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 *समझ को समझना भी समझ है*

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शशिकांत गुप्ते

आज अचानक निम्न कहावत का स्मरण हुआ क़ाज़ी जी दुबले क्यों शहर के अंदेशे में यह कहावत नाहक़ ग़ैरों की फ़िक्र में रहने वाले,और बे मौक़ा और बिना ज़रूरत फ़िक्र करने वाले के प्रति बोली जाती है। कुछ लोगों की आदत होती है,अपने घर की चिंता छोड़ दूसरों के दुःख दर्द के साथी बन जाती हैं।
सैद्धांतिक रूप से कहा जाता है
Charity begins at home.
अर्थात परोपकार अपने घर से ही प्रारंभ होता है।
परोपकार करना मतलब रेवड़ियां बांटना नहीं होता है। अपनी मूलभूत अनिवार्य आवश्यकताएं संतोष जनक रूप से पूर्ण होने के बाद जो धन अतिरिक्त बचे,ऐसे धन से की गई मदद को परोपकार कहतें हैं। इस तरह किया गया परोपकार इस लोकोक्ति को चिरितार्थ करता है, नेकी कर दरिया में डाल
स्वार्थपूर्ति की मानसिकता से ग्रस्त लोग परोपकार करने को लोगों पर किया उपकृत (Obliged) समझते हैं। मतलब अहसान समझते हैं।
कुछ लोग स्वार्थी होने साथ स्तुति प्रिय भी होते हैं। यहां स्तुतिप्रिय से तात्पर्य जो प्रशंसा प्रिय हो, जो अपनी प्रशस्ति का आकांक्षी हो, खुशामद पसंद हो।
ऐसे लोग अपनी स्वयं की वाहवाही करवाने के तमाम मर्यादों को लांघ जातें हैं।
ऐसे लोगों किए सन 1968 में प्रदर्शित फिल्म आँखें के लिए गीतकार साहिर लुधियानवी ने लिखे गीत की कुछ पंक्तियों का स्मरण होता है।
ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम,ऐ जान-ए-वफ़ा ये ज़ुल्म न कर
रहने दे अभी थोड़ा सा भरम ऐ जान-ए-वफ़ा ये ज़ुल्म न कर ये ज़ुल्म न कर

मेरा लिखा हुआ पढ़ कर सीतारामजी अपनी प्रतिक्रिया में सन 1958 में प्रदर्शित फिल्म सी.आई.डी. के गीत की कुछ चुनिंदा पंक्तियां सुना दी।
इस गीत को लिखा है,गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने।
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना
जीने दो ज़ालिम बनाओ न दीवाना

ज़ख़्मी हैं तेरे जायें तो कहाँ जायें
मैने सीतारामजी से यह कहते हुए धन्यवाद दिया समझने वाले समझ गए जो ना समझे ओ अनाड़ी है

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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