अग्नि आलोक

वैदिक दर्शन : जन्मकुण्डली निर्माण गणित

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पवन कुमार, ज्योतिषाचार्य

आज ज्योतिषविद्या पर तरह-तरह के सवाल उठाये जाते हैं. शक़ किए जाते हैं. जन्मकुंडली वेगैरह को बकवास बताया जाता है.
इसके लिए मूलत: हम ज्योतिषी ही जिम्मेदार हैं. आज हम ज्योतिष के बिद्यार्थी बनते ही नहीं, उसकी अर्थी सज़ाकर खुद को सिद्ध ज्योतिषी घोषित कर देते हैं.
जहाँ तक जन्मकुंडली के फलादेश के गलत सावित होने की बात है : जन्म समय सही नहीं नोट किया गया होता, एक बात. दूसरी बात यह की विधिसम्मत तरीके से अमूमन जन्मकुंडली बनाई ही नहीं जा रही है. अब तो कम्प्यूटर बाबा के कोष से फटाफट प्रिंट आउट. खैर…
यहाँ हम जन्मकुंडली निर्माण की वैदिक विधि पर प्रकाश डाल रहे हैं.

आदि भारतीय परम्परा के अनुसार जन्मकुण्डली निर्माण के क्रम में सर्वप्रथम इष्टकाल की आवश्यकता होती है। तत्पश्चात् भयात, भभोग, ग्रहस्पष्ट, लग्न, भावस्पष्ट, आयुष्य और अन्त में दशान्तर्दशादि का विचार होता है.
इष्टकाल :
सूर्योदय से लेकर जन्मकाल तक का समयान्तर इष्टकाल कहलाता है।
२४ घण्टे को तीनखण्डों में विभक्त कर तीनों खण्डों में अलग- अलग विधि से इष्टकाल साधन किया जाता है।
सूर्योदय से लेकर दिन में १२ घण्टा ६० मिनट तक जन्म हो तो जन्मसमय में सूर्योदयकाल को घटाकर शेष को ५ से गुणाकर २ से भाग देने पर इष्टकाल प्राप्त होता है।
एक बजे दिन से लेकर रात्रि १२घं. ६० मि. बजे तक जन्म हो तो जन्म समय के घण्टा में १२ घण्टा जोड़ कर उसमें सूर्योदयकाल घटा कर शेष में ५ से गुणा कर २ से भाग देने पर इष्टकाल प्राप्त होता है।
रात्रि के एक बजे से अगले सूर्योदयकाल तक जन्म हो तो जन्म समय के घण्टे में २४ घण्टे जोड़ने के बाद उसमें सूर्योदयकाल घटाकर शेष में ५ से गुणा कर २ से भाग देने पर इष्टकाल प्राप्त होता है।
कुछ पञ्चाङ्गों में सूर्योदय काल स्थानीय एवं कुछ पञ्चाङ्गों में सूर्योदय काल स्टैण्डर्ड समयों का होता है। यदि स्थानीयसमय का सूर्योदयकाल हो तो सूर्योदय में रेलवे अन्तर का संस्कार करने पर स्टैण्डर्डसमय का सूर्योदय होगा। इष्टकाल साधन में स्टैण्डर्डसमय के सूर्योदय का ही प्रयोग होता है।
विशेषकर ऋषीकेश पञ्चाङ्ग में स्थानीयसमय का सूर्योदय होता है। जैसे १ जुलाई २०२३ को स्थानीय सूर्योदय ५/१३ है तथा रेलवे अन्तर + १ = अतः स्टैण्डर्ड सूर्योदय = ५/१४ हुआ।
उदाहरणरार्थ :

  1. जातक का जन्म-दिनांक १ जुलाई २००७ को दिन में १०/३० बजे हुआ हो तो इष्टकाल क्या होगा?
    जन्म समय – १०/३० दिन का उस दिन का सूर्योदय समय ५/१४ घटाने पर ~
    जन्मसमय- १०/३०
    सूयोंदय- ५/१४
    शेष ५/१६,
    (५/१६) × ५÷२ = (२५/८०) ५+२ = (२६/२०) २ = १३/१०
    प्राप्त भागफल = १३/१० = इष्टकाल आया.
  2. यदि किसी जातक का जन्म दिनांक १ जुलाई २००७ को दिन में ७/ ३० पर हुआ हो तो इष्टकाल क्या होगा?
    जन्म समय ७/३०
    नियमानुसार १२/०० जोड़ा गया
    योगफल १९/३०
    सूर्योदय ५/१४
    शेष १४/१६ (१४/१६) × ५÷२ = (७०/८०) २ = (७१/२०) + २ = ३५/४०
    घटी ३५ पल ४० इष्टकाल प्राप्त हुआ।
    ३. जातक का यदि जन्म १ जुलाई २००७ को रात्रि ३/३० पर हुआ हो तो इष्टकाल क्या होगा ?
    जन्म समय ३/३०
    नियमानुसार २४/०० जोड़ा गया
    योग २७/३०
    सूर्योदय ५/१४
    शेष २२/१६
    (२२/१६) × ५÷२ = (११०/८०) ÷२ = (१११/२०) ÷२ = ५५/४०
    इष्टकाल = घटी ५५ पल ४० इति।

