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वैदिक दर्शन : लौकिक और अलौकिक में बैलेंस का विज्ञान

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     डॉ. विकास मानव

   वेद-सूत्रों का व्याख्या-विस्तार उपनिषदों में है. उपनिषदों का सार गीता में. गीता को वेदांत का अमृत कहा जाता है.

    गीता में भगवान कृष्ण उ‌द्घोष करते हैं कि समस्त विश्व उनके एक अंश से उ‌द्भूत है। वे समस्त विश्व में व्याप्त हैं और समस्त विश्व उनमें व्याप्त हैं। 

   यञ्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

 न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।

     यही नहीं, वे कहते हैं : हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ। ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।

भगवान कृष्ण स्वयं अलौकिक हैं, परन्तु माया के माध्यम से वे लौकिक रूप में व्यक्त होते हैं। व्यक्ति जीवन में जो कर्म करता है उसी के अनुरूप वे रूप धारण करते हैं। अध्याय 9 में वे घोषणा करते हैं :

   यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।

 भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।

    जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं। 

क्या ऐसा सम्भव है ? क्या वेदों और उपनिषदों में वर्णित, पुराणों में वर्णित माया के वशीभूत एक अलौकिक अंश लौकिक सृष्टि के रूप में प्रकट हो सकता है? क्या वह लौकिक तत्त्व अलौकिक में पुनः परिवर्तित हो सकता है। ब्रह्म विद्या या वेदान्त का प्रमुख सूत्र भी यही घोषणा करता है :

   ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रहौव नापरः।

   अर्थात् ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव और ब्रहा में कोई अन्तर नहीं है। दर्शन ग्रन्थों में जिसे माया, विकार, पाप, पुण्य, कर्म, जीव और पुद्गल कहा गया है, वह सब ईश्वर से ही तो उद्भूत हैं। गीता तो स्पष्ट घोषणा करती है कि दृश्य अदृश्य जो कुछ भी है, उसके कर्ता और नियंता ईश्वर ही हैं। अतः उनमें सामंजस्य स्थापित करने वाली कोई ना कोई प्रक्रिया ईश्वर जनित है।

     आध्यात्म जगत और दर्शनशास्त्र के तर्क अपनी-अपनी जगह हैं। इन्हें ज्योतिष जगत में किस रूप में लिया गया है तथा ज्योतिष जगत में इस सम्बन्ध को किस रूप में कहा गया है, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे तथा यह भी कि अलौकिक और लौकिक में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए ज्योतिष में क्या तर्क प्रयुक्त किये गये हैं।

ज्योतिष और ईश्वर तत्त्व – भविष्य कथन से सम्बन्धित होरा ग्रंथ बृहद् पाराशर होरा शास्त्र में अवतार कथनाध्याय अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ऋषि पाराशर सांख्य दर्शन के प्रवक्ता थे। त्रिगुणात्मक प्रकृति, पुरुष और व्यक्त या अव्यक्त में उनका विश्वास था। अपने ग्रन्थ में उन्होंने ग्रहों के अवतार के विषय में कहा है। उनकी धारणा है कि सम्पूर्ण परमात्मांश ही ईश्वर हैं और विकार होने पर वे क्रमशः देवयोनि व उससे निम्नतर योनियों में अवतार लेते हैं या प्रकट होते हैं या जन्म लेते हैं। 

   रामकृष्णादयो ये ये ह्यवतारा रमापतेः।

 तेऽपि जीवांशसंयुक्ताः किं वा ब्रूहिमुनीश्वर!।।1।। 

रामः कृष्णश्च भो विप्र ! नृसिंहः सूकरस्तथा । एते पूर्णावताराश्च हान्ये जीवांशकान्विताः।।2।।

    रामकृष्ण, नृसिंह और वराह ये पूर्ण अवतार हैं और इनमें पूर्ण परमात्मांश हैं। अन्य जो अवतार हुए हैं, वे इनसे हीन हैं, क्योंकि कर्मवशात् जीवांश परमात्मांश से मिश्रित हो गया है। 

   अवताराण्यनेकानि ह्यजस्य परमात्मनः।

  जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपी जनार्दनः।।३।।

दैत्यानां बलनाशाय देवानां बलवृद्धये।

 धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहज्जाताः शुभाः क्रमात्।।4।।

 रामोऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः।

नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बुद्धः सोमसुतस्य च।।5।। 

वामनो विबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च।

कूर्मो भास्करपुत्रस्य सैहिकेयस्य सूकरः।।6।।

 केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेऽपि खेटजाः।

 परात्मांशोऽधिको येषु ते सर्वे खेचराभिधाः।।7।।

    सूर्य से राम का, चन्द्रमा से कृष्ण का, मंगल से नृसिंह का, बुध ग्रह से बुद्ध का, बृहस्पति से वामनावतार, शुक्र से परशुराम का, शनि से कूर्म का, राहु से वराह का और केतु से मीन का अवतार हुआ। अन्य सभी अवतार भी ग्रहों से ही अवतीर्ण हुए हैं। जिन अवतारों में परमात्मांश की मात्रा अधिक है, वे खेचर या देवता कहलाते हैं।

