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*वैदिक दर्शन : स्वस्थ समाज-निर्माण के लिए प्रेम-संभोग किससे और कब ?*

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  ~ब्रह्म को भी बूढ़ा करके मार डालता है सर्वशक्तिशाली काम.

  ~हमारे प्रेरणाश्रोत डॉ. विकास मानवश्री के संवाद पर आधारित प्रतिसंवेदन

    ~ अनामिका, प्रयागराज

    सेक्स से बड़ी कोई शक्ति नहीं. सभी तरह की ऊर्जा का मूल-स्रोत काम-ऊर्जा है. काम-शक्ति यानी संभोग-शक्ति. संभोग अर्थात आनंद का चरम और एक समान भोग. यह स्थिति तब बनती है, जब स्त्री के डिस्चार्ज होकर बेसुध होने के बाद पुरुष का लिंग योनिमंदिर को पूजना बंद करे.

    अफ़सोस! आज दसियों हज़ार में से किसी एक कपल्स के बीच यह स्थिति बनती है. पुरुष अपना पौरुष खोता चला जा रहा है. इसीलिए लिए तो 99% स्त्रियां आर्गेज्म का अहसास तक किए बिना मर जाती हैं!

     स्त्री को नियमित न सही, एक बार किसी ध्यानिष्ट के साथ संयुक्त होकर यौगिक संगम का सुख अनुभव कर लेना चाहिए. इसलिए की खुद को अतृप्त मार डालना जीवन का अपमान है. जीवन का अपमान जीवनदाता भगवान का अपमान है. यह सभी पापों का बाप है.

    वैदिक दर्शन के अनुसार सभी भावों का राजा काम है। इस राजा का निवास स्थान है चेतना स्थल यानी मस्तिष्क। यहाँ यह शेषषय्या पर सोता है। इसके नाभिकमल पर विद्यमान ब्रह्मा सृष्टि करते-करते बूढ़ा होकर मर जाता है पर उस शक्ति को नहीं जान पाता जिससे वह सृष्टि रचता है।

    कामशक्ति का कार्य रति है। जहाँ काम है वहाँ रति। रति और काम, बाहर से दो हैं और भीतर से एक हैं। बायें नासा छिद्र में रति नाचती है। दायें नासा छिद्र में काम ताल ठोंकता है। ये दोनों नासा छिद्रों में अलग-अलग हैं। इन छिद्रों से बाहर और भीतर एक हैं। क्योंकि दोनों छिद्र आगे चल कर एक में मिलकर श्वासनली बन जाते हैं।

   कण्ठ इनका मिलन स्थल है। छिद्रों के बाहर ये आकाश में मिलते हैं। रति चन्द्र है। काम सूर्य है। चन्द्र स्त्री है। सूर्य पुरुष है। इसे हम यों भी कह सकते हैं- जहाँ सूर्य और चन्द्र हैं, वह नाक है।

 १. नाक = स्वर्ग/द्युलोक/आकाश। 

२. नासिका घ्राणेन्द्रिय/ श्वसन द्वार।

   इस नाक में, चन्द्र स्वर एवं सूर्य स्वर निरन्तर रहते हैं। उस नाक में, चन्द्र ग्रह एवं सूर्य ग्रह सतत विराजते हैं :

 चन्द्रस्वर/ चन्द्र ग्रह = स्त्री/ रति.

सूर्यस्वर/ सूर्य ग्रह = पुरुष / काम. 

    ये दोनों स्वर भी सहवासी हैं। इससे सिद्ध हुआ श्री और पुरुष सहवासी हैं। बिना स्त्री के पुरुष नहीं रह सकता तथा बिना पुरुष के स्त्री नहीं रह सकती. यही कारण है कि दोनों प्रेम के बन्धन में पड़ते हैं, विवाह करते हैं।

   जैसे सूर्य और चन्द्र स्वर्ग में बिहार करते हैं, जैसे सूर्य और चन्द्र स्वर नाक (स्वर्ग) में संगम करते हैं, उसी प्रकार योग्य स्त्री और पुरुष अगर परस्पर प्रेम सूत्र से बँधकर, विवाह करते हैं तो अपने जीवन को स्वर्ग बनाते हैं।

   प्रेम और संभोग के लिए समान चेतना स्तरीय योग्यता आवश्यक है. अयोग्यता सर्व नाशक है. आकाश में कोई एक यह (सूर्य वा चन्द्र में से) हो, दूसरा न हो तो प्रलय का ताण्डव होता है, दुःख का सागर हिलोरें लेता है। इसी भाँति नाक रूपी व्योम में कोई एक स्वर (सूर्य) वा चन्द्र में से) चले तो एक मास में व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, यह शरीर प्राणहीन हो जाता है।

