डॉ. विकास मानव
आयुर्वेद में व्याधि-निदान को बहुत महत्त्व दिया गया है। आचार्यों का स्पष्ट निर्देश है कि पहले रोगका ज्ञान करना चाहिए, तदनन्तर अपने पास उपलब्ध औषधि का ज्ञान करना चाहिए, तब उपचार प्रारम्भ करना चाहिये.
रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम्।
ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्व समाचरेत्।।
~चरकसंहिता.
आयुर्वेदशास्त्र में रोगनिदान के लिये रोग की परीक्षा है और रोग-परीक्षण के अनेक साधन बताये गये हैं, जिनमें अन्यतम है नाडी परीक्षा।
विश्वकी सभी चिकित्सा पद्धतियों में रोगी की परीक्षा के क्रम में नाडी की परीक्षा का विधान है, किंतु जितना व्यापक विचार नाडी परीक्षा के संदर्भ में आयुर्वेद ने किया है, उतना अन्य किसी भी चिकित्सा पद्धति में नहीं किया गया है।
आयुर्वेद में नाडी परीक्षा रोगनिदान की पर्याय बन चुकी है। किसी वैद्य के पास रोगी आता है तो बिना अधिक चर्चा किये वह नाडी की परीक्षा हेतु अपना हाथ आगे बढ़ा देता है और अपेक्षा रखता है कि वैद्यजी नाडी-परीक्षा करके मेरा सम्पूर्ण निदान कर दें। कुछ ऐसे नाडी-वैद्य भी हुए हैं जो मात्र नाडी की परीक्षा करके रोगी के लक्षण, व्याधि, परिणाम और आहार-विहार का सत्य-सत्य वर्णन कर देते थे।
वस्तुतः रोगी की परीक्षा का विधान आयुर्वेद में अति प्राचीन है और उन परीक्षणों में स्पर्श-परीक्षा एक स्वतन्त्र विज्ञान है। स्पर्श-परीक्षा के अन्तर्गत गतिमान् या स्फुरण करने वाले अङ्गों का स्पर्श कर परीक्षा करनेका स्पष्ट निर्देश है। इसी क्रम में नाडी परीक्षा आती है। नाडी परीक्षा की व्यापक उपादेयता के कारण यह विज्ञान क्रमशः विकसित होता गया और इसके उपबृंहण में प्राचीन योगशास्त्र एवं तन्त्र-विज्ञान का भरपूर सहयोग मिला है।
रावण तथा कणाद आदि महर्षियों ने नाडीशास्त्र पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं एवं योगरत्नाकर, शाङ्गधर आदि ने सामग्री प्रस्तुत की है। रोगी का शरीर व्याधि का आश्रय होता है। रुग्णावस्था में शरीर के कुछ अङ्गों में अनुपेक्षणीय परिवर्तन आते हैं, जिनसे व्याधि- निदान-सम्बन्धी निश्चित संकेत मिलते हैं। आचायर्यों ने ऐसे आठ स्थानों (भावों) : नाडी, मूत्र, मल, जिह्वा, शब्द, स्पर्श, नेत्र एवं आकृति का वर्णन किया है, जहाँ ये परिवर्तन अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट एवं व्यापक स्वरूप के होते हैं.
रोगाक्रान्तस्य देहस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत्।
नाडी मूत्रं मलं जिह्वां शब्दस्पर्शदृगाकृतीः॥
~योगरत्नाकर.
