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उत्तर प्रदेश : इस बार किसके साथ हैं दलित मतदाता ?

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इस बार के चुनाव में सबकी नजरें दलित और पिछड़े वर्ग के मतदाताओं पर टिकी हैं। इनमें दलित मतदाताओं की बात करें तो उनके सामने बसपा की निष्क्रियता है और चंद्रशेखर की पार्टी के प्रति विश्वास का नहीं होना मायने रखता है। सैयद जैगम मुर्तजा का आकलन

उत्तर प्रदेश में अब यह सवाल आम हो गया है कि ‘दलित मतदाता इस बार किसके साथ हैं?’ हालांकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस को सूबे के दलितों के करीब 20 फीसदी मतों का पारंपरिक हक़दार माना जाता रहा है, लेकिन इस बार कोई भी सही–सही दावा करने की स्थिति में नहीं है। तो क्या दलित मतों में इस बार बिखराव होगा? 

ध्यातव्य है कि उत्तर प्रदेश के क़रीब 14.55 करोड़ मतदाताओं में से तक़रीबन 20 फीसदी दलित हैं। इनमें सबसे ज़्यादा करीब 57 फीसदी हिस्सेदारी जाटव जाति के मतदाताओं की है। शेष करीब 43 फीसदी में वाल्मीकि, धुसिया, भुलिया, भुलियार, बधिक, बहेलिया, बसोर, धनगुर, धनुक, धोबी, डोम, कंजर, हबूड़ा समेत तक़रीबन 60 जातियाें या उपजातियों के लोग हैं। बसपा जाटवों की पहली पसंद रही है जबकि ग़ैर–जाटव दलितों के मत तमाम पार्टियों में बंटते रहे हैं।

वर्ष 2014 और 2019 के लोक सभा चुनाव के अलावा 2017 के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ग़ैर–यादव ओबीसी और ग़ैर–जाटव दलितों के वोटों का एक बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में कर पाने में कामयाब रही थी। तमाम विश्लेषक मानते हैं कि राज्य में भाजपा की लगातार बड़ी जीत दलित और ओबीसी वोटरों के बिना संभव नहीं थीं। लेकिन क्या इस बार भी ये मतदाता भाजपा के साथ जाएंगे? 

फिलहाल राज्य में जिस तरह दलित और पिछड़ों के ध्रुवीकरण की कोशिशें चल रही हैं, उन्हें देखते हुए भाजपा के लिए दलित या ओबीसी मतदाताओं को अपने पक्ष में कर पाना इस बार आसान नहीं लगता है। भले ही मायावती की निष्क्रियता और बसपा के मज़बूती से चुनाव नहीं लड़ने को लेकर तमाम भ्रम फैलाए जा रहे हैं, जाटवों समेत दलितों के वोट का सबसे बड़ा हिस्सा अभी भी उनके पाले में नज़र आता है। हालांकि चंद्रशेखर आज़ाद भी जाटव वोटों के दावेदार हैं, लेकिन उनकी आज़ाद समाज पार्टी का संगठन और मतदाताओं में विश्वास मायावती या बसपा जैसा नहीं है।

सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेख यादव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

कांग्रेस में पी.एल. पुनिया जैसे नेताओं की मौजूदगी ज़रुर कुछ दलित मतदाताओं को प्रभावित करती है, लेकिन पार्टी के लिए अभी भी 1990 से पहले जैसे हालात नज़र नहीं आते। हालांकि प्रियंका गांधी दलितों के ख़िलाफ हिंसा और दलित महिलाओं के ख़िलाफ अत्याचार से जुड़े तमाम चर्चित मामलों में सक्रिय रही हैं, लेकिन पार्टी का संगठन अभी भी बड़ी संख्या में मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करा पाने की हालत में नहीं दिखता। ऐसे में सवाल है कि क्या मायावती के पूरी तरह सक्रिय न होने और दलित मतदाताओं के बीच फैले कथित भ्रम का फायदा सपा या भाजपा उठा ले जाएंगीं?

हाल के दिनों में सपा के पक्ष में दलित और पिछड़ों की लामबंदी देखने को मिल रही है। समाजवादी पार्टी में इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा, वीर सिंह, दारा सिंह चौहान और स्वामी प्रसाद मौर्य के आने से पार्टी को फायदा तो मिलेगा। लेकिन कितना, यह अभी दावा नहीं किया जा सकता है। परंतु एक बात तय है कि इस बार भाजपा को दलित व ओबीसी मतदाताअें का साथ पहले की तरह नहीं मिलने वाला है।

हालांकि भाजपा के नेता दावा कर रहे हैं कि केंद्र की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार ने दलित और पिछड़ों के हक़ में तमाम योजनाएं चलाई हैं। केशव प्रसाद मौर्य जैसे नेता दावा कर रहे हैं कि प्रदेश में जितनी भी योजनाएं लागू की गईं, वे किसी भी जाति और धर्म पर आधारित नहीं थीं। इनका फायदा दलित और पिछड़ों को स्वाभाविक तौर पर मिला। वह ख़ासतौर पर ग़रीबों के लिए मुफ्त राशन जैसी योजनाएं गिनाते हैं। लेकिन क्या यह काफी है?

दलितों के ख़िलाफ अपराध के आंकड़े देखें तो भाजपा शासित उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज़्यादा ख़राब रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक़, 2020 में देश भर में दलितों के ख़िलाफ हुए अपराध से जुड़े कुल 50,291 मामले दर्ज हुए। इनमें 12,714 सिर्फ उत्तर प्रदेश के थे। अप्रैल 2017 में सहारनपुर के दंगे हों या फिर अगस्त 2020 में गोरखपुर में हुई हिंसा, दलित राज्य में सवर्ण जातियों के क़हर का लगातार शिकार बने हैं। हाथरस रेप कांड हो या फिर कौशांबी, और बलरामपुर के मामले, सरकार पर अपराधियों के साथ नरमी बरतने का आरोप लगा।

पूर्व आईपीएस और सामाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी के मुताबिक़, पिछले एक दशक में, ख़ासकर जब से बीजेपी सत्ता में आई है, दलितों के ख़िलाफ अपराध बढ़ते ही गए हैं और उनकी कोई सुनवाई नहीं है। सरकारी आंकड़े बताते है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के ख़िलाफ हिंसा के मामले पिछले दस साल में 37 फीसदी बढ़ गए हैं, लेकिन महज़ 2.5 फीसद मामलों में ही अपराधियों को सज़ा हुई है। 

पिछले पांच साल में राज्य सरकार पर लगातार आरोप लगते रहे कि वह दलितों की अनदेखी कर रही है और उनके ख़िलाफ हुए अपराधों पर आंखे मूंद लेती है। हालांकि जातीय आधार पर पक्ष लेने और अपराधों की अनदेखी करने के आरोप राज्य में ब्राह्मण समाज से जुड़े नेता भी लगा रहे हैं। ज़ाहिर है, आलोचनाओं के निशाने पर वह लोग हैं जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जाति से जुड़े हैं।

ऐसे में दलित मतों का भले ही बसपा, आज़ाद समाज पार्टी, सपा या कांग्रेस में बंटवारा हो, लेकिन भाजपा की तरफ उनका रुख़ कम से कम 2017 या 2019 जैसा नहीं होगा। ऐसे में सत्तासीन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है कि वह अगड़ा बनाम पिछड़ा हो चले इस चुनाव को अपने पक्ष में कैसे मोड़े।

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