एक चेलेंज है – जैसी प्लास्टिक की बाल्टी लीक संभालने के लिए भारतीय संसद भवन में आई है‚ वैसी भूमिका में वैसी बाल्टी दुनिया भर में और किसी भी संसद में मिल जाए‚ तो हम कायल हो जाएंगे! बाकी की बात छोड़ दो‚ ऐसी भूमिका में तो ऐसी बाल्टी खुद भारत के पिछले संसद भवन में भी कभी नहीं देखी गई थी। कहीं इसी भारतीय मौलिकता के लिए ही तो मोदी जी ने करीब हजार करोड़ रुपये लगाकर नया संसद भवन नहीं बनवाया है। पहले वाले भवन में बिन बाल्टी सब सून सा लग रहा था; नये भवन में अब बाल्टी आई है‚ तब कहीं जाकर खालिस भारतीयता की सांस आई है।
वैसे‚ परीक्षाओं के पेपर वगैरह का लीक होना भी कोई कम भारतीय नहीं है। हमारा राष्ट्रीय खेल ही समझ लीजिए। ऐसे और इतनी बार पेपर लीक भी और कहां होता होगा‚ जीॽ फिर भी हजार करोड़ के छत लीक वाली बाल्टी की देशजता से‚ पेपर लीक की तुलना नहीं हो सकती। पेपर का तो आइडिया ही विदेशी ठहरा। फिर भी लीक है जहां‚ इंडियत्व है वहां!
*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*