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बेहाल हैं बेरोजगार नाविक, मोदी क्यों बन रहे अनजान?

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विजय विनीत 

बनारस से तीसरी मर्तबा चुनाव जीतने के बाद बनारस की जनता का आभार जताने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लौटने के बाद एक बार फिर गंगा की चर्चा छिड़ गई है। और जब गंगा की बात होती है तो इसमें चलने वाली नौकाओं और नाविकों पर ध्यान जरूर जाता है। मान्यता है कि बनारस में गंगा की लहरों में अठखेलियां करने वाले नाविकों के बगैर रीति-रिवाज और कर्मकांड पूरे ही नहीं होते। मोदी आए और कहा, “काशी के लोगों के मुझे लगातार तीसरी बार अपना प्रतिनिधि चुनकर मुझे धन्य कर दिया है। अब तो मां गंगा ने भी जैसे मुझे गोद ले लिया है। मैं यहीं का हो गया हूं। ये बहुत बड़ी विक्ट्री है। मैं दिन-रात ऐसे ही मेहनत करूंगा। आपके सपनों और संकल्पों को पूरा करने के लिए हर प्रयास करूंगा।”

खुद को गंगा का बेटा बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 जून 2024 को बनारस आए। गंगा आरती में शामिल हुए। गंगा की पूजा की और लौट गए। एक दशक गुजर जाने के बावजूद उन्हें गंगा पर निर्भर ग़रीब नाविकों की याद नहीं आई। साल 2014 में मोदी बनारस आए थे तब भी उन्होंने गंगा के सहारे ही बनारसियों के दिलों में घुसने की कोशिश की थी। लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने कहा था, “मुझे किसी ने भेजा नहीं है, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है। आज कह सकता हूं, मैं अनुभव करता हूं कि मां गंगा ने मुझे गोद ले लिया है। एक बेटे की तरह, एक संतान की तरह। इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है? ” मोदी ने अपने समर्थकों का आह्वान भी किया कि वो हर नागरिक को बताएं कि मां गंगा ने उन्हें गोद लिया है।

बनारस का मल्लाह समुदाय यह मानता रहा है कि गंगा और उससे जुड़े पेशे पर उसका पहला अधिकार है। यह समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी गंगा में नाव चलाना, मछली मारना, गोताखोरी करना और बालू निकालने का काम करता रहा है। माझी समाज के लोग खासतौर पर इन्हीं कामों में पारंगत होते हैं, लेकिन कुछ सालों से सरकार और पैसे वाले लोगों का गंगा में हस्तक्षेप तेजी से बढ़ा है। बेकारी का आलम यह है कि बहुत से मल्लाह अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर शहर में निर्माणाधीन इमारतों में ईंटा-गारा ढोने के लिए विवश हैं। गंगा घाटों पर बहुत से नाविक मिल जाएंगे जो बोहनी (पहली कमाई) तक के लिए तरसते नज़र आते हैं।

बनारस के नाविकों को इस बात का मलाल है कि उनकी दुखती रगों पर मरहम लगाने के लिए कोई तैयार नहीं हैं। मोदी ने गंगा के गोद लिया है तो माझियों की सूरत बदलने की जिम्मेदारी किसकी है? बनारस में 85 गंगा घाटों के किनारे बसे करीब 32 से 35 हज़ार मल्लाहों की ज़िंदगी नौकायन से ही चलती है। यहां करीब 1500 नौकाएं हैं और हर नाव पर करीब चार लोग काम करते हैं। सरकारी संरक्षण में चलाए जा रहे क्रूजों के चलते इनकी आमदनी घटकर आधी रह गई है, ऐसा नाविकों का कहना है।

मां गंगा निषादराज सेवा न्यास के अध्यक्ष प्रमोद माझी कहते हैं, “भगीरथ, अपने पुरखों को तारने के लिए गंगा को धरती पर लाए थे। यह पवित्र नदी अब सियासी दलों को तारने का जरिया बन गई हैं। सबका उद्धार करने वाली गंगा का अब नेताओं का उद्धार कर रही हैं। सबके अपने-अपने सपने हैं, अपने-अपने वादे हैं। गंगा वही है। नदी की निर्मलता पर सवा उठ रहा है, जिसका जवाब आज तक अनुत्तरित है, लेकिन बेटा बनने के लिए दावेदारी हर किसी की है। सचमुच जो गंगा के पुत्र हैं, उनकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं हैं।”

“मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जमाने से गंगा समेत सभी नदियों पर निषाद समुदाय का अधिकार था। मोदी जब से बनारस में आए हैं तब से नाविकों के अधिकार छीने जा रहे हैं। गुजरातियों को बुलाकर गंगा में क्रूज चलवाए जा रहे हैं। भला हो एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल) का जिसने गंगा की रेत पर अय्याशी का अड्डा बने टेंट सिटी को नहीं चलने दिया। जुर्माना ठोंक दिया। पहले एक क्रूज चलवाया गया और रेला लग गया है। अच्छे पर्यटक हमारी नौकाओं पर नहीं बैठते। नमोघाट, राजघाट, पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट को छोड़ दें तो नाविकों के सामने रोजी-रोटी का जबर्दस्त संकट है। क्रूजों की तादाद बढ़ रही है। विरोध के चलते गंगा में वाटर टैक्सी चलाने की योजना अभी फलीभूत नहीं हो सकी है। लगता है कि देर-सबेर नाविकों का अस्तित्व मिटाने में तनिक भी पीछे नहीं हटेंगे। अभी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन जब गुजरात माडल दौड़ने लगेगा तो हम भी असहाय हो जाएंगे।”

प्रमोद माझी यह भी कहते हैं, “दस बरस गुजर गए, लेकिन बनारस के नाविकों का किराया जस का तस है। नाविक सौ रुपये में ही अटके हुए हैं। महंगाई बढ़ी, तो भाड़ा भी बढ़ना चाहिए, लेकिन नाविकों की स्थिति डंवाडोल है। जिन घाटों पर भीड़ ज्यादा है, वहां किराया कम है। इसके चलते दूसरे घाटों की कमाई लगभग खत्म हो गई है। बनारस को क्योटो बनाने का सब्जबाग दिखाने के फेर में इस बूढ़े शहर की प्राचीनता खत्म हो रही है। विदेशी पर्यटक हमारी नौकाओं पर नहीं बैठते। माझियों की जिंदगी में क्रूज तो मट्ठा डाल ही रहा है, सितारा होटल वाले भी कम नहीं हैं। इन्होंने गंगा में अपनी निजी नौकाएं उतार दी है। होटल वाले, रिक्शा वाले और गाइड सभी नाविकों से कमीशन मांगते हैं। आधी कमाई तो कमीशन में ही निकल जाती है। कमीशनखोरी के चलते यात्रियों को सौ रुपये की जगह तीन सौ रुपये खर्चना पड़ता है।”

पूरी नहीं हो पातीं घर की जरूरतें

नौका से पर्यटकों को घुमाने के दौरान वाराणसी के नाविक पक्के घाटों और उसके इतिहास के बारे में भी सैलानियों को बताते हैं। सरकार की उपेक्षा से नाखुश नाविक रामनाथ कहते हैं, “कड़ी मेहनत के बावजूद वे अपने घर की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते। रही सही कसर महंगाई पूरी कर देती है। दूसरी ओर, गंगा में मछली पकड़ने पर अब पूरी तरह पाबंदी है। कई पीढ़ियों से इस कारोबार में जुड़े वाराणसी के रामनगर इलाके के ग़रीब मछुआरों के पास रोज़ी-रोटी का कोई दूसरा ज़रिया नहीं है। नाविकों और मछुआरों की दशा काफ़ी ख़राब है। मछली पकड़ने पर प्रतिबंध के बावजूद वो इस काम को बंद नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें कुछ और नहीं आता। पूरे दिन मेहनत के बाद कभी दो-चार सौ रुपये ही मिल पाते हैं।”

नाविकों के हक़ की बात करने वाले बबलू उर्फ राकेश साहनी जनचौक से कहते हैं, “निषाद समुदाय को पहले नौका चलाने, मछली पकड़ने, पर्यटकों को घुमाने, गोता लगाकर गंगा से पैसा निकालने और गंगा पार रेत पर सब्जियों की खेती कर रहे हैं। घाटों पर जल पुलिस और एनडीआरएफ के जवान तो तैनात रहते हैं, लेकिन डूब रहे लोगों की जिंदगी बचाने और शवों को गंगा से निकालने की बात आती है माझी समुदाय की आशा की किरण बनकर सामने आता है।

