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वैदिक दर्शन : स्त्री- अग्नि में पुरुष- सोम के विस्फोट का प्रतिफल

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     डॉ. विकास मानव 

   स्त्री को अग्नि और पुरुष का सोम मिलने से सन्तति का अंकुर फूटता है। इस अंकुर सृष्टि का क्या स्वरूप है? जिस अनादि ज्ञान को हमारे ऋषिपूर्वजों ने हमें दिया है, उसको  स्पष्टता सहित नव्यरूप देते हुए मैं यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।

     विराट् पुरुष एक है। उसने सृष्टि की इच्छा की। अपने को दो भागों में विभक्त किया। उसका बाँया भाग स्त्री तथा दायाँ भाग पुरुष हो गया। इस मिथुन से सृष्टि का क्रम चल पड़ा। 

    स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते द्वितीयमैच्छत्।

   स हैतावानास यथा स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वेधाऽपातयत्ततः पतिश्व पत्नी चाभवतां।

    तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति मा याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त।

  ~ बृहदारण्यक उपनिषद् (१ । ४)

          मनुष्य स्त्री-पुरुष रूप द्वैधा है। प्रत्येक पुरुष में स्त्री विद्यमान है तथा प्रत्येक स्त्रो में पुरुष वर्तमान है। मानव देह खोपुरुषमय है। नाक के शीर्ष बिन्दु को नाभि के मध्य बिन्दु से मिलाने वाली रेखा शरीर को दो समान भागों में विभक्त करती है।

    इस प्रकार समविभाजित बाँया भाग स्त्री तथा दाँया भाग पुरुष होता है। इतना ही नहीं, अपितु शरीर का प्रत्येक अंग भी स्त्रीपुरुषमय है। एक-एक अंग का वाम भाग स्त्री तथा दक्षिण भाग पुरुष क्षेत्र है। इसमें कोई सन्देह नहीं। अब हम अपने अभीष्ट प्रतिपाद्य गर्भाशय पर आते हैं। स्त्री का गर्भाशय भी स्त्रीपुरुषमय है।

*गर्भाशय छिद्र :*

(क) छिंद्र से वाम अण्डकोश जुड़ा है।

 (ख) छिद्र से दक्षिण अण्डकोश जुड़ा है।

 (ग) गर्भाशय का एकमात्र मुख है जो नीचे की ओर है। इस प्रकार यह गर्भाशय तपोवन त्रिनेत्र है। 

     प्राचीन पद्धति से बनी कुण्डलियों में यह लिखा हुआ होता है-अमुक भार्यायां दक्षिणकुक्षौ पुत्ररत्नमजीजनत/ वामकुक्षौ कन्यारत्नमजीजनत। इसका अर्थ हुआ- गर्भाशय (कुक्षि) के दक्षिण भाग से पुत्र तथा वाम भाग से कन्या की उत्पत्ति होती है।

     यह अकाट्य, अमोद्य एवं निस्संदिग्ध सत्य है। इस सूत्र में बहुत बड़ा दर्शन है। याम गवीनिका / अण्डवाहिनी से आने वाले अण्ड में स्वी तत्व का बाहुल्य होता है। दक्षिण अण्डवाहिनी/गवीनी से निकलने वाले अण्ड में पुरुष तत्व का प्राचुर्य होता है। दायें भाग से निकले अण्ड + पुरुष का शुक्रा= पुमान् संतति =पुत्ररत्न । बायें भाग से निकले अण्ड + पुरुष का शुक्राणु स्त्री संतति = कन्यारत्न। यह ध्रुव तथ्य है।

      पुरुष का सूर्य स्वर चलता है तो उसके शुक्राणु से पुत्र तथा चन्द्र स्वर चलता है तो उसके शुक्राणु से पुत्री का जन्म होता है। यह भी ध्रुव सत्य है। स्त्री के मासिक धर्म को समरात्रियों एवं चन्द्रस्वर में पुत्र पैदा होता है। स्त्री के मासिक की विषम रात्रियों एवं उसके सूर्य स्वर में कन्या की उत्पत्ति होती है। यह अनुभूत सत्य है तथा शास्त्र सम्मत है।

     स्त्री का दोनों स्वर गर्भाधान काल में चहता है तो नपुंसक कन्या एवं पुरुष का दोनों स्वर गर्भाधान के समय चलता है तो नपुंसक पुत्र का जन्म होता है। पल के बाम भाग से जब कलल जुड़ता है तो पुत्री पैदा होती है। यही कलल जब उसके दायें गर्भाशय के क्षेत्र से जुड़ता है तो पुत्र की उत्पत्ति होती है।