भयात भभोग :
भयात-भ = नक्षत्र, यात =बीता हुआ अर्थात् वर्तमान (जन्मकालिक) नक्षत्र के प्रारम्भ से जन्मकाल तक वर्तमान नक्षत्र का बीता हुआ मान भयात कहलाता है।
भभोग-भ = नक्षत्र, भोग = सम्पूर्णमान अर्थात् वर्तमान (जन्मकालिक) नक्षत्र का सम्पूर्णमान भभोग कहलाता है।
भयातभभोग साधन में सामान्य बातें- भयात भभोग के साधन में कई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है, परन्तु समान्य नियम यही रहता है कि जन्मनक्षत्र के पूर्व के नक्षत्र के (गतनक्षत्र के) मान को ६० घटी में घटाकर, शेष में इष्टकाल जोड़ने पर भयात एवं शेष वर्तमाननक्षत्र का मान जोड़ने पर भभोग होता है।
वर्तमान नक्षत्र :
जन्मकाल में चन्द्र जिस नक्षत्र पर रहता है उस नक्षत्र को वर्तमान नक्षत्र कहा जाता है।
गत नक्षत्र :
वर्तमान नक्षत्र के पूर्ववर्तीनक्षत्र को गत नक्षत्र कहते है।
भयात भभोग में विशेष :
यतः भयात, भभोग का ही एक भाग होता है इसलिए भयात भभोग से अधिक नहीं होता है।
भभोग का मान प्राचनीमत में न्यूनतम ५४ घटी एवं अधिकतम ६७ घटी तथा आधुनिकमत मे न्यूनतम ५० एवं अधिकतम ६७ घटी तक रहता है।
भयात भभोग साधन में सामान्यतः ४ स्थितियों होती हैं :
१. जन्म एवं सूर्योदय एक ही दिन एक नक्षत्र में होना.
२. एक ही दिन जन्म एवं सूर्योदय पृथक् पृथक् नक्षत्र मे होना.
३. नक्षत्रों की वृद्धि होना.
४. नक्षत्रों के क्षय होना.

जन्म एवं सूर्योदय एक ही दिन एक नक्षत्र में होने पर :
जन्म एवं सूर्योदय एक ही दिन एक नक्षत्र में हो तो गतनक्षत्र के मान को ६० घटी में घटाकर शेष में इष्टकाल जोड़ने पर भयात, एवं शेष में वर्तमाननक्षत्र का मान जोड़ने पर भभोग होगा।
उदाहरणरार्थ :
यदि किसी जातक का जन्म १ जुलाई २००७ को दिन में १०/३० पर हुआ हो तो भयात, भभोग क्या होगा?
इष्टकाल १३/१०, वर्तमाननक्षत्र पू०षा का मान ३३/६, गतनक्षत्र मूल का मान ३१/०९, यहाँ पर पूर्वषाढानक्षत्र में ही सूर्योदय एव जन्म हुआ है। क्योंकि १ जुलाई २००७ को पू० षा०, सूर्योदय से पूर्व प्रारम्भ होकर उसी दिन सायं काल ६/२७ बजे तक है। अतः पूर्वाषाढा की वर्तमान एवं मूलनक्षत्र की गत संज्ञा हुई।
६०/००
-३१/९ गतनक्षत्र मूल का मान २८/५१ शेष
२८/५१ शेष + ३३/६ वतर्माननक्षत्र पूर्वाषाढ़ा

भयात भभोग साधन विशेष :
नक्षत्रों की वृद्धि होने पर भयात भभोग साधन में सामान्यतः ३ परिस्थितियाँ बनती है :
【क]. जन्मनक्षत्र के प्रारम्भ से प्रथमसूर्योदय तक
【ख.] प्रथम सूर्योदय से द्वितीयसूर्योदय तक
【 ग.] द्वितीय सूर्योदय से नक्षत्र के समाप्ति तक
जन्मनक्षत्र के प्रारम्भ से प्रथम सूर्योदय तक जन्म होने पर भयात भभोग साधन- यदि जन्मनक्षत्र के प्रारम्भ से प्रथम सूयोंदय के मध्य जन्म हो तो ६० घटी में गतनक्षत्र का मान घटाकर शेष में ६० घटी एवं द्वितीय सूर्योदय के बाद नक्षत्रसमाप्ति तक का मान जोड़ने पर भभोग एवं गतनक्षत्र को इष्टकाल में घटाने पर शेष भयात होगा।
जैसें दिनांक २१/२२ अगस्त २००७ को रात्रिशेष ५/३० पर जन्म हो तो भयात भभोग क्या होगा? ५९/४२/३० = इष्टकाल, यहाँ गतनक्षत्र अनुराधा ५९/३७, वर्तमान नक्षत्र ज्येष्ठा है।
भभोगसाधन- भयातसाधन :
६०/०० ५९/४२/३० इष्टकाल
-५९/३७ गतनक्षत्र अनुराधा, -५९/३७/०० गतनक्षत्र का मान
००/२३ शेष ००/०५/३० = भयात +६०/०० प्रथमसूयर्योदय से द्वितीयसूयर्योदय तक मान।
+४/२८ द्वितीयसूर्योदय से नक्षत्र के समाप्ति तक मान
६४/४१ = भभोग
प्रथम सूर्योदय से द्वितीय सूर्योदय तक जन्म होने पर भयातभभोग का साधन- यदि प्रथम सूर्योदय से द्वितीय सूर्योदय तक जन्म हो तो ६० घटी मे गतनक्षत्र का मान घटाकर शेष मे इष्टकाल जोड़ने पर भयात होता है। भभोग साधन क नियम के अनुसार होगा।
जैसे दिनांक २२ अगस्त २००७ को दिन मे १०/३० बजे जन्म हुआ हो तो भयातभभोग क्या होगा।
१२/१० इष्टकाल, गतनक्षत्र अनुराधा ५९/३७
६०/००

