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वैदिक दर्शन : स्त्री, देह-वास्तु एबं तृप्ति 

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          डॉ विकास मानव 

जीव को जन्म लेने के लिये अपने गर्भ में आकर्षित करने से स्त्री हिरण्यगर्भा है। जीव नवमास तक स्त्री के उदर में शयन करता है। उसे आश्रय प्रदान करने वाली स्त्री को देवी कहा गया है। 

      प्रकृति ब्रह्म है। यह मनुष्य को अपने में खींचती है, बांधती है। यह उसे मुक्त भी करती है। मुक्त करके यह पुनः उसे बाँधती है। पुरुष उस प्रकृति के बन्ध एवं मोक्ष का पात्र है। प्रकृति का यह खेल है। यह उसे ही विदित है। जीव तो उसकी शक्ति और अपने कर्म के चक्र में फँसा रहता है। मूर्ख जीव अपने को स्वतन्त्र और शक्तिमान समझता है। यह स्वतन्त्रता एवं शक्तिमत्ता उसे प्रकृति से मिली है।

सांख्यशास्त्र का मूल मंत्र है-प्रकृति एक है। पुरुष अनेक हैं। प्रकृति व्यक्त एवं अव्यक्त है। पुरुष पर्णतः अव्यक्त है। व्यक्त होने के लिये यह प्रकृति का आश्रय लेता है। प्रकृति की कृपा से इसे देह को प्राप्ति होती है। स्वी को प्रकृति समझना ठीक है। स्त्री द्विस्वभाव होती है, पुरुष एक स्वभाव। स्त्री में चञ्चलता है, पुरुष में स्थिरता है। चञ्चल को स्थिर पुरुष कैसे पकड़ (जान) सकता है? अतः पुरुष के लिये स्त्री सदैव रहस्यमय है। शक्ति उपासना का यही हेतु है।

“शारीरमिति कस्मात्? अग्नयो (हृयत्र त्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्निः कोष्ठाग्निरिति। तत्र कोष्ठाग्निर्नामाशित पौतलेाचोष्यं पचति दर्शनाग्नी रुपाणां दर्शनं करोति। ज्ञानाग्निः शुभाशुभं च कर्म विन्दति। त्रीणि स्थानानि भवन्ति मुखे आहवनीय उदरे गार्हपत्यो हृदि दक्षिणाग्निः आत्मा यजमानो मनो बह्मा लोभादयः पशवो धृतिर्दीक्षा संतोषश्च बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि हवींषि कर्मेन्द्रियाणि शिरः कपाल केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदिकपालं शिरः षोडशादन्तपटलानि सप्तोत्तरं मर्म शर्त साशीति संधिश सनवा सप्त शिराशतानि पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि च ह वै त्रीणि शतानि षष्टीः सार्धंचतस्रो रोमाणि कोटयो हृदयं पलान्यष्टौ द्वादश पलना जिह्वा पित्तप्रस्थं कफस्याढकं शुक्रकुडवं मेदः प्रस्थौ द्वावनियतं मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात्। पैप्पलाद मोक्षशास्त्रं पैप्लादं मोक्षशास्त्रमिति॥”

  ~गर्भोपनिषद् [कृष्ण यजु.].

देह पिण्ड का शरीर नाम कैसे पड़ता है ? ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि एवं जठराग्नि के रूप में अग्नि इसमें आश्रय लिये रहता है। इनमें जठराग्नि वह है, जो खाये, पिये, चूसे, चाटे हुए पदार्थों को पचाता है। दर्शनाग्नि वह है जो रूपों को दिखलाता है। ज्ञानाग्नि वह है, जिससे शुभाशुभ कर्मों का ज्ञान होता है। अग्नि के शरीर में तीन स्थान हैं। आहवनीय अग्नि मुख में रहता है, गार्हपत्य अग्नि उदर में रहता है, दक्षिणाग्नि हृदय में रहता है। 

