डॉ. विकास मानव
*पूर्व कथन :*
अगर आपके पास सभी दैहिक-मानसिक कामों से फ्री होकर खुद को इत्मीनान देने के लिए घंटेभर का भी समय नहीं है, तो यह लेख पढ़ना शुरू ही मत करना. इस शोधलेख का सब्जेक्ट कोई कविता, कहानी राजनीतिक विमर्श या गप्पबाजी नहीं है. यह मानवमात्र के जीवन से जुड़ा सबसे अहम टॉपिक है. बहुत समय, श्रम और अर्थ भी जाया करना पड़ा है मुझे इस अनुभव से पूर्ण होने के लिए.
आपके चाहने पर आपको तो यह अनुभव मैं सहज ही करा दूंगा, बिना आपसे कुछ भी लिए. इसके लिए हमारे व्हाट्सप्प पर अपना परिचय लिखने के बाद बात करना.
*विषय- प्रवेश :*
पौरूरवस मनसिज सूत्रम् समस्त पद है जिसमें तीन शब्द हैं : पौरूरवस, मनसिज, सूत्रम्। यानी पुरुष की वीर्यशक्ति और स्त्री की रजस्थिति के उपयोग का सूत्र. वैदिक दर्शन के अनुसार इसका अर्थ हुआ काम और सूत्रम्. मनसिजसूत्रम् अर्थात् काम का सूत्र, कामसूत्र। वैदिक आख्यान के अनुसार सम्पूर्ण ‘पौरूरसमनसिज सूत्रम्’ का अर्थ हुआ राजर्षि पुरुरुवा का कामसूत्र।
श्रीमद्भागवत् नवम स्कन्ध अध्याय चौदह तथा विष्णुपुराण चतुर्थ अंश प्रथम अध्याय के अनुसार वैवस्वत मनु के कोई संतान नहीं थी. उन्होंने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से यज्ञ किया. उनको पुत्र की जगह ‘इला’ नाम की पुत्री प्राप्त हुईं। उनकी तपस्या से पुत्री पुत्र के रूप में बदल गयी. उसका नाम सुद्युम्न रखा गया।
सुद्यम्न भ्रमण करते हुए नैमिषरायण्य पहुँचें. अभी पिछले दिनों ही मैं यहाँ होकर आया हूँ. जिस समय सुद्युम्न यहाँ पहुंचे, भगवान् शिव और पार्वती सम्भोग-साधना में लीन थे। सम्भोग प्रारम्भ होने से पूर्व ही पार्वती ने यह कहा था कि यहाँ कोई देख लेगा. उत्तर में शिव ने कहा था कि जो देख लेगा वह तुम्हारी भाँति स्त्री हो जायेगा। अतः जैसे ही नैमिषारण्य में उन्होंने सम्भोगरत शिव पार्वती को देखा, पुनः स्त्री बन गये।
अब वह ‘इला’ नामक स्त्री अकेली घूमती हुई चन्द्रमा के पुत्र बुध के दृष्टिपथ में आई. बुध उस पर आकृष्ट हो गये. वह भी उन पर आकृष्ट हो गयी. इनका विवाह हुआ। उन दोनों से पुरूरवा का जन्म हुआ।
राजर्षि बनने पर उनपर मुग्ध होकर देवाङ्गना उर्वशी ने उनके साथ विवाह किया; जिससे चन्द्रवंश विकसित हुआ।
उर्वशी कोई सामान्य देवाङ्गना नहीं थी। वह समस्त देवाङ्गनाओं में सबसे अधिक सुन्दर थी। ऋग्वेद के अनुसार वह इतनी अधिक सुन्दर थी कि उसकी ओर दृष्टि डालते ही मित्र और वरुण का वीर्य स्खलित हो गया; जिससे अगस्त्य और वशिष्ठ का जन्म हुआ था।
मित्र और वरुण द्वारा शाप दिये जाने के कारण वह इस लोक में आई और जब वह स्वर्ग से उतर रही थी, तब राजर्षि पुरूरवा की उस पर दृष्टि पड़ी तो वह उनके सौन्दर्य पर मन्त्रमुग्ध हो गयी और पुरूरवा को अपना पति बनाना स्वीकार कर लिया। वह कुछ समय तक पुरूरवा के साथ रही; परन्तु शाप की समाप्ति होने पर फिर स्वर्ग लोक चली गयी।
पुरूरवा को उसके वियोग से अपार दुःख हुआ; परन्तु वह पुनः उसे प्राप्त करने में सफल हो गया और फिर वह एक पुत्र आयुस् को जन्म देकर पुनः स्वर्ग चली गयी।
राजा ने उसके वियोग में बहुत विलाप किया। उर्वशी प्रसन्न होकर तीसरी बार आकर रहने लगी और फिर एक और पुत्र को जन्म देकर फिर स्वर्ग चली गयी।
इस प्रकार उर्वशी ने स्वर्ग से बार-बार आकर क्रमशः पाँच पुत्रों को जन्म दिया; परन्तु पुरूरवा उसे अपनी जीवन सङ्गिनी बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने यज्ञ का अनुष्ठान कर उर्वशी को अपनी पत्नी बना ही लिया।
उर्वशी ने दो शर्तों पर पुरूरवा के साथ रहना स्वीकार किया था। प्रथम शर्त थी कि उसके दो भेंड़े जिन्हें वह पुत्रवत् प्यार करती थी, उसके पलंग के पास ही बँधेगें. दूसरी शर्त यह कि राजा पुरूरवा कभी भी उसके सामने वस्त्रहीन नहीं दिखाई देंगे।