अचरज की बात यह है कि गंगा का बेटा बनने के लिए यहां नेताओं में होड़ लगी है। जो सचमुच गंगा पुत्र हैं, उनकी दुखती रगों पर मरहम लगाने के लिए कोई तैयार नहीं है। मोदी तो नकली गंगा पुत्र हैं। जिन्हें गंगा में तैरने नहीं आता, जिन्हें गंगा की गंदगी नहीं दिखती, जिन्हें नदी में गिरते गटर के गंदे पानी नहीं दिखते, उन्हें भला गंगा कैसे गोद ले सकती है? बनारस की गंगा में गुजराती क्रूजों की तादाद यूं ही बढ़ती रही तो रोज़ी-रोटी छिनने का ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। तब शायद मल्लाहों को अपनी नौकाएं बेचनी पड़ेगी। तब बुनकरों की तरह कोई ईंट-गारा ढोएगा तो कोई मजूरी करेगा। कोई रिक्शा खींचने को विवश होगा।”

नाविकों की कमाई पर डाका

मोदी सरकार ने पिछले साल दुनिया का सबसे लंबा रिवर क्रूज एमवी गंगा विलास को गंगा में उतारा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13 जनवरी, 2023 को हरी झंडी दिखाते हुए दावा किया था कि इससे पर्यटन उद्योग को नई रफ्तार मिलेगी, लेकिन यह क्रूड पटना के छिछले पानी में थौंस गया। बनारस के नाविकों ने यह कहते हुए क्रूज संचालन का विरोध किया था कि धनकुबेर पहले रोड पर कमाई करते थे अब वो नदी में उतर गए हैं। उनके क्रूज हमारे पारंपरिक धंधे पर डाका डाल रहे हैं। राजघाट के दुर्गा माझी की चार पीढ़ियां गंगा में न सिर्फ नाव चलाती हैं, बल्कि गोताखोरी भी करती है।

दुर्गा कहते हैं, “स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल के जुमले से मल्लाहों की जिंदगी कठिन होती जा रही है। अक्टूबर 2018 में स्टार्टअप इंडिया के तहत नार्डिक क्रूजलाइन कंपनी को बनारस की गंगा में अलकनंदा क्रूज चलाने का लाइसेंस दिया गया। इनके बाद जलपरी, ब्रिजलामा और जुखासो (गुलेरिया कोठी) जैसे तमाम प्राइवेट क्रूज गंगा में व्यापार के मकसद से उतार दिए गए। अलखनंदा क्रूज का लोकार्पण करने आए सीएम योगी आदित्यनाथ ने मल्लाहों को भरोसा दिलाया था कि उनके हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी, लेकिन सरकार के सारे वादे झूठे निकले।”

बनारस की गंगा में एक के बाद एक नए क्रूज उतारे जाने से नाराज़ दुर्गा कहते हैं, “अलकनंदा क्रूज में एक यात्री को दो घंटे का सफर करने के लिए जीएसटी के साथ करीब 900 रुपये किराया देना पड़ता है, जबकि इतने ही समय के लिए सैलानियों से हम जब 50 रुपये मांगते हैं तो वो आनाकानी करते हैं। जब से क्रूज चलाए जा रहे हैं, तब से हमारा धंधा मंदा पड़ गया है। सरकारी संरक्षण में गंगा में चलाए जा रहे क्रूजों से मुकाबला करने के लिए बड़ी नाव बनाने के लिए हमने कर्ज लिया तभी लॉकडाउन आ गया। हम कर्ज के दलदल में बुरी तरह फंसते चले गए। हमारे ऊपर हर महीने हज़ारों रुपये सिर्फ ब्याज चढ़ रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे अदा करें? हालात ये हैं कि हमने अपनी पत्नी के जो गहने बनवा रखे थो वो भी बिक गए। आप ही बताइए, आखिर हम कैसे अपनी ज़िंदगी चलाएंगे? हमारे जैसे तमाम मल्लाह तंगी के शिकार हैं।”