वैद्य को रोगग्रस्त व्यक्ति के इन आठ अङ्गों की परीक्षा करनी चाहिये। इनमें भी नाडी परीक्षा को प्रथम और अनिवार्यरूप से प्रत्येक आचार्यों ने परिगणित किया है। आयुर्वेद की परम्परा के अनुसार जो प्रधान होता है, उसका प्रथम उल्लेख किया जाता है। इस आधार पर इन परीक्षाओं में नाडी-परीक्षा प्रमुख है। अन्य अङ्गों की परीक्षा स्थानिक विकृतियों या सीमितरूप से सर्वाङ्ग विकृतियों को प्रकट करती है, परंतु नाडी परीक्षा की उपादेयता बहुत व्यापक है। नाडी के ज्ञान से यह जान लिया जाता है कि शरीर में प्राण है या नहीं। हाथ के अँगूठे के मूल के नीचे जो नाडी है वह जीव के साक्षी-स्वरूप है।
यथा :
करस्याङ्गुष्ठमूले या धमनी जीवसाक्षिणी।
तच्चेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पण्डितैः॥
~शार्ङ्गधर पूर्वखण्ड (३।१).
नाडीकी परीक्षा-विधि :
नाडी-परीक्षा एक तान्त्रिक विज्ञान है, अतः उसकी परीक्षा के कुछ सुनिश्चित विधि-विधान हैं, कुछ निषेध हैं। नाडी- परीक्षा-सम्बन्धी साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि नाडी-परीक्षा-विधान के तीन पक्ष हैं-
(१) चिकित्सक-सम्बन्धी
(२) रोगी-सम्बन्धी और
(३) परीक्षा-सम्बन्धी।
चिकित्सक सम्बन्धी :
(१) चिकित्सक को स्थिरचित्त से तन्मयता के साथ नाडी-परीक्षा करनी चाहिये अर्थात् मन तथा बुद्धि की एकाग्रता के साथ नाडीकी परीक्षा करे।
(२) नाडी-परीक्षा करते समय चिकित्सक सुखासन से पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर परीक्षण करे।
(३) चिकित्सक द्वारा मद्य-जैसे किसी भी मादक द्रव्य का सेवन करके नाडी परीक्षा करना निषिद्ध है।
(४) नाडी-परीक्षा करते समय मल-मूत्र आदिका वेग नहीं रहना चाहिये अन्यथा एकाग्रता नहीं बनती है।
(५) धन के लोभी, कामुक चिकित्सक नाडी परीक्षा-द्वारा निदान करने में असमर्थ रहते हैं अर्थात् लोभ तथा काम- वासना से रहित होकर नाडी परीक्षा करनी चाहिये।
(६) चिकित्सक को अपने दायें हाथ की तीन अँगुलियों द्वारा नाडी परीक्षा करनी चाहिये।
(७) नाडी परीक्षा में उतावलापन उचित नहीं है। कम-से-कम दो मिनट नाडी परीक्षा करनी चाहिये।
*रोगी-सम्बन्धी :*
(१) रोगी ने मल-मूत्र-विसर्जन कर लिया हो अर्थात् मलों का वेग-विधारण नहीं होना चाहिये।
(२) जब रोगी सुखासन से बैठा हो, हाथ जानु के अंदर हो या आराम से लेटा हो, तब परीक्षा करे।
(३) वह भूख-प्यास से पीडित न हो।
(४) तत्काल भोजन नहीं किया हो, सोया न हो, धूप से न आया हो।
(५) व्यायाम तथा स्नान करने के तत्काल बाद नाडी- परीक्षा न करे।
(६) व्यवाय (मैथुन) किया हुआ न हो एवं भूखे पेट न हो, मद्यपान रहित हो। उपवास न किया हो और शरीर थका न हो।
(७) काम, क्रोध, शोक, भयग्रस्त, उद्विग्न, चञ्चल- मन वाले रोगी की नाडी परीक्षा न करे अथवा उन मनोभावों को शान्त कर परीक्षा करनी चाहिये।
इन कारणों से नाडी की प्राकृत गति का यथोचित ज्ञान नहीं हो पाता। ‘सम्यङ्नाडी न बुध्यते’ से यही तात्पर्य है कि इन आहार-विहार, मनोभावों के प्रभाव से नाडीकी स्वाभाविक गति में परिवर्तन आ जाता है और शरीर दोष एवं रोग- सम्बन्धी वास्तविक गति का ज्ञान नहीं हो पाता।