उर्वशी के भेंड़ों को गन्धर्वो ने चुरा लिया. जब वे भेड़ों को ले जा रहे थे, उस समय ‘बें, बें’ की आवाज सुनकर उर्वशी ने राजा के शौर्य को धिक्कारा. तब राजा कुपित होकर तलवार हाथ में लेकर वस्त्रविहीन दशा में ही उन गन्धर्वों का पीछा करने निकल पड़े. भेड़ों को लेकर लौटे तो उनके शरीर के प्रकाश के कारण उर्वशी द्वारा उनका वस्त्रविहीन शरीर देख लिया गया।
देखते ही उन्हें छोड़कर चली गयी। उर्वशी के चले जाने पर राजा दुःखी हो गये. उर्वशी ने स्वर्ग से उनसे कहा कि तुम गन्धर्वों की स्तुति करो. स्तुति करने पर गन्धर्वो ने उन्हें एक अग्निस्थली दी. वे घर आये और रात दिन उसकी याद में तड़फने लगे. फिर उसी स्थान पर गये, जहाँ कि स्थाली थी तो देखा कि वहाँ शमी के पेड़ में एक पीपल का पेड़ उगा हुआ है।
वहाँ उन्होंने उसकी दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं. उन्होंने नीचे की अरणि को उर्वशी और ऊपर की अरणि को पुरूरवा मानकर मन्त्रों के उच्चारण के साथ मन्थन किया तो उसमें से जावेद नामक अग्नि का जन्म हुआ। पुरूरवा ने इस अग्नि को त्रयीविद्या के द्वारा आह्ननीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि इन तीन भागों में विभक्त कर पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया।
मेरी तरह पुरुरवा भी अच्छी प्रकार से लीन होकर स्त्री के बेसुध होने तक सम्भोग करने की क्षमता रखते थे. इसीलिए उनको ब्रह्माण्ड सुंदरी यशस्विनी उर्वशी ने स्वर्ग और स्वाभिमान तक छोड़कर अपना पति बनाया था. इस सत्य की पुष्टि ब्रह्मापुराण (१० / २-४) से होती है :
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः, शतुभिर्युधि दुर्दभः।
आहर्त्ता चाग्निहोत्रस्य, यज्ञानां च महीपतिः।।
सत्यवादी पुण्यमतिः, सम्यक् संवृत मैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसा प्रतिमः सदा।।
तं ब्रह्मवादिनं शान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम्।
उर्व्वशी वरयामास, हित्वा मानं यशस्विननी।।
उपर्युक्त श्लोक में मेरी तरह राजा पुरूरवा को भी सम्भोग-साधना में कुशल बताया गया है।
पौरूष-मनसिजसूत्र के वर्ण्य विषय :
पौरूरवसमनसिज सूत्र में अत्यन्तदुर्लभ और महत्त्वपूर्ण कामशास्त्रीय गूढ रहस्यों का पटाक्षेप किया गया है। यह कामसूत्र केवल एक ही विषय को लेकर चलता है और अपने उस विषय पर इतना गहन अध्ययन और सफलतापूर्ण तकनीक प्रस्तुत करता है कि जैसा न आज तक किसी ने प्रस्तुत किया है और न कर सकेगा। यह अनुभव से सम्पन्न होकर ही प्रस्तुत किया जा सकता है. इसलिए मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आज के दौर में स्त्रियाँ पुरुष से पूर्व कभी द्रवित नहीं होती हैं. जब द्रवित नहीं होती और पुरुष उनसे पूर्व द्रवित हो जाते हैं, तो वे असन्तुष्ट रहकर अनेक पुरुषों की अपेक्षा करती हैं। ऊँगली, सब्जी, यंत्र, पशु को विकल्प बनाती हैं. बीमारियों की शिकार बनती हैं। मेरे अनुभव से निकले इस लेख का पैटर्न इतना उच्चतम-कोटि का है कि एक नहीं, एक साथ अनेक नारी को भी द्रवित किया जा सकता है।
कामत्रपरिज्ञानोनुभव मनोयुवावस्थायाः प्रयोजकत्वात्.
कामशास्त्र के पूर्णज्ञान और अनुभव में मन-मस्तिष्क की युवावस्था ही प्रयोजकता है।
दर्पकोद्बोधने श्यामाधरसुधाप्राशनमौपदेशिकाङ्गम्।
प्रेम के देवता कामदेव और देवी रति को जगाने में अधरामृतपान पहला काम है।
कामसिक्त होठों में अमृत का वास होता है, ऐसा गान्धर्ववेद का प्रमाण है :
योषाधरपल्लवे सुधाया.
प्राशनम् :
दाँतों से सहजता से धीरे-धीरे काटना। अधर से निकलते हुए अमृत को पी जाना।
महाकवि कालिदास ने भी ‘कुमारसम्भव’ में तपस्यारत पार्वती के सौन्दर्य पर मन्त्रमुग्ध शिव के प्रेमप्रसङ्ग में पहला उपाय अधरपीडन ही बताया है :
स्थिताः क्षणं पक्ष्मसु ताडिताधरा, पयोधरोत्सेधनिपात चूर्णिताः।
वलीसु तस्याः स्खलिता प्रपेदिरे, चिरेण नाभिं प्रथमोदविन्दवः।।
अधरपान करते समय कितने अङ्गों को देखना अभीष्टतम है. किन-किन अङ्गों को देखने से रमण का भरपूर आनन्द प्राप्त होता है :
अङ्गचतुष्ट्योपलक्षतो रत्यानन्दः
चार अङ्गों से उपलक्षित रत्यानन्द होता है. ये अंग हैं मस्तक, ऑंखें, ललाट और स्तन.