     आत्मा यजमान है। मन बह्मा है। लोभादि पशु हैं। धृति और संतोष दीक्षाएँ हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञ को पात्र हैं। कर्मेन्दियाँ रवि (हवन सामग्री) हैं। सिर कपाल है। केश दर्भ (कुश) हैं। मुख अन्तर्वेदिका है। सिर चतुष्कपाल है। पाश्र्वदन्तपंक्तियाँ षोडश कपाल हैं। एक सौ सात मर्मस्थान हैं। एक सौ अस्सी सन्धियाँ हैं। एक सौ नौ स्नायु हैं। सात सौ शिराएँ हैं। पाँच सौ मज्जाएँ हैं। तीन सौ साठ अस्थियों हैं, साढ़े चार करोड़ रोए हैं। आठ पल भार हृदय है।

      द्वादश पल भार जिहा है। प्रस्थ भार मात्र पित्त है। आढक भार मात्र कफ है। कुडव भार मात्र शुक्र है दो प्रस्थ भार मात्र मेद है। इसके अतिरिक्त शरीर में आहार के परिमाण से मलमूत्र का परिमाण अनियमित होता है। यह पिप्पलाद ऋषि के द्वारा प्रकट किया हुआ मोक्ष शास्त्र है।

【पल =तोला = १० ग्राम।

 प्रस्थ = सेर =४६० ग्राम।

आढक = ढैया पाव ११२६ ग्राम।

कुडव=पाश =११२- १/२ ग्राम।】

 शरीररूपा शरीर दात्री माता प्रकृति अतीव शक्तिमती एवं महान है। यह जीव को शरीर देकर उससे अपना यह शरीर जीवन भर ढोवाती है। जीव शरीर बोझ को सब दिन होता फिरता है। जीव मानो प्रकृति का वाहन है। वाहन बना जीव अपने को नित्य मुक्त बुद्ध एवं श्रेष्ठ समझे, यह कितना हास्यास्पद है। 

    पुरुष को लताड़ने वाली प्रकृति है। ब्रह्मा विष्णु शिव आदि देहधारी जीव प्रकृति के कृपा कटाक्ष के पात्र हैं। यह प्रकृति इन सब को नचाती है। ये सब तृण से ब्रह्मा पर्यंत नाच रहे हैं। ब्रह्मा से यह सृष्टि रचवाती है, विष्णु से इसका पालन करवाती है, रुद्र शिव से ताण्डव नृत्य करा कर इस का संहार करती है। 

     जीव को मुक्ति नितान्त असम्भव है। यह प्रकृति से कभी विलग होता ही नहीं। जब तक शरीरी है, तब तक तो निस्संदेह बँधा है। शरीर से मुक्त होने के पश्चात् यह सूक्ष्म शरीरी होता है। इससे मुक्त होने पर वह कारण शरीरी (शुद्ध चेतनावस्था) में होता है। यह कारण शरीर रहता कहाँ है 7 आकाश में आकाश प्रथम सूक्ष्म भूत है।

      आकाश से परे तो कुछ है ही नहीं। अतः आकाश से कोई मुक्त नहीं है। आय से सभी बंधे हैं। मोक्ष को बात करना हो व्यर्थ है। प्रकृति की तीन रस्सियाँ है जीव पशु हैं। आकाश क्षेत्र है। महतत्व खूंटा है। बाँधने वाली प्रधान (मूला प्रकृति है। रज सत् तम् इन तीन रस्सियों से प्रकृति जीव (पुरुष) को बाँध कर आकाश में चरा रही है। 

 शरीर के पोषण के लिये अन्न चाहिये। हारीत ऋषि के पुत्र महर्षि कमठ के अनुसार अन्न दो प्रकार का होता है।

     *१. प्राकृत अन्न :*

   इससे प्रकृति के २४ तत्वों का पोषण होता है। २४ तत् ५ महाभूत + ५ तन्मात्रा + ५ कर्मेन्दियाँ + ५ ज्ञानेन्दियां + १ मन + १ अहंकार + १ महत्तत्व + १ प्रधान। प्राकृत अन्न ६ रसो वाला तथा भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेख, पेय, पाँच प्रकार का होता है। पञ्चविध पड्स प्राकृत अन्न से शरीर पुष्ट होता है तथा स्वस्थ रहता है। यह अन्न मुख से महण किया जाता है।

