(भग = योनि. भगवती= योनि की स्वामिनी. भगवान = योनि को तृप्त कर उसपे स्वामित्व कायम करने वाला)
~> डॉ. विकास मानव
शून्य अद्वितीय है। शून्य में अगणित ब्रह्माण्ड हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य नक्षत्रमण्डल (राशि) चक्र) हैं। प्रत्येक राशि चक्र में असंख्यसौरमण्डल हैं। प्रत्येक सौर मण्डल में अनेक ग्रह, पिण्ड, धूमकेतु हैं। प्रत्येक धूमकेतु में अगण्य उल्कापिण्ड हैं।
हम लोग जिस ग्रह पर रहते हैं, उसे पृथिवी कहा जाता है। इस पृथिवी का पति सूर्य है। इस सूर्य को विष्णु कहते हैं। यही शिव है, यही ब्रह्म है, यही इन्द्र है।
सूर्य को भगवान् कहते हैं भ= भाति, ग = गच्छति। जो चमकता है जो चलता है अथवा जिसके प्रकाश में चमक एवं गति होती है, वह भग है। जो भग से युक्त है, वह भगवान् है। वाक्य है-
“भग एव भगवाँ २ अस्तु
देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम।”
~ अथर्ववेद (३ | १६ )
भग = ज्योति। ज्योति सम्मुख मैं प्रार्थना करता हूँ-
“भग प्रणेतर् भग सत्यराधो
भगेमां धियमुदवा ददन्न ।
भग. प्र जो जनय गोभिरश्वैर्
भग प्र नृभिर् नृवन्तः स्याम ॥”
~यजुर्वेद (३४ । ३६)
भग प्र. नेतः = हे भग । तू मार्ग दर्शक है।
भग सत्य राधः = हे भग! तू शाश्वत धन है।
भग इमाम् वियम् उत् अव =हे ज्योति हमारी इस बुद्धि को तू दीप्त कर कर्म में लगा / बढ़ा।
आ ददत् नः (अव) = लक्ष्मी को प्रदान करते हुए तू हमारी रक्षा कर, हमें सन्तुष्ट कर। [आ=लक्ष्मी]
भग नः प्रजनय = हे ज्योति । हमें प्रजनन क्षमता प्रदान कर।
भग गोभिः अश्वैः प्रनृभिः नृवन्तः स्याम = हे ज्योति । मैं गौओं (दुग्धादि पोषक पदार्थों), अश्वों (चार पहिया वाले वाहनों), सेवकगणों के साथ-साथ (से युक्त होकर) परिवार वाले (पुत्र-पौत्रादि से युक्त) होऊं।
भग = योनि. भगवान = योनि को तृप्त करके उसपे स्वामित्व कायम करने वाला. भगवती= योनि वाली, योनि की स्वामिनी. ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि और भगवान कहलाये लोग भी सम्भोग को साधे. मुर्ख या गंदे नहीं थे वे. अगर आप अपने सम्भोगसाथी में प्रकृति-परमात्मा को नहीं उतार पाए तो कितने ही जन्मों तक कहीं भी भटक – घिसट लो, कुछ नहीं मिलेगा. बात क्षमता की है. अगर आप सम्भोग साधना की क्षमता से रहित हैं तो अद्वैत या अर्धनारीश्वर का स्टेज आपके लिए असंभव है. आप यह क्षमता हमारी हेल्प से विकसित कर सकते हैं, बिना कुछ दिए.
