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सिसोदिया की जेल से समझें सत्ता का सियासी खेल

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दिव्यांशी मिश्रा

   लोकप्रिय राजनैतिक विश्लेषक प्रियदर्शन कहते हैं : मनीष सिसोदिया को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजे जाते देख दुख हुआ। निजी तौर पर मैं जिन कुछ नेताओं को जानता हूं, उनमें मनीष भी हैं और उनके निजी तौर पर भ्रष्ट या बेईमान होने की उम्मीद नहीं कर सकता। तथाकथित आबकारी घोटाले में सीबीआई या ईडी ने अभी तक जो भी कार्रवाई की है, उसमें भी ठोस सबूत कम और तरह-तरह के अनुमान ज़्यादा दिख रहे हैं। लेकिन यह मनीष सिसोदिया को मेरी ओर से दी जा रही क्लीन चिट नहीं है।

          संभव है, मनीष सिसोदिया इस पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के पहलू से अपरिचित रह गए हों। या यह भी संभव है कि पैसों का खेल बन चुकी भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी को बनाए रखने के लिए उन्हें पैसे जुटाने का यह मुफ़ीद रास्ता लगा हो। आख़िर एक दौर में शरद यादव ने माना ही था कि हवाला वाले जैन बंधुओं से उन्होंने पैसे लिए थे, मगर अपने लिए नहीं, पार्टी के लिए लिए थे। लेकिन इन दोनों  स्थितियों में मनीष सिसोदिया का अपराध कम नहीं होता।

        लेकिन फिर कहना होगा- अभी यह दूर की कौड़ी है। अभी तक मेरे लिए मनीष सिसोदिया बेगुनाह हैं- यह भारतीय क़ानून भी कहता है। मगर मुद्दा दूसरा है। जिस तरह के आरोप लगाते हुए मौजूदा केंद्र सरकार की एजेंसियों ने मनीष सिसोदिया को जेल के पीछे भेज दिया है, उससे कहीं ज़्यादा हल्के और जोशीले आरोप लगाते हुए अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने अपनी राजनीतिक ज़मीन बनाई।

एक दौर था जब लोग केजरीवाल की प्रेस कॉन्फ़्रेंस का इंतज़ार करते थे कि उनके आरोपों की गाज किस पर गिरने वाली है। वह यूपीए का शासन काल था और यूपीए के मंत्रियों के खिलाफ़ उनकी मुहिम रंग लाई थी। आज अगर देश में एनडीए का शासन अपराजेय लग रहा है तो इसका कुछ श्रेय उस अण्णा आंदोलन को भी जाता है जिसने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर यूपीए के ख़िलाफ़ ऐसी हवा बनाई कि बीजेपी का गुब्बारा बिल्कुल आसमान में पहुंच गया। 

       लेकिन उन मामलों का क्या हुआ? किसी भी मामले में केजरीवाल और सिसोदिया आरोप साबित नहीं कर पाए- उल्टे उन्हें मानहानि के कई मुक़दमों में माफ़ी मांगनी पड़ी। उन्होंने दलील यह दी कि इन मुक़दमों की वजह से उनका वक़्त ख़राब हो रहा है और सरकार चलाने में बाधा आ रही है। लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई ज़रूरी है या सरकार चलाना? जाहिर है, सरकार में आते ही इन नेताओं की प्राथमिकता बदल जाती है। 

        केजरीवाल-सिसोदिया के आरोपों और मौजूदा सरकार की कार्रवाई में एक अंतर है। सिसोदिया और केजरीवाल तब किसी संवैधानिक पद पर नहीं थे, उनके लिए भ्रष्टाचार वह बुराई था जिससे लड़ना ज़रूरी था। बेशक, वे भ्रष्टाचार और इसके विरुद्ध लड़ाई- दोनों का भयावह सरलीकरण करने पर तुले थे, लेकिन फिर भी एक नागरिक या राजनीतिक दल के तौर पर आवाज़ उठाने का उन्हें हक़ था। मगर केंद्र सरकार जो कर रही है, वह भ्रष्टाचार के आरोप को राजनीतिक प्रतिशोध का औज़ार बना रही है।

वह एक के बाद एक विपक्षी दलों के नेताओं के ठिकानों पर छापे मार रही है और इनकी सामयिकता यह संदेह नहीं रहने देती कि इन छापों का एक राजनीतिक मक़सद है। ये छापे विरोधियों के दमन के लिए मारे जा रहे हैं।

      सत्ता में बैठे लोगों के लिए यह कोई नई प्रविधि नहीं है। दुनिया भर में तानाशाह बिल्कुल आम समझी जाने वाली बुराइयों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने का दिखावा कर लोकप्रियता हासिल करते हैं और अपनी नाकामियों को छुपाते हैं। वे अपने राजनीतिक विरोधियों पर भ्रष्टाचार से लेकर नशे की तस्करी तक के आरोप लगाते हैं और उनके दमन की वैधता हासिल करते हैं। कई बार वे खुद इन्हीं हरकतों में लिप्त पाए जाते हैं। पाकिस्तान में नवाज शरीफ़, भुट्टो परिवार या इमरान ख़ान सब भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करते रहे और सब पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे। चिली के तानाशाह अगस्तो पिनोशे पर ड्रग्स डीलरों से साठगाांठ करने का आरोप लगा। 