     सामान्यतः एक रात में एक बार गर्भाधान क्रिया सम्पन्न की जाती है। स्त्री १६ से २२ वर्ष के बीच तथा पुरुष १९ से २५ वर्ष के बीच की अवस्था का होता है तो एक से अधिक बार एक ही रात में गर्भाधान हो जाता है। दक्षिण स्वर से २ बार गर्भाधान करने पर जुड़वाँ पुत्र तथा वाम स्वर से २ बार गर्भाधान करने पर जुड़वाँ कन्याएँ पैदा होती हैं।

      स्त्री और पुरुष जब अत्यन्त कामावेग में होते हैं तो पूरी रात रह-रह कर मैथुन करते रहते हैं। एक रात में जितनी बार गर्भाधान क्रिया की जाती है, उतनी संताने एक साथ गर्भ में से पैदा होती हैं। पुत्र व पुत्री पैदा करना पुरुष के अपने हाथ में है। हाथ में होते हुए भी देव विरुद्ध होता है तो उसके प्रयत्न को निष्फल कर देता है। यह सत्य है और स्वानुभूत है।

     किस प्रकार के गुण / दोष वा शील वाला पुत्र पैदा किया जाय, यह भी पुरुष के हाथ में है किन्तु दैव नियन्त्रित है। गर्भाशय क्षेत्र की वाम दीवार पर जो बीज पड़ता है उससे कन्या ही जन्मेगी। गर्भाशय की दक्षिण भित्ति पर पड़े बीज से पुत्र ही पैदा होगा। गर्भाशय क्षेत्र के मध्य में जो बीज पड़ेगा, उससे नपुंसक का होना अनिवार्य है। सम्भोग का एक ढर्रा होता है।

   उस ढर्रे से सम्भोग करने से एक बार पुत्र पैदा हुआ तो बार-बार पुत्र ही पैदा होगा तथा एक बार पुत्री हुई तो बार-बार पुत्री ही उत्पन्न हुआ करेगी, जब तक कि दरें में परिवर्तन न किया जाय।

     बहुप्रजा दरिद्रायते। अधिक संतति का होना दरिद्रता को निमन्त्रण देना है। संतति का न होना भी ठीक नहीं है। एक संतति पुत्र वा पुत्री अशुभ है। कम से कम दो सन्तान हो दो सन्तान द्विबाहु है। तीन संतान त्रिविक्रम है। चार सन्तान चतुर्मुख हैं। पाँच सन्तान पञ्चानन है। छः सन्तान षडानन है। अब बहुत हो गया। अधिक संतति अभिशाप है। कौरव दल के गठन का अर्थ है, सम्पूर्ण वंश का नाश। फिर, गान्धारी और धृतराष्ट्र क्यों बना जाय ? जो स्त्री आँख पर पट्टी बाँध लेती आँख मूँद कर संतति हेतु रति में लीन रहती है, वह गान्धारी है।

      जिसके पास विवेक दृष्टि नहीं है, सतत संतति विस्तार हेतु भोग में लीन है, वह धृतराष्ट्र है। ये दोनों ही मानवता एवं शांति के शत्रु हैं। गर्भाशय त्रिकोण है। इसलिये तीन संतति बहुत है। इस सीमा का उल्लंघन सुखपालक है। संततिनिरोध के कृत्रिम साधनों को अपनाना अज्ञता एवं पागलपन है। सम्भोग से दो वस्तुएँ मिलती हैं-१. आधिव्याधि २. समाधि वीर्य का क्षय आधिव्याधि का कारक एवं सुखशांति का बाधक है।

      वीर्य का स्तम्भन / अक्षयन समाधि का हेतु एवं आनन्द का कारक है। स्तम्भन एवं आनन्द की सृष्टि मन्त्रजाप से होती है। यह ऋषिपद्धति है। इस पद्धति में स्त्री-पुरुष संभोग रत रहते हुए इष्ट मन्त्र का जप करते रहते हैं। इससे पूर्ण रति तुष्टि तथा युगल समाधिजन्य आनन्द की प्राप्ति होती है। शुक्रस्तम्भन एवं रज का अस्खलन इसका मूल सूत्र है। यह सब मेरा अनुभूत प्रयोग है।