ग्रह~स्पष्ट :
ग्रह-रात्रि के समय आकाश का अवलोकन करने पर आकाश में अनेक प्रकाशपिण्ड दिखाई पड़ते हैं। उनमें ग्रह एवं नक्षत्रपिण्डों के साथ ही अन्य पिण्ड भी होते हैं। ग्रह एव नक्षत्रपिण्डों में अन्तर यह होता है कि ग्रहपिण्ड चल एवं नक्षत्रपिण्ड स्थिर रहता है।
ग्रहगति-ग्रहों की गति के विषय मे “दिनं द्वयग्रहान्तरं गतिः” कहा गया है। अर्थात् दो दिनों के स्पष्टग्रहों का अन्तर गति कहलाती है। यह गति पूर्व एव पश्चिमाभिमुखी के भेद से दो प्रकार की होती है। अर्थात जो ग्रह मेषादि (मेष, वृष, मिथुनादि) क्रम से चलता है उन्हे पूर्वाभिमुखीगति एवं मार्गीग्रह कहा जाता है, तथा जो ग्रह मेषादि (मेष, मीन, कुंभादि) उत्क्रम से चलता है उन्हें पश्चिमाभिमुखी गति एवं वक्रीग्रह कहा जाता है।
सूर्य चन्द्र हमेशा मार्गी तथा राहु केतु हमेशा वक्री एवं भौमादि पञ्चताराग्रह समयानुसार मार्गी व वक्री दोनो होते है।
मार्गीग्रहस्पष्ट करने की विधि अगले दिन के स्पष्ट ग्रह में से वर्तमान दिन के स्पष्ट ग्रह को घटाने पर शेष, ग्रह- गति होगी। ग्रहगति में इष्टकाल से गुणा कर ६० का भाग देने पर (बायें तरफ का) अन्तिम लब्धि कला एवं अन्तिम शेष विकला होगा। इस कला विकला को वर्तमान दिन के स्पष्टग्रह में जोड़ने पर तात्कालिक स्पष्टग्रह होंगे।
उदाहरणरार्थ :
दिनांक १ जुलाई २००७ को दिन में १०/३० पर यदि किसी जातक का जन्म हुआ हो तो ग्रहस्पष्ट करें। इष्टकाल = १३/१०
अगले दिन के सूर्य…२/१५/२८/४०
वर्तमान दिन के सूर्य….२/१४/३१/१३
अन्तर ५६/५१ = ग्रहगति
ग्रहगति = ५६/५१
इष्टकाल = × १३/१०
५६०/५१०
७२८/६६१
७२८/१२२३/५१० = गुणनफल
(७२८/१२२३/५१०) ÷६० = १२/२८,
अर्थात अन्तिम लब्धि = १२ एवं अन्तिम शेष = २८ यह कलात्मक मान है।
वर्तमान दिन के स्पष्टग्रह = २/१४/३१/१३
लब्धि / शेष = +१२/२८
तात्कालिक स्पष्ट ग्रह (सूर्य)
=२/१४/४३/४१ हुआ।
इसी प्रकार सभी मार्गीग्रह स्पष्ट होंगे।

वर्तमान दिन के स्पष्टग्रह में अगले दिन के स्पष्टग्रह को घटाने पर शेष ग्रह की गति होगी। ग्रह गति में इष्टकाल से गुणा कर ६० का भाग देने पर अन्तिम लब्धि कला एवं अन्तिमशेष विकला होगी इस कला विकला को वर्तमान दिन के स्पष्टग्रह में घटाने पर तात्कालिक स्पष्टग्रह होंगे।
यथा –
वर्तमान दिन के स्पष्टराहु = १०/१६/१/३४
अगले दिन के स्पष्टराहु = १०/१५/५८/२४
अन्तर = ०३/१० ग्रहगति
ग्रहगति ०३/१०
इष्ट १३/१०
गुणनफल (३९/१६०/१००), (३९/१६०/१००) ÷ ६० = ००/४१ = लब्धि
वर्तमान दिन के स्पष्टराहु =१०/१६/०१/३४
लब्धि = -००/४१
तत्कालिक स्पष्टराहु = १०/१६/००/५३
इसी प्रकार सभी वक्री ग्रह स्पष्ट होंगे।