स्त्रीपुरुष अपनी दोनों तरह की इन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से एक-दूसरे को ही देखें तो आनन्द का प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा प्रकाशित होता है।
पृथक् रूप से अवस्थित दोनों की दोनों इन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का एक स्वरूप हो जाना रति का आरंभ है. एक स्वरूप हो जाने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह रत्यानन्द यानि संभोग का आरंभिक है।
उरसि कुचाभ्यां संश्लेषणं द्वितीयमङ्गम्।
छाती पर कुचों (स्तनों) से संश्लेषण कामसाधना का दूसरा अङ्ग है.
पुरुष अपनी छाती पर स्त्री के दोनों स्तनों को सम्यक् प्रकार से ऐसा चिपका ले जैसे कि लाख लकड़ी पर चिपक जाता है।
उत्तेजनातिरेक में अपूर्व उत्साहशक्ति से पुरुष-स्त्री आलिङ्गन करें और एक दूसरे के स्तनों को अपनी छाती से चिपकाकर उस पर छा जाएं, जिससे अपने को भूल जाएं।
अहंकार और मिथ्या धार्मिक सङ्कीर्णता के शिकार स्त्रीपुरुष स्वयं को भूल नहीं पाते हैं। इसलिए वे परमानन्द को न स्वयं भोग पाते हैं, न साथी को सुख को दे पाते हैं.
दोषभ्यां कुचयोरुपमर्दनं तृतीयाङ्गम्।
हाथों से कुचों का उपमर्दन काम का तीसरा अङ्ग है.
स्तनों को दबाने से नस नस उत्तेजित होकर प्रफुल्लित हो जाती है. मुख से सीत्कार की ध्वनि निकलती है जो योनि और लिंग की नाड़ियों को भी प्रफुल्लित कर देती है.
जतुकाष्ठवत् संश्लेषणं तुरीयमङ्गम्।
जिस तरह लाख लकड़ी पर चिपक जाता है, उसी तरह स्त्री का आलिङ्गन प्रेम के देवता कामदेव को जगा देता है.
चिपकना, एक दूसरे में सट जाना, इसे आलिङ्गन कहा गया है. लिपटना अर्थात् पूरी तरह सभी अङ्गों से एक-दूसरे में लिपट जाना।
आध्यात्मिक यानी परमानन्द वही बता सकता है, जिसने कि इस का अनुभव किया हो. किसी भी विषय वस्तु को केन्द्र विन्दु बनाकर उस पर ध्यानावस्थित होने से आनन्द की अनुभूति होती है अथवा इसे यों कहें कि आनन्द तभी आता है, जब चित्तवृत्ति का निरोध होता है। वह निरोध ही योग है तथा वह योग ही परमानन्द का स्वरूप है।
इधर-उधर भटकने से क्या लाभ ? सामान्यतया आप जब कोई अपने हित या व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित नाटक को पढ़ते देखते या सुनते हैं, वहाँ जब आपका मन उस केन्द्रविन्दु पर स्थित होता है, तो आनन्द की अनुभूति होती है।
मेरा अनुभव कहता है कि परमानन्द की कल्पना का आधार स्वस्थ संभोग ही रहा है। इस प्रत्यक्ष परमात्मारूपी सम्भोगानन्द मेँ वही परमानन्द मिलता है जो ध्यानसमाधि मेँ मिलता है। मैंने पाया है कि सम्भोगसुख समाधिसुख है, मोक्ष का द्वार है. आप चाहते हैं तो सदाचारी, सत्प्रेमी और पौरुषपूर्ण बनकर स्त्री मेँ उतरें. आप चाहती हैं तो मात्र एक रात मुझे लकर देखें. बिना कुछ दिए और बिना किसी दुराचार से गुजरे आप शिखर पाएंगी. आप खुद कगेंगी : जीते जी स्वर्ग मिला और ईश्वर भी.
सम्भोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है। ईगोलेसनेस पैदा हो जाती है। धर्म के श्रेष्ठतम अनुभव में ‘मैं’ बिल्कुल मिट जाता है। अहंकार बिल्कुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में क्षणभरमें अहंकार मिटता है, लगता है, ‘हूँ’ या ‘नहीं’। एक क्षण के लिये समय मिट जाता है। टाइमलेसनेस पैदा हो जाती है।
जीसस क्राइस्ट के अनुसार समाधि का जो अनुभव है, वहाँ समय नहीं रह जाता, वह कालातीत है। समय विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न भविष्य, शुद्ध वर्तमान रह जाता है। सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है, न कोई अतीत रह जाता है, न कोई भविष्य। समय मिट जाता है। एक क्षण के लिये समविलीन हो जाता है। यहाँ अध्यात्मसमाधि (धार्मिक अनुभूति) के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है — ईगोलेसनेस और टाईमलेसनेस । अहं शून्यता और कालातीतता। समय है एक तनाव एक टेन्शन, अतीत और भविष्य के बीच। समय के तनाव से मुक्त होकर ही मिलता है — वर्तमान । वह है अनन्तता तथा वह दूसरा है, जिसकी वजह से स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के लिये पागल हो जाते हैं। वह आतुरता शरीरों के लिये नहीं है। उसमें समय मिटता है। अहंकार मिटता है। यह आतुरता भला शरीरों के लिये कैसे हो सकती है ? वह आतुरता है, आत्मा की आत्मा के लिये। उसमें आत्मा की झलक होती है। उसमें परमात्मा की प्राप्ति होती है।
