डॉ. विकास मानव
असत् से सत् है। सत् से असत् है। एक से अनेक है। अनेक से एक है। पुरुष से प्रकृति है। प्रकृति से पुरुष है। अन्धकार से प्रकाश है। प्रकाश से अन्धकार है। अभाव से भाव है। भाव से अभाव है। यह द्वैधीचक्र है।
असत् = एक = प्रकृति = अभाव = अज्ञान (अन्धकार) सत् पुरुष = अनेक = भाव = ज्ञान (प्रकाश)।
“एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश।
स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे।”
~ऋग्वेद (१०।११४।४)
पर्ण नाम किरण का। संसार को हराभरा करने से प्रकाश को पर्ण कहते हैं। सुपर्णः = बहुत अधिक वा सुन्दर किरणों वाला सूर्य । इण् गतौ → एकः = चलनशील सूर्य। समुद्रम् = आकाश को। स आविवेश = वह सूर्य अधिकार में कर लेता है । स इदं विश्वं भुवनम् = वह सूर्य इस पूरे संसार को विचष्टे : देखता रहता है।
“सुपर्णः विप्राः कवयो वचोभिरेकं
सन्तं बहुधा कल्पयन्ति।”
~ ऋग्वेद (१०।११४।५)
सुपर्णः = (वह) अमित किरणों (प्रकाश) वाला है। सन्तं = सूर्यं । सम् तनोति प्रकाशम् । एकं सन्तं = चलते रहते हुए अपनी किरणों को सम्पूर्ण आकाश में फैलाने वाले सूर्य को। विप्राः कवयः वचोभिः = सर्वज्ञ विप्रगण अपनी वाणी द्वारा बहुधा कल्पयन्ति अनेक प्रकार से देखते समझते कहते हैं। बारम्बार कहते हैं, उपासते हैं।
सूर्य एक (गतिशील) है, किन्तु संख्या में अनेक है। प्रत्येक तारा एक-एक सूर्य है। इस प्रकार, असंख्य सौरमण्डल हैं जो कुछ भी इन्द्रियगोचर है, मन बुद्धि की पकड़ में है, वह सब सत् है सूर्य सत् है सूर्य देव है, क्योंकि चमकता है। इन असंख्य देवों (सूमों) की उत्पत्ति असत् से होती है।
” देवानां पूर्वे युगेऽसतः सदजायत।”
~ऋग्वेद (१०।७०।२)
” देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत।”
( ऋग्वेद १०।७०।३)
देवानां पूर्वे युगे प्रथमे युगे असतः सत् अजायत =देवताओं / तारों/सूर्योों के उत्पन्न होने से पहले युग प्रकृति और पुरुष के जोड़े) के आरंभ में अर्थात् सृष्टि के समय असत् से सत् उत्पन्न हुआ. इसका अर्थ हुआ असत् पहले है, सतु बाद में जो मन एवं बुद्धि से परे है, इन्द्रियगम्य नहीं है, अकथ्य अवर्ण्य है, वह असत् है।
इस असत् से ही सौरा सत् भासमान हो रहा है। प्रकृति एक है। पुरुष अनेक है। प्रकृति अव्यक्त एवं यक्त दोनों है। पुरुष अव्यक्त है। यही अव्यक्त तत्व असत् है। प्रकृति सत् एवं असत् दोनों है। सौरमण्डल सत् हैं, असत् नहीं यह सब तारामण्डल असत् नहीं सत् हैं। नक्षत्र मण्डल सत् है, असत् नहीं। राशिचक्र असत् कैसे हो सकता है ? इसमें चलने वाले सभी यह पिण्ड सत् हैं। पृथिवी सत् है। इस पर रह रे हम सब सत् हैं।
असत् प्रकृति आदि मध्यान्त विहीन है। सत् प्रकृति आदिमध्यान्त युक्त है। क्योंकि यह व्यक्त है। व्यक्त सीमित है। सीमित माप्य है। पुरुष अव्यक्त होने से असत् है। असत् असीमित है। इसलिये पुरुष अनेक है। अव्यक्त प्रकृति एवं अव्यक्त पुरुष दोनों असत् होने से अगम, असीम हैं। इसलिये अमाप्य वा अवर्ण्य हैं।