     ऐसे ही योग्य विवाहित स्त्री पुरुष एक स्थान पर साथ-साथ न रहें तो उनके जीवन में विषाद के बादल घिरने लगते हैं। ये अपने अपने शोकरूपी उष्ण जल से इन्हें भिगोते रहते हैं। इसका अर्थ हुआ-सुख (स्वर्ग) के लिये योग्य स्त्री-पुरुष का साथ-साथ रहना अनिवार्य है। इस साथ रहने की प्रक्रिया में दोनों में से जब कोई (स्त्री व पुरुष) व्यवधान उपस्थित करता है तो परस्पर लट्ठमल, मुक्केबाजी, पटकी-पटका, मारा-मारी, न्यायालयी भिडन्त, गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेला जाता है।

पौरुषयुक्त ऐसा कोई पुरुष नहीं, जो बिना स्त्रीत्वयुक्त स्त्री के रहता हो। ऐसी कोई स्त्री नहीं जो बिना पुरुष के जीती हो। ऋषि-महर्षि, भगवान तक का इतिहास सामने है. किसी की काया से विपरीत लिंगी चिपका होता है तो किसी की कल्पना में उसका वास होता है। किन्तु वञ्चित कोई नहीं है। यह जैविक, प्राकृतिक आवश्यकता है।

    जब कोई स्त्री के तन को छोड़कर वन में जाता है तो इसी उसके मन में आकर रहती है। स्त्री से छुटकारा कहाँ ? पुरुष से छुटकारा कहाँ? पुरुष के मन में स्त्री दो रूपों में रहती है-प्रेम वा तथा घृणा। ऐसे ही स्त्री के मन में भी पुरुष का निवास प्रेम वा घृणा का प्रतिफल होता है। ये दोनों भाव श्रृंगार एवं वैराग्यमयी कृतियों के रूप में भी प्रकट होते हैं।

   जो इन दोनों भावों से परे हैं, उसकी कृति में न श्रृंगार होगा न वैराग्य होगा। फिर क्या होगा ? शान्त रस. आत्म-प्रकाश, परमात्मानुभूति, निरपेक्ष सुख, शाश्वत आनन्द, समाधि : ऐसे स्त्री पुरुष न तो स्वर्ग में रहते हैं, न नर्क में ही. इनका निवास इन दोनों से परे होता है : परम-आनन्द लोक में.  ये प्रेम और संभोग में तृप्त हुए स्त्री पुरुष होते हैं.

    यह द्वन्द्व मुक्त स्थान है। यह परमधाम है। इसका वर्णन करते हुए उपनिषद् संकेत करता है :

    न नेमा तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं विद्युतो भान्ति कुतोऽयमाग्निः। 

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥

 ~श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।१४)

     वहाँ न तो सूर्य प्रकाशता है, न चन्द्र और तारागण प्रकाश फैलाते हैं, न बिजली चमकती है तो लौकिक अग्नि कैसे प्रकाशित हो सकता है। (क्योंकि) उसी के प्रकाशित होने से ये सब प्रकाशित होते हैं। उसके प्रकाश से यह सारा जगत् प्रकाशित होता है।

   इसी तथ्य का समर्थन श्रीकृष्ण करते हैं :

  न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक।

 यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धराम परमं मम॥

  ~गीता (१५।६)

   वहाँ जाकर कोई वापस नहीं लौटता।  संतुष्ट मनोदशा ही वह स्थान है। वहाँ कोई प्रकाश नहीं होता का अर्थ है- वह स्थिति तृप्तिजनित अकामता की है। अकामता = स्त्री को पुरुष की चाह नहीं तथा पुरुष को स्त्री को इच्छा नहीं। संभोग में ऐसे पूर्णतृप्त हुए स्त्री/पुरुष धन्य हैं।

    गृहस्थ दम्पत्ति रति-काम-रूप होते हैं। इन दोनों (स्त्री-पुरुष) का संमिलन ही रति काम महोत्सव है। योग्य कन्या द्वारा सुयोग्य पति के वरण से इस रतिकामोत्सव का प्रारंभ होता है। कन्या को योग्य पति की प्राप्ति कैसे होती है ?

