डॉ. विकास मानव
१. पहला खंड मन:विज्ञान ‘जानने’ का काम करता है।
२. दूसरा खंड बुद्धि:संज्ञा पहचानने का काम करता है। मूल्याङ्कन भी साथ में करता है।
३. तीसरा खंड चित्त:वेदना संवेदनशील होने का काम करता है।
४. चौथा खंड अहंकार:संस्कार प्रतिक्रया करने का काम करता है।
1. मन:विज्ञान
छहों इन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा और मन) पर इस खंड के अवयव काम करते है.
आँख पर कोई रूप आया, नाक पर कोई गंध आयी, कान पर कोई शब्द आया, जीभ पर कोई रस आया, त्वचा पर कोई श्पर्शव्य पदार्थ आया, मन पर कोई चिंतन आया तो सबसे पहले उस खंड का विज्ञान जागता है.
कोई-न-कोई संवेदना होती है. मानस का पहला खंड सक्रिय होता है। उदहारण के लिए: कान पर कोई शब्द आया, मानस का पहला खंड “विज्ञान”: सक्रीय होता है.
कान पर शब्द का विज्ञान जागा, तो पूरा शरीर एक प्रकार की (न्यूट्रल) तरंगों से तरंगित होने लगता है.
2. बुद्धि:संज्ञा
मानस का यह खंड पहचानने का काम करना शुरू करता है. कोई शब्द आया है, उसे ये खंड पहचानता ही नहीं मूल्यांकन भी कर देता है.
गाली का शब्द है या प्रशंसा का शब्द है यह स्पस्ट हो जाता है.
3. चित्त:वेदना
जैसे ही शब्द का मूल्यांकन हुआ कि गाली का शब्द है, वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदनाएं थीं वो दुखद संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं.
यदि शब्द का मूल्यांकन हुआ कि प्रशंसा का शब्द है तो वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदनाएं थीं वो सुखद संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं।
4. अहंकार:संस्कार
मानस का ये खण्ड प्रतिक्रया करने का काम करता है.
क्या प्रतिक्रिया करता है?
किसके प्रति?
पॉजिटिव – निगेटिव प्रतिक्रिया. इन सुखद और दुखद संवेदनाओं के प्रति। राग-द्वेष आदि शरीर की संवेदनाओं के प्रति!
सुखद संवेदनाओं के प्रति प्रतिक्रया करता है कि : और चाहिए, और चाहिए. सुखद संवेदनाएं यूँ ही बनी रहे, जिसे हम राग (चाहना) कहते हैं।
दुखद संवेदनाओं के प्रति : नहीं चाहिए, नहीं चाहिए कि प्रतिक्रिया करता है. इन दुखद संवेदनाओं को दूर करने की चेष्टा करता है, जिसे हम द्वेष कहते हैं।
राग-द्वेष शरीर की संवेदनाओं के प्रति होता है न की शरीर के बाहरी विषयों के प्रति। सफल ध्यान साधक चार सूक्ष्मताओं की चरम-सीम सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लेता है। सत्य का स्वयं साक्षात्कार कर कृतकृत्य हो जाता है.
हाथ थे मिटे यूं ही
रोजे-अजल से ऐ अजल
रूए-जमी पै हैं तो क्या
जेरे-जमी हुए तो क्या?
*तुम्हारी जिंदगी है क्या?*
एक लंबी-लंबी रात, जिसकी सुबह आती ही नहीं! एक ऐसी रात जिसकी प्रभात पता नहीं कहां खो गयी!
एक ऐसी रात जिसमें न चांद है, न सितारे हैं! और एक ऐसी रात, चांद-सितारों की तो बात दूर, जुगनुओं की भी रोशनी नहीं!
एक ऐसी रात जिसमें न कोई दिया है, न कोई शमा है। बस तुम हो–लडखडाते, गिरते-उठते, दीवालों से सिर फोड़ते।
और इसी को तुम जीवन समझे हो.
जीवन तो उनका है जिनकी आंख खुली। क्योंकि जिनकी आंख खुली, उनकी सुबह हुई।
जीवन तो उनका जिनकी अपने से पहचान हुई। अपने से पहचान हुई तो सबसे पहचान हुई।
जीवन तो उनका है जिन्हें चारों तरफ परमात्मा का नृत्य दिखाई पड़ना शुरू हुआ।
बस वे ही जीते हैं! शेष सारे लोग तो मरते हैं।
क्या फर्क पड़ता है कि तुम जमीन के ऊपर हो कि जमीन के भीतर हो। मिटे ही हुए हो।