सत्येंद्र रंजन
24 फरवरी 2022 को जब रूस ने यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू की, तब इसका अंदाजा यह बहुत कम लोगों को रहा होगा कि इस घटना के साथ दुनिया के शक्ति संतुलन में दूरगामी बदलावों की शुरुआत हो जाएगी। इन बदलावों की जमीन पहले से तैयार हो रही थी, लेकिन यूक्रेन में शुरू हुए टकराव ने इन्हें inflection point (निर्णायक मोड़) पर पहुंचा दिया।
चार फरवरी 2022 को रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बीजिंग में हुई शिखर वार्ता के बाद जारी लगभग साढ़े पांच हजार शब्दों के साझा बयान से यह संकेत मिला था कि ये दोनों नेता विश्व शक्ति-संतुलन में बुनियादी बदलाव लाने का इरादा रखते हैं।
इसके बावजूद तब यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि परिवर्तन के ये प्रक्रिया इतनी तेजी से आगे बढ़ेगी कि साल भर बाद दुनिया बिल्कुल अलग तरह की नजर आएगी।
व्लादीमीर पुतिन ने 21 फरवरी 2023 को अपने स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन के दौरान यह संदेश देने में कोई कमी नहीं बरती कि पश्चिमी वर्चस्व के दिन अब गुजर चुके हैँ। उन्होंने कहा- ‘पश्चिम ने हमारे खिलाफ न सिर्फ सैनिक और सूचना युद्ध छेड़ा, बल्कि वह आर्थिक मोर्चे पर भी लड़ने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वह इनमें से किसी मोर्चे पर कामयाब नहीं हुआ है, और ना ही कभी होगा।’
पुतिन ने अपने भाषण में रूसी सैनिक कार्रवाई के औचित्य की चर्चा की, लेकिन साथ ही उन्होंने यूक्रेन की घटना के कारण दुनिया में आए बड़े बदलावों का भी जिक्र किया। पुतिन ने इस सिलसिले में जिन परिघटनाओं की चर्चा की, उनमें एक अमेरिकी मुद्रा डॉलर के वर्चस्व को मिल रही चुनौतियां भी हैं।
बेशक de-dollarization के नाम आगे बढ़ रही इस प्रक्रिया का दूरगामी असर होगा। डॉलर का वर्चस्व अमेरिकी साम्राज्य की सबसे बड़ी ताकत है। इस पर होने वाली हर चोट असल में साम्राज्य की जड़ों पर प्रहार है।
वैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद को लग रहे झटकों का यह सिर्फ एक पहलू है। पिछले एक साल में रणनीतिक और राजनीतिक मोर्चों पर भी उसे अनेक झटके लगे हैं। दरअसल, घटनाएं जैसे आगे बढ़ी हैं, उनसे यह साफ संदेश मिला है कि अब विश्व अर्थव्यवस्था में वॉशिंगटन सहमति (Washington Consensus) जैसा कोई पहलू नहीं रहा। उधर विश्व कूटनीति में भी पश्चिमी प्रभाव काफी सिकुड़ चुका है।
बेशक रूस खुद से काफी छोटे देश यूक्रेन को इस अवधि में निर्णायक रूप से परास्त नहीं कर पाया। लेकिन इस सिलसिले में यह पहलू नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि वह देश अमेरिकी नेतृत्व वाले सैनिक गठबंधन- नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (नाटो) के साथ प्रॉक्सी युद्ध लड़ रहा है।
इस क्रम में यूक्रेन ने अपनी जनता के लिए व्यापक बर्बादियों को आमंत्रित किया है। फिर अगर 24 फरवरी 2022 को राष्ट्रपति पुतिन द्वारा बताए गए सैनिक कार्यवाई के तीन मकसदों पर गौर करें, तो उनमें से कम से कम एक वे पूरी तरह हासिल कर चुके हैं। यूक्रेन के दोनबास इलाके में स्थित दोनेत्स्क और लुहांस्क प्रांतों का रूस खुद में विलय कर चुका है।