वेद कहता है :

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानम् विन्दते पतिम्।

 अनड्वान् ब्रह्मचर्येण     अश्वो पास जिगीर्षति।।

~अथर्व वेद (११ । ५ । १८)

    जैसे साँड़ वा घोड़ा दूर दूर तक जाने लम्बा रास्ता अपनाने से अनेकों प्रकार की सुन्दर घासों को देख कर उनको खाने चरने की इच्छा करता है, उसी प्रकार कन्या धैर्यपूर्वक विवाह हेतु लम्बे पथ पर चलती है तो उसे इच्छित योग्य वर/ पति की प्राप्ति होती है।

    ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग साँड घोड़ा के सन्दर्भ में जैसे हुआ है, वैसे ही कन्या के संदर्भ में वर्जिनिटी के लिए हुआ है। साँड़ वा घोड़ा जहाँ बंधा होता है वहाँ सीमित घास होती है। निकट की अनुपयुक्त घास भी बाध्यता के कारण चरनी होती है। यदि इसे छोड़कर हाँक दिया जाय तो वह लम्बा पथ चलेगा। कहीं न कहीं उसे पसंद की घास मिलेगी, जिसका भोग कर वह प्रसन्न व स्वस्थ रहेगा। कन्या के लिये यही दृष्टान्त है। कन्या के पिता व अभिभावक, संरक्षक वर को ढूंढने के लिये दूर दूर तक जाते हैं। युवानों में से कन्या के लिये किसी एक का चयन करते हैं। कन्या इस लम्बे अन्तराल को धैर्य के साथ पार करती है और तब अभीष्ट वर पति पाने में वह सफल होती है।

   एक देशीय/ क्षेत्रीय वर तक सीमित रहना अब्रह्मचर्य (लघुचर्य) है। वेद इसका समर्थन नहीं करता। ब्रह्मचर्य की परिधि बहुदेशीय/ दूरदेशीय, बहुकालीय/ दीर्घकालिक है। धीमा चलो, लम्बा चलो, देख कर चलो, और तब योग्य पात्र का ही चयन करो. यह सूत्र है ब्रह्मचर्य का.

   जब इस ब्रह्मचर्य विधि से कन्या को योग्य पति मिल जाय, वर को योग्य कन्या मिल जाए. वर कन्या का विवाह हो जाय तो रति-कर्म/काम-क्रिया/ रति कामोत्सव होगा ही। हर युवान युवती का यह प्रेय है।

     सूर्य ब्रह्मचारी है। यह सर्वविदित है कि सूर्य की पत्नी संध्या है। पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी क्षितिज का बड़ा लम्बा आकाशीय पथ पार करने से इसे संध्या की प्राप्ति होती है। संध्या को पाकर सूर्य रातभर उसके साथ रति उत्सव करता है। रात्र्यन्त में संध्या रूप उषा से अलग होकर पुनः ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होता है। यह क्रम निरन्तर चल रहा है।

  संध्या के दो रूप हैं :

१. सायं / पश्चिमी संध्या।

२. पूर्वी / प्रातः संध्या।

    पश्चिमी संध्या को संज्ञा तथा पूर्वी संध्या को उषा कहते हैं। रात, रति उत्सव के लिये बनी है। रात में रतिकारक शुक्र तथा रति उदीपक चन्द्र बनवान होता है। दिन ब्रह्मचर्य के लिये बना है। मैथुन मद्धिम एवं सौम्य प्रकाश में प्रशस्त होता है। दिन का तीक्ष्ण प्रकाश इसके लिये उपयुक्त नहीं है। चन्द्रतुल्य (स्त्रीरज) वा शुक्रतुल्य (पुरुषवीर्य) प्रकाश वाला रात्रिकाल इस रति कामोत्सव के लिये सर्वथा ग्राह्य है।

   सूर्य संज्ञा प्रणय मिलन की रात में सभी लोग अपना मैथुनोत्सव मनाते हैं। कृष्ण ने इसी काल में गोपियों के साथ यमुनातट पर रास रची थी।  

वैदिक दर्शन में युवती पत्नी को पाकर युवा पति कहता है :

    अमोऽहमस्मि सात्वं सामाहमस्म्युक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वं। 

ताविह संभवाव प्रजामा जनयावहै।

 ~अथर्व वेद (१४ । २ । ७१)

     रतिमहोत्सव को पूर्वपीठिका पर पति अपनी पत्नी को स्वबाहुपाश से बाँधते हुए कहता है : मैं गति हूँ, तुम भी वही गति हो।

    गति=गो= ज्ञान।

पति अपने को ज्ञानस्वरूप कहता है, तो उसकी पत्नी जड़ कैसे हो सकती है। अतः वह उसे भी ज्ञानस्वरूपा कहता है। यहाँ पति अपने ही समान पत्नी को मानता है। दोनों में अभेद है, गुण साम्य है। कोई किसी से न तो बड़ा है, न छोटा है। तात्पर्य यह है कि पति की दृष्टि में पत्नी तत्सम है।

   पुनः वह कहता है : मैं साम हूँ, तुम ऋक हो। यहाँ साम और में किञ्चिद् अन्तर है. गुणवत्ता को दृष्टि से नहीं अपितु प्राकट्य की दृष्टि से उतार-चढ़ाव एवं लय के साथ जो मन्त्र गाया जाता है, संगीत बद्ध किया ताता है, वह साम है जो मन्त्र गाया नहीं जाता, भलीभांति बोला कहा वा पढ़ा जाता है, वह ऋ है।