देने वाले अनेक हैं, सब से अधिक देने वाला एक है। यह एक ही सूर्य है इसे इन्द्र कहते हैं। इन्द्र आँख है, इन्द्र ज्योति है, इन्द्र अग्नि है। जो इससे मांगता है, उसे अन्य किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं रहती। फिर इसी ज्योति से क्यों न माँगा जाय ? क्योंकि यह भूरिदा है, भूरिधा है।
भूरिदा भूरि देहि नो
मा दभ्रं भूर्या भर
भूरि धेदिन्द्रदित्सति॥
~ऋग्वेद (४ । ३२ । २०)
भूरि धा इत् इन्द्र दित्सति = हे इन्द्र। तू बहुत रखते हो, देने की इच्छा भी रखते हो। भूरिदा भूरि देहि नः = बहुत देने वाले हो हमें खूब दो। मा दभ्रम् = कमनहीं। भूरि आ भर= अमित दान से तृप्त करो।
भूः + इव= भूर् इव =भूरिव =भूरि ,वकारस्य √•लोपः भूरि का अर्थ है, भूमि/पृथिवी जैसा। विस्तृत मात्रा में अधिक अर्थात् बहुत। भूरि= पृथिवी सदृश विपुल दाता, सर्वदाता, अमित अतिशय॥
मार्गशीर्ष अस्या की रात में मैंने भूरिदा भूरिया अग्नि को हविष्यान्न की आहुति दी। उन्होंने इसे हँसते हुए स्वीकार किया।
ब्राह्मण (ब्रह्म में रमण करने वाला, ब्रह्मविद) मुख अग्नि है। अग्नि का उपासक ब्राह्मण है। अग्नि =ब्राह्मण। पार्थिव अग्नि में वा ब्राह्मण के मुख में हवन करने का फल एक ही है। यह तृप्तिदाता है। यह तृप्त करने वाले को तुष्ट करता है। यह सब प्रकार के धनों को देता है।
“सं समिद् युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ।
इडस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर।”
~ ऋग्वेद (१० | १९१ । १)
•समिद् (सम्+इ गती)= सर्वत्रगतिशील, सर्वव्यापी।
सम्-युवसे (सम्+ यु मिश्रणे अमिश्रणे वा) = सबको अपने में मिलाने वाले जलाकर भस्म बना देने वाले, अग्निमय करने वाले, द्रव्य के अवयवों को उनसे पृथक् करने वाले अर्थात् अति सामर्थ्यवान्।
वृषन् (वृष् वर्षणे) = प्रकाश एवं ताप की वर्षा करते हुए ज्ञान एवं तेज प्रदान करने वाले।
विश्वानि अर्यः आ = सम्पूर्ण श्रेष्ठ लक्ष्मी स्वरूप, सर्वशुभ धन।
अव् + ड + टाप् = आ = लक्ष्मी, चञ्चला, अव् गतौ !
इङः पदे = वाणी की गति में, जिह्वा में स्थित अमोद्य वाक् रूप।
समिधि-असे = ईधन समिधादि में विद्यमान।
सः = वह तू सूर्यरूप।
अग्ने = हे अग्नि !
वसूनि नः आ भर = सब प्रकार के धनों से हमें परिपूर्ण कर।
मन्त्रार्थ : हे सर्वव्यापी, सबको परस्पर मिलाने एवं पृथक् करने वाले, प्रकाश और ताप को देने वाले, वाणी में निवास करने वाले, समिधादि में गुप्त रूप से रहने वाले, सम्पूर्ण श्रेष्ठैश्वर्यो के विग्रह, सूर्य रूप अग्नि देव ! आप हमें सब धनों (लौकिक अलौकिक सम्पत्तियों) से तृप्त करें।
अग्नि से बड़ा जैसे कोई दाता नहीं है, वैसे ही उससे बढ़कर कोई रक्षक नहीं है। अपनी रक्षा के लिए मैं अग्नि की गुहार लगाता हूँ।
“पाहि नो अग्ने रक्षसः
पाहि धूर्तेरराव्णः|
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो
बृहद्भानो यविष्ट्य॥”
~ऋग्वेद (१ । ३६ । १५)
हे अग्ने, आप दुष्टविचार वालों (राक्षसों से हमारी रक्षा करें। आप ठगों (भूतों) से मेरी रक्षा करें। आप न देने वाले उधार दिये हुए धन को न देने/ वापस करने वाले (राव्णों) से हमारी रक्षा करें। आप हिंसकों (रोषतों से हमारी रक्षा करें। आप मारने की इच्छा रखने वाले विद्यांसों से हमारी रक्षा करें। हे बृहद्भानो (महान् चमक वाले)। हे यविष्ठ्य (सब से छोटे, अणुरूप, अन्तर्यामी) आप मेरी भलीभाँति रक्षा करें।
धूर्ति = हिंसा का स्वभाव, दुष्टता शठता। धूर्ति →धूर्तेः शाष्ठ्यात् = दुष्टतापूर्ण व्यवहार से।अराव्णः= अदातुः = जो लेता है किन्तु देना नहीं चाहता, ऐसे लोगों से ऋण लेकर उसे वापस न करने वालों से।नञ् + रा दाने + व निप् = अरावणः। रिष् हिंसायाम्→रिषतः = हिंसकात् हत्यारों से, पापियों से। जिघांसतः = हन्तुमिच्छत मारने की इच्छा वाले से क्षतिकरों से ।रक्ष पालने + असुन् रक्षस् → रक्षसः = रक्षा करने के साधनों से राक्षसात्। रक्षस्= मच्छर, रोग के कीटणु विषैले दाँतों वाले प्राणी पाप प्रवृत्ति के लोग अमर्यादित वाममार्गी, लोलुप लम्पट वलात्कारी, डकैत अपहर्ता, अनाचारी, तामसी प्रवृत्ति वाला। रक्षसः = कुसित लोगों से।
हमारा रक्षक सर्वभक्षक अग्नि बृहद्भानु एवं यविष्ठ्य है। यह बृहत्तम एवं अणुतम होने से सर्वत्र सर्वदा है। इस से अधिक सुलभ रक्षा का साधन क्या हो सकता है ?