ग्रहस्पष्ट में विशेष :
ग्रहस्पष्ट करने के लिए पञ्चाङ्ग जिस स्थान का हो उस स्थान के सूर्योदय द्वारा साधन किया हुआ इष्टकाल का प्रयोग होता है।
उपरोक्त ग्रहों की गति यदि अंशात्मक हो तो अन्तिम लब्धि अंश, अन्तिम शेष कला एवं उसके पूर्व का शेष विकला होगा तथा ग्रहों की गति कलात्मक होने पर अन्तिम लब्धि कला एवं अन्तिम शेष विकला होगा।
चन्द्र स्पष्ट करने की विधि :
चन्द्रगति में समानता नहीं होने से सभी पञ्चाङ्गकार दैनिक चन्द्रस्पष्ट नही देते है। अतः भयात एव भभोग के द्वारा चन्द्रस्पष्ट करने के लिए अलग विधि दिया जा रहा है।
विपलात्मकभयात में पलात्मकभभोग से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसमें अश्विनी से गतनक्षत्र तक की संख्या में ६० से गुणा कर जोड़ दें । पुनः योगफल में २ (दो) से गुणा कर नव (९) का भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो वह अंशात्मक चन्द्रस्पष्ट होगा। यदि अंश ३० से अधिक हो तो अंश में ३० का भाग देने पर लब्धि राशि एवं शेष अंश होगा, कला एवं विकला पूर्ववत ही रहेगा।
सूत्र- [(वि. भयात + प. भभोग) + (अश्विनी से गतनक्षत्र तक की संख्या × ६०)× २] ÷९
उदाहरणरार्थ :
भयात = ४२/१ भभोग = ६१/५७ गतनक्षत्र की संख्या = १९, ४२ × ६० + १ = २५२१ = प. भयात, २५२१ × ६० = १५१२६० वि. भयात, ६१ × ६० + ५७ = ३७१७ प. भभोग, विपलात्मक भयात में पलात्मक भभोग से भाग देने पर
यथा-
१५१२६० ÷ ३७१७ = ४०°/४१/३८ = लब्धि, गतनक्षत्र की संख्या = १९ × ६० = ११४०, ११४०° + ४०°/४१/३८ = ११८०°/४१/३८ इसमें २ (दो) से गुणा करने पर २३६०°/८२/७६ = २३६१°/२३/१६ इसमें ९ से भाग देने पर = २६२°/२२/३५ = अंशात्मक चन्द्र, २६२ में ३० से भाग देने पर ०८ राशि २२ अंश प्राप्त हुआ अर्थात ०८/२२/२२/३५ राश्यात्मक स्पष्टचन्द्र हुआ।
चन्द्रस्पष्ट करने की दूसरी विधि : पलात्मकभयात में ८०० का गुणा कर पलात्मकभभोग से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसमे गतनक्षत्र की संख्या में ८०० से गुणा कर जोड़ने पर कलात्मक चन्द्रस्पष्ट होगा। कला मे ६० का भाग देने पर अंशात्मक एवं अंश में ३० का भाग देने पर राश्यात्मक चन्द्र स्पष्ट होगा।
यथा :
सूत्र – (पलात्मकभयात × ८००÷ प० भभोग) + (गं नं की संख्या × ८००) = कलात्मकचन्द्रस्पष्ट।
प. भयात २५२१, प. भभोग – ३७१७, ग. नक्षत्र की संख्या = १९, (२५२१ × ८००÷ ३७१७) + (१९ × ८००) = (२०१६८०० ÷ ३७१७) +१५२० = (५४२/३५/१७) + १५२० = १५७४२/३५१७ = कलात्मकचन्द्र, २६२/२२/३५/१७ = अंशात्मकचन्द्र, ०८/२२/२२/३५/१७ = राश्यात्मकचन्द्र।
चन्द्रगति स्पष्ट करने की विधि : २८८०००० में पलात्मक भभोग का भाग देने पर कलात्मकचन्द्र गति आयेगी।
सूत्र – खखाभ्राष्टभेदा भभोगेन भक्ताः। प.भभोग = ३७१७, २८८०००० ३७१७ = ७७४/१९ चन्द्रगति आया।
उत्पत्ति : एक अहोरात्र का मान ६० घटी होता है, एक नक्षत्र का कलात्मकमान ८०० कला है। एक नक्षत्र का घटयात्मकमान = भभोग होता है। यदि भभोग में नक्षत्र का कलात्मकमान मिलता है तो अहोरात्र में क्या ? अर्थात् ८०० x ६० ÷ भभोग = ४८००० ÷भभोग, अब दोनों पक्षों में ६० से गुणा करने पर यथा ४८००० x ६० ÷ भभोग × ६० = २८८०००० ÷ प. भभोग = कलात्मकचन्द्रगति आयेगी।