सम्भोग में इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिये है। दुनियावी सम्भोग से आप उस दिन मुक्त होंगे जिस दिन समाधि आपको आध्यात्मिक सम्भोग के मिलनी शुरू हो जायेगी।
जिस सेक्स क़ी मैं बात कर रहा हूँ, वह सेक्स जीवन का एक अनिवार्य तत्त्व है और समाधि का एक आदर्श है। यही सच्ची समाधि है। इसी से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है; क्योंकि मोक्ष से पूर्व का सोपान यह काम ही है। इसी समाधि के बाद मनुष्य अमरत्व को प्राप्त करता है। वह मरता नहीं अपितु अपना रूप बदलकर शिशु के रूप में पुनः इस संसार में आता है। आध्यात्मिक समाधि से जिसने अमरत्व प्राप्त किया हो, वही उसके अनुभव को बता सकता है; परन्तु इस समाधि से प्राप्त अमरत्व को तो सभी जानते हैं; परन्तु ये कैसी विडम्बना है कि सब कुछ देखते जानते हुए भी नहीं समझ रहे हैं।
यह तो आज विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि संसार में कोई वस्तु मरती नहीं, अपितु अपना रूप बदलती है। अतः पिता के रूप में सम्भोग करता हुआ पिता कभी नहीं मरता, अपना रूप बदलता है। इसीलिये कहा गया है ‘आत्मा अमर है।’ शरीर मरते हैं, आत्मा नहीं, आत्मा शरीर बदल कर दूसरे शरीर में चली जाती है। इसे कुछ धर्म वाले मानते हैं। इसी के आधार पर वे पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं; परन्तु यह सिद्धान्त आजतक विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। खरा उतरा है, तो यह सम्भोग से समाधि का सिद्धान्त, जिसमें मनुष्य की आत्मा पुत्र के रूप में पुनः इस संसार में आती है। इसीलिये “आत्मा वै जायते पुत्रः”। इसमें केवल पिता की आत्मा ही नहीं माता की आत्मा का भी मिश्रण होता है। इस प्रकार पुरुष और स्त्री सम्भोग समाधि में लीन होकर पुत्र और पुत्री के रूप में जन्म लेकर आत्मा की अमरता सिद्ध करते हैं। इसीलिये तो महाभारत में कहा गया है कि पत्नी के अन्तर्गत पति प्रविष्ट होकर पुन: उत्पन्न होता है :
भायां पतिः सम्प्रविश्य स यस्माज्जायते पुनः।
जायायास्त द्विजायास्तव, पौराणाः कवयो विदुः।।
पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका दोनों जब समाधिस्थ हो जाते हैं, तब वहाँ एक आत्मा की झलक होती है, उस समय दोनों की आत्मायें मिलकर एक हो जाती हैं और फिर उन दोनों का एकीकृत रूप उत्पन्न होता है। वह एकीकृत रूप ही तो दोनों की समाधि से आत्मतत्व कहिये या परमात्म तत्त्व कहिये की स्पष्ट उपलब्धि है। इसीलिये तो यह बहुत पहले ही कह दिया गया कि अपने द्वारा पैदा किया हुआ पुत्र ही आत्मा कहा जाता है। अतः पुत्र की माता, अपनी पत्नी को, मनुष्य माँ के समान देखें; क्योंकि उसी के गर्भ में प्रविष्ट होकर पति पुत्र के रूप में जन्म लेता है :
आत्माऽऽत्मनैव जनितः, पुत्र इत्युच्यते बुधैः।
तस्माद् भार्या नरः पश्येत्, मातृवत् पुत्रमातरम्।
इस कथन से यह स्पष्ट है कि स्त्री और पुरुष की आत्मा उनके पुत्री और पुत्र हैं। वह आत्मा कभी नहीं मरती केवल रूप बदलती है। माता-पिता सम्भोग समाधि में लीन होकर पुत्री और पुत्री के रूप में जन्म लेते हैं।
महर्षि वेद व्यास कहते हैं :
अन्तरात्मैव सर्वस्य पुत्र नाम्नोच्यते सदा।
गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च।।
पितॄणां यानि दृश्यन्ते, पुत्राणां सन्ति तानि च।
तेषां शीलाचारगुणातत्सम्पर्काच्छुभाशुभा।।
भार्यायां जनितं पुत्रमादर्शेष्विव चाननम्।।
ह्लादते जनिता प्रेक्ष्य, स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत्।
यह बात जीविज्ञान ने भी सिद्ध कर दी है। विज्ञान ने तो यहाँ तक सिद्ध कर दिया है कि एक मनुष्य की कोशिका निकाल कर उससे उसी रंग रूप गुणों वाले दूसरे पुरुष को पैदा किया जा सकता है, जिसके समस्त हावभाव, रूप, रंग, चाल आदि सभी गुण उसी के समान होंगे। यह आत्मा की अमरता ही तो है।
आत्मा वै जायते पुत्रःI आज का विज्ञान भी यही बात कहता है कि मातापिता के गुण संतान में आते हैं।
ब्रह्मानन्द :
अनन्यजसद्धनि साकल्येनोदंजिप्रवेश: ब्रह्मानन्दस्योपादानकारणम्।
कामदेव के मन्दिर योनि में समस्त लिङ्ग का प्रवेश ब्रह्मानन्द का उपादान कारण है।
