डॉ. विकास मानव
कठ उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। जीवन के रहस्यमय सत्यों का अवगाहन संक्षिप्त और सुस्पष्ट पूर्णतः के साथ करने के कारण इस उपनिषद् की महनीयता है। जीवन और मृत्यु के आधारभूत प्रश्नों, जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों के अर्थ इस उपनिषद् की विषय-वस्तु हैं।
वेदान्त के एकीकृत सिद्धान्त का अन्य उपनिषदों से बेहतर प्रस्तुतीकरण इस उपनिषद् में है। यम जैसे गुरू और नचिकेता जैसे शिष्य के कारण यह सम्वाद प्रतिमा की उच्चतम अवस्था को प्राप्त है। उपनिषद् की पृष्ठभूमि / आलेखन गुरू यम और गम्भीर. ईमानदार और प्रेरित शिष्य नचिकेता के मध्य सन्धाद में अवस्थित है। शिष्य को नित्य और अनित्य की समझ रखने वाला बताया गया है।
१२ वर्ष के नचिकेता को वाजश्रया का पुत्र बताया गया है। यह बालक अपने पिता और समाज के प्रति समर्पित है। यह आत्म-ज्ञान प्राप्ति हेतु परम इच्छा और जिज्ञासा रखता है। यम से मिलने पर उसे तीन वरदान प्राप्त हुए। बालक ने प्रथम वरदान में पिता के उसके प्रति क्रोध की शान्ति द्वितीय में. स्वर्ग प्राप्ति हेतु उपायभूत अग्निचयन का ज्ञान, और तृतीय में आत्म-ज्ञान- संबंधित ज्ञान मांगा।
कठो उपनिषद में दो अध्याय और एक सौ बीस श्लोक है। प्रत्येक अध्याय में वल्ली कहे जाने वाले तीन खण्ड हैं।
*नचिकेता की कथा :*
नचिकेता के पिता वाजश्रवा ने पुण्य प्राप्ति हेतु यज्ञ करते हैं। विश्वजित यज्ञ की पूर्णाहुति पर उन्होंने बूढी और अशक्त गायों को ब्राह्मणों को दक्षिणा में प्रदान किया। इस प्रकार के यज्ञ में यज्ञकर्त्ता से आशा की जाती है कि यह अपनी सम्पूर्ण प्रिय सम्पदा पुरोहितों को दान में दें।
बालक नचिकेता पिता के कृत्य को देखकत व्यथित हुआ और दान के लिए प्रिययस्तु के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया। अपनी सम्पूर्ण सम्पदा को दान करने के पिता के प्रण को जानकर, नचिकेता ने पिता से कहा, प्रिय पिता, आप मुझे किसे दान देंगे?” पिता के उत्तर न देने पर नचिकेता ने प्रश्न बारम्बार दोहराया, तब क्रांवित होकर पिता ने कहा, “यम को अपने वचन को महसूस कर पिता संताप को प्राप्त हुए, परन्तु पिता की बात का मान रखते हुए, नचिकेता यम के पास चला गया।
बिना अन्न-जल ग्रहण के तीन -दिन यम का इंतजार करता रहा। नगर वापिसी पर यम बालक पर दयावान हुए और रात-१ उठ देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक नचिकेता को तीन वरदान दिये। वालपन होने पर भी नचिकेता प्रज्ञावान था।
उसने पहला पर मांगा कि उसके पिता चिन्ता, क्रोध से मुक्त होकर मनःशान्ति को प्राप्त हो।
द्वितीय पर के रूप में उसने उस यज्ञ का शान मांगा, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और व्यक्ति भूख प्यास, क्रोध और संताप से मुक्त हो जाता है। यम ने प्रसन्नतापूर्वक यह वरदान दिया।
उन्होंने बताया कि कैसे यशीय अग्नि विश्व का स्रोत बनती है। नचिकेता ने बताये गये समस्त प्रक्रिया- विधानों को सुना दिया। यम बालक की मेवा – शक्ति और योग्यता से प्रसन्न होकर यम ने कहा, ‘आज से यह यज्ञीय अग्नि तुम्हारे नाम से जानी जायेगी।” और यह भी कहा कि जो भी यह अग्नि तीन बार प्रज्ज्वलित करेगा, यह तीन देवताओं से संयुक्त ठोकर मोक्ष को प्राप्त होगा।