लग्नानयन :
लगतीति लग्नम् – अर्थात क्रान्तिवृत्त का जो भाग पूर्वक्षितिज में लगा होता है, उसको लग्न कहते है। ये लग्न बारह प्रकार के होने से क्रान्तिवृत और क्षितिजवृत्त के पूर्वसम्पात को प्रथम या उदयलग्न, एवं पश्चिमसम्पात को सप्तम या अस्तलग्न कहा जाता है, तथा क्रान्तिवृत्त और याम्योत्तरवृत्त के अधः सम्पात को चतुर्थ एवं ऊर्ध्वसम्पात को दशमलग्न कहा जाता है।
द्वादश प्रकार के लग्नों के ज्ञान या आनयन में उपर्युक्त चारों (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम) लग्नों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
जैसे प्रथम और चतुर्थ लग्न के मध्य ३०°-३०° अंश के अन्तर पर प्रथम, द्वितीय, एवं तृतीय तथा चतुर्थ एवं सप्तम के मध्यम चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, तथा सप्तम और दशम के मध्य सप्तम, अष्टम, एवं नवम, दशम और प्रथम के मध्य दशम एकादश एवं द्वादश लग्नों की कल्पना की गई है।
लग्नानयन में आवश्यक पदार्थ-अयनांश, पलभा, चरखण्ड, लंकोदयमान, और स्वोदयमान।
अयनांश : लग्न के आनयन में अयनांश एवं स्वोदयमान की आवश्यकता होती है। नाड़ी और क्रान्तिवृत्त के सम्पात को गोलसन्धि कहते हैं। यह गोल सन्धि जब पूर्वापरस्वस्तिक पर रहती है तो उसे निरयन विन्दु कहते है।
जब गोलसन्धि पूर्वापरस्वस्तिक से पृथक रहती है, तो उसे सायनविन्दु कहते है, उक्त दोनों विन्दुओं के अन्तर को अयनांश कहते है।
अयनांश साधन : अयनांश साधन में मतान्तर पाया जाता है। परन्तु नवीन विद्वानों के अनुसार अयनगति ५०/१४ वार्षिक है। अतः वर्तमानशक में से १८०० घटाकर शेष में ५०/१४ विकला से गुणा करने पर वर्षारम्भकालिक अयनांश होता है।
पुनः वर्षारम्भ से जन्मकाल जितने मास बीत गये हो उतने संख्या से (४”/ ११”) को गुणाकर वर्षारम्भ कालिक अयनांश में जोड़नेपर मासारम्भ- कालिक अयनांश होगें।
पुनः मासारम्भ से जन्म काल तक जितने दिन व्यतीत हुए हो उस संख्या से (०”/८”) में गुणा कर मासारम्भकालिक अयनांश में जोडने पर जन्म कालिक अयनांश होगा।
यथा :
जन्मशक = १९२९ – १८०० = १२९ शेष, १२९ शेष x ५०”/ १४” = ६४५०/१८०६ इसको ६० से सवर्णीत करने पर ६४८०/६ इसमें ६० से भाग देने पर १०८/००/०६ कलात्मक आया।
इसको वर्षादि के ध्रुवा में जोड़ने पर :
२२०/८/३३/०० वर्षादिकालीन अयनांश की ध्रुवा
+००/१०८/००/०६ लब्धि
२२/११६/३३/०६ = २३°/५६’/३३”/६”‘ यह वर्षारम्भ का अयनांश आया।
पलभा : सायनमेष पर जिस दिन सूर्य हो उस दिन मध्याह्नकाल में द्वादश अंगुल शंकु की जो छाया उत्पन्न होती है उसे पलभा कहते हैं।
परन्तु प्रत्येक स्थान पर जाकर पलभा का ज्ञान करना कठिन कार्य है, अतः अक्षांश से लेकर ६६ अंक्षांश तक पलभा का साधन कर दिया जा रहा है। उसके अनुसार किसी भी अक्षांश पर पलभा का साधन किया जा सकता है.【पलभाज्ञानसारिणी नीचें संलग्न है】.
साधन : जितने अंश अक्षांश पर पलभा का साधन करना हो उसके अंश एवं उसके आगे वाले अंश पर जो पलभा प्राप्त हो उन दोनों का अन्तर करके अक्षांशकला से गुणा कर ६० से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त होगी उसको अभीष्ट अक्षांश के अंश पर प्राप्तपलभा में जोड़ने पर अभीष्ट अक्षांश की पलभा होगी।
उदाहरण :
यदि काशी का पलभा साधन करना हो तो इस प्रकार करना चाहिये। काशी का अक्षांश = २५/१८ है, यहाँ काशी अक्षांश २५ और २६ के मध्य है। अतः २५ एव २६ अंश पर प्राप्त पलभा के अन्तर में अक्षांश कला (१८) से गुणा कर ६० का भाग देने पर १८ कला पर प्राप्त पलभा होगी, इसको २५° अक्षांश पर प्राप्त फलभा में जोड़ने पर २५°/१८° अक्षांश पर पलभा होगी।
२६°अक्षांश पर प्राप्त पलभा ०५/५१/०७ २५०
अक्षांश पर प्राप्त पलभा ०५/३५/४२
अन्तर ००/१५/२५
× १८ अक्षांश कला
००/२७०/४५० गुणनफल, ६० से सवर्णीत करने पर ००/०४/३७/३० लब्धि प्राप्त हुई। इसको २५० अक्षांश के प्राप्त पलभा में जोड़ने पर :
२५°अक्षांश पर प्राप्त पलभा ०५/३५/४२
१८ कला पर प्राप्त पलभा=+००/०४/३७/३०
२५°/१८’ अक्षांश पर प्राप्त पलभा = ०५/४०/१९/३० = ०५/४०
चरखण्ड : उन्मण्डल और क्षितिजवृत्त के मध्य अहोरात्रवृत्त का जो खण्ड होता है उसे चरखण्ड कहते है।
साधन : पलभा को ३ स्थानों पर रखकर क्रमशः १०,८,१०÷३ से गुणा करने पर तीन चरखण्ड होते है।
यथा पलभा ५/४० इसको तीन स्थान पर रखकर १०,८,१०÷३ से गुणा करने पर :
५/४०× १०=५०/४००=५६/४० = ५७
५/४०x८=४०/३२०=४५/२० = ४५
५/४०×१०÷३= (५०/४००)÷३= (५६/४०)÷ ३=५७÷३ = १९
अर्थात ५७/४५/१९ यह ५/४० पलभा पर चरखण्ड आया।
लंकोदयमान : क्रान्तिवृत्त का समान १२ खण्ड करने पर मेषादि १२ राशियाँ होती है। उन राशियों के आदि और अन्तविन्दु पर किया गया ध्रुवप्रोत वृतों के मध्य नाड़ीवृत्त का जो खण्ड होता है, उसे लंकोदयमान कहते है। यह लंकोदयमान सम्पूर्ण विश्व के लिए एक ही होता है।
यह निम्नवत् है :
राशियों का लंकोदयमान इस प्रकार है :- मेष मीन २७८, वृष कुम्भ २९९, मिथुन मकर ३२३, कर्क धनु ३२३, सिंह वृश्चिक २९९, कन्या तुला २७८