      भारत में भी भ्रष्टाचार वह मुद्दा है जिससे हर कोई लड़ने का दावा करता है, लेकिन हर कोई उसमें लिप्त दिखता है। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार में ही नहीं, भ्रष्टाचार से लड़ाई में भी करोड़ों की कमाई है। कम से कम इतना ज़रूर है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा कर आप दूसरी नाकामियों को छुपा सकते हैं। 

      मौजूदा सरकार यही करती दिख रही है। उसे पता है कि भारत में इन वर्षों में पूंजी आधारित जो चुनाव तंत्र विकसित हुआ है और अपराध आधारित जो पूंजी तंत्र खड़ा हुआ है, उसमें कोई भी दल अपनी सफ़ेद चादर के साथ नहीं रह सकता।

         किसी को भी पकड़ कर उसके ख़िलाफ़ कुछ मामले आसानी से बनाए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री और बीजेपी की चुनावी रैलियों में जो भव्य ख़र्च होता है, उसका पैसा कहां से आता है- यह सवाल कोई नहीं पूछता। बेशक, विपक्षी दल यह मज़ाक करते हैं कि बीजेपी के सारे नेता दूध से धुले हैं या फिर बीजेपी वह वाशिंग मशीन है जिसमें जाते ही सबके गुनाह धुल जाते हैं, लेकिन राष्ट्रवाद, देशभक्ति और हिंदुवादी नशे का जो मिक्स है, उसमें किसी को यह याद रखने की परवाह नहीं है।

मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी पर लौटें। उनकी चुनावी कामयाबियां वाकई हैरान करने वाली हैं। दो राज्यों में उनकी सरकार चल रही है। लेकिन आम आदमी पार्टी किन मुद्दों की राजनीति कर रही है? वह भी भ्रष्टाचार को लेकर आम भारतीय समाज में जो पाखंडपूर्ण भर्त्सना का रवैया है, उसका ही फ़ायदा उठा रही है। वह भी भावनात्मक मुद्दों का दोहन कर रही है, वह भी भारतीय समाज की हताशाओं को अपने पक्ष में मोड़ रही है।

      इसलिए कभी वह कांग्रेस की बी टीम जान पड़ती है और कभी बीजेपी की। वह भी तीर्थयात्राओं और बड़े-बड़े आरोपों के खेल की राजनीति कर रही है। 

     लेकिन इस मोड़ पर मनीष और उनकी पार्टी को वाकई कुछ चिंतन करना चाहिए। भ्रष्टाचार या सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ जज़्बाती भाषणों से कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, ऐसी लड़ाई से कुछ राजनीतिक फ़ायदा भले उठाया जा सकता है। लेकिन ऐसी लड़ाइयां अमूमन उन नेताओं को रास आती हैं जो लोकप्रियतावाद पर कुछ ज़्यादा भरोसा करते हैं। दूसरी बात यह कि पहले अपने विरोधियों पर क़ाबू पाने के लिए की जाने वाली ये कार्रवाइयां धीरे-धीरे पूरे लोकतंत्र पर क़ाबू पाने की प्रक्रिया में बदल जाती हैं।

        क्योंकि पहले यह जताया जाता है कि विपक्ष के नेता देश को लूटते रहे, फिर यह बताया जाता है कि इस भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोकतांत्रिक तौर-तरीक़े नाकाफ़ी हो रहे हैं। फिर यह भी बताया जाता है कि जो लोग सरकार की आलोचना कर रहे हैं, वे देश के दुश्मन हैं, जो ये बता रहे हैं कि सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है, वे भ्रष्ट लोग हैं।

 स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल ज़िब्लैट की मशहूर किताब ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई’ में तानाशाहों की पहचान का एक फॉर्मूला बताया गया है जिसमें चार तत्व हैं। किताब कहती है कि इनमें से कोई भी तत्व किसी नेता में देखें तो जान जाएं कि उसमें तानाशाह होने के लक्षण हैं। किताब में बताया गया है कि जो नेता अपने विरोधियों को देशद्रोही बताए, अपनी आलोचना को देशद्रोह की श्रेणी में डाल दे, वह किसी भी तरह से चुन कर आया हुआ हो, लेकिन उसमें तानाशाह होने के लक्षण हैं।

      अपने देश के संदर्भ में यह बात क्या सच नहीं लगती? और पिछले दिनों जितने विपक्षी नेताओं को तरह-तरह के आरोपों में जेल काटनी पड़ रही है, क्या उससे यह इशारा नहीं मिलता कि हमारी लोकतांत्रिकता की सहज सांस अवरुद्ध हो रही है? मनीष सिसोदिया देर-सबेर जेल से बाहर आ जाएंगे, लेकिन ये लोकतंत्र के लिए फ़िक्रमंद होने के दिन हैं।

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