परीक्षा-सम्बन्धी :
(१) प्रातः खाली पेट नाडी परीक्षा करने की परम्परा है।
(२) रोगी को आराम से लिटाकर या बैठाकर नाडी- परीक्षा करनी चाहिये।
(३) बैठे हुए रोगी का कुहनी से आगे का हाथ वैद्य अपने बायें हाथ पर रखे। ऊर्ध्वमुख-मुद्रा में, फिर मणिबन्ध- संधि में अङ्गुष्ठ-मूल से एक अंगुल नीचे, तीन अँगुलियों से बहिः-प्रकोष्ठी या धमनी का परीक्षण करे। बायें हाथ के सहारे के कारण हाथ शिथिल रहता है और नाडी की गति स्पष्ट मिलती है।
(४) रोगी की अँगुलियों को अंदर की ओर थोड़ा मोड़कर केले के समान आकार देकर रखना चाहिये।
(५) स्त्रियों की बायें हाथ की, पुरुषों की दायें हाथ की नाडी देखने का विधान है। उत्तम तो यह है कि स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों ही की नाडी दोनों हाथों में देखनी चाहिये। अनेक बार दोनों हाथों की गतियों में परस्पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। पुरुष की पहले दायीं फिर बायीं तथा स्त्री की पहले बाँयी फिर दायीं नाडी की परीक्षा करनी चाहिये।
(६) वैद्य को अपनी तर्जनी, मध्यमा, अनामिका- तीनों अँगुलियों से नाडी की परीक्षा करनी चाहिये। एक-एक अँगुली उठाकर फिर थोड़ा दबाव डालकर गति देखनी चाहिये।
(७) मणिबन्ध की नाडी-गति में भ्रम या अस्पष्टता-सी स्थिति हो तो अन्य स्थान की नाडी देखनी चाहिये और उनका परस्पर समन्वय करके देखना चाहिये।
(८) परीक्षण हेतु रखी अँगुलियों को उठाकर पुनः नाडी पर थोड़ा दबाव डालते हुए तीन बार परीक्षा करनी चाहिये। अब अंशांश दोष-विकृति का या व्याधि का विनिश्चय करना चाहिये।
दोषानुसार नाडीकी गति :
आयुर्वेद ने स्वास्थ्य एवं रोग- इन दोनों के लिये क्रमशः दोषों की साम्यता एवं वैषम्य को उत्तरदायी माना है। दोषों की तीन अवस्थाएँ हैं :
(१) वृद्धि
(२) क्षय एवं
(३) साम्यता या समावस्था।
इनमें समावस्था स्वास्थ्य के लिये और वृद्धि तथा क्षय-अवस्थाएँ रोग के लिये कारणीभूत होती हैं। अन्य शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ नाडीगति में भी इन दोषों की अवस्थाओं का प्रभाव पड़ता है.
दोषाः प्रवृद्धाः स्वं लिङ्ग दर्शयन्ति यथाबलम्।
क्षीणा जहति स्वं लिङ्गं समाः स्वं कर्म कुर्वते॥
अर्थात् प्रवृद्ध दोष अपने कार्यों को, गुणों को प्रवृद्ध करते हैं तथा क्षीण हुए दोष अपने कार्यों, गुणों को कम करते हैं, घटाते हैं तथा सममात्रा में रहने पर वे अपने निर्धारित कार्यों को सम्पन्न करते हैं। ठीक इसी प्रकार नाडी में इन दोषों की स्थितियाँ मिलती हैं अर्थात् प्रवृद्ध दोष नाडी में अपनी प्रव्यक्तता और भी अधिक व्यक्त करते हैं तथा क्षीण दोष अपने स्थान, प्रव्यक्तता एवं गति में- ह्रास (कमी) प्रकट करते हैं। जब कि समावस्था में दोष अपनी निर्धारित गति एवं स्थानपर उपलब्ध होते हैं। जैसा कि शास्त्रों ने उल्लिखित किया है कि तर्जनी के नीचे वायु, मध्यमा के नीचे पित्त और अनामिका के नीचे कफ की नाडी प्रव्यक्त होती है.