स्वोदयमान स्वोदयमान का साधन करने के लिए लंकोदयमान एवं चरखण्ड की आवश्यकता पडती है। अर्थात लंकोदयमान मे चरखण्ड का संस्कार करने पर स्वदेशीय उदयमान (स्वोदयमान) होता है।
यथा :
राशि…ल०मा०…चरखण्ड…स्वोदयमन
मे०मी०..२७८….-५७……..२२१
वृ०कु०…२९९….-४५……..२५४
मि०म०…३२३….-११……..३०४
क०ध०….३२३….+११…….३४२
सि०वृ०….२९९…..+४५……३४४
क०तु०….२७८…….+५७…..३३५
यह काशी का स्वदेशीय उदयमान आया।
लग्नानयन-लग्नायन में सामान्यतः दो विधियाँ होती हैं। १. भोग्यप्रकारविधि, २. भुक्तप्रकारविधि
भोग्यप्रकार : सायनसूर्य के भोग्यांश में सायन सूर्य जिस राशि पर हो, उस राशि के उदयमान (स्वोदयमान) से गुणाकर ३० से भाग देने पर प्राप्त लब्धि भोग्यपल होगी। भोग्यपल को इष्टपल मे घटाकर शेष मे मेषादि क्रम से यथा सम्भव राशियो के उदयमान घटाने पर अन्तिम घटी हुई राशि की शुद्धसंज्ञा एवं उससे अगली राशि की अशुद्ध संज्ञा होती है।
यथासंभव राशियों का स्वोदयमान घटाने के बाद शेष में ३० से गुणा कर अशुद्ध राशि के स्वोदयमान से भाग देने पर प्राप्त लब्धि को शुद्धराशि संख्या में जोडने पर सायनलग्न होगा। पुनः सायनलग्न में अयनांश घटाने पर निरयन लग्न होगा।
सूत्र : ता० सूर्य + अयनांश = सायनसूर्य सा० सूर्य की राशि संख्या- सायनसूर्य = सा० सूर्य का भोग्यांश
(सा० सूर्य का भोग्यांश × स्व० राशि का उदयमान) ÷ ३० = भोग्यपल (इष्टपल-भोग्यपल).
मेषादि क्रम से यथा संभव राशियो का स्वोदयमान = शुद्धराशि शेष × ३० ÷अशुद्धराशि का स्वोदयमान = लब्धि (अंशात्मक) शुद्धराशि + लब्धि = सायनलग्न, सायनलग्न -अयनांश निरयनलग्न।
उदाहरण : दिनांक १ जुलाई २००७ को दिन में १०/३० पर काशी में जन्म हुआ हो तो लग्न क्या होगा।
ता० सूर्य = २/१४/४२/४१, इष्टकाल = १३/१०, अयनांश = २३/ ५६/४३, राशियों का स्वोदयमान = मेष मीन २२१, वृष कुम्भ २४५, मिथुन मकर ३०४, कर्क धनु ३४२, सिंह वृश्चिक् ३४४, कन्या तुला ३३५
ता० सूर्य = २/१४/४३/४१
अयनांश = +२३/५६/४३
सा० सूर्य ३/८/४०/२४
सा० सूर्य की राशि की संख्या (कर्क) = ४, इसमे सायन सूर्य को घटाने पर
यथा :
सा० सूर्य की राशि संख्या ०४/००/००/००
सा० सूर्य अन्तर ०३/०८/४०/२४
अन्तर ००/२१/१९/३६ = भोग्यांश, अब भोग्यांश मे सा० सूर्य के स्वोदयमान से गुणा करने पर यथा-
(२१/१९/३६) × ३४२ = ७१८२/६४९८/१२३१२ इसको ६० से सवर्णीत करने पर ७२९३/४२/१२ हुआ इसमें ३० का भाग देने पर २४३/ ०७/२४ = भोग्यपल आया।
इसको इष्टपल में घटाने परद्ध यथा- इष्टकाल = १३/१०/००, इष्टपल = ७९०/००/००
७९०/००/०० = इष्टपल
-२४३/०७/३६ = भोग्यपल
५४६/५२/३६ = शेष, इसमें यथा सम्भव राशियों का स्वोदयमान घटाने पर. (चूकि सा० सूर्य कर्क राशि का है अतः यहां पर सिंह राशि से क्रमपूर्वक राशियों का स्वोदयमान घटेगा).
यथा-
५४६/५२/३६
३४४ सिंह का स्वोदयमान
२०२/५२/४६ इसमें कन्याराशि का स्वोदयमान (३३५) नहीं घट सकता अतः सिंह राशि की शुद्ध एवं कन्या राशि की अशुद्ध संज्ञा होगी।
अब शेष से ३० से गुणा कर अशुद्ध राशि के स्वोदयमान से भाग देने पर
(२०२/५२/४६) × ३० = ६०६०/१५६०/१३८० इसको ६० से सवर्णीत करने पर ६०८६/३/०० आया, इसमें अशुद्धराशि के स्वोदयमान से भाग देने पर
(६०८६/२३/००) ÷३३५ = १८/१०/०५ अंशात्मकलब्धि प्राप्त हुई इसको शुद्धराशि संख्या में जोड़ने पर सायनलग्न होगा।
यथा :
०५/००/००/०० शुद्धराशि संख्या
+ १८/१०/०५ प्राप्तलब्धि
०५/१८/१०/०५ सायनलग्न
-२३/५६/४३ अयनांश
०४/२४/१३/२२ निरयनलग्न
भुक्तप्रकार से लग्नानयन : सायनसूर्य के भुक्तांश में सायनसूर्य जिस राशि पर हो, उस राशि के स्वोदयमान से गुणाकर ३० से भाग देने पर प्राप्त लब्धि भुक्तपल होगी।
पुनः इष्टकाल को ६० घटी में घटाकर शेष को पलात्मक बनाकर, भुक्तपल को घटाने के बाद मेषादि उत्क्रम से यथा सम्भव राशियों का स्वोदयमान घटाने पर अन्तिम घटी हुई राशि की शुद्ध एवं उसके अगली राशि की अशुद्ध संज्ञा होगी।
पुनः शेष मे ३० से गुणा कर अशुद्ध राशि के स्वोदयमान से भाग देने पर प्राप्त लब्धि की अशुद्धराशि संख्या में घटाने पर शेष सायनलग्न होगा। सायनलग्न में अयनांश घटाने पर निरयनलग्न होगा।
सूत्र – सा० सूर्य का भुक्तांश ×स्व रा० उदयमान ÷३० = भुक्तपल ६० – इष्टकाल = शेष
शेषपल – भुक्तपल – मेषादि उत्क्रम से यथासंभव राशियों का स्वोदयमान (शेष × ३०)÷ अशुद्धराशि का उदयमान = लब्धि
अशुद्धराशि-लब्धि = सायनलग्न
सा० लग्न अयनांश = निरयनलग्न.
लग्नानयन मे विशेष :
पूर्वसाधित भोग्यपल से इष्टपल कम हो तो इष्टपल में ३० से गुणा कर सायन सूर्य जिस राशि पर हो उस राशि के स्वोदयमान से भाग देने पर जो लब्धि प्राप्त हो उसको ता० सूर्य मे जोड़ने पर प्रथम लग्न होगा।
सूर्यास्त के बाद एवं मध्यरात्रि के पूर्व लग्न का साधन करना हो तो ता० सूर्य से ६ राशि का योग कर एवं इष्टकाल में दिनमान घटाने के बाद शेष को इष्टमान कर भोग्यप्रकार से साधीत लग्न, प्रथम (निरयन) लग्न होगा।
मध्य रात्रि के बाद एवं अगले सूर्योदय के पूर्व लग्नसाधन करना हो तो इष्ट को ६० घटी मे घटाकर शेष को इष्टमानकर भुक्तप्रकार से साधन किया गया लग्न प्रथम लग्न होगा।