तीसरे पर के रूप में नचिकेता ने मृत्यु के पश्चात मनुष्य का क्या होता है? इस विषय में ज्ञान चाहा। उसने पूछा, मृत्यु के पश्चात मनुष्य का क्या होता है, इस सम्बन्ध में संषय है। कुछ कहते हैं कि उसका अस्तित्व होता है और अन्य कहते हैं कि नहीं होता।” यम ने कहा कि महान विद्वान भी इस सन्दर्भ में संशयग्रस्त हैं और इस प्रश्न का उत्तर अत्यन्त जटिल एवं सूक्ष्म होने के कारण बोध में कठिन है।
ऐसा कहकर यम ने बालक को इस प्रश्न के प्रति हतोत्साहित करना चाहा और नौतिक / सांसारिक वस्तुओं, धन, स्वर्ण, घोडे, हाथी, भूमि इत्यादि लेने का प्रस्ताव दिया। नचिकेता उत्तर प्राप्ति हेतु दृक और अडिग रहा। सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता के बोध वाले नचिकेता ने नित्य ज्ञान की प्राप्ति को महत्व दिया।
नचिकेता के सांसारिक सुख इच्छाओं से निवृत्ति से यम प्रभावित होकर यम ने नित्य ज्ञान को निर्देशित करना प्रारम्भ कियाय अविद्या और विद्या भिन्न मार्गों की प्राप्ति के कारण एक-दूसरे से भिन्न हैं। सत्य-प्राप्ति हेतु कठोपनिषद में दी गई शिक्षाओं में वर्णित शानमार्ग का अनुसरण किया जाना चाहिए।
*आत्म का स्वरूप :*
अजन्मा, नित्य, अन्तहीन, पुराण (प्राचीन) और अनश्वर आत्म का स्वरूप है। आत्म का न जन्म है न मृत्यु यह सर्व आच्छादक, दूरस्थ समीपस्थ और सर्वव्यापक है। यह आनन्द-परिपूर्ण और आनन्द रहित दोनों है। यह अशरीरी होते हुए भी सबको आच्छादित करने वाला है।
यह सूक्ष्मतम से अधिक सूक्ष्म और उसी समय महानतम से महान है। पुरुष (आत्म) सूक्ष्मतम है। यह इन्द्रियगोचर वस्तुओं, इन्द्रियों, मनस्, बुद्धि और महत् व्यक्त हिरण्यगर्न और अव्यक्त से भी सूक्ष्म है। आन सबमें है।
आत्म व्यनिद्दीन, रूपद्दीन, अनश्वर, स्वादहीन, गन्धहीन, नित्य, स्थिर सर्व आच्छादक, सूक्ष्मतम सर्वश और सर्वशक्तिमान है। इसका प्रकाश सूर्य, चन्द्र, तारों, प्रकाश और अग्नि से भी महानतर है। इसे देखा नहीं जा सकता. यद्यपि इससे सबकुछ प्रकाशित है। कोई भी मर्त्य श्वांस मात्र से जीवित नहीं रहता। यह आत्म से जीवित रहता है, जिस पर सम्पूर्ण अस्तित्व निर्भर रहता है।
ब्रह्म में सबकुछ स्थित है और यह सबका स्रोत है। उसकी तुलना पेड़ से की जा सकती है जिसकी मूल आकाश में और शाखाएं नीचे अवस्थित। प्रत्येक सन्नादित वस्तु इसमें स्थिति को पाती। है। जिससे कोई भी पारगमित नहीं हो सकता। उसके आदेश पर विधाता भी प्राण-शक्ति के समान उसमें श्वसन करता प्रकट होता है।
यह प्राकृतिक नियम (ऋतु) को बनाने वाला है, और यज्ञ के समान भयकारी है। आत्म की शक्ति से अग्नि, सूर्य, वायु, और यहां तक कि मृत्यु नी नियन्त्रित हैं। आत्म के आदेश से सभी शक्तियां और देवता अपने नियत दायित्यों का निर्वहन करते हैं। पुरुष (आत्म) सभी से महान है। यह सबके द्वारा अभिलषित सत्य है।
यह ही सूर्य है, आकाश में वायु यशवेदी की अग्नि और यश का सोमरस है। फिर भी उसका रूप दृष्टि के क्षेत्र से परे है। कोई भी इन नेत्रों से उसे नहीं देख सकता।
आत्म चेतन है। यह शरीर का गुणधर्म नहीं है क्योंकि भौतिक दव्य स्वरूप में आन्तरिकतः संशारहित है। आत्म शरीर का उत्पाद्य नहीं है, क्योंकि अचेतन भौतिक दव्य चेतन / चेतनादान को उत्पन्न नहीं कर सकता। यह शरीर का अंग भी नहीं है, क्योंकि यह सम्पूर्ण शरीर को आच्छादित करता है और इसे जीवन्त और चलायमान / कम्पायमान बनाता है।