योनि को आध्यात्मिक समाधि में नाभिविवर की भाँति समाधस्थ होने का विवरछेद माना जाता है. जिस प्रकार योगी अपने समस्त स्वरूप को अर्थात् समस्त इन्द्रियों, मन, अहंकार, बुद्धि सहित प्रकृति को पुरुषस्थ कर नाभिविवर (‘ब्रह्मरन्ध्र’) में प्रवेश के बाद वहाँ से टपकने वाले अमृत का पान कर ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है, ठीक उसी प्रकार स्वस्थ पुरुष स्वाधिष्ठान (आनन्दस्रोत योनि) में जब सम्पूर्ण लिङ्ग को प्रवेश कराकर अपने समस्त स्वरूप अर्थात् मन द्वारा नियन्त्रित सेन्द्रिय शरीर- अहंकार और महत्तत्त्व (बुद्धि) समन्वित प्रकृति को उसमें लीन कर देता है, तब सभी आनन्दों में सर्वोपरि ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है।
उस समय पूर्व में अधरपान, आलिङ्गन, योनि मुख चुम्बन आदि से जो परमानन्द प्राप्त हो रहा था, उसका अभाव हो जाता है. अभूतपूर्व आनन्द के प्रत्यक्ष अनुभव का आधार सम्पूर्ण लिङ्ग को योनि मेँ प्रवेश कराकर उससे योनि को स्त्री के बेसुध होने तक मथना है।
उदञ्जिसामिप्रवेशः लेखर्षभानन्दे प्रयोजकीभृतो हेतुः।
योनि में पहले आधे शिश्न का प्रवेश इन्द्रानुभव के आनन्द को उत्पन्न करने वाला साधन है।
सामि प्रवेश का अर्थ है कि योनि के आधे भाग में शिश्न का प्रवेश करना तथा लेखर्षभ-इन्द्र को कहा जाता है। अतः योनि के आधे भाग में शिश्न को प्रवेश करने पर जो आनन्द आता है—उस आनन्द का नाम ही इन्द्रानन्द है । ब्रह्मानन्द की दृष्टि से इन्द्रानन्द बहुत सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म होने के कारण वैसे सूक्ष्म आनन्द को उत्पन्न करने में योनि में आधे शिश्न का प्रवेश कारण है अर्थात् योनि के आधे भाग में शिश्न का प्रवेश करने पर इन्द्रानन्द का अनुभव होता है॥
अधरपान और लकड़ी पर लाख के चिपकने की भांति आलिङ्गन करने के साथ योनि का चुम्बन करते हुए ही कामिनी योनि में शिश्न प्रवेश के लिये आतुर हो उठती है और फिर उसकी योनि में एक बार जब पूरे लिङ्ग का प्रवेश कर दिया जाता है तो और आतुरता की सीमा का उल्लंघन करती हुई लिपट जाती है, तब फिर उसे और अधिक आतुर बनाने के लिये आधे लिङ्ग का प्रवेश बहुत ही आवश्यक है; क्योंकि पूरा शिश्न प्रवेश करने के बाद जब आधे शिश्न का बार-बार प्रवेश होता है तो स्त्री की कामातुरता बढ़ती ही चली जाती है और वह द्रवित होने के मार्ग पर चल पड़ती है।
वह प्रतीक्षा करने लगती है कि अब कब वह फिर पूरा प्रविष्ट हो, उस समय पुरुष धैर्य के साथ जितनी देर इन्द्रानन्द का अनुभव करे और कराये, उतनी ही शीघ्रता स्त्री के द्रावण में होगी और फिर द्रावणोपरान्त वह सन्तुष्ट हो जायेगी.
अञ्जिस्थानेऽनुक्षणव्याघातस्य साधकतमं दाढ्यं परम कारणम्।
योनि में लगातार, हरक्षण शिश्न के आघात का आधार है— शिश्न क़ी दीर्घकालिक कठोरता।
शिश्न की कठोरता ही प्रत्येक क्षण प्रहार करने में सफलता प्राप्त कराने वाला कारण है। मनुष्य के शिश्न की कठोरता के विना स्त्री की योनि में प्रतिक्षण प्रहार करने में समर्थ नहीं होता। अतः शिश्न की कठोरता है तो प्रतिक्षण आघात है, शिश्न की कठोरता नहीं तो प्रतिक्षण आघात नहीं। इस प्रकार यहाँ कारण कार्य सम्बन्ध भी है। प्रतिक्षण आघात रूपी कार्य का कारण है— शिश्न का कठोर होना.
केवल शिश्न की कठोरता ही नहीं, योनि को भी योग्यतम होना चाहिये.
सङ्कुचितस्वाधिष्ठानस्य भेदनकार्यजन्यमानन्दमवाङ्मनसगोचर।
संकुचित योनि का भेदन करने से उत्पन्न आनन्द अवाङ्मनसगोचर आनन्द होता है.
संकुचित योनि का अर्थ है संश्लिष्ट तथा संश्लिष्ट का अर्थ है सम्यक् प्रकार से चिपकी हुई, सटी हुई, कुंवारी कन्या जैसी. कामावेग के कारण सभी शिराओं में रक्त भर जाने से शिश्न के सम्पर्क न होने पर जिसका मुख पूरी तरह बन्द हो; ऐसी योनि संकुचित कही जोयगी.
ऐसा जो योनि का स्थान है उसका भेदन करना सङ्कीर्णस्थान का भेदन (शीलभंग) कहा जाता है. उस संङ्कीर्ण स्थान का भेदन किये विना शिश्न को प्रवेश करने में पुरुष समर्थ नहीं होता है।
गर्भ गिरने- गिरवाने से, ऊँगली खीरा बैगन लौकी यंत्र, कई का लिंग डालने से, डिलीवरी से या किसी भी कारण से अगर योनि ढीली हो गई है तो आनंद संभव नहीं है. उसे सही करा लेना चाहिए. आपके पास पैसे नहीं हैं तो हमारे मिशन क़ी मेडिकल विंग से आप यह निःशुल्क करवा सकती हैं.