जिसमें भग है, वह भगवान् है। जहाँ भग है, वहाँ भगवान् है। जब तक भग है, तब तक भगवान् है। जहाँ तक भग है, वहाँ तक भगवान् है। भग से भगवान् है, भगवान से भग है। आकाश में भग है, आकाश भगवान् है। आकाश में ज्योतिर्मय पिण्ड हैं। इनमें भग है वा ये भगरूप हैं। इसलिये ये सब भगवान् हैं। इन सब भगवानों का आश्रय होने से शून्य को महाभगवान् कहते हैं।
भगवान् अनेक हैं, महाभगवान् एक है। अनेक भगवान् ससीम हैं। एक महाभगवान् शून्य ही असीम अपार अनादि अनन्त अजन्मा अरूप अनूप है।
एक-एक तारा (सूर्य) एक-एक भगवान् है। प्रत्येक भगवान् अपने अपने विश्व (सौर परिवार) का स्वामी है। इस दिव्य भगवान् सूर्य से अनेकों पार्थिव भगवान् हुए। पृथ्वी चन्द्रमा भौम बुध गुरु शुक्र शनि_आदि पार्थिव भगवान हैं। इन्हें जो भगवता प्राप्त हुई है, उसका दाता सूर्य है। पृथिवी जीव भगवान् है। इस जीव भगवान् से चर-अचर भगवान् उद्भूत हुए हैं। सभी प्राणी भगवान्। मनुष्य पशु खग सर्प कीट जलचर आदि भगवान् हैं। पर्वत से धूलकण तक तथा हाथी से चींटी तक सब भगवान् हैं। तरु से तृण पर्यन्त सस्य भगवान् है मानव देह लघु ब्रह्माण्ड है। इसमें नेक सृष्टियाँ हैं। इनमें अनेक जीव है, जो कि एक-एक कोशीय से लेकर बहुकोशीय हैं। इनके लिये यहशरीर पृथिवी है। ये सब इससे उत्पन्न होकर इसी में मिलते (मरते) रहते हैं, इसी से पलते हैं। इन सीमित भगवानों की संख्या का पार नहीं पाया जा सकता। जैसे पृथ्वी पर उद्भिज प्राणी हैं, वैसे शरीर पर स्वेदज जीव रहते हैं। इन जीवों में भी जीव रहते हैं। सृष्टि में सृष्टि सृष्टि के बाहर सृष्टि, सृष्टि ही सृष्टि है। ये सभी सृष्टियाँ भगवान् हैं। इन सब में प्राण है। प्राण सूर्य से है। इसलिये सूर्य इन सब सृष्टियों में प्राणरूप से विद्यमान है।
सूर्य की इस प्राण रूप भगवत्ता से ये सब भगवान् हैं। भगवान् की संतति भगवान् है। लघु से लघुतर तथा लघुतम सृष्टि का अन्त नहीं है। महत् से महत्तर तथा महत्तम सृष्टि का पार नहीं। इन अगण्य सृष्टियों के भगवान् मिथ्या हैं। मिथ्या भगवानों की सत्यता मैं देखता हूँ।
हर एक विश्व में केवल एक सत्य भगवान् है। सूर्य सत्य भगवान् है। भगवान् द्विखण्डात्मक है। इन दो खण्डों को एक दूसरे से पृथक् नहीं समझना / जानना है। भगवान् अखण्ड है। इस अखण्ड तत्व में मृदु-कठोर / चर-अचर/ स्त्री-पुरुष गुण है। इसलिये यह द्वैध है। इस द्वैधता के कारण उसे लक्ष्मी नारायण/ सीताराम / राधाकृष्ण गौरीशंकर कहते हैं। इसे स्पष्टता से यों