वातेऽधिके भवेन्नाडी प्रव्यक्ता तर्जनीतले।
पित्ते व्यक्ताऽथ मध्यायां तृतीयाङ्गुलिका कफे॥
प्रव्यक्तता से तात्पर्य है कि बिना अधिक दबाव किये नाडी का स्पन्दन किस अँगुली-विशेष के नीचे अधिक उछाल के साथ प्रतीत होता है। इस परीक्षामें अँगुलियों की स्थिति तथा दबावका विशेष ध्यान रखना चाहिये अर्थात् अँगुली अपने स्थान पर स्थित हो, ऊपर या नीचे न रहे तथा अत्यन्त अल्प दबाव देने की अपेक्षा रहती है। अधिक दबाव देने पर प्रव्यक्तता समझने में भ्रम हो सकता है।
गतिके अनुसार दोष-ज्ञान :
दोषों के अनुसार कुछ विशिष्ट गतियों का वर्णन बड़ी प्रधानता के साथ आयुर्वेदिक ग्रन्थों में किया गया है। गति-संख्या की दृष्टिbसे वात-नाडी विषम अर्थात् कभी अल्प, कभी तीव्र तथा कभी मन्द गति मिलती है। पित्त के कारण चपला अर्थात् तीव्र गति एवं कफ के कारण स्थिरा या स्तब्धा अर्थात् मन्द गति मिलती है.
वाते वक्रगतिर्नाडी चपला पित्तवाहिनी।
स्थिरा श्लेष्मवती प्रोक्ता सर्वालिङ्गा च सर्वगा।।
~नाडी-परीक्षा.
विशिष्ट नाडी-गति के सम्बन्ध में विभिन्न प्राणियों की गतियों का उदाहरण देते हुए सभी आचार्यों ने दोषानुसार विशिष्ट नाडी-गति स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उदाहरणों से ज्ञात होता है कि ये विशिष्ट नाडी-गतियाँ कितनी सूक्ष्म अनुभूतिपरक हैं। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूतियाँ एक-सी होते हुए भी उनकी अभिव्यक्त करने की शैली भिन्न होती है, अतएव आचार्यों ने बाह्य जगत् के पशु-पक्षियों के उदाहरण दिये हैं। जिससे जिज्ञासु को बिना किसी भ्रम के उन गतियों का स्थायी ज्ञान हो सके और सभी की समझ एक-सी रहे.
वातोद्रेके गतिं कुर्याजलौकासर्पयोरिव।
पित्तोद्रेके तु सा नाडी काकमण्डूकयोर्गतिम्।
हंसस्येव कफोद्रेके गतिं पारावतस्य वा॥”
~नाडी-परीक्षा.