योनि के द्वारा जातक के लोक व्यवहार का पता चलता है। एक योनिजात जातकों में परस्पर पूर्ण व्यवहारिक सामञ्जस्य होता है। अतिवैर योनिजात जातकों के व्यवहार परस्पर असामञ्जस्यपूर्ण होते हैं।
“चतुर्दशान्ये महिमानो अस्य।”
(ऋग्वेद १०।११४।७)
द्युलोक में तेरा जन्म हुआ है। [तेरा = इन नक्षत्रों का। परम अन्तरिक्ष में इनकी नाभि है। पृथिवी पर इनकी योनि सचल है।
“ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि
सीमतः सुरुचो वेन आवः।
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः
सतश्च योनिमसतश्च वि वः॥”
(सामवेद- ३२१ । , यजु. १३ । ३, अथर्व ४ । १ । १,५ । ६ । १ ।)
पुरस्तात् प्रथमं ब्रह्म जज्ञानम् = पूर्व दिशा से श्रेष्ठ ब्रह्म अपने को प्रकट करता है। लग्न नक्षत्र का प्राकट्य / उदय पूर्व दिशा से ही होता है।
सीमतः सुरुच वेन: वि-आ-वः सीमित उत्तम रोचमान नक्षत्रों के रूप में वह वेन (कान्तिमान् ब्रह्म अपनेको सम्यक् रूप में प्रकट करता है।
सः अस्य (वेनस्य) उपमा = वह (ब्रह्म) इस (नक्षत्रमण्डल) की अन्तर्प्रकृति है।[ उप + मा (प्रकृति) मूला प्रकृति । वेन वेनति कान्तिकर्मा = निघण्टु २ । ६, वेन = नक्षत्र चक्र |]
सतः च असत: च वुध्याः वि वः =सत् से और असत् अर्थात् मूल प्रकृति से बुध्न्या (शरीरों) का उद्भव होता है।[ बन्ध् बन्धने→बुध्न्य = बन्धन, शरीर जिसमें चौदह करण परस्पर बँधे रहते हैं। १० इन्द्रियाँ + मन बुद्धि प्राण अहंकार = १४ करण। बुध्ने भावः बुध्न्यः = जीव को बाँधने वाला यह = उपमा = = शरीर ]
योनिम् विष्ठाः = वह / यह मूला प्रकृति अपने विराट शरीर वा सूक्षम शरीर अर्थात् योनि को अनेक रूपों में स्थापित करती है। [यु युनाति बन्धने + नि = योनि । तीनों गुणों को परस्पर बाँधने वाली व्यक्त प्रकृति का नाम योनि है। वि + स्था तिष्ठाति = विष्ठा। चौदह भुवन वा योनियाँ ही विष्ठाः विभिन्न रूपों में स्थित निर्मित स्थापित हैं ।] मूल प्रकृति ही योनि/ वृहद् योनि ब्रह्मयोनि है। इससे समस्त योनियाँ प्रादुर्भूत होती हैं। समस्त जातकों का स्वभाव १४ योनियों में सीमित है। ये योनियाँ ही भुवन हैं।
जो कुछ सामने है, सूर्यादि चमकने वाले पिण्ड, यह संसार तथा हम सब असत् से उत्पन्न हुए हैं।
“बृहन्तो नाम ते देवा येऽसतः परि जज्ञिरे।
एकं तदंगं स्कम्भस्यासवाट परो जनाः।।”
(अथर्व १०।७।२५)
ते वृहन्तः देवाः = वे बड़े-बड़े देव (चमकने एवं चलने वाले पिण्ड) ग्रहगणादि।
ये असतः परि जज्ञिरे = जो कि असत् (अव्यक्त प्रकृति) से पैदा होते हैं। तद् एकम् नाम अङ्गम् = उस एक नाम की त्रिगुणात्मिका मूला प्रकृति को। जनाः स्कम्भस्य परः आहु विद्वज्जन स्कम्भ (पुरुष) के परे कहते हैं। असत् (आहुः) – अव्यक्त होने से पुरुष (चेतन तत्व/स्वम्भ) असत् (अवाङ्मनसगोचर है।