दशमलग्न :
दशमलग्न के आनयन मे इष्टकाल के स्थान पर नत एवं स्वोदयमान के स्थान पर लंकोदयमान का प्रयोग होता है।
नत : स्पष्टमध्याह्न से मध्यरात्रि तक पश्चिमकपाल एव मध्यरात्रि से स्पष्टमध्याह तक पूर्वकपाल होता है। अहोरात्रवृत्त एव याम्योत्तरवृत्त के सम्पात पर जब सूर्य रहता है तब स्पष्ट मध्याह्न एव मध्यरात्रि होती है.
अतः याम्योत्तरवृत्त से पूर्व सूर्य के रहने पर पूर्वनत एवं पश्चिम में रहने पर पश्चिमनत होता है। पूर्वनत होने पर भुक्तप्रकार से एवं परनत होने पर भोग्यप्रकार से लग्न का आनयन होता है। भुक्त एवं भोग्य प्रकार की विधि पूर्व मे दिया गया है।

नतकाल साधन :
सूर्योदय से स्पष्टमध्याह्न तक जन्म होने पर दिनार्ध में इष्टकाल को घटाने से पूर्वनत।
स्पष्टमध्याह्न से स्पष्टमध्यरात्रि तक जन्म होने पर इष्टकाल में से दिनार्ध घटाने पर पश्चिमनत।
स्पष्टमध्यरात्रि से अगले सूर्योदय तक जन्म होने पर ६० घटी में इष्टकाल को घटाकर शेष में दिनार्धघटी जोड़ने पर पूर्वनत होगा।

