पुष्पा गुप्ता
कुछ तो बेहद दिलचस्प हैं। होशियारी से भरे हुए तरीके। आप इन्हें शातिराना तरीके भी कह सकते हैं। सितम यह कि इस लूट में सरकार केवल मूक दर्शक नहीं, बल्कि सहयोगी है।
जैसे, निचले तबके के कर्मचारियों से जम कर काम लेना, उन्हें बेहद कम वेतन देना, इतना कम वेतन कि नौकरी करने, मेहनत करने के बाद भी आदमी गरीब ही रह जाए। अधिकतर तो निहायत ही गरीब कहलाए।
फिर, अपनी निहायत ही गरीबी के कारण वह सरकार के गरीब कल्याण कार्यक्रमों में आवेदक बन जाए।
अब चूंकि, सच में वह बहुत गरीब है तो सरकार उसको मुफ्त के अनाज, उसके बच्चों को गरीब वाली छात्रवृत्ति सहित अन्य कई तरह के लाभ देगी।
यानी, एक ऐसा गरीब, जिसके पास किसी कंपनी की नौकरी नहीं है, उसको जो लाभ सरकार देगी वही सारे लाभ उसको भी मिलेंगे जो किसी कंपनी में निचले तबके के पदों पर है और अपना पूरा समय उस कंपनी की सेवा में दे रहा है।
ऐसे लोगों की संख्या लाखों-करोड़ों में है। यानी, काम कंपनियों का करता है आदमी, उसके दिन रात उसकी कंपनियों के नाम हैं, लेकिन उसके जीवन यापन में न्यूनतम स्तर की अनिवार्य जरूरतों के लिए सरकार को भारी भरकम रकम खर्च करनी पड़ती है।
यह भारी भरकम रकम मुख्यतः मध्य वर्ग की जेब से ले ली जाती है। जबर्दस्ती। इस तरह या उस तरह के टैक्स के नाम पर।
भारत के शहर पसरते जा रहे हैं, बाजार बढ़ता जा रहा है। बड़ी बड़ी कंपनियों के तरह तरह के मॉल्स और रेस्तरां की चेन देश भर के शहरों में खुलती जा रही हैं। सर्विस सेक्टर के विस्तार ने कई तरह की नौकरियां पैदा की हैं, लेकिन प्रायः हर जगह निचले तबके के कामगारों का घोर शोषण है।
तरह तरह की कंपनियां, तरह तरह के काम। लेकिन अधिकतर नियोक्ता ऐसे ही हैं जो अपने सफाई कर्मी को, अपने सिक्योरिटी गार्ड को, अपने पियून या मैसेंजर को, अपने सेल्स मैन को या इसी तरह के दर्जनों अन्य कामों में लगे कामगारों को भरपूर काम लेने के बाद भी इतना भी पारिश्रमिक नहीं देते कि वह अपनी और अपने आश्रितों की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति कर सकें।
हालांकि, इन्हीं कामगारों की मेहनत के बल पर कंपनियों को भरपूर मुनाफा होता है। इतना, कि भारत में अरबपतियों की संख्या दुनियां में सबसे तेजी से बढ़ रही है। कितने तो देश और उसके निवासियों को तरह तरह का चूना लगा कर रिकार्ड समय में अरबपति से खरबपति बन जा रहे हैं।
लेकिन, ऐसी कोई सार्वजनिक ऑडिट नहीं होती, ऐसी कोई विश्वसनीय रिपोर्ट नहीं आती कि किस कंपनी ने अपने मुनाफे का कितना प्रतिशत अपने निचले तबके के कामगारों के पारिश्रमिक पर खर्च किया और कितना अपने मैनेजर्स को दिया और खुद ले लिया।
कंपनियों के मुनाफा और कामगारों के वेतन का कोई न्यायोचित अनुपात भी होना चाहिए, यह बात इस कार्पोरेट राज में कौन उठाए? उठाए तो कौन सुने?
