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बेरोज़गारी उच्चतम स्तर‌ पर:निजीकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने की ज़रूरत

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स्वदेश कुमार सिन्हा

पिछले आम चुनाव में वर्तमान सरकार ने करोड़ों लोगों को रोज़गार देने का वादा किया था और पिछले बजट में वित्तमंत्री ने देश में बढ़ती बेरोज़गारी को भी स्वीकार किया था। इस बार भी भाजपा सरकार ने चुनाव में क़रीब 15 लाख लोगों को रोज़गार देने का वादा किया है, परन्तु बेरोज़गारी के जो आंकड़े आ रहे हैं, उससे ये वादा केवल कपोल-कल्पना ही है।

भारतीय रिजर्व बैंक के पूंजी, श्रम, ऊर्जा सामग्री सेवा (KLEMS) का डेटा, वित्तवर्ष 24 के लिए रोज़गार वृद्धि में ‌6% वृद्धि की बात करता है, जो कि वित्तवर्ष 23 में 3.2% की वृद्धि से अधिक है, परन्तु इसके विपरीत सेंटर फॉर मॉनेटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CHIE) बताता है कि जून 2024 में बेरोज़गारी की दर मई‌ में 7% से बढ़कर 9.2%‌ हो गई। 24‌ की‌ वार्षिक दर 8% ही रही।‌

सिटीग्रुप रिसर्च के अनुसार भारत को ‌श्रम बाजार में नये बेरोज़गारों‌ को स्वयं में समायोजित करने के लिए हर वर्ष लगभग 1.2 करोड़ नौकरियों को पैदा करने की आवश्यकता है, लेकिन 7%‌ वृद्धि की दर से देश में सालाना 80-90‌ लाख नौकरियाँं ही पैदा हो सकती हैं, जो देश में लगभग 60-70 हज़ार नौकरियों की कमी को दर्शाता है।

इन आंकड़ों ने सालाना 2 करोड़ नौकरियां पैदा होने के सरकार के दावों की पोल खोल दी है। सरकार ने फ़ौरन इस रिपोर्ट को ग़लत बताते हुए प्रेस बयान जारी कर दिया। इस साल मार्च महीने में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की भारत में रोज़गार से संबंधित रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि देश में कुल बेरोज़गारों में 82.9 % नौजवान हैं।

इस रिपोर्ट को भारत सरकार ने यह कहते हुए ख़ारिज़ कर दिया, कि ये आंकड़े सही ढंग से नहीं जुटाए गए और रिपोर्ट सार्वजनिक करने से पहले अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भारत सरकार की राय नहीं ली। सरकार चाहे सच्चाई पर कितना भी पर्दा डालने की कोशिश कर ले, लेकिन देश में रोज़गार की हालत किसी से छिपी नहीं है।

इस समय देश के लोग ख़ासकर नौजवान,भयानक बेरोज़गारी का शिकार हैं। स्थाई, सुरक्षित और सम्मानजनक रोज़गार के मौक़े बहुत ही कम यानी आटे में नमक के बराबर हैं, जिसके कारण लोगों को अनियमित, कम वेतन पर लंबे काम के घंटों और श्रम क़ानूनों की मुक्कमल ग़ैर-हाज़िरी में काम करना पड़ रहा है।

मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक़ देश में बेरोज़गारी की दर 9.20% है। शहरी क्षेत्र में यह दर 8.90% है और ग्रामीण क्षेत्र में 9.30% है। ये आंकड़े देश में मेहनतकश लोगों के असल दर्द को पूरी तरह पेश नहीं कर पाते, लेकिन फिर भी सरकार के खोखले दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी हैं।

इस लेख में हम इस पर भी बात करेंगे कि कैसे बेरोज़गारी सिर्फ़ आरजी समस्या नहीं है या किसी एक सरकार की ग़लत नीतियों का नतीजा नहीं है, बल्कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था की लाइलाज बीमारी है।

पिछले दो सालों (2021-2022) में बेरोज़गारी दर 7.50-7.70% के नज़दीक रही, जो साल 2023-24 में बढ़कर 9% से ऊपर पहुंच चुकी है। इन आंकड़ों के मुताबिक़ देश में इस समय 3 करोड़ 70 लाख से अधिक लोग नौकरी की तलाश कर रहे हैं।

अगर कुछ साल पहले की बात करें, तो साल 2016-17 में बेरोज़गारी दर 6.80% थी, जो कोरोना लॉकडाउन के दौरान बढ़कर 8.80% तक पहुंच गई थी, लेकिन मौजूदा बेरोज़गारी दर कोरोना लॉकडाउन के दौर से भी बढ़ गई है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़ जून महीने में बेरोज़गारी दर 9.20% थी।