भाव साधन :
जन्मलग्न में ६ राशि जोड़ने पर सप्तम लग्न एवं दशमलग्न में ६ राशि जोड़ने पर चतुर्थलग्न होता है। चतुर्थलग्न में प्रथमलग्न को घटकार शेष में ६ का भाग देने पर जो लब्ध फल होगा उसको लग्न में जोड़ने पर लग्न की संधि, पुनः लग्न की सन्धि में लब्ध फल जोड़नेपर द्वितीय भाव, द्विभाव में लब्धि जोड़ने पर द्विभाव की सन्धि द्विभाव की सन्धि में लब्ध को जोड़ने पर तृतीय भाव, तृतीय भाव में लब्धि को जोड़ने पर तृ. भाव की सन्धि, तृ. भाव की संधि में लब्धि को जोड़ने पर चतुर्थ भाव होगा जो पूर्व में साधित चतुर्थ भाव होगा जो पूर्व में साधित चतुर्थ भाव के तुल्य होगा।
अब लब्धि को ३०° अंश से घटकार शेष को चतुर्थ भाव में जोड़ने पर चतुर्थ भाव की सन्धि, च.भा. की सन्धि में शेष जोड़ने पर पञ्चम भाव, पञ्चमभाव में शेष जोड़ने पर पञ्चम भाव की संधि, प.भा. की संधि में शेष को जोड़ने पर षष्टभाव, षष्ठभाव में शेष जोड़ने पर षष्ठभाव की सन्धि, षष्टभाव की सन्धि में शेष को जोड़ने पर सप्तमभाव होगा जो पूर्व में साधित सप्तमभाव के तुल्य होगा।
पुनः लग्न में ६ राशि जोड़ने पर सप्तमभाव, लग्न की संधि में ६ राशि जोड़ने पर सप्तम भाव की सन्धि होगी। इसी क्रम से लग्न से षष्ठ भाव की सन्धि तक प्रत्येक में ६ राशि जोड़ने पर सप्तम भाव से द्वादश भाव ससन्धि हो जाते हैं।

दशा विचार :
भूत भविष्य एवं वर्तमान का शुभाशुभ ज्ञान के लिये दशा का प्रयोग किया जाता है। यह दशा अनेक प्रकार की होती है।
पराशरऋषि ने अपने ‘बृहद् पराशर होराशास्त्र” में ४२ प्रकार की दशाओं का उल्लेख किया है। इसी तरह अन्य आचार्यों ने भी अनेक प्रकार की दशाओं का उल्लेख किया है।
परन्तु सभी आचायों एवं आधुनिक विद्वानों के मत से विंशोत्तरी, अष्टोतरी एवं योगिनीदशा का विशेष महत्व है इन तीनों दशाओं के उपयोग में भी विद्वानो के मध्य मतभेद देखा गया है।
पराशरऋषि के अनुसार विंशोत्तरीदशा ही ग्रह्य है न की अष्टोत्तरीदशा, कुछ आचार्योंने कृष्णपक्ष मे विशोत्तरी एवं शुक्लपक्ष में अष्टोत्तरी दशा का प्रभाव माना है, तो कुछ आचार्यों ने कृष्णपक्ष के दिन में एवं शुक्लपक्ष की रात्रि में विंशोत्तरी दशा का तथा कृष्णपक्ष की रात्रि में एवं शुक्लपक्ष के दिन मे अष्टोत्तरीदशा का प्रभाव माना है।
कुछ विद्वान स्थान भेद से दशाओं का प्रयोग किये है जैसे, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र, पंजाब तथा सिंध प्रान्त में अष्टोत्तरी एवं अन्य क्षेत्र में विंशोत्तरी दशा प्रभावशाली रहती है।
तो कुछ आचार्यों के अनुसार भारत के पूर्ववर्ती राज्यों एवं राजस्थान में विंशोत्तरी, सिन्ध एवं पंजाब मे योगिनी, तथा दक्षिण भारत, मध्यभारत एवं गुजरातक्षमें अष्टोत्तरी दशा प्रभावशाली रहती है परन्तु वर्तमान मे सर्वाधिक विद्वान विंशोत्तरी दशा का ही प्रयोग करते हैं। (चेतना विकास मिशन).

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