वायु के अनुसार नाडी की गति :
वायु के विशेषणों में वक्रा या वक्रगति का- ये दो सर्वाधिक उल्लिखित हैं। वक्रा विशिष्टगति अर्थात् रक्तवाहि नीमें अति वक्र विशिष्ट स्वभाव की गति (लहर) से है। नाडी परीक्षा करते समय वैद्य अपनी तीनों अँगुलियों को एक रेखा में रखे। अँगुलियों के मध्यमें स्थित केन्द्रक जो सर्वाधिक संज्ञावाही होता है, उसे नाडी के बीचोबीच रखना चाहिये और फिर ध्यानपूर्वक देखे कि नाडी-संवहन एक सीधी रेखा में आ रहा है अथवा कभी दायें, कभी बायें अंदर की ओर या बाहर की ओर स्पर्श करता हुआ आ रहा है।
जैसे सर्प की गति होती है, यही वक्रता है। दूसरे प्रकार की वक्रता स्फुरण की उच्चता के आधार पर हो सकती है, जैसा कि जलौका की गति में मिलता है।
पित्तानुसार नाडी की गति :
चपला, चपलगा, तीव्रा आदि विशेषण पित्त-प्रभाव से प्रवृद्ध नाडी की गति-संख्या को सूचित करते हैं. अर्थात् पित्त प्रकोप के सर्वसामान्य परिवर्तनों में प्रति मिनट नाडी की गति संख्या में वृद्धि अवश्यम्भावी है, जब कि स्फुलिङ्ग, काक-मण्डूक आदि जीवों की गतिbके उदाहरण विशिष्ट स्वभाववाली गतियों के लिये है। ये सभी जन्तु उछल-उछल कर चलते हैं अर्थात् इनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के मध्य अन्तराल रहता है। इस प्रकार पित्त की नाडी तय करने के लिये दो प्रमुख आधार बनते हैं- (१) स्पन्दनकी उच्चता और (२) एक स्पन्दनसे दूसरे स्पन्दनके बीचमें निर्मित होनेवाला अन्तराल।
इन आधारों पर कह सकते हैं कि पित्तकी नाडी तीव्रगति, उच्चस्पन्दनयुक्त एवं अन्तरालnके साथ उछलती हुई चलती है।
कफके अनुसार नाडी की गति :
स्थिरा, स्तिमितता, स्तब्धा, प्रसन्ना आदि विशेषण कफ नाडी के संदर्भ में मिलते हैं। स्थिरा तथा स्तब्धाnसे तात्पर्य नाडी की गति-संख्या की कमी तथा नियमितता है। स्तिमितता या चिपचिपापन कफ के अतिरिक्त आम, अजीर्ण-जैसी अन्य अवस्थाओं में भी मिलता है। प्रसन्ना से तात्पर्य यह है कि नाडी पूर्ण और एक-सी गति से चलती हुई मिलती है।
विशिष्ट गतियोंके संदर्भमें हंस, कबूतर तथा हाथी की गतियों का उदाहरण दिया जाता है। ये सभी आराम से बिना उतावलेपन के चलते हैं। कफ के प्रभाव से भी नाडी बिना अकुलाहट के आराम से चलती है।
रोगों के अनुसार नाडी की :
गति रोगों का ज्ञान होना नाडी की परीक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। विभिन्न नाडी-परीक्षा- सम्बन्धी ग्रन्थों में अनेक विशिष्ट रोगों की विशिष्ट नाडी- गतियाँ वर्णित हैं। व्यवहार में भी अनेक वैद्यराज नाडी- परीक्षा द्वारा सटीक रोग निदान करते हैं।
व्याधि-विशेषnमें या व्याधि की विशिष्ट अवस्था के अनुसार विशिष्ट नाडी-गतियाँ मिलती हैं। जिज्ञासु जन नाडी-ग्रन्थों का अध्ययन करके इस संदर्भ में ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
असाध्यता सूचक नाडी की गति :
आयुर्वेद के आचार्यों ने व्याधि की साध्यासाध्यता पर विशेष विचार किया है। रोग का चिकित्सा क्रम-निर्धारण एवं परिणाम-ज्ञान के साथ-साथ चिकित्सक के यश की रक्षा भी प्रमुख उद्देश्य है। असाध्यता एवं अरिष्टसूचक नाडी की गतियों का प्रचुर वर्णन नाडी- ग्रन्थों में मिलता है।
अनेक प्रकार से काल-मर्यादा के साथ नाडी की असाध्यता शास्त्र में वर्णित है। यथा- प्रहर, ज्वालावधि, सद्योमारक, सार्धप्रहर, एकरात्रि, अहोरात्र, त्रिदिवस, सप्तरात्रि, पक्ष या मास आदि। इनके पीछे ऋषियों के अलौकिक ज्ञान की भूमिका रही है। अनेक वैद्यों की इस प्रकार कालावधि के साथ मृत्यु-घोषणा करने हेतु ख्याति रही है। साधारण से दीखते इन लक्षणों का संयोग और उन्हें पकड़ लेने का अभ्यास तथा उत्तम नाडी-ज्ञान ही इस प्रकार की घोषणा करने की शक्ति दे सकता है।
यदि नाडी स्पर्श में बहुत सूक्ष्म (पतली) हो, भिन्न- भिन्न गतियों के साथ जल्दी-जल्दी चल रही हो, भार से दबी हुई-सी चले, स्पर्श में गीली-सी लगे, बार-बार स्पर्श अलभ्य हो जाय अर्थात् रह-रहकर स्पन्दनरहित होती हो तो उसे असाध्यतासूचक मानना चाहिये.
