(दैनिक ‘देशबन्धु’ का दृष्टिकोण)
~ पुष्पा गुप्ता
गुजरात में मोरबी में माछू नदी के ऊपर बने झूलते पुल के गिरने से जो दर्दनाक हादसा हुआ, उसे हादसा न कहकर जानलेवा अपराध कहना उचित होगा। इस दुखद घटना में मौत का आंकड़ा बढ़ रहा है, और ये देखना ज्यादा पीड़ादायी है कि किस तरह सरकार को जिम्मेदारी से बचाने के लिए सत्ता के चाटुकार कुछ लोग पीड़ितों को ही इसका दोषी बताने में लगे हुए हैं।
कलम या माइक हाथ में लेने से कोई पत्रकार नहीं हो जाता, इस बात को आज फिर से रेखांकित करने की ज़रूरत है। क्योंकि असली पत्रकार वही है जो तथ्यों की पड़ताल करने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। सत्ता का मुंह देखकर ठकुरसुहाती करने वाले चमचे हो सकते हैं, पत्रकार नहीं हो सकते।
खेदजनक बात ये है कि मीडिया की चकाचौंध और इसमें लगी बड़ी पूंजी के दबाव में बहुत बार आम जनता भी आ जाती है। फिर वो सही या गलत की व्याख्या अपने विवेक से न करके बलपूर्वक थोपी गई बात को ही सही मानने लगती है।
जैसे कोरोनाकाल के दौरान तब्लीगी जमात पर कोरोना फैलाने का आऱोप क्या लगा, हिंदू-मुस्लिम करने वाले मीडिया ने इसे फौरन लपका और उसके बाद देश भर में किस तरह अल्पसंख्यकों को शक की निगाह से देखा गया, उनका आर्थिक बहिष्कार किया गया, उनके बारे में झूठी खबरें फैलाई गईं, ये जनता ने देखा है।
लॉकडाउन के वक़्त भी लाखों मजदूर जब बेघर होकर सड़कों के रास्ते भरी गर्मी में सैकड़ों किमी का सफर तय कर अपने घर लौटने को बाध्य कर दिए गए, तब भी अपने सुविधानजक घरों में बैठे लोगों ने उनकी इस हालत के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया।
सत्ता की चमचागिरी करने वाले पत्रकारों ने तब भी इसी बात को प्रचारित किया कि लॉकडाउन की अनायास घोषणा क्यों ज़रूरी थी और इससे किस तरह देश को महामारी में राहत दिलाने का काम सरकार ने किया है।
इन तथाकथित पत्रकारों को मजदूरों की त्रासदी भरी जिंदगियों की जगह सरकारी घोषणाओं के प्रचार में दिलचस्पी थी। ताली-थाली बजाने से क्या फ़ायदा हुआ और कैसे एक आह्वान पर सबने दिए या बल्ब जला दिए, इससे सरकार की ताकत नाप ली गई। जबकि वह वक़्त सरकार से सवाल करने का था कि आख़िर कुछ घंटों में किस तरह लाखों लोग एक स्थान से दूसरे स्थान सुरक्षित जा सकते हैं।
सरकार ने उन्हें तकलीफ और उलझन में डालने की जगह पहले ही उनकी सहायता का प्रबंध क्यों नहीं किया।
ऐसे ही सवाल नोटबंदी के वक्त भी किए जाने चाहिए थे कि अपनी मेहनत की कमाई निकालने के लिए लोगों को दिन-रात कतारों में क्यों खड़ा होना पड़ा। क्यों लोगों को इलाज के लिए या अन्य जरूरी खर्चों के लिए पाई-पाई का मोहताज होना पड़ा। क्यों सरकार ने एक ऐसी घोषणा की, जिसके नतीजों के बारे में आज भी वह दावे के साथ नहीं कह सकती है कि यह फ़ैसला सही था।