समझना बहाये। सूर्य एक सत्य भगवान् है। इस भगवान् प्रकाश एवं उष्मा/ दीप्ति एवं ताप अपृथक् होकर दो प्रभाव वाले हैं। प्रकाश से देखा जाता है, ज्ञान होता है। उष्मा से जलन होती है। दीप्ति वा प्रकाश सौम्य भाग है। उष्मा वा ताप कृच्छ्र भाग है। सौम्य भाग स्त्री है। कुछ भाग पुरुष । दीप्ति = लक्ष्मी/सीता/राधा/गौरी ताप = नारायण / राम / कृष्ण / शंकर सूर्य की दीप्ति एवं ताप सर्व अथक हैं इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं कि लक्ष्मीनारायण / सीताराम / राधाकृष्ण/ गौरीशंकर (अर्धनारीश्वर) परस्पर अपृथक् हैं। उष्मा प्रकाश है, प्रकाश उष्मा है का अर्थ है- शंकर पार्वती है, पार्वती शंकर है; राम जानकी है, जानकी राम है, कृष्ण रुक्मिणी है, रुक्मिणी कृष्ण है; विष्णु लक्ष्मी है, लक्ष्मी विष्णु है। इस प्रकार भगवान् के द्वैधीभाव की उपासना लोक में न जाने कब से होती चली आ रही है। यह द्वैत वास्तव में अद्वितीय है।
भगवान् ने मनुष्य को बनाया है, मनुष्य ने उस भगवान् को बनाया है-लाकर खड़ा किया है। जैसा मनुष्य है, वैसा उसका भगवान् है। सबके अपने अपने भगवान है। आस्था एवं विश्वास की नींव पर ये सब इनके भगवान् टिके हैं।
अपनी ऊहा से लोगों ने भगवान गढ़ा है, मूर्तरूप दिया है, निराकार-साकार, काला गोरा, अकेला स्त्रीवाला, निकट दूर का, भीतर-बाहर का ऐसा-वैसा आदि कहा/ माना है। मनुष्य ने अपनी वासना का आरोप भगवान् में किया है।
जातीय प्रभाव, पारिवारिक संस्कार भौगोलिक परिवेश सामाजिक परिस्थिति राष्ट्रीय चेतना भौतिक अवस्था (उन्नति-अवनति) एवं व्यक्तिगत अनुभव से मनुष्य ने भगवान् का निर्माण किया है। ऐसा उसने स्वार्थ में किया है।
उसे भगवान् की आवश्यकता है। साहित्य कला शिल्प प्रथा उत्सव, कर्मकाण्ड सब कुछ उनके इन भगवानों से ओतप्रोत है। मनुष्य भगवान् को मानता है, अतएव भगवान् है। मनुष्य भगवान् को अस्वीकारता है, इसलिये भी भगवान् है। मनुष्य को भगवान् से अपेक्षाएँ हैं। इस कारण वह भगवान् को बुलाता है, खोजता है, पकड़ लेने का दावा करता है। मनुष्य भगवान् को ले कर झगड़ता है। वह भगवान् की ओर भागता है, भगवान् उसकी ओर भागता है।
यह खेल कब से चल रहा है ? क्या पता ! इस खेल का अन्त नहीं है। स्वार्थी मनुष्य की अनेकों अपेक्षाओं को पूरा करने के भय से भगवान् छिपा हुआ है। मनुष्य भगवान् को मूर्ख बनाना चाहता है, भगवान् ऐसे मनुष्यों को मूर्ख बना देता है। अस्वार्थी निश्छल प्रेमी जनों के पास भगवान् प्रकट रहता है।