इन आंकड़ों से संबंधित एक और परिघटना पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। कोरोना लॉकडाउन के कारण बड़े स्तर पर लोगों से रोज़गार छिन गया, जो लॉकडाउन हटने के बाद भी पहले वाले स्तर पर नहीं पहुंच पाया। इसके कारण ख़ासतौर पर गांवों में ख़ासकर औरतें, छोटे-मोटे कामों में लग गए, जिनमें घरेलू खेतीबाड़ी के काम प्रमुख थे।

ये काम करने के कारण लोग कहने को तो बेरोज़गारों की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन इन कामों में बहुत ही कम वेतन होने के कारण उनकी हालत बेरोज़गारों से थोड़ी-सी ही बेहतर है। दूसरा, इससे ग्रामीण बेरोज़गारी दर हक़ीक़त से कम नज़र आती है। जिससे कुल बेरोज़गारी दर भी औसत से नीचे आ जाती है।

इसके अलावा मई 2024 के आंकड़ों के मुताबिक़, इस साल मनरेगा में कुल काम 14.30% घट गया है, जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्र में कुल रोज़गार प्राप्ति दर 36.40% के करीब है। जो कोरोना लॉकडाउन से पहले लगभग 40% था। इससे यह पता लगता है कि इस क्षेत्र में अभी भी रोज़गार पहले वाले स्तर पर नहीं पहुंच सका है। 

इसके अलावा ठेके वाले कच्चे रोज़गार में वृद्धि हुई है, जिससे स्थाई मज़दूरों की संख्या और भी कम हो गई है। मज़दूरों के नक़द वेतन में मामूली वृद्धि हुई है लेकिन महंगाई के साथ जोड़कर देखें तो उनका असल वेतन तो पहले जितना ही रहा या कम हुआ है। इस सबके अलावा एक और चीज़ पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़, कुल बेरोज़गारों में से 82.90% नौजवान हैं। इससे बढ़कर पढ़े-लिखे नौजवानों की संख्या 65% है। ज़्यादातर नौजवानों को ग़ैर-संगठित क्षेत्र में ही थोड़ा-बहुत रोज़गार उपलब्ध है। यह रोज़गार बहुत ही काम-चलाऊ कि़स्म का है, जिसमें छुट्टी, पेंशन, स्वास्थ्य सुरक्षा आदि जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती।

कई तरह के काम जैसे गिग मज़दूरी में 17-18 घंटे काम करने के बाद भी वेतन बेहद कम है। उल्लेखनीय है कि भारत में कुल मज़दूरों में से 82% हिस्सा ग़ैर-संगठित क्षेत्र में ही लगा हुआ है।

नोटबंदी, जी.एस.टी. और इसके बाद कोरोना लॉकडाउन ने इस क्षेत्र में रोज़गार का नुक़सान किया, यहां काम करने वाले लाखों लोगों का रोज़गार छीना और जिनके पास रोज़गार है भी, वे भी बहुत ही घटिया हालातों में काम करने के लिए मजबूर हैं।

इसके अलावा पिछले कुछ समय से संगठित क्षेत्र, जिसमें पहले ठीक-ठाक वेतन और कुछ हद तक श्रम क़ानून लागू होते थे,वहां भी अब अस्थाई भर्ती, ठेका भर्ती का चलन बढ़ चुका है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़, नौजवानों में मज़दूर हिस्सेदारी की दर लगातार गिरती जा रही है।

यह दर 16 से 64 साल की उम्र के उन व्यक्तियों से निकाली जाती है, जो या तो किसी कि़स्म के रोज़गार पर लगे हुए हैं या फि़लहाल किसी प्रकार की नौकरी ढूंढ़ रहे हैं। इस दर में विद्यार्थियों या उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता, जो रोज़गार की तलाश नहीं कर रहे या 64 साल की उम्र से ऊपर हैं।

भारत में मज़दूर हिस्सेदारी की दर साल 2000 में 54% से 2022 में 42% तक गिर गई है, लेकिन यह गिरावट 20 से 24 और 25 से 29 साल की उम्र के नौजवानों के मुक़ाबले 15 से 19 साल के नौजवानों में तीखी हुई है। भारत में 15 साल और इससे ज़्यादा उम्र के व्यक्तियों के लिए 2022 में मज़दूर हिस्सेदारी दर 55.2% थी, जो कि विश्व औसत 59.8% से कम थी।