अतिसूक्ष्मा पृथक् शीघ्रा सवेगाभारिताऽर्द्रिका।
भूत्वाभूत्वा म्रियेतैव तदा विद्यादसाध्यताम्।
~नाडी-परीक्षा.
मृत्युसूचक नाडी की गति :
मणिबन्धसंधि के अपने स्थान से च्युत नाडी निश्चितरूप से मृत्यु सूचक होती है : हन्ति स्थानविच्युता।
कुछ आचार्यों के मत से स्थानच्युत नाडियाँ सद्यः मृत्युसूचक होती हैं अर्थात् शीघ्र ही मृत्यु होगी, यह संकेत देती हैं.
स्थानच्युतिश्च नाडीनां सद्यो मरणहेतवः॥
नाडी में बार-बार कम्पन हो रहा हो, पतले धागे के समान सूक्ष्म स्पन्दन मिल रहा हो तथा अँगुली को स्पर्श करता स्पन्दन अत्यन्त हल्का (अल्प बल) हो तो निश्चित मृत्युसूचक है।
जब शरीर का ताप अधिक हो एवं नाडी स्पर्श में ठंडी हो और यदि शरीर ठंडा हो, किंतु नाडी स्पर्श में उष्ण हो तथा अनेक प्रकार की गतियों के साथ चलती हो अर्थात् बार-बार जल्दी-जल्दी गति-परिवर्तन हो रहा हो तो वह भी मृत्युसूचक है.
महातापेऽपि शीतत्वं शीतत्वे तापिता सिरा।
नानाविधिगतिर्यस्य तस्य मृत्युर्न संशयः॥
इस प्रकार आयुर्वेदीय साहित्य में नाडी परीक्षा के संदर्भ में बहुत विस्तार से उपयोगी वर्णन प्राप्त होते हैं।
नाडी-विज्ञान :
आयुर्वेद अनादि, शाश्वत एवं आयुका विज्ञान है। इसकी उत्पत्ति सृष्टि की रचना के साथ हुई। जिन तत्त्वों से सृष्टि की रचना हुई, उन्हीं तत्त्वों से ही इसकी उत्पत्ति हुई। रचना एवं क्रिया का सम्पादन शरीर की प्राकृत एवं विकृत अवस्था पर सम्भव है। ब्रह्माण्ड में स्थित तत्त्वों से पञ्चभूतों द्वारा सारी सृष्टि प्राणिमात्र- जड-चेतन, स्थावर- जङ्गम, खनिज-वनस्पति यावन्मात्र समस्त वस्तुजाति की रचना हुई है।
आयुर्वेद के मूल स्तम्भ पञ्चमहाभूत ही हैं। शरीर में वात, पित्त एवं कफ के भी इन पाँच भेदों के आधार पर प्रत्येक दोष के पाँच-पाँच भेद किये गये हैं तथा उनके आधार पर शरीर में स्थान, गुण तथा कर्म का वर्णन कर इनके प्राकृत कर्म बताये हैं. यही प्राकृत कर्म जब सम रहते हैं तो प्राकृतावस्था अर्थात् स्वस्थता रहती है और इनके विकृत हो जाने पर अप्राकृतावस्था अथवा अस्वस्थता हो जाती है। चिकित्सा-सिद्धान्त में भी पञ्चमहाभूतों की प्रधानता होने से जो मूलभूत चिकित्सा है, उसमें क्षीण हुए दोष एवं महाभूतों की वृद्धि करना और जो बढ़े हुए हैं उनका ह्यस करना तथा समय पालन करना ही चिकित्सा है।
वात :
शरीरस्थ वायु-दोष के शरीर के उत्तमाङ्ग से मूलाधार तक क्रमशः पाँच भेद किये हैं, जो इस प्रकार हैं-
प्राण- मूर्धा में।
उदान- उर-प्रदेश में।
समान – कोष्ठ में।