नाविकों को गुलाम बनाने की नीति

दरअसल, गंगा में एक के बाद एक, नए आलीशान क्रूजों को चलाए जाने से मल्लाह समुदाय अपने पारंपरिक पेशे को लेकर खासा आशंकित है। नाविकों के हितों से लिए लंबे समय तक संघर्ष करने वाले प्रमोद माझी कहते हैं, “खुद को तथाकथित खांटी बनारसी बताने का दम ठोंकने वाले यूं ही चुप्पी साधे रहे तो एक दिन वो भी आएगा जब उन्हें भी इस शहर से रुखसत होना पड़ेगा। तब न बनारसीपन बचेगी, न इस शहर की मौजमस्ती। डंका बजेगा तो सिर्फ गुजरात के ठेकेदारों और कॉरपोरेट घरानों का। शायद मोदी सरकार चाहती है कि वहां गुजरात के लोग आकर व्यापार करें और बनारस के लोग नौकर-चाकर बनकर उनकी गुलामी करें। दूसरे धंधों के मुकाबले मल्लाहों की कमाई 90 फीसदी तक कम हुई है। बनारस में सालों से सिर्फ जुमले उछाले जा रहे हैं और हवा-हवाई बातें की जा रही हैं। माझी समुदाय को उबारने के लिए प्रशासन ने फॉर्म भी भरवाया, लेकिन खाते में फूटी कौड़ी नहीं आई।”

पर्यटकों को नौकायन कराने और पूजा सामग्री बेचने वाली एक नाविक की पत्नी रानी देवी कहती हैं, “हम यहां नीचे घाट पर सैलानियों का इंतजार करते रह जाते हैं और वो ऊपर से ही अपने क्रूज की ऑनलाइन बुकिंग कर लेते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी हमारे सांसद हैं, लेकिन हमारे हितों की उन्हें तनिक भी चिंता नहीं है। पर्यटन विभाग हमें मिटाने पर उतारू है। इनके क्रूज ही दौड़ेंगे तो हमारी नावें कहां चलेंगी? हालात ऐसे ही रहे तो हमारे समाज का करोबार ही खत्म हो जाएगा। वो अपने क्रूज पर एक-दो लोकल आदमी रखेंगे और मल्लाहों का धंधा ठप करा देंगे। भाजपा को माझी समुदाय का सिर्फ वोट चाहिए, लेकिन उनकी नीति-रीत सिर्फ गुजरातियों के लिए है। वो हमारे खेमे के लोगों को तोड़कर बड़ी चालाकी से अपना सिस्टम बना लेते हैं। शाम के समय जब धनकुबेरों की लग्ज़री क्रूजों में रंग-बिरंगी बत्तियां जलती हैं तो हमारे दिल जलते हैं। गंगा घाटों पर पसरे सन्नाटे और सैकड़ों की तादाद में ठांव से बंधी नावें हमारे समुदाय की बेकारी की कहानी बयां कर रही होती हैं।”

चौपट हो रहा पारंपरिक धंधा

रानी कहती हैं, “सियासत से कोसों दूर रहने वाली निषाद समाज की औरतें आसानी से नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाती हैं। लेकिन घरों में जलने वाले चूल्हे-चौके से लेकर बच्चों की पढ़ाई की फीस का इंतज़ाम करना होता है तो सरकार को कोसती हैं। चाहे वो शिवाला की सीता देवी हों, अंजलि हों अथवा गुड़िया। इन्हें सिर्फ इस बात की चिंता है कि धनकुबेरों के क्रूज उनके पारंपरिक धंधे को क्यों निगलते जा रहे हैं? इनके बच्चों के पास न काम है, न रोज़गार। वो कहती हैं, “बच्चों को पढ़ाएं या बुज़ुर्गों के लिए दवा का इंतज़ाम करें? पहले मुफ्त में रसोई गैस की टंकी दी और बाद में दाम इतना ज़्यादा बढ़ा दिया कि खाना पकाना दुश्वार हो गया।”

गंगा के किनारे रहने वाले मल्लाह समुदाय की महिलाओं का संघर्ष किसी के समझ में नहीं आ रहा है। आखिर वो क्या खाएं और क्या निचोड़ें? दीपचंद निषाद की पत्नी अनीता कहती हैं, “हमने ऐसी सरकार कभी नहीं देखी। इसने रसोई का सामान इतना महंगा कर दिया है कि आंसू बहाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लॉकडाउन के समय से ही जिंदगी पटरी से उतरी हुई है। पहले पैर का छागल बेचा, फिर कान की बाली बेच दी। पास में फूटी कौड़ी नहीं थी, इसलिए बेटे सिद्धार्थ और साहिल की पढ़ाई छूट गई।”