इसके अलावा मज़दूर हिस्सेदारी में लैंगिक असमानता भी मौजूद है, नौजवान मर्दों में यह दर 61.70% है, जबकि नौजवान औरतों में यह दर सिर्फ़ 21.70% है। साल 2022 में संपूर्ण रूप में औरतों की मज़दूर हिस्सेदारी दर 32.80 प्रतिशत है, जो कि मर्दों की दर 77.20% के मुक़ाबले लगभग 2.3 गुणा कम है।

अगर सरकारी नौकरियों की बात की जाए, तो हालात बहुत ही भयानक हैं। ऐसे समय जब लोगों को स्थाई रोज़गार की और ज़्यादा ज़रूरत है, यूनियन सरकार उलटा नव-उदारवादी नीतियों के तहत कुल पदों की संख्या कम कर रही है। इस समय भारत की यूनियन सरकार के 9.64 लाख पद ख़ाली पड़े हैं, जिन्हें भरने की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है।

ग्रुप सी के तहत दी जाने वाली नौकरियों के पदों पर कटौती करने के साथ ऐसा हुआ है। भारत में सबसे अधिक नौकरियां रेलवे प्रदान करता है। रेलवे में 1 मार्च 2022 तक 11.98 लाख लोग नौकरी पर थे, जबकि कुल मंजूरशुदा पदों की संख्या 15.07 लाख थी।

इस तरह रेलवे में इस समय तकरीबन 3 लाख पद ख़ाली पड़े हैं। रक्षा मंत्रालय के तहत नागरिक पदों की बात करें तो 5.77 लाख मंजूरशुदा पदों में से 2.32 लाख पद ख़ाली पड़े हैं। गृह मंत्रालय में 10.90 लाख मंजूरशुदा पदों में से 1.20 लाख पद ख़ाली हैं। डाक विभाग में 1 लाख से अधिक पद ख़ाली हैं।

माल विभाग के तहत 74,000 पद ख़ाली हैं। इसके अलावा राज्य सरकारों के तहत आने वाले विभागों में भी लाखों पद ख़ाली हैं, लेकिन उन्हें भरने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। अगर ये सभी पद भर दिए जाएं, तो काफ़ी लोगों को रोज़गार मिल सकता है लेकिन सरकारें सरकारी संपत्ति को बेचते हुए निजीकरण के रास्ते पर हैं।

एक तरफ़ भयानक बेरोज़गारी लोगों को तंग कर रही है, दूसरी ओर महंगाई भी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। देश में जून महीने में खाद्य पदार्थों की मुद्रा स्फीति‍ दर 9.40% थी। मई महीने के मुक़ाबले बाज़ार में सब्जियों-फलों आदि की महंगाई बहुत ज़्यादा है।

महंगाई बढ़ने से मेहनतकश लोगों की कमाई का ज़्यादातर हिस्सा सिर्फ़ भोजन की ज़रूरतों पर ही ख़र्च हो जाता है, जिससे उन्हें अपनी बाक़ी ज़रूरतों पर कटौती करनी पड़ती है, नतीजतन उनका जीवन स्तर और ज़्यादा गिर जाता है। 

यह बहुत प्रचलित तर्क है। पूंजीपति वर्ग के बौद्धिक चाकर इस भ्रम का ख़ूब ज़ोर-शोर से प्रचार करते हैं और आम लोगों में यह धारणा काफ़ी प्रचलित है। यह तर्क देने वाले सबसे पहले व्यक्तियों में इंग्लैंड का एक पूंजीवादी अर्थशास्त्री माल्थस था।

माल्थस ने कहा था कि आबादी रैख‍िक गण‍ितीय क्रम (1,2,4,8) में बढ़ती है, जबकि जीने के साधन अंक गणितीय क्रम (1,2,3,4) में बढ़ते हैं। उन्होंने यह साबित करने का यत्न किया कि जीने के साधनों के मुक़ाबले आबादी का यह तेज़ इज़ाफ़ा ही बेरोज़गारी और लोगों की ग़रीबी का मुख्य कारण है।

माल्थस ने यह तर्क पहली बार 1798 में दिया था, जब ब्रिटिश शासक वर्ग फ़्रांसीसी क्रांति के कारण लोगों में फैल रहे क्रांतिकारी विचारों से भयभीत था। संक्षेप में यह कहना ठीक होगा, कि माल्थस के मुताबिक़ ग़रीब मेहनतकश आबादी ख़ुद ही अपनी समस्याओं का कारण बनी हुई है।

क्योंकि वे ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं, लेकिन समाज में गुज़ारे के साधन इतनी तेज़ी से नहीं बढ़ते। माल्थस ने यह तक भी कहा था कि बाढ़,अकाल और अन्य प्राकृतिक आफ़तें मानवता के लिए अच्छी हैं, क्योंकि ये ग़रीब आबादी कम करती हैं। यह बिल्कुल ही ग़लत और अमानवीय सिद्धांत था, जो आज के समय में भी किसी ना किसी रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

