डॉ. विकास मानव
आत्मा पर आश्रित जगत् एक भौतिक रचना है, जिसमें शरीर, मन-बुद्धि और कर्म भी सम्मिलित हैं। कर्म के दो रूप हैं, पुरुषार्थ और प्रारब्ध। अज्ञान की अवस्था में जीव इन्हीं के जाल में पड़ा रहता है।
ज्ञानी के लिए न प्रारब्ध का बंधन है और न पुरुषार्थ की आवश्यकता।
विधेः प्रयत्नस्य च कोऽपिवाद- स्तयोर्द्वयोर्मूलमजनतां स्यात
विधेः प्रयत्नस्य च मूलवस्तु
सञ्जानतां नैव विधिर्न यत्नः।।२१।।
प्रारब्ध (विधि) और पुरुषार्थ (प्रयत्न) सम्बंधी किसी प्रकार का विवाद उन्हीं के लिए सम्भव है जो इन दोनों के मूलस्थान को नहीं जानते। प्रारब्ध और पुरुषार्थ के मूल को सम्यक् प्रकार से जानने वाले के लिए न प्रारब्ध है और न ही पुरुषार्थ।
{विधि-प्रयत्न का वाद. मूल को जो न जानते वे करते।
विधि-प्रयल कुछ नहीं, मूल को जो जानें ; माना करते।}
व्याख्या :
आत्मा का कर्म से कोई सम्बंध नहीं है। वह न कर्ता है, न भोक्ता। उसके लिए कर्म का कोई बंधन नहीं है। देखिये,श्रीमद्भगवद्गीता:
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते।। (३.१७)
अर्थात्:
आत्मा में ही रमण करने वाले और आत्मा में ही तृप्त और सन्तुष्ट रहने वाले मनुष्य के लिए किोई कर्त्तव्य नहीं है।
नैव तस्य कृतेनाथों नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।। (३.१८)
अर्थात्:
उस पुरुष को इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही।
“(करने या कि नहीं करने से लेना_ देना नहीं उसे)” इसका सम्पूर्ण प्राणियों में भी किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का संबन्ध नहीं रहता।
जब आत्मज्ञानी का कर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, तो प्रारब्ध और पुरुषार्थ से भी उसका कोई संबन्ध नहीं। मनुष्य वर्तमान में जो कर्म करता है, वह उसका पुरुषार्थ है। वही कर्म परिपक्व होकर जब अपना फल देने आ जाता है तो उसे प्रारब्ध कहते हैं।
अवस्था भेद से पुरुषार्थ कर्म ही प्रारब्ध कर्म है। प्रारब्ध भी अगले पुरुषार्थ पर अपना प्रभाव डालता है। कर्म का चयन, उसमें रुचि और उत्साह प्रारब्ध के अनुकूल ही होता है।
मनुष्य शरीर में जीव को कर्म करने की कुछ स्वतंत्रता भी होती है। उसी के बल पर वह भविष्य में बनने वाले अपने प्रारब्ध पर भरोसा रख कर प्रयत्न करता रहे, तो भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल बन सकता है। कुत्सित प्रारब्ध अपना फल देकर नष्ट हो जायेगा।
प्रारब्ध और पुरुषार्थ का यह विचार जीव के लिये है। उसी के लिए इसका उपयोग और महत्व है। किन्तु उसे भी सदा इसी जाल में फँसे रहना उचित नहीं है।
उसका कल्याण इसी में है कि वह सर्वाधिष्ठान आत्मा का अन्वेषण करे और कर्मजाल से मुक्ति प्राप्त करे।
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