व्यान- सर्वशरीर में।
अपान – मूलाधार में।
इनमें महाभूतों की अधिकता को यदि लें तो प्राणवायु आकाश महाभूत-प्रधान, उदान अप् महाभूत-प्रधान, समान तैजस महाभूत-प्रधान, व्यान वायु महाभूत-प्रधान तथा अपान पृथ्वी महाभूत-प्रधान हैं।
*पित्त :*
शरीर के उत्तमाङ्ग से अधोभाग तक महाभूतों की प्रधानता से पाँच भेद किये गये हैं-
आलोचक : नेत्र, तैजस महाभूत, प्रधान।
साधक : हृदय, आकाश महाभूत-प्रधान।
पाचक : कोष्ठ, पृथ्वी तत्त्व-प्रधान।
रंजक : यकृत्, प्लीहा, अप् महाभूत-प्रधान।
भ्राजक : सर्वशरीरगत त्वक् वायु महाभूत-प्रधान।
कफ :
इसी प्रकार कफ के भी पाँच रूप-भेद हैं ‘
बोधक : जिह्वा में, तैजस महाभूत-प्रधान।
क्लेदक : आमाशय में, अप् महाभूत-प्रधान।
अवलम्बक : हृदय में, पृथ्वी महाभूत-प्रधान।
तर्पक : इन्द्रियों में, आकाश महाभूत-प्रधान।
श्लेषक : संधियों में, वायु महाभूत-प्रधान।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर में सबके स्थान नियत हैं और प्रत्येक के कर्म भी शास्त्र में वर्णित हैं। नाडी- परीक्षण से पूर्व इनका ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है; क्योंकि नाडी-ज्ञान इनके बिना सम्भव नहीं।
पुरुष के दायें हाथ एवं स्त्री के बायें हाथ के अंगुष्ठ- मूल से कुछ दूरी पर तर्जनी, मध्यमा, अनामिका अँगुलियों को क्रमशः रखकर कूर्पर-संधि को आश्रित न रखते हुए ९० डिग्री के कोण पर चिकित्सक ध्यानस्थ हो हृदय से आने वाले स्पन्दन का अनुभव करे।
तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के स्पन्दनों को तरतम-विधि से ज्ञात करके प्रत्येक अँगुली के नीचे पाँचों भेदों को तर्जनी के नीचे पाँचों वायु, मध्यमा के नीचे पाँचों पित्त तथा अनामिका के नीचे पाँचों कफ का ज्ञान प्राप्त करे और उनके स्थान एवं कर्म का ज्ञान होने पर उनसे होने वाले कर्मों के लक्षण वाली व्याधि का होना सुनिश्चित करे। किसी कर्म को प्रश्न के रूप में पूछने पर उसकी यथार्थता का ज्ञान करे।
दोष-भेद से भी नाडी-परीक्षा की जाती है। दोषों के अंशांश की वृद्धि (भेद-स्वरूप) तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के स्पर्श में स्पष्ट तरङ्गित होती है। नाड़ी परीक्षण आपको किसी भी तरह की पेथोलॉजिकल टेस्ट से बचाता है.
नाडी एवं नाडी-ज्ञान द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करना एक असाधारण कार्य है। इसके लिये विपुल समय, ज्ञान एवं विपुल अनुभव की अपेक्षा है। यहाँ अत्यन्त सूक्ष्म रूप में दिशा-निर्देश किया गया है।