जिसके पुत्र ही पुत्र हैं, कन्या नहीं है, वे कन्यादान न कर पाने से अगले जन्म में स्त्रीसुख से वञ्चित रहते हैं। स्त्री जाति के प्रति आदर का भाव रखने से इस दोष (पुत्री विहीनता) का निवारण होता है।

     जिसके कन्या ही कन्या है पुत्र नहीं है, वह वंशलोप की ग्लानि से ग्रस्त होता है। जिन माताओं को केवल पुत्रियों ही हैं, उन्हें पुत्र पाने के लिये ये उपाय करना चाहिये :

    १. तीन मोरपंख लें। इनमें से चन्द्रमा वाला नीला भाग निकाल लें। इन्हें अलग-अलग पीस कर गुड मिला कर गोलियाँ बना लें। तीन गोलियाँ बनेंगी। गर्भ के दूसरे महीने के अन्त में जब स्त्री का सूर्यस्वर चल रहा हो, नित्य प्रातः १ एक गोली तीन दिनों तक बिना किसी व्यवधान के दायें हाथ से जीवित बछड़े वाली गाय के दूध के साथ खायें। इन तीन दिनों में गो दुग्ध का ही कल्प करें, अन्न न खायें तो निश्चित रूप से पुत्र उत्पन्न होता है।

     २. पुत्र की इच्छुक जीवती हट्टीकट्टी पुष्टका माताएं वसीय एवं निष्ट पदार्थों को ग्रहण करना बन्द कर दें। अपने शरीर को व्रत उपवास से क्षीण करें। इतना करने मात्र से पुत्र की उपलब्धि होती है। 1 रबड़ी, मलाई, खोवा, मेवा, अण्डा, मिठाई खाते रहने से पुणे ही जन्मती है। शाक एवं लवणीय पदार्थों से पुत्र होता है। यहीं कारण है कि धनियों के यहाँ कन्या तथा दरिद्रों के घर पुत्र की बहुतायत होती है।

    ३. ऋतुकालपर्यन्त एक-एक पलाशपत्र गोदुग्ध के साथ पीस कर पीने से पुत्र की प्राप्ति होती है। सन्तानहीन दम्पत्ति के दुःख को कैसे कहा जाय ? स्त्री के बाँझपन को दूर करने के ये उपाय हैं- 

किसी स्त्री को मासिक धर्म होता है, किन्तु गर्भ नहीं ठहरता तो मासिक धर्म के दिनों में तुलसी का बीज पानी में पीस कर लेने (पीने) से या उसका काढ़ा बना कर पीने से गर्भ ठहरता है।

     बन्ध्यास्त्री आधी मुट्ठी सौंप का चूर्ण गोघृत के साथ प्रतिदिन तीन मास तक खाये तो उसका गर्भ ठहरता है।

    पानी में भीगे रूई के फोये में फिटकरी की एक डली लपेट कर रात को सोते समय योनि में रखें। प्रातः जब उसे निकालेंगे तो उस पर रुई के चारों ओर दूध की खुरचन सी जमी होगी। फोन तब तक रखते रहें, जब तक खुरचन आती रहे। जब खुरचन न आये तो समझाना चाहिये कि बन्ध्यात्व  समाप्त हो गया। पश्चात् गर्भ ठहरना ही है। 

 गर्भ ठहराने के लिये पुरुष की अशक्तता को दूर करने के ये उपाय हैं :

    १. एक मुट्ठी अंकुरित गेहूं खूब बारीक पीस कर गोदुग्ध के साथ सेवन करने से तथा पाँच कली लहसुन की गोघृत के साथ खाने से पौरुष शक्ति मिलती है। 

   २. पुनर्नवा के सेवन से नव यौवन को प्राप्ति होती है। 

   ३. दूर्वादल चरने वाली गाय के पञ्चगव्य का पान करने से नपुंसकता कारक पापों का चयन होता है। 

       विष्णु विराट रूप से स्वयं अच्छी तरह स्थित है। उस विष्णु का उल्ब (गर्भ को ढकने वाली झिल्ली)) सुमेरु है, पर्वत समुदाय जरायु (गर्भाशय) है, समुद्रों का जल गर्भाशयस्थ रस है।

     विष्णुब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः॥

 मेरुरुल्बमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः। गर्भोदकं समुद्राश्व तस्यासन्महात्मनः॥

    ~विष्णु पुराण (१। २। ५६-५७)