    गति तो दोनों में है। ऋक अक्षीय है जबकि साम परिवृत्तीय है। ऋक् में विस्तार नहीं है, साम में विस्तार है। पृथ्वी अपनी अक्ष पर स्थिर रह कर घूमती है। इस कारण यह ऋक है। यह पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य के चारों ओर घूमती है। इससे यह साम है। साम में परिवृत्तता है, ऋक में विन्दुता है। पुरुष साम है, का अर्थ है वह घर के बाहर दूर-दूर तक अपने क्रिया कलाप में व्यस्त रहता है।

    स्त्री ऋक है, का अर्थ है वह घर के भीतर गृहस्थी के कार्यों का सम्पादन करती है।

    पृथ्वी यजुः है। सूर्य यजुः है। स्त्री और पुरुष भी यजुः हैं। सूर्य प्रकाश देता है। पृथ्वी अन्न देती है। पुरुष वीर्य देता है। स्त्री रज से आनन्द देती है।

    कहने का तात्पर्य है कि ऋक् यजुः साम और अथर्व ये चारों साथ-साथ हर देश काल पात्र में रहते हैं, प्रकट वा अप्रकट रूप से पति तीसरी बार कहता है- मैं आकाश हूँ, तुम पृथिवी हो। पृथिवी के चारों ओर आकाश है। पृथिवी आकाश में है।

   जब पुरुष अपनी स्त्री को अंक में बैठा कर बाहों में भर कर चारों तरफ से उसे आच्छादित कर लेता है तो मानो वह आकाश है विशाल है। स्त्री संकुचित होकर पुरुष के शारीरिक आधिपत्य में होती है तथा वह उसके दबाव को सहन करती है तो मानो वह क्षमा पृथिवी है।

    उपरोक्त वेदमंत्र में चौथी बार पुरुष कहता है : तौ इह संभवाव’ हम दोनों इस स्थान में, इस समय में, इस जीवन में एक साथ रहें. तेजस्वी सन्तान को उत्पन्न करें, प्रजावान हों.

      इस प्रकार काम अजेय है. काम को नमस्कार। कामिनी को नमस्कार। कामायन विश्व को नमस्कार। कामायनी प्रकृति को नमस्कार।

    यह सृष्टि काम से है, काम के लिये है, काममय है। काम शाश्वत है, चिरनव है। जो कुछ भी दृश्यादृश्य, अणुविभु है, वह सब काम है। 

    विवाह= वि + वाह।

वि= विपरीत लिंगी, विपरीत गुणी, विजातीय, विरुद्ध स्वभाव वाला.

   वाह = वह + घञ्। वहन / धारण करने वाला ले जाने वाला. साथ लेकर चलने वाला, भार ढोने वाला, उत्तरदायित्व का निर्वाह करने वाला। 

 इस प्रकार अब विवाह का अर्थ हुआ :

विपरीत लिंगी / विरुद्ध स्वभावी/ विरुद्ध गुणी को अपने साथ लेकर आगे बढ़ने वाला. जीवन जीने वाला. योग्य पुरुष योग्य स्त्री को लेकर, स्त्री पुरुष को लेकर एक साथ चले, जीवन जिये, आनन्द मनाए।

   स्त्री और पुरुष दोनों शीत-उष्ण, कोमल-कठोर, चर-अचर, सुन्दर-असुन्दर, भीरु निडर, सहनशील- असहनशील, अन्तर्मुखो बहिर्मुखी अप्रकट प्रकट, जननी जनक रूप हैं।

    बस सूत्र है योग्यता का. यह योग्यता रूप रंग, कद काठी या उम्र की नहीं है. यह योग्यता है भावना, संवेदना, चेतना के समान स्तर की. यह समानता हो तो पुरुष की उम्र कोई भी हो, बस उसमे स्वस्थ संभोग का पौरुष होना चाहिए. स्त्री की उम्र कोई भी हो, बस उसमे पर्याप्त कामाग्नि होनी चाहिए.

  अलग-अलग दोनों अपूर्ण हैं। मिलने पर दोनों पूर्ण होते हैं। पूर्ण वही है जिसमें समस्त विरुद्ध गुणों का समावेश हो। विवाह पूर्णता के लिये किया जाता है। जो पुरुष में नहीं है, वह स्त्री में है। जो स्त्री में नहीं है, वह पुरुष में है। पूर्णता दो से होती है, एक से नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक और मिलकर एक ही होते हैं, दो नहीं। अर्थात् १×१=१ : यही विवाह का सूत्र है

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