कंपनियां उनकी, सत्ता संरचना पर वर्चस्व उनका, राजनीति की लगाम उनके हाथ, तो आर्थिक नीतियों पर उनका वर्चस्व रहना ही है।
श्रम सुधार के नाम पर बीते वर्षों में श्रमिक कानूनों में न जाने कितने संशोधन किए गए। अधिकतर संशोधन ऐसे ही, जो श्रमिक अधिकारों को कमजोर करते हैं और कंपनियों की मनमानियों को कानूनी वैधता देते हैं।
अब जब, बड़े बड़े कार्पोरेट प्रभु रिटेल सेक्टर में उतर रहे हैं, बाजार के मंझोले कारोबारी धीरे धीरे कमजोर होते जा रहे हैं, छोटे कारोबारी ओझल होते जा रहे हैं तो कामगारों के ऐसे तबके का तेजी से विस्तार होता जा रहा है जो इस सेक्टर में नौकरी करते अपने दिन रात कंपनी को सौंप दे रहे हैं और तब भी अपनी न्यूनतम जरूरतों के लिए सरकार के दरवाजे पर लाइन लगा कर खड़े हो जा रहे हैं।
कार्पोरेट लूट का यह अनोखा रूप है। प्रति वर्ष लाखों करोड़ रुपए सरकार के इस पर खर्च होते हैं। इसका बड़ा हिस्सा कार्पोरेट की जिम्मेदारी है, लेकिन सरकार वहन करती है।
कल्पना करें कि सरकार उन लोगों को निर्धनता लाभ देने से इंकार कर दे जो किसी भी कंपनी में पूर्णकालिक नौकरी करते हैं।
तो क्या होगा?
होगा यह कि विद्रोह होगा। कड़ी ड्यूटी, कड़ी मेहनत के बाद भी कामगारों और उनके आश्रितों का पेट न भरे तो या तो वे काम छोड़ सकते हैं या संगठित विद्रोह कर सकते हैं।
दोनों ही स्थितियों में कंपनियों को खतरा है। क्योंकि, कामगार भी चाहिए और बहुत कम वेतन पर भी चाहिए। और, संगठित विद्रोह तो नहीं ही चाहिए।
तो, कार्पोरेट हितैषी सरकार आगे आती है। वह उन अल्प वेतनभोगी कामगारों को मुफ्त अनाज देती है, कई तरह के अन्य आर्थिक लाभ देती है।
फिर, न कोई काम छोड़ता है, न किसी तरह के विद्रोह की कोई बात होती है। जीने को ही मुकद्दर मान चुका निर्धन कामगार वर्ग इधर कंपनी की जय जय कार, उधर सरकार की जय जय कार करता रहता है।
कार्पोरेट लूट के इस पहलू पर कोई गंभीर विमर्श नहीं होता। अगर होता है तो शुरू होते ही विमर्श कारों का राजनीतिक टेंटुआ दबा दिया जाता है।
अमेरिका के बर्नी सैंडर्स इसके प्रमुख उदाहरण हैं। उन्होंने इस मुद्दे पर कई व्याख्यान दिए और कार्पोरेट लूट के इस तरीके पर जम कर हमला किया। उन्होंने मांग की कि कंपनियां अपने कामगारों को इतना वेतन तो दें ही कि वे अपनी न्यूनतम जरूरतों के लिए सरकार पर बोझ न बनें। सैंडर्स ने इसे “सरकार के संरक्षण में कार्पोरेट की संगठित लूट” बताया।
नतीजा, कार्पोरेट के गढ़ अमेरिका में बर्नी सैंडर्स को राष्ट्रपति चुनाव में भाग नहीं लेने देने के लिए हर कोशिश की गई। वे राजनीति के हाशिए पर डाल दिए गए।
भारत में तो ऐसे विमर्शों की भ्रूण हत्या के लिए सरकार, सरकार के अफसर, कार्पोरेट संचालित मीडिया, आई टी सेल आदि सदैव तत्पर रहते हैं। इस तरह की कोई मांग उठाई नहीं कि आप लेफ्ट घोषित हुए, अगर तब भी उठाते रहे तो देशद्रोही घोषित होने का खतरा भी सिर पर मंडराने लगता है।
वैसे तो, दुनिया के बड़े हिस्से पर बाजारवादी शक्तियों का वर्चस्व है, लेकिन अगर इसका निकृष्टतम चेहरा देखना हो तो दक्षिण एशिया, खास कर भारत की आर्थिकी को जानने समझने का प्रयास कर सकते हैं। संगठित शोषण और संगठित लूट के जो उदाहरण आपको यहां मिलेंगे वह शायद ही कहीं और मिले।