मेरुः उल्बम् अभूत् तस्य जरायुः च महीधराः।

 गर्भ-उदकम् समुद्राः च तस्य आसन् सुमहात्मनः॥

     माता के गर्भ में जो जीव प्रवेश करता है, वह वहीं विराट् विष्णु है। जीव गर्भ में समाधिस्थ होता है। समाधिस्थ जीव स्वयमेव ब्रह्म है। गर्भ में जीव के चारों और तीन झिल्लियाँ होती हैं-उल्प, जरायु. तथा पाती । उल्ब तथा जरायु भ्रूण झिल्लियाँ है तथा ये निषेचित अण्डाणु से बनती है। पाती झिल्ली एक मातृ झिल्ली है, क्योंकि यह गर्भाशयी श्लेष्मिका से बनती है। पाती झिल्लियों जरायु के बाहर होती हैं।

     गर्भ जब बाहर निकलता है तो इसके साथ तीनों झिल्लियाँ भी बाहर आ जाती हैं। गर्भ का उदक मानो समुद्र है। उसमें लेटा पड़ा हुआ जीव मानो क्षीरशायी विष्णु है।

     गर्भ के बाहर आने के बाद यह जीव लोक सत्य का अनुभव करता है, अन्न तेज बल प्रभुत्व रस मधु सोम को पाता है। यह वेद मन्त्र है…

    रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्।

गर्भो जरायुणाऽऽवृत उल्बं जहाति जन्मना। ऋतेन सत्यामिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु।।

  ~यजुर्वेद (१९।७६)

 प्रविशत् = सर्वत्र घुसा हुआ, व्यापन करता हुआ, विद्यमान।

इन्द्रियम् = ज्ञान बल। 

योनिम् = मूलस्थान जननात्मक कारण गर्भाशय कोटर।

 मूत्रम् = बन्धन। [मू (बन्धने मावते बाँधना) + त्रन्= मूत्रा]

  रेतः = दुःखदायक स्थान वस्तु काल परिस्थिति। [री (रेषणयोः पीड़ा देना दुःख देना) + असुन्=रेतस्]

विजहाति = छोड़ता/ त्यागता है। 

जरायुणा आवृत = जरायु झिल्ली से ढका हुआ।

 जन्मना = जन्म के समय। 

गर्भः = भ्रूण उदरस्थ जीव। 

ऋतेन= शाश्वत् व्यवस्था से युक्त।

सत्यम् = सत्य को।

 इन्द्रियम् = बल को।

विपानम् = विविध पेयों/रसों को। 

अन्धसः== अन्न से प्राप्त।

शुक्रम्= तेज को।

इन्द्रस्य= परमेश्वर के।

इन्द्रियम्= ज्ञान को।

पयः = दूध।

मधु = शब्द ।

अमृतम् = अमृत को। 

मधुपयः अमृततम् = शहद मीठे दूध रूपी अमृत को।

      गर्भस्थ जीव को व्यापक ज्ञान होता है। उसमें पूर्व जन्मों की सभी स्मृतियाँ रहती हैं। जब वह गर्भ से बाहर निकलने लगता है तो यह विद्यमान ज्ञान (प्रविशत् इन्द्रियम्) उससे छूट जाता है। वह मूलस्थान (योनि) को छोड़ देता है। वह गर्भ के बन्धन (मूत्र) को छोड़ देता है। वह गर्भ के दुःखदायक स्थान (रेत) को छोड़ देता है। गर्भ से बाहर आने के बाद वह जीव (गर्भ) जिस आवरण से ढका होता है, वह जरायु छूट जाता है। उसका दूसरा आवरण उल्ब भी छूट जाता है।

      अब शिशु अपने परिजनों के अंक में होता है। बड़ा होकर यह जीव प्राकृतिक संसाधनों से सत्य को पाता है, बल को पाता है, विविध रसों / आनन्द सुखों को भोगता है, अन्न से प्राप्त तेज को ग्रहण करता है, परमेश्वर के ज्ञान (इन्द्रस्य-इन्द्रियम्) को ग्रहण करता है तथा वह मधुर दुग्ध रूप अमृत को पाकर अन्ततः धन्य होता है।

      जीवन में जिसने अनुपयोगी का त्याग करते हुए उपयोगी को ग्रहण करते हुए ज्ञान रूप अमृत को पी लिया- आत्म तत्व का साक्षात्कार कर लिया, वह जीव धन्य है।

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