देश से न भ्रष्टाचार खत्म हुआ है, न काले धन का कोई पुख्ता हल निकला है। सवाल पुलवामा हादसे के बाद भी लगातार होने चाहिए थे कि आख़िर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील इलाके में विस्फोटकों से भरा वाहन किस तरह घुस गया और कैसे सुरक्षा बलों को ले जा रहे वाहन से टकरा गया।
क्या यह हमारी खुफिया जांच एजेंसियों की विफलता थी या उनके द्वारा दी गई सूचनाओं को गंभीरता से न लेने की गलती की गई।
देश में अनेक ऐसे मौके आए हैं, जिन पर सरकार से सवाल किए जाने थे, उसकी ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए थी। मगर अफ़सोस कि ऐसा नहीं हुआ, इसके बदले मीडिया सब चंगा सी का राग आलाप रहा है और जनता के साथ कुछ भी गलत होने पर उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा रहा है।
रुपया कमज़ोर नहीं हुआ, डॉलर मजबूत हो गया, कुछ इसी तर्ज पर देश में हालात दिखाए जा रहे हैं। मोरबी कांड में भी कुछ पत्रकार ऐसे वीडियो दिखाने में लग गए, जिसमें कुछ लोग पुल को हिलाते नजर आ रहे हैं। कुछ क्षणों के ऐसे वीडियो दिखाकर यह साबित किया जा रहा है कि गलती जनता की थी, जिसने पुल को हिला-हिला कर गिरा दिया।
दो सौ के करीब लोग अकाल मौत का शिकार हो गए, और इसके लिए सरकार से सवाल पूछने की जगह मृतकों को ही दोषी बताने की संवेदनहीनता देश में दिखाई जा रही है। अब शायद यह सवाल समाज को खुद से करना चाहिए अंधभक्ति में आखिर किस हद तक नैतिक पतन हो सकता है।
मोरबी कांड में एक बात शीशे की तरह साफ है कि रविवार को पुल पर क्षमता से कम से कम पांच गुना लोग मौजूद थे।
अब ये बात भी सामने आई है कि 17 रूपए का पास लोगों को बेचा गया, इसे टिकट की जगह पास क्यों लिखा गया, यह भी विचारणीय है। मोरबी नगरपालिका के मुताबिक पुल को उसकी अनुमति के बिना खोला गया, तो क्या पुल के रख-रखाव की ठेकेदार कंपनी ओरेवा इतनी रसूखदार है कि वह अपनी मर्जी से फ़ैसले ले और क्या प्रशासन इतना कमज़ोर है कि वह इस मनमानी पर सवाल न कर सके।
गौर करें कि पुल खुलते साथ ही नहीं टूटा, बल्कि 26 तारीख से खुला पुल 30 तारीख को टूटा, तो इन चार दिनों तक आखिर नगरपालिका या सरकार को ख़बर क्यों नहीं हुई।
इस पुल का ठेका 15 वर्षों के लिए ओरेवा ट्रस्ट को दिया गया था। तो सवाल ये है कि क्या घड़ी और मच्छरमार रैकेट जैसे उपकरण बनाने वाली इस कंपनी को पुल के रख-रखाव का कितना अनुभव था और किस आधार पर उसे यह ठेका मिला। क्या इसमें सत्ता और पूंजी का दूषित गठजोड़ है।
इस कांड के बाद ओरेवा कंपनी के प्रबंधक और टिकट क्लर्क समेत 9 लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं, मगर क्या केवल ये लोग ही दोषी हैं, या इसके तार कहीं ऊपर जुड़े हैं।
सवाल प्रधानमंत्री श्री मोदी से भी होने चाहिए कि मोरबी कांड के फौरन बाद वे घटनास्थल न जा सके, तो भी क्या विभिन्न कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी ज़रूरी थी।
क्या भाजपा के मुख्यमंत्री से भाजपा आलाकमान ने इस्तीफा देने कहा है। या इस आपदा को भी किसी अवसर में बदल लेने की संभावनाएं टटोली जा रही हैं।