जीवांशो ह्यधिको येषु जीवास्ते वै प्रकीर्तिताः।

 सूर्यादिभ्यो ग्रहेभ्यश्च परमात्मांशनिः सृताः।।8।।

 रामकृष्णादयः सर्वे ह्यवतारा भवन्ति वै।

 तत्रैव ते विलीयन्ते पुनः कार्योत्तरे सदा।।9।। 

जीवांशनिःसृतास्तेषां तेभ्यो जाता नरादयः।

 तेऽपि तत्रैव लीयन्ते तेऽव्यक्ते समयन्ति हि।।10।।

    जिनमें जीवांश अधिक हो और परमात्मांश की कमी हो वे जीव कहलाते हैं। उन्हें जन्म लेना पड़ता है। जब इन सब की जीवन लीला या कर्म लीला भौतिक जगत में समाप्त हो जाती है तो फिर वे मृत्योपरान्त पुनः इन ग्रहों में लीन हो जाते हैं। जब प्रलय होती है तो ना केवल ये जीव बल्कि वे ग्रह भी ईश्वर में ही लीन हो जाते हैं। तब शुद्ध परमात्मांश ही बचता है।

 इदं ते कथितं विप्र ! सर्वं यस्मिन् भवेदिति।

 भूतान्यपि भविष्यन्ति तत्तज्जानन्ति तद्विदः।।1।।

   जब-जब सृष्टि और प्रलय होती है, इन सब को केवल शुद्ध परमात्मांश वाले ही जानते हैं। त्रिकाल का ज्ञान शुद्ध परमात्मांश वालों को ही होता है।

    *सृष्टि के कितने आयाम :*

 हम लोग प्रकाश गति के जीव हैं। समस्त दृश्य जगत प्रकाश गति का उत्पाद है अर्थात् लगभग 3 लाख किलोमीटर प्रति सैकण्ड की गति से नीचे-नीचे। आइंसटीन, न्यूटन, प्लैंक इत्यादि वैज्ञानिकों की खोज के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि यदि किसी भी कण को शून्य भार की स्थिति में ले आया जाए तो वह प्रकाश गति को प्राप्त कर लेता है।

    आधुनिक वैज्ञानिक परीक्षणों का आधार यह रहा कि यदि किसी तरंग की गति को कम कर दिया जाए तो वह प्रकाश गति से नीचे आते ही कण में परिवर्तित होने लगेगा। सृष्टि निर्माण का यही आधार है। जो बात आज वैज्ञानिक कह रहे हैं उसे हजारों साल पहले वैदिक ऋषियों ने समझ लिया था और उसका वर्णन कर दिया था। ब्रह्मा के द्वारा मानसी सृष्टि का रहस्य यही है।

    आधुनिक वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर चिंतन कर रहा है कि त्रिआयामी सृष्टि के अतिरिक्त कितने और आयाम हो सकते हैं। चार, छः या दस। स्टिंग सिद्धान्त, जो कि वैज्ञानिकों की परिकल्पनाओं की पराकाष्ठा है और दर्शन की सीमा तक पहुँच गया है, 11 से लेकर 26 आयामों की चर्चा करता है।

     प्रत्येक आयाम एक-दूसरे से भिन्न है। स्ट्रिंग सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक अलग तरह का निर्वात है और प्रत्येक ब्रह्माण्ड अलग तरह के कणों से निर्मित हो सकता है।

अब वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि आइंस्टीन द्वारा दिया गया गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त तथा गुरुत्वाकर्षण लहरों का सिद्धान्त सत्य है। गुरुत्वाकर्षण लहरें ही फोटोन (प्रकाशकण) की वाहक हैं। गणनाएँ चल रही हैं कि दो बड़े ब्लैक होल्स या कृष्ण विवरों की टक्कर से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण की लहरों के मान में अंतर आइन्सटीन के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं।

     यह भी सिद्ध हुआ है कि समस्त सृष्टि को एक-दूसरे से बाँधे रखने में यह गुरुत्वाकर्षण लहरें ही मुख्य कारक हैं। इन लहरों की आवृत्ति एक सैकण्ड में असंख्य (खरबों) हो सकती हैं।

    अगर किसी कण की गति प्रकाश गति के बराबर है तो वह कण किसी दूसरे कण से नहीं जुड़ सकता। अर्थात् परमाणु से अणु बनने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। जितना गति कम होती चली जाएगी, कण उतना ही संगठित होते चले जाएंगे, घनत्व बढ़ता चला जाएगा। हिग्स बोसॉन कणों पर हाल ही में हुए वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बात पुष्ट हुई है। सृष्टि के निर्माण का यही आधार है।

       *कृष्ण विवर :*

 एक महाविस्फोट के पश्चात् कृष्ण विवरों का जन्म हुआ। कृष्ण विवर के अन्दर इतना अधिक गुरुत्वाकर्षण बल है कि प्रकाश किरणें भी सोख ली जाती हैं। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि कृष्ण विवर से पदार्थ या किरणें बाहर निकल कर दूसरी तरफ किसी अन्य ब्रह्माण्ड या लोक में चली जाती है।