बाकी दो में से एक मकसद यूक्रेन को नाटो में शामिल होने से रोकना था। इसका क्या होगा, यह युद्ध के अंतिम परिणाम से तय होगा। अगर पश्चिमी देश अपने घोषित मकसद के मुताबिक रूस को निर्णायक रूप से हराने में सफल रहे, तो फिर यूक्रेन का नाटो में शामिल होना या ना होना अप्रसांगिक प्रश्न बन जाएगा।
लेकिन अगर रूस सफल रहा, तो उसके बाद यूक्रेन का शामिल होना तो दूर, खुद नाटो की अपनी हैसियत पर गंभीर सवाल उठ खड़े होंगे। पुतिन ने तीसरा उद्देश्य यूक्रेन को नाजी प्रभाव से मुक्त कराना बताया था। इस दिशा में आंशिक सफलता मिली है। नाजी प्रभाव संगठनों के गढ़ मारियापॉल पर रूस का नियंत्रण हो चुका है। लेकिन बाकी यूक्रेन में नाजी विचाराधारा प्रभावशाली बनी हुई है। इसका क्या होगा, यह भी युद्ध के अंतिम परिणाम से ही तय होगा।
बहरहाल, पश्चिमी देशों को संभवतः सबसे ज्यादा भरोसा आर्थिक प्रतिबंध लगाने की अपनी ताकत पर था। तब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से लेकर यूरोपीय नेताओं तक ने खुलेआम कहा था कि इन प्रतिबंधों से रूस को घुटना टेकने पर मजबूर कर दिया जाएगा।
लेकिन साल भर बाद सूरत यह है कि रूस की अर्थव्यवस्था प्रतिबंधों से मामूली रूप से ही प्रभावित हुई है। जबकि यूरोप की अर्थव्यवस्था तबाही के करीब है। ब्रिटेन से जर्मनी तक न सिर्फ लोग महंगाई और ऊर्जा संकट से परेशान हैं, बल्कि उऩके देशों का औद्योगिक ढांचा स्थायी रूप से कमजोर होता दिख रहा है।
कुछ असर अमेरिका पर भी पड़ा है। लेकिन यह यूरोप जितना नहीं है, तो उसकी वजह यूरोप को मुसीबत में डाल कर उस पर अपना शिकंजा कस लेने की अमेरिकी रणनीति का कामयाब होना है।
इस अमेरिकी रणनीति का नतीजा यह हुआ है कि जहां यूरोपीय देशों को ऊर्जा सस्ते स्रोत गंवाने पड़े हैं, वहीं अमेरिका की तेल और गैस कंपनियों को नया बाजार मिला है, जिससे उनका मुनाफा तेजी से बढ़ा है। मगर यह बात खुद पश्चिमी विश्लेषकों ने स्वीकार की है कि रूस पर लगाए गए प्रतिबंध बैकफायर कर गए हैं।
पश्चिम के कूटनीतिक और राजनीतिक प्रभावों के सिकुड़ने की मिसाल यह है कि प्रतिबंधों की उसकी योजना में अमेरिकी धुरी के देशों के अलावा कोई अन्य मुल्क शामिल नहीं हुआ। एक अनुमान के मुताबिक जिन देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, उनकी कुल आबादी दुनिया की जनसंख्या के 15 प्रतिशत से भी कम है।
लगभग 85 प्रतिशत आबादी वाले देशों ने प्रतिबंध की रणनीति को ठुकरा दिया। इनमें से ज्यादातर देशों ने रूस के साथ अपने कारोबारी संबंध बनाए रखे हैं। इसीलिए 20 फरवरी को जब जो बाइडेन ने यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर यह कहा कि दुनिया यूक्रेन के साथ खड़ी है, तो उसे सुनना मनोरंजक महसूस हुआ।
सोशल मीडिया पर उचित ही तब अनेक लोगों ने इस ओर ध्यान खींचा कि अमेरिका और यूरोपीय देश अपने साम्राज्यवादी अतीत की मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं- वे अभी भी खुद को ही दुनिया माने बैठे हैं!