शरीर का प्रत्येक अंग अपने अस्तित्व के लिए आत्म पर ही निर्भर है। ये सभी आत्म पर निर्भर हैं. अपने अपने अस्तित्व के लिए आत्म उन पर निर्भर नहीं है। यह शरीर की सीमाओं से सीमित नहीं है। शरीर के क्षीण होने पर भी यह एकमात्र जीवित रहता है।
*आत्मतत्व की अनुभूति :*
आत्मानुभूति करने वाला ही आत्म-सन्बन्धी ज्ञान के बारे में बता सकता है। यम कहते हैं, “अरे मनुष्य! उठो, जागे और सत्य का अनुनय करो। सत्य को जानने का मार्ग छुरे की पैनी थार के समान है। कठिन होते हुए यही मार्ग अनुसरित किया जाना चाहिए। कठिनाई आत्म और अनात्म के विवेक में है। जो भी व्यक्त है वह अव्यक्त ब्रह्म में है। साधारण मनुष्य इस सत्य की अनुभूति में असफल होता है और संसार को ब्रह्म से भिन्न देखता है। इन्द्रिय स्वरूपतः बहिर्मुख हैं।
फलतः जो स्वयं का शरीर और इन्दिय से तादात्म्य मानता है. यह केवल इन्द्रिय और वाहा जगत् को ही समझने और जानने का प्रयास करता है। इन्दिय में मग्न रहने वाले ये आत्म-दृष्टि प्राप्त नहीं करते हैं। ये व्यक्ति अपने विचारों और लक्ष्यों में अबोध बच्चों के समान हैं।
केवल थोड़े से अमरत्व की आकांक्षा वाले बुद्धि मान (प्रशावान व्यक्ति अपने ध्यान को अन्तर्मुख करते हैं और आत्म-शान और आत्मानुभूति सम्बन्धी जिज्ञासा करते हैं।
*वैयक्तिक आत्म और ब्रह्माण्डीय आत्म :*
आध्यात्मिक क्षेत्र में सत् दो तरह से समझा जा सकता है. वैयक्तिक आत्म और ब्रह्माण्डीय आत्म ब्रह्माण्डीय आत्म उत्पन्न सत् की बुद्धि और चेतना में प्रवेश करके हृदय की गुफा (गुडा) में निवास करता है यह सजीवों के जीवन को प्राणित करता है। वैयक्तिक आत्म के रूप में उसी क्षण यह मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगता है।
आत्म सर्वज्ञ जो जन्मता या मरता नहीं। यह रचित नहीं है। शरीर के जय होने पर आत्म का जय नहीं होता है। आत्म न मरता है, न मारता है। जैसे वायु सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है और बर्तनों के आकार के कारण भिन्न-भिन्न मानी जाती है, उसी तरह आत्म समस्त प्राणियों के हृदयों में निवास करता है, और भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होता है।
अपनी परम अवस्था में यह अगोचर और अन्तःस्थ है। इसकी उपस्थिति से रहित कोई स्थान नहीं है। यह अन्तर में बाहर में और सर्वत्र है।
नित्य ब्रह्म ग्यारह द्वारों वाले नगर में निवास करता है। ये द्वार निम्नलिखित हैं सिर में सात, एक नाभि में, दो निम्नभाग में एक अग्रमस्तिष्क में आत्म नौतिक शरीर की अध्यक्षता करता है। कठोपनिषद में एक सुन्दर रूपक से आत्म और शरीर के सम्बन्ध को दर्शाया गया है। शरीर की तुलना एक ऐसे रथ से की गई है जो जीवन-मार्ग पर अन्तहीन यात्रा कर रहा है, मन की तुलना लगाम इन्द्रियों की घोड़ों और वाहा वस्तुओं की तुलना सड़क से की गई है। आत्म भोक्ता है।
यदि कोई अनियन्त्रित मन वाला और अविद्याग्रस्त है उसकी इन्द्रियां बेलगाम घोड़ों की तरह हो जाती हैं। नियन्त्रित मन रथ को सही दिशा में ले जाता है अशुद्ध मन से लक्ष्य प्राप्ति कठिन है।