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*उल्टी बहरही गंगा?*

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शशिकांत गुप्ते

आज मुझे एक बालक ने पूछा उल्टी गंगा बहाना इस मुहावरे का अर्थ बताते हुए वाक्य में प्रयोग कर समझाइए।
मै सोच में पड़ गया,मेरे जेहन में एक व्यवहारिक प्रश्न उपस्थित हुआ कि, मै व्यंग्यकार हूं।
मै बालक को व्यंग्य की भाषा में समझा नहीं सकता हूं।
मैने व्यस्तता का बहाना बनाकर बालक को सलाह दी की गुगल पर सर्च करों योग्य जवाब मिल जाएगा।
बालक के रवाना होने के बाद,मै उक्त मुहावरे पर सोच रहा था।
मुझे पचास और साठ के दशक में डाकुओं पर प्रचलित कहानियों का स्मरण हुआ।
इन कहानियों में कहा जाता था कि, बहुत से डाकू अमीरों को लूट कर गरीबों की मदद करते थे।
आज उल्टी गंगा बहाना वाली कहावत का सहज ही स्मरण होता है। इस कहावत का वाक्य में प्रयोग करना जोख़िम का काम है,इसलिए इस मुद्दे का यहीं पर विराम देना ही उचित होगा।
मैने उक्त कहावत की विस्मृति के लिए विषयांतर करने की कोशिश की,लेकिन मुझे बार बार यही कहावत याद आ रही है।
वास्तव में इन दिनों तो यत्र-तत्र-सर्वत्र उल्टी गंगा बह रही है।
इसी के साथ यह कहावत भी चरितार्थ होते स्पष्ट दिख रही है,
नाच न जाने आंगन टेढ़ा
कारण इन दिनों अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए, दूसरों पर दोष मढ़ने का प्रचलन ही हो गया है।
दूसरों पर दोष मढ़ने का प्रमाण तो तब ही स्पष्ट रूप से प्रकट होता है,जब वादों को जुमलों में परिवर्तित किया जाता है।
मुझे शायर अज़हर इक़बाल की यह रचना याद आई।
इतना संगीन पाप कौन करें
मेरे दुःख पर विलाप कौन करें
चेतना मर चुकी है लोगों की
पाप पर पश्च्याताप कौन करें

इस मुद्दे पर मुझे यकायक सन 1965 में प्रदर्शित फिल्म ऊंचे लोग में गीतकार मजरूह सुलतानपुरी रचित गीत की निम्न पंक्तियों का स्मरण हुआ।
कैसी तूने रीत रचि भगवान
पाप करें पापी, भरे पुण्यवान
सच रोये और झूठ हँसे मैं न समझू इन बातों को

अंत एक बार स्पष्ट रूप से समझना जरूरी है कि,सत्य परेशान हो सकता है,लेकिन सत्य पराजित कभी नहीं होता है।
समझदार को इशारा काफ़ी है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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