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उद्धव- कृष्ण संवाद : विवेकमेव जयते

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        ~कुमार चैतन्य

उद्धव : आपने वस्त्र देकर द्रौपदी की लाज को बचाया. क्या यह सच है कि आपने द्रौपदी की लाज-मर्यादा को बचा लिया?

  कृष्ण : तुम क्या कहना चाहते हो उद्धव, स्पस्ट कहो.

   उद्धव : उसे उसके कमरे से घसीटकर भरी सभा में लाता है. इतने सारे लोगों के सामने अपमानित किया जाता है. नंगी करके दुर्योधन की जाँघ पर बिठाने की तैयारी होती है. निर्वस्त्र करने के लिए साड़ी तक खींची जाती है. उसकी लाज में, मर्यादा में क्या बचा? आपने क्या बचाया? आप इसे क्यों नहीं बचाए? क्या यही धर्म है?

  कृष्ण : उद्धव! यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है। उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं। 

दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था. इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है।

  धर्मराज भी दुर्योधन से सभा में प्रस्ताव कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा। अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता? पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?

चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया। 

    उन्होंने विवेक-शून्यता से भरकर मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए. वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे। उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया.

    इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है. भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए. बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.

    अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही. तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा. उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया. तब उसने ‘हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम’ कहकर मेरी  गुहार लगाई. तब मुझे उसकी रक्षा का अवसर मिला।

उद्धव : कान्हा, इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?

  कृष्ण : उद्धव! इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ। इसलिए की उसको कोई भी कर्म करने की स्वतन्त्रता दिया हूँ. मैं केवल एक ‘साक्षी’ हूँ, यानी दर्शक. मैं मात्र देखता हूँ, कर्मफल भी मैं नहीं देता. फल उसके कर्म देते हैं. मैं किसी की पूजा, प्रार्थना, भक्ति से भी कर्मफल विधान से परे उसे कुछ नहीं दे सकता. भले इंसान का सहयोग अवश्य करता हूँ. न्याय और धर्म के पक्ष में रहे पांडवों का सहयोग मैंने किया.

उद्धव : वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे. हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे.

   उद्धव : आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?

कृष्ण : उद्धव! भगवत्ता के गहरे अर्थ को समझो। जब तुम विवेक से समझकर अनुभव करोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हरपल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?

  जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो.

    इसलिए सबसे खास बात फिर सुन लो : विवेक की ही विजय होती है. वेदों के मंत्रराज गायत्रीमंत्र में बुद्धि की ही प्रार्थना है. बुद्धि इंसान को बोध तक, सम्बोधि तक, बुद्धत्व तक ले जाती है और बुद्धिशून्यता बुद्धूपन तक. क्रोध बुद्धि को खाता है.

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