संकुचित, कुंवारी-सी योनि का लिंग से भेदन करने पर उत्पन्न होने वाला जो आनन्द है, उस आनन्द को अवाङ्मनसगोचर आनन्द कहा गया है. यह परमसुख स्त्री पाती है. पुरुष को मात्र कसी हुईं योनि मेँ डालने का सुख मिलता है. स्त्री को मिलने वाले इस आनन्द के सुख का वर्णन न वाणी से किया जा सकता है और न मन से उसकी कल्पना की जा सकती है। किसी भी विषय का ज्ञान कराने वाले वाणी और मन की भी इस विषय को वर्णन करने में सामर्थ्य नहीं है, यह सूचित होता है। अतः यह आनन्द वाणी और मन का विषय नहीं है।
वह आनन्द जो संकुचित योनि को कठोर लिङ्ग से भेदन करने से प्राप्त होता है, की जनक मन सहित इन्द्रयाँ ही हैं; परन्तु इस आनन्दको उत्पन्न करके इन्द्रियाँ विरत हो जाती हैं। उन्हीं से उत्पन्न आनन्द का अनुभव स्त्री और पुरुष सबकुछ भूल कर एक-दूसरे में पूरी तरह समाविष्ट होकर करते हैं।
दोनों की मनसहित इन्द्रियाँ अपने अहं के महत्तत्व बुद्धि में लीन होती हुई प्रकृतिस्थ हो जाती हैं, तब दोनों की प्रकृतियाँ एक दूसरे में लीन होकर सभी तत्त्वों के सामूहिक सुख का अनुभव करती है। तब वे इन्द्रियाँ सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करती। बुद्धि अहंकार मन के साथ सभी इन्द्रियाँ अपने को सब ओर से स्वयं की समेट कर एक विन्दु पर ही केन्द्रित होकर उस अवाङ्मनसगोचर आनन्द का अनुभव करती हैं.
चिदाभासानन्द :
सर्दगृदिव्याघात चिदाभासस्यानुदर्शने परमकारणम्।
शिश्न के अग्रभाग द्वारा गर्भाशयद्वार पर हुआ आघात, चिदाभासानन्द के अनुभव देता है.
सर्दगृदि शब्द का लक्षणा से अर्थ होता है—उपस्थेन्द्रिकुसुम अर्थात् पुरुष शिश्न का आगे वाला भाग, जो उत्तेजना होने पर फूल की तरह खिलकर फूल जाता है। तथा स्त्री की योनि में नाभि से चार अंगुल नीचे यह सर्दगृदि स्थान उपस्थेन्द्रियकुसुम (योनिपुष्प) होता है। ऐसा शास्त्रकारों द्वारा वर्णन किया जाता है। शिश्न के दश अंगुल तक लम्बा होने पर उस योनि पुष्प पर पुरुष प्रहार करने में समर्थ होता है, अन्यथा नहीं।
ऐसी स्थिति होने पर भाग्यवश या अचानक कभी-कभी यदि पुरुष उस स्थान पर प्रहार करने में समर्थ होता है, तब चिदाभास से उत्पन्न आनन्द का अनुभव विना किसी प्रयास के पुरुष करता है।
चित् का अर्थ है चेतनतत्त्व अर्थात् पुरुष जिसे जीव अथवा आत्मा भी कहा जा सकता है, उसको जिस आनन्द का आभास होता है वही चिदाभास आनन्द कहा जाता है। इस आनन्द का अनुभव केवल जीवात्मा को ही होता है.
कामशास्त्र तो बहुत लिखे गये, लिखे जो रहे हैं और लिखे जायेंगे; परन्तु सम्भोग में पूर्ण सफलता प्राप्त करने हेतु इससे अच्छी कला का वर्णन न आजतक किया गया, न किया जा रहा है और सम्भवतः न भविष्य में किया ही जायेगा. मेरी मैथुन विधि का जो क्रमिक विकास है, वह अन्यत्र दुर्लभ है.
रत्यानन्द के तीन उपदेश हैं—प्रथम में कामिनी के अधर का पान करना है और वह अधरपान ऐसे ही नहीं, दोनों को अपनी-अपनी इन्द्रियों से एक-दूसरे को देखते हुए करना है, यह दूसरा उपदेश है अपनी छाती पर स्त्री के स्तनों को चिपका कर आलिङ्गन करना। वह आलिङ्गन भी यों ही नहीं होना चाहिये, वह आलिङ्गन इस प्रकार हो, जैसे लाख लकड़ी पर चिपक जाता है, उस तरह दोनों एक-दूसरे से चिपक जायें। तृतीय उपदेश में दोनों भुजाओं से कामिनी का उपमर्दन करना है, फिर जैसे लकड़ी लाख पर चिपक जाती है, उसी तरह एक-दूसरे से चिपक कर आलिङ्गन करना रतिशास्त्र का चतुर्थ उपदेश है। ये सारी प्रक्रिया कामिनी को पूर्ण उत्तेजित करने की है, ताकि वह सम्भोग में शीघ्र द्रवित होकर सन्तुष्ट हो सके।
उसके बाद प्रारम्भ होते हैं—पाँच प्रकार के आनन्द जिनमें पहले परमानन्द का अनुभव कामिनी की योनि के अमृत के पान करने पर होता है। दूसरा है— ब्रह्मानन्द जिसका अनुभव कामिनी की योनि में समस्त लिङ्ग के प्रवेश करने पर होता है। अब देखिये इसकी स्वाभाविकता कि पहले तो अधरपान, मर्दन, लकड़ी पर लाख के चिपकने की भाँति आलिङ्गन में ही स्त्री पूर्णतः उत्तेजित हो जाती है, फिर जब उसकी योनि में जीभ डालकर पुरुष उससे टपकने वाले अमृत का पान करता है, तब तो उत्तेजना के अन्तिम लक्ष्य छूने लगती है। उस समय उसे जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे परमानन्द कहा गया है। उस समय वह फिर योनि में शिश्न प्रवेश की प्रतीक्षा में अत्यन्त व्याकुल हो जाती है। तब फिर पुरुष को सम्पूर्ण शिश्न का प्रवेश करना।