जबकि गुजरे एक साल में रूस ने चीन के साथ अपने रिश्तों को मजबूत बनाया है और इस बिना पर वह दुनिया में नए शक्ति-संतुलन को स्थापित करने में एक प्रमुख सूत्रधार के रूप में उभरा है। 2022 में जर्मनी की खुफिया सेवा के प्रमुख थॉमस हेल्डेनवांग ने एक मौके पर कहा था कि रूस एक तूफान है, जबकि चीन जलवायु परिवर्तन है।
ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-5 के निदेशक केन मैकलम भी ऐसी राय जता चुके हैं। यानी पश्चिमी आकलन में रूस ने फौरी हलचल पैदा की है, लेकिन चीन अपनी आर्थिक, तकनीकी और सैनिक ताकत से दुनिया में स्थायी बदलाव का सूत्रधार बना हुआ है।
तो 2022 में हुआ यह कि “तूफान और जलवायु परिवर्तन” दोनों का और गहरा मेल हो गया। इससे पश्चिमी वर्चस्व को फौरी झटके लगे, जिससे उनके पांव के नीचे से जमीन खिसकने की दीर्घकालिक प्रक्रिया और तेज हो गई है।
अतीत में एक अमेरिकी रणनीतिकार ने अमेरिकी शासकों को चेतावनी दी थी वे कभी ऐसा कदम ना उठाएं, जिससे रूस और चीन एक धुरी पर आ जाएं। 2021-22 में जो बाइडेन प्रशासन ने असल में यही कर दिया। इसके साथ ही वह यूरेशियाई धुरी खुल कर अस्तित्व में आ गई है, जो लगभग चार सौ साल से दुनिया को अपने ढंग से चला रहे पश्चिमी साम्राज्यवाद को निर्णायक चुनौती देने की स्थिति में नजर आ रही है।
क्या इस घटनाक्रम से साम्राज्यवाद की जड़ें उखड़ जाएंगी? बेशक इस बारे में अभी कोई फैसला सुनाना जल्दबाजी होगी। ढहते साम्राज्य आत्मघाती युद्ध की हद तक चले जाते हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि व्यापक विनाश के युद्ध छेड़ने की पश्चिम की ताकत अभी बनी हुई है।
दरअसल, चीन से आर्थिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने के बाद अमेरिका की रणनीति चीन को युद्ध में उलझाने की नजर आती है। लेकिन अगर चीन, रूस और पश्चिमी शिकंजे से मुक्त होने की कोशिश में जुटे अन्य देश उसकी इस चाल से बच पाए, तो विश्व अर्थव्यवस्था की मौजूदा दिशा ‘अमेरिकी सदी’ की कहानी पर विराम लगा देगी।
यूक्रेन का युद्ध त्रासद है। यूक्रेन में अगर देशभक्त नेतृत्व होता, तो वह सहमति और समझौते का रास्ता अपना कर अपने देश की शक्ति और अपनी जनता के हितों की रक्षा कर सकता था। लेकिन वहां 2014 में पश्चिमी देश अपना प्रॉक्सी शासन थोपने में सफल रहे। उस शासन ने पश्चिमी हितों को पूरा करने के लिए अपनी जनता के हितों की बलि चढ़ाई है।
यह बीते एक साल का सबसे दुखद पहलू है। लेकिन अमेरिकी या पश्चिमी साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ने वाला यूक्रेन कोई पहला या अकेला देश नहीं है। बल्कि अगर वहां के लोगों को जो झेलना पड़ा है, उससे अगर अमेरिकी साम्राज्य की हिली जड़ें अंततः ढह भी जाती हैं, तो भविष्य में ऐसी कहानियों पर विराम लगने की एक ठोस उम्मीद पैदा हो सकती है।
( सत्येंद्र रंजन अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)