मज़दूर वर्ग के महान अध्यापक कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पूंजी’ में इस रद्दी सिद्धांत का वैज्ञानिक ढंग से खंडन किया था। दरअसल पूंजीवादी समाज में पूंजी के संचय की गति यानी कुछ हाथों में जमा होते जाने के कारण समाज में सापेक्ष अतिरिक्त जनसंख्या का पैदा होती है।

पूंजीपति मज़दूरों के श्रम को लूटकर जुटाए गए अतिरिक्त मूल्य को फिर से उत्पादन बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ समय के लिए श्रम शक्ति की मांग बढ़ती है और लोगों को रोज़गार मिलता है, इसके साथ ही पूंजीपति अपने विरोधियों को मुक़ाबले से बाहर करने के लिए मालों/जिंसों को लगातार सस्ता करने की नई तकनीक और बेहतर मशीनों पर निवेश करते रहते हैं।

इस प्रक्रिया में श्रम की उत्पादकता में वृद्धि के कारण पहले के मुक़ाबले कम मज़दूरों को रोज़गार देकर भी मुनाफ़ा कमाना संभव हो जाता है। इस तरह समाज में दो विपरीत गतियां पैदा होती हैं, जिसमें कभी मज़दूरों से रोज़गार छिनता है और कभी अर्थव्यवस्था के बढ़ने से रोज़गार मिलता है। नतीजतन मज़दूर पूरी तरह पूंजी पर निर्भर हो जाते हैं।

इस तरह एक सापेक्ष अतिरिक्त आबादी पैदा होती है। यह आबादी गुज़ारे के साधनों के मुक़ाबले में अतिरिक्त नहीं होती, बल्कि सिर्फ़ पूंजीपतियों के मुनाफ़ा कमाने की ज़रूरतों के अनुपात में अतिरिक्त होती है। पूंजीपति कम से कम मज़दूरों को वेतन देकर काम करवाना चाहते हैं, ताकि उनके मुनाफ़े और ज़्यादा बढ़ें।

यह अतिरिक्त आबादी वेतन को कम रखने में भी पूंजीपतियों के काम आती है। इस तरह हम देख सकते हैं कि ग़रीबों की एक सापेक्ष अतिरिक्त आबादी, अमीरों की एक छोटी-सी आबादी के दौलत के भंडार बढ़ाने के काम आती है।

असल मुद्दा यह नहीं कि साधन कम हैं और आबादी ज़्यादा है, बल्कि यह है कि सारे साधन अमीरों के एक बहुत ही छोटे-से हिस्से के क़ब्ज़े में हैं और देश की बड़ी आबादी उनके मुनाफ़े बढ़ाने की ज़रूरतों के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारती है।

इस तरह हम देख सकते हैं, कि बेरोज़गारी इस पूंजीवादी व्यवस्था के अंतरविरोधों के कारण पैदा होती है, ना कि निरपेक्ष रूप में लोगों की आबादी बढ़ने के कारण।

आज के दौर में पूंजीवादी व्यवस्था की असलियत यह है कि विश्व के सभी लोगों की रिहाइश, स्कूल, भोजन आदि देने के लिए दौलत तो है, लेकिन निजी हाथों में है। देश और विश्व के सारे लोगों के लिए एक बढ़िया जीवन स्तर प्रदान करने के स्रोत मौजूद हैं, लेकिन मुट्ठी-भर अमीरों के हाथ में केंद्रित हैं।

यह आर्थिक और सामाजिक असमानता इस लुटेरी व्यवस्था का नतीजा है। आज उत्पादन इस स्तर तक पहुंच चुका है कि देश के सारे लोगों को अच्छा सम्मानजनक रोज़गार दिया जा सकता है।

इस तरह करने से लोगों पर लंबी दिहाड़ी का बोझ भी नहीं आएगा, लेकिन इस तरह करने से शासकों के मुनाफ़े को चोट पहुंचेगी। इसलिए इस व्यवस्था के रहते बेरोज़गारी को ख़त्म करना असंभव है।

इसके बावजूद आज हमें सरकार से बेरोज़गारी भत्ते, स्थाई सरकारी रोज़गार, पेंशन आदि जैसी सुविधाओं की मांग ज़रूर करनी चाहिए, क्योंकि सारी दौलत का सृजन मेहनतकश जनता ही करती है और इस पर इन्हीं का ही हक़ है।

हमें नव-उदारवादी नीतियों के तहत किए जा रहे निजीकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने की ज़रूरत है।

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