शिश्न प्रवेश की प्रतीक्षा में आतुरता की सीमा का अतिक्रमण करती हुई कामिनी की योनि में जब कामी पूरा शिश्न प्रवेश करेगा, तब वह ब्रह्मानन्द का अनुभव करेगी; क्योंकि ब्रह्म मन अर्थात् चित्त को कहा जाता है। अतः उस समय उसके मन को अपार आनन्द की अनुभूति होगी। इसके बाद राजर्षि पुरूरवा योनि में शिश्न का आधा भाग प्रवेश करना बताते हुये उस आनन्द को इन्द्रानन्द अर्थात् स्वर्ग का आनन्द बताते हैं।
स्वाभाविक है इतना सब करते हुए पुरुष के शिश्न का अग्रभाग (सुपारी) अर्थात् शिश्नकुसुम खिलकर पूरी तरह फूल गया होगी तथा स्त्री का भी शिश्नकुसुम (टीना) भगाङ्कुर पूरी तरह फूल गया हो गया होगा। अतः आधे शिश्न के प्रवेश करने से उस पर शिश्न का पूरी तरह आघात होगा, जिससे कामिनी उत्तेजना की सारी सीमाओं को तोड़ देगी। उस समय निःसन्देह नारी की योनि की समस्त नाड़ियाँ रक्त भर जाने के कारण पूरी तरह फूलकर मोटी होकर योनि के छिद्र को बन्द कर चुकी हुई होंगी, फिर वे सभी नाड़ियां प्रफुल्लित होकर अपने आने वाले मेहमान का स्वागत करने के लिये ऐसी भीड़ लगाये होंगी कि उस भीड़ को चीर कर उस चिदाभासानन्द रूपी महल में प्रवेश करना मेहमान को कठिन हो जायेगा।
उस समय यदि उस मेहमान में भरपूर शक्ति होगी, दृढ़ता होगी तो अवश्य वह प्रवेश करेगा तथा जब वह प्रवेश करेगा, उस समय कामिनी की योनि की समस्त नाड़ियां शिश्न का दृढ़ता से भरपूर आलिङ्गन कर कामिनी को ऐसी आनन्द की अनुभूति करायेंगी कि जिस आनन्द को न वह वाणी से बता सकेगी, न मन से कभी उसने सोचा होगा अर्थात् वह मन से सोचा भी नही जा सकेगा तथा न ही उस आनन्द को कोई ज्ञानेन्द्रिय ही बता सकेगी।
वह आनन्द किसी इन्द्रिय का भी विषय नहीं होगा। इसीलिये राजर्षि पुरूरवा ने इस आनन्द को अवाङ्मनसगोचरानन्द की संज्ञा दी है; जिसके लिये संकुचित योनि और कठोरतम शिश्न की आवश्यकता है। सो वह पूर्व प्रक्रियाओं से हो ही चुके होंगे।
पाँचवा आनन्द है चिदाभासानन्द, जिसका अनुभव स्त्री को तब होता है, जब कि पुरुष का लिङ्ग स्त्री की नाभि से चार अंगुल नीचे तक योनि में प्रविट होता है। यह स्थान गर्भाशय का द्वार है। यही है गर्भशय्या जिस पर शिश्न का दस्तक लगते ही स्त्री सब कुछ भूलकर पुरुष को बाहों में कस लेती है। यह ऐसा सबसे उच्चकोटि का अलौकिक आनन्द है, जिसका आभास केवल चित् (जीवात्मा) को होता है।
यह अवाङ्मनस गोचर आनन्द से भी बड़ा आनन्द है । वह आनन्द तो वाणी मन और इन्द्रिय के विषयों से परे है; परन्तु यह आनन्द बुद्धि का भी विषय नहीं है, इसका अनुभव प्रकृति नहीं आत्मा को होता है। अतः यह आनन्द सबसे उच्चकोटि का है; परन्तु इसके अनुभव के लिये शिश्न का चार इंच होना आवश्यक है। इस आनन्द के अनुभव के लिये स्त्री के बेसुध होने तक सम्भोग होना चाहिए। सभी सुखों से अधिक महत्त्वपूर्ण है, नारी के लिए सम्भोगसुख।
सम्भोग योग्य स्थल
दर्पकजन्यस्याभ्यर्हितत्वे एकतल्यारोहणस्यात्यावश्यकत्वम्।
कामसाधना के लिये एक विस्तर पर सम्भोग करना आवश्यक है.
यदि सम्भोग समर में उतरने की बलवती इच्छा है, तो विस्तर पर चढ़कर ही संग्राम करना चाहिये, भूमि पर या और कहीं नहीं। सम्भोग के दौरान दोनों मेँ से किसी को कोई कष्ट होगा तो सफलता नहीं मिल सकेगी.
सम्भोग एक युद्ध है, प्रेम और कोमलतायुक्त युक्त युद्ध. युद्ध की भांति सम्भोग में भी युवक और युवति अपने सम्पूर्ण बल और उत्साह के साथ एक-दूसरे को नाखूनों से नोंचते हैं, दाँतों से काटते हैं, कसकर चुम्बन और आलिङ्गन करते हैं और अपने-अपने मदनाङ्कुशों का एक-दूसरे पर बलपूर्वक प्रहार करते हैं और फिर अन्त में हारते और जीतते हैं। अन्तर इतना है कि उस युद्ध में घात प्रतिघातों से कष्ट होता है; परन्तु सम्भोग संग्राम में पल-पल आनन्द आता है।
आधार स्त्री क़ी इच्छा है. जब तक स्त्री की इच्छा नहीं हो, पुरुष को कभी मैथुन नहीं करना चाहिए। पशु पक्षी तक पहले मादा की योनि पर जिह्वा से स्पर्श कर उसकी इच्छा की जाँच करता है तथा जब जान लेता है कि मादा सम्भोग के लिये तैय्यार है, तब उस पर आरूढ़ होता है।
स्त्री~सन्तुष्टि का पथ :
औपदेशिकास्यानङ्गसङ्ग्रामस्य युवतीनामानन्दतृप्तौ प्रयोजकत्वा भावात्।
लोगों द्वारा अब तक सम्भोग समर में स्त्री को पराजित करने के लिये पुरुष को अनेक उपदेश दिये गये हैं। उनमें सम्भोग समर में स्त्री को भरपूर आनन्द देकर पूरी तरह सन्तुष्ट करने की प्रयोजकता नहीं है.