*२. परम अन्न :*

 नाना प्रकार के शास्त्रों का श्रवण ही परम अन्न है। परम नाम आत्मा का क्षेत्रज्ञ आत्मा भोक्ता है। परम अन्न को ग्रहण करने वाला मुख दोनों कान हैं। इस अन्न के बिना कोई जीव स्वस्थ नहीं रह सकता। सत्यवाक् पढ़ने सुनने वाले परम अन्न खाते हैं। 

मनुष्य का शरीर एक घर के समान है। इसमें हड्डियाँ ही मुख्य स्तम्भ हैं। नस नाड़ियों के बन्धन से यह बँधा हुआ है। रक्त और मांस रूपी मिट्टी से यह लिपा हुआ है। यह विष्ठा और मूत्र का पात्र है। सात धातु रूपी सात दीवारों से यह अत्यंत दृढ़ बना हुआ है। केश और रोम रूपी घास फूस से यह छाया गया है। मुख ही इस घर का प्रधान दरवाजा है। शेष दो आँख, दो कान, दो नासा छिद्र, लिंग एवं गुदा द्वार-ये आठ खिड़कियाँ हैं। ये इस घर को शोभा बढ़ा रही हैं। दोनों ओष्ठ मुखरूपी द्वार के दो किवाड़ हैं। 

     दाँतों की अर्गला से इस द्वार को बन्द किया गया है। नाड़ी इसकी नाली और पसीने आदि ही इसके गन्दे जल के प्रवाह हैं। देह गेट पित्त और कफ में डूबा हुआ है, जरावस्था और शोक से व्याप्त है। काल की मुखाग्नि में इसकी स्थिति है। राग और द्वेष आदि से यह सदा मस्त रहता है। यह नाना प्रकार के शोक की उत्पत्ति का स्थान है। इसमें आत्मा गृहस्थ के रूप में रहता है। बुद्धि उसकी गृहिणी है। बुद्धि के साथ बिहार करता हुआ आत्मा नाना कर्मों को करता है। 

        यह देह वास्तु है। वास्तुशिल्प का अप्रतिम रूप है। इसमें रहने वाला जीव वास्तुदेव है। इस वास्तुदेव को ही वासुदेव कहते हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय प्रकृति महाभियन्ता एवं यन्त्री है। इसने अगेह जीव को रहने के लिये घर दिया। इस अद्भुत घर का निर्माण यह मात्र नौ महीने में करती है। जीव को यह घर मा प्रकृति किराये पर देती है। जीव जब इस घर की शुद्धि एवं पुष्टि पर ध्यान नहीं देता तो वह उसे घर से बाहर निकाल देती है। इस घर की पुष्टि सत्कर्म से होती है तथा शुद्धि सत्संग से होती है। 

 जैसा यह ब्राह्माण्ड है, वैसा ही यह शरीर है। पैरों का तलवा= पाताल। पैरों का ऊपरी भाग = रसातल। दोनों गुल्फ = तलातल। दोनों पिण्डलियाँ = महातल दोनों घुटने = सुतल दोनों उरू = वितल कटि भाग = अतल लोक। ये सात नीचे के लोक हैं। नाभि भूलोक । उदर = भुवर्लोक। वक्ष = स्वलोंक। प्रौवा = महलोंक। मुख= जनलोक दोनों नेत्र = तपो लोक। मस्तक सत्यलोक । ये ऊपर के सात लोक हैं। यह देह १४ भुवनात्मक है। 

      शरीर में वायु, अग्नि और चन्द्रमा (जल) पांच भागों में विभक्त होकर स्थित हैं। प्राण अपान समान उदान व्यान-ये वायु के पांच भेद (प्रकार) माने गये हैं :

   *१. प्राणवायु :*

   कण्ठ से लेकर मस्तक तक इसका निवास है। उच्छ्वास (ऊपर की ओर स्वाँस खींचना, निःश्वास (बाहर को स्वाँस निकालना) तथा अन्न और जल को शरीर के भीतर पहुंचाना ये तीन प्राणवायु के कर्म है।

*२. अपान वायु :*

   इसका स्थान गुहा (गुदा के ऊपर) है। मल, मूत्र तथा वीर्य का त्याग और गर्भ को योनि से बाहर करना/ निकालना-ये इसके कार्य हैं।

