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जवाबदेही से बेफिक्र?

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शशिकांत गुप्ते

आज सुबह यकायक मुझे सन 1961 में प्रदर्शित फिल्म हम दोनों के इस गीत का स्मरण हुआ। इस गीत को लिखा है गीतकार साहिर लुधियानवी ने।
इस गीत के स्मरण होने का कारण नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली कहावत चरितार्थ होते दिख रही है। नौ दिन की जगह नौ वर्ष लिखने से स्पष्ट समझे आ जाएगा?
फिल्म हम दोनों का स्मरण होने पर एक ही अभिनेता की दोहरी भूमिका (double role) निभाने की याद ताजा हो जाती है। दोहरी भूमिका दर्शाने का कमाल ट्रिक फोटोग्राफी का होता है। फिल्मों की कहानी काल्पनिक होती है।
वास्तविक जीवन में कुछ लोग दोहरी भूमिका अदा नहीं करते बल्कि इन लोगों का दोहरा आचरण होता है।
अभिनेता देव आनंद अभिनीत फिल्म के टाइटल की तरह शरीफ बदमाश
फिल्मी दुनिया भी अजीब है,बदमाश के साथ शरीफ का विशेषण लगा देती है।
बहरहाल मुद्दा है,फिल्म हम दोनों के गीत इसी गीत के स्मरण होने का कारण?
इस गीत में जीवन को स्वच्छंद तरीके से जीने का संदेश है।
इस संदेश पर आमजन के लिए वास्तविक जीवन में अमल करना पूर्णतया असंभव है।
उक्त गीत में कहा गया है,
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
यहां तक तो ठीक है लेकिन आगे की पंक्ति है
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया
आमजन की जिंदगी तो फिक्र से स्वयं ही धुआं धुआं होकर छिन्न भिन्न हो रही है।
आमजन की समस्याओं को हल करने की जवाबदारी जिसकी है,वह तो इसी गीत की इन पंक्तियों को गा कर खुश है।
बरबादियों का शोक मनना फजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
सीतारामजी ने मेरे द्वारा इतना लिखा हुआ पढ़कर मुझे सलाह दी, इनदिनों फिक्र को धुएं में उड़ाने वालें लोग, आमजन की समस्याओं के लिए सच में बेफिक्र ही हैं।
इसीलिए यथार्थ में कुछ हो न हो लेकिन विज्ञापनों में सब कुछ दर्शाया जा रहा है।
ज्यादा कुछ न कहते हुए,सिर्फ इतना ही कह दो
भोली सूरत दिल के खोटे
नाम बड़े और दरशन छोटे, दरशन छोटे

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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