बनारस के मल्लाहों से बात करने पर साफ तौर से नए-नए नियमों के प्रति इस समाज की नाराज़गी नज़र आती है। लगता है कि यह समुदाय पिछले कुछ सालों से अपने पारंपरिक पेशे को लेकर जद्दोजहद कर रहा है। जो समुदाय बिना किसी बंदिश के सैकड़ों सालों से गंगा से अपना जीवनयापन कर रहा था, मौजूदा सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर आए दिन उनपर नए-नए नियम थोपती जा रही है और मल्लाह समुदाय को उन नियमों का पालन भी करना पड़ रहा है। राजघाट पर गोताखोरी करने वाले कल्लू माझी कहते हैं, ” गंगा में जब कोई डूबता है तो बाहर निकालने के लिए हमें ही पानी में उतारा जाता है और वाह-वाही जल पुलिस व एनडीआरएफ के जवान लूट लेते हैं। बनारस में सिर्फ पांच दर्जन गोताखोर हैं, वादे करने के बाद भी सरकार ने सुविधाएं नहीं दी।”

रामनगर पालिका के पार्षद अशोक साहनी मल्लाह समुदाय के संरक्षक हैं। उन्हें इस बात का दर्द है कि गंगा के किनारे सारे कायदे-कानून सिर्फ मल्लाहों पर ही लादे जाते हैं। वह कहते हैं, “क्रूज संचालकों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है। वो अपने क्रूज पर गाजा-बाजा बजा सकते हैं और हम कोई छोटा प्रोग्राम करने का प्रयास करते हैं तो हमें जेल भेज दिया जाता है। आखिर ये नाइंसाफी हमारे पारंपरिक धंधे को चौपट करने के लिए ही तो है। हालत यह है कि सैकड़ों नाविक न रो सकते हैं और न ही कुछ बोल सकते हैं। समझ लीजिए माझी समुदाय बस किसी तरह ज़िंदा है। हम इतना ज़रूर जानते हैं कि पीएम और सीएम जब-जब बनारस आते हैं तो पुलिस वाले डंडे फटकार कर हमारी नौकाएं बंद करा देते हैं।”

बेहाल हैं बेरोजगार नाविक

नाविकों के हितों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट अनुपम राय मोदी सरकार पर ढेरों तल्ख सवाल खड़े करते हैं। वह कहते हैं, “गुजराजी कारोबारियों के जो क्रूज़ गंगा में चल रहे हैं उससे रोज़ाना चार-पांच लाख रुपये की कमाई होती है। ये पैसा कहां जा रहा है? बनारस के रामनगर से सराय मोहाना तक माझी समुदाय की आबादी करीब साढ़े चार लाख है। कुछ सालों से सरकार और पैसे वाले लोगों का गंगा में हस्तक्षेप तेज़ी से बढ़ा है। बेकारी का आलम यह है कि बहुत से मल्लाह अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर शहर में निर्माणाधीन इमारतों में ईंटा-गारा ढोने के लिए विवश हैं। गंगा घाटों पर बहुत से नाविक मिल जाएंगे जो बोहनी (पहली कमाई) तक के लिए तरसते नज़र आते हैं।”

पर्यटकों को नौकायन कराने वाले दौलत साहनी कहते हैं, “बनारस में पर्यटकों की तादाद बढ़ने से कुछ ही नाविकों की माली हालत में सुधार हुआ है। गंगा घाटों पर बहुत से नाविक ऐसे हैं जो अपनी बेटियों की शादी नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे धंधों के मुकाबले मल्लाहों की कमाई में भारी कमी आई है। बनारस में नाविकों को सुविधाएं मुहैया कराने के लिए कई सालों से सिर्फ जुमले उछाले जा रहे हैं और हवा-हवाई बातें की जा रही हैं। माझी समुदाय को उबारने के लिए प्रशासन ने फॉर्म भी भरवाया, लेकिन खाते में फूटी कौड़ी नहीं आई। क्रूज़ संचालकों के लिए कोई नियम-कानून नहीं है।

नाविकों की चिंताओं को वाजिब बताते हुए बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, “बनारस के मल्लाह सिर्फ नाविक नहीं है। वो गंगा को जीते हैं। उसे अपनी मां समझते हैं। उनकी आजीविका का नाता गंगा से तोड़ना अक्षम्य अपराध है। बनारस में जो कुछ हो रहा है इससे ज़्यादा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं होगा। गंगा के किनारे एक्सप्रेस-वे बनने से इस नदी का समूचा प्रवाह और उसकी प्रकृति नष्ट होगी। काशी के घाट खतरे में पड़ जाएंगे। दुनिया के मुल्क प्राकृतिक संसाधनों को सहेज कर रखते हैं, कोई खिलवाड़ नहीं करते। यहां तो सपना दिखाने का खेल चल रहा है। बड़ी संख्या में लोगों के दिलो-दिमाग पर उसी सपने की खुमारी छाई हुई है।”

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