     यह दो ब्रह्माण्डों के द्वार का कार्य भी करते हैं। इस सिद्धान्त का विरोध भी खूब हुआ है।

    निश्चित है कि हमारे सौर मण्डल से बाहर प्रकाश की गति वह नहीं रहेगी जो हमारे सौर मण्डल के अन्दर है। प्रकाश गतियों या कणों के वाहक गुरुत्वाकर्षण बल हर तारे या ब्रह्माण्ड के लिए अलग हैं। अन्य ब्रह्माण्डों में प्रकाश की गति इस बात पर निर्भर करेगी कि उस खगोलीय इकाई से उत्पन्न होने वाली गुरुत्वाकर्षण लहरों की गति कितनी तीव्र है। यह हमारे सूर्य के प्रकाश से काफी अधिक भी हो सकती है।

    जिन कणों की या बलों की गति प्रकाश गति से अधिक है वे तत्त्व त्रिआयामी विश्व से बाहर चले जाएंगे। योग बल से सूक्ष्म शरीर द्वारा ऐसी गति प्राप्त करने के उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं। अगर हमारे सौर मण्डल से बाहर के कण यदि पृथ्वी पर प्राप्त होते हैं, तो उन्हें पदार्थ के रूप में दिखने के लिए प्रकाश गति से नीचे आना ही पड़ेगा।

भारतीय वाङ्गमय में देवताओं की गति – देवताओं को अत्यंत तीव्रगामी व अदृश्य या प्रकट होने वाला माना गया है। हनुमान जी को अष्टसिद्धि युक्त माना गया है। इन सिद्धियों में लघु रूप हो जाना या विस्तीर्ण हो जाना भी माना गया है। आकाश गमन, अदृश्य हो जाना, अन्य लोकों की यात्रा करना इन सिद्धियों के अन्तर्गत माना गया है। यह सब आधुनिक खगोलीय अण्वेषणों से सिद्ध किया जा सकता है।

    जो बात सिद्ध नहीं की जा सकती वह यह कि परमाणुओं के विखण्डन से या अलग होने के बाद जब उनका पुनः संयोजन होता है तो वह एक निश्चित निर्माण क्रम में कैसे आ जाते हैं। उनमें स्मृति कैसे शेष रहती है ?

    इसका उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास नहीं है। त्रिआयामी विश्व का सम्बन्ध यदि किसी चतुः आयामी विश्व से किया जाए तो माध्यम क्या हो सकता है। एक आयाम की स्मृति दूसरे आयाम तक कैसे प्रवाहित हो सकती है? इसका उत्तर विज्ञान से भी अधिक अच्छा भारतीय दर्शन दे सकता है। कर्म सिद्धान्त यही है।

     कर्म किसी भी स्तर के आयाम से त्रिआयामी विश्व में किसी माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं यह माध्यम आत्मा का हो सकता है और आत्मा के विभिन्न स्वरूप, एक महत् अंश से लेकर एक छुद्रांश तक, किसी भी आयाम में प्रवेश कर सकते हैं। आत्मा और कर्म स्मृति रूप में चतुः आयाम से त्रिआयाम तक प्रवाहित हो सकते हैं। इनकी गति अन्य उच्च आयाम तक भी हो सकती है।

     ज्योतिष के महान ग्रंथ बृहत्त पाराशर होरा शास्त्र में प्रारम्भिक अध्यायों में से एक अवतार कथन अध्याय है। उस अध्याय के अन्तर्गत दो महत्त्वपूर्ण शब्द प्रयोग में लाये गये हैं। परमात्मांश एवं जीवांश। शुद्ध परमात्मांश होने पर पूर्णावतार होते हैं, जैसे कि भगवान राम व कृष्ण। जीवांश बढ़ने पर वे अंशावतार रह जाते हैं। जीवांश और अधिक बढ़ने पर तथा उसी अनुपात में परमात्मांश कम होने पर अन्य देवता होते हैं।

     जैसे-जैसे योनि पतन होता जाता है, स्मृति लोप होने लगता है। मनुष्य योनि आने तक सम्पूर्ण स्मृति का लोप हो जाता है। पुनर्जन्म के मामलों में भी बालक को 7-8 वर्ष की उम्र तक ही गत जन्म की स्मृति होती है, विकार उत्पन्न होने पर पुनः स्मृति लोप हो जाता है।

    त्रिआयामी विश्व में गत जन्मों की स्मृति शेष नहीं रहती है। नक्षत्रों का सम्बन्ध किसी अन्य आयाम से हो सकता है और उस उच्च आयाम के माध्यम से कुछ स्मृतियाँ मर्त्यलोक तक आ सकती हैं। अन्य उच्च आयामों में स्मृति लोप नहीं होता है। यह दार्शनिक चिन्तन का विषय है।

     विज्ञान से इसे सिद्ध करने में समय लगेगा परन्तु भारतीय दार्शनिक चिन्तन इन सब बातों का उत्तर देने में समर्थ है।

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