*३. समान वायु:*

    यह वायु खाये हुए अन्न को धारण करती है, उसके विभिन्न अंशों को विलग करती है तथा सम्पूर्ण शरीर में रस सञ्चार करती हुई अबाध गति से विचरती रहती है। इसका निवास सारा शरीर है।

*४. उदान वायु :*

वाक्य बोलना, उद्गार (कण्ठ के भीतर से कुछ निकालना) तथा कर्मों के लिये सब प्रकार के प्रयत्न करना-ये उदान वायु के कार्य हैं। इसका स्थान कण्ठ से मुख तक है।

*५. व्यान वायु :*

   यह वायु सदा हृदय में स्थित रहती है। इस से सम्पूर्ण देह का भरण पोषण होता है। धातु को बढ़ाना, पसीना, लार आदि को निकालना तथा आँखों के खोलने मीचने की क्रिया करना-ये सब व्यान वायु के कार्य कहे गये हैं। 

पाचक, रञ्जक, साधक, आलोचक, भ्राजक-इन पाँच रूपों में अग्नि इस शरीर के भीतर स्थित है। 

 पाचक अग्नि : 

यह सदा पक्वाशय में स्थित होकर खाये हुए अन्न को पचाती रहती है। 

रञ्जक अग्नि : 

यह आमाशय में स्थित होकर अन्न के रस को पित्तादि से रंग कर पचाने योग्य बनाती है।

साधक अग्नि : 

यह हृदय में रहती है, बुद्धि और उत्साह का वर्धन करती रहती है।

. आलोचक अग्नि :

 यह नेत्रों में निवास करती हुई रूप देखने की शक्ति बढ़ाती है।

प्राजक अग्नि :

  यह त्वचा में स्थित होकर शरीर को निर्मल स्निग्ध एवं कान्तिमान् बनाती है।

 क्लेदक, बोधक, तर्पक, श्लेषक, आलम्बक- इन पाँच रूपों में चन्द्रमा का शरीर के भीतर निवास है। 

क्लेदक चन्द्रमा : 

यह पक्वाशय में स्थित होकर प्रतिदिन खाये हुए अन्न को गलाता है।

  बोधक चन्द्रमा :  

यह रसना (जिह्वा) में रहते हुए मधुरादि रसों का अनुभव कराता है। 

 तर्पक चन्द्रमा

यह मस्तक में रहता हुआ नेत्र आदि इन्द्रियों को तृप्ति एवं पुष्टि करता है।

श्लेषक चन्द्रमा : 

 यह सब संधियों में व्याप्त होकर उन्हें परस्पर मिलाये रखता है।

आलम्बक चन्द्रमा : 

यह हृदय में स्थित होकर शरीर के सब अंगों को परस्पर अवलम्बित रखता क वायु है।

इस प्रकार वायु, अग्नि और चन्द्रमा से इस शरीर की स्थिति है। इन्द्रियों के छिद्र, रोमकूप तथा उदर का अवकाश भाग- ये सब आकाश जनित हैं। नासिका, केश, नख, हड्डी, धीरता, भारीपन, त्वचा, मांस, हृदय, गुदा, नाभि, मैदा, यकृत, मज्जा, आंत, आमाशय, शिरा, स्नायु तथा पक्वाशय-इन सबको वेदवेत्ता विद्वानों ने पृथ्वी का भाग / अंश कहा गया है।     

   नेत्रों में जो श्वेत भाग है, वह कफ से उत्पन्न है। नेत्रों का काला भाग वायु से उत्पन्न होता है। श्वेत भाग पिता का तथा काला भाग माता का अंश है। नेत्र में पाँच मण्डल होते हैं-पक्ष्ममण्डल, चर्ममण्डल, शुक्ल मण्डल, कृष्ण मण्डल, दृड्मण्डल। नेत्र के दो भाग हैं- अपांग और उपांग। 

     नासिका के मूल से लगा हुआ नेत्रों का किनारा अपांग तथा अन्तिम किनारा उपांग कहलाता है। जिनके नेत्रों में परम छवि बसती है, वे धन्य हैं। 

नयनन की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।

 पलकन की चिक डारि के प्रियतम लिया सुलाय॥

        ~ कबीर.

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