रतिशास्त्र में कहा गया है कि सदा रात्रि में स्त्री को सजाना चाहिये. फिर सम्भोग समर का लगातार बहुत अधिक अनुष्ठान करना चाहिये अर्थात् लगातार सम्भोग करना चाहिये।
हमारे उपरोक्त सूत्र में जो औपदेशिक शब्द आया है, उसका अर्थ यहाँ प्राथमिक है। प्रथम वार के सम्भोग समर में सम्भोग सुख की प्राप्ति नहीं होती। प्रथमवार के संग्राम में युवतियों को सम्भोग सन्तुष्टि नहीं होती अर्थात् युवतियाँ पहली वार में पूरी तरह तृप्त नहीं होतीं।
यह तृप्ति किस कारण से नहीं होती? स्त्री में पुरुष से आठ गुनी कामाग्नि होती है, जो थोड़े से जल से सिञ्चन से शान्त नहीं हो सकती। स्त्री की उस आठ गुनी कामाग्नि को शान्त करने के लिये बहुत जल से सीञ्चने की आवश्यकता है।
पहली-दूसरी या तीसरी बार के सम्भोग में उसकी कामाग्नि की शान्ति नहीं की जा सकती। अगर वह रोगी नहीं है, उसकी इच्छाएं मर नहीं गई हैं, वह ठंडी या मृतवत नहीं बन चुकी है : तो उसे आठ बार सेक्स चाहिए. वो भी 10-10 मिनट के अंतराल पर. यह 10 मिनट भी उसके साथ फोरपले मेँ गुजरना चाहिए.
अगर संभोग उसके “बस.. बस.. बस मेरे स्वामी!” कहने तक अर्थात आनंद मेँ उसके बेसुध होने तक चलता है : तब ही वह एक बार मेँ संतुष्ट होगी.
द्वितीयाश्चअष्टम वे तु तत्सत्त्वात्।
द्वितीय से लेकर अष्ट्म बार तक के सम्भोग में स्त्री की कामाग्नि शान्त होती है.
अपनी यौनिक गरमीयुक्त आवश्यकता और पुरुष क़ी पौरुषयुक्त क्षमता के आधार पर द्वितीय वार से लेकर अष्टम म बार के सम्भोग में स्त्री की कामाग्नि शान्त होती है। यह इस सूत्र का अभिप्राय है.
संसार की जितनी भी स्त्रियां हैं अर्थात् समस्त स्त्री जाति के साथ अधरपान, चुम्बन, आलिङ्गन, योनिमुखचुम्बन आदि कितनी ही कामक्रीडायें की जाए, फिर भी स्त्री प्रथमवार के सम्भोग में सन्तुष्ट नहीं होती, यह स्त्री जाति का स्वभाव है। उसके शरीर का गुण है.
ऐसा अनेकों वार देखा जा चुका है अर्थात् यह यों ही नहीं कहा गया. इस तथ्य की खूब अच्छी तरह परीक्षा की जा चुकी है।
पुरुष का पर्याप्त समय तक मैथुनरत रहना अति आवश्यक है. उसमे ऐसी क्षमता है तो स्त्री उससे पूर्व स्खलित होकर, परमानन्द को प्राप्त करने के बाद भी उसको, जितनी देर तक वो चाहता है, भरपूर आनन्द प्रदान कर सकती है। अर्थात स्त्री स्खलित होने के बाद भी पुरुष क़ी खुशी के लिए उसका साथ देती रह सकती है.
योनि में तो शिश्न को प्रविष्ट होना है तथा शिश्न प्रविष्ट तभी हो सकता है, जबकि वह कड़ा और सीधा होगा; परन्तु द्रवित होने पर पुरुष का शिश्न ढीला हो जाता है, वह प्रवेश के योग्य नहीं रहता। कहने का तात्पर्य है कि पुरुष द्रवित होकर सन्तुष्ट होने के बाद सम्भोग करने में असमर्थ हो जाता है। स्त्री पर द्रवित होने के बाद कोई असर नहीं होता, वह लगातार कराती रह सकती है, वह पथ है, पथ कभी नहीं थकता, पथिक थक जाते हैं। इसलिए पथिक को सक्षम होना चाहिए.
यह सक्षमता अपने पति या प्रेमी के लिए आप हमसे अर्जित कर सकती हैं. वह इसके लिए भी नहीं माने तो सीधा सा अर्थ है : उसे मात्र अपनी वासना से मतलब, आपकी तृप्ति से नहीं. ऐसे मेँ आप मुझ से शिखरसुख प्राप्त करती रह सकती हैं : बिना कुछ दिए, बिना कुछ गलत किए, जहाँ चाहें वहाँ.
पुरुषाणां तद्वैपरीत्यात्।
स्त्री प्रथम बार के सम्भोग में संतुष्ट होना चाहती है, पुरुष प्रथम बार मेँ सन्तुष्ट हो जाता है.
सम्भोग समर में स्त्री की प्रकृति पुरुष की प्रकृति से विपरीत है. प्रथम संग्राम में पुरुष का वीर्य निकल जाता है. उसकी कामाग्नि नष्ट हो जाती है. वह पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाता है. द्वितीय वार में वीर्य के पुनः इकट्ठा न होने के कारण पूर्ण उत्तेजना नहीं रहती. स्त्री अगर लिंग को सहलाकर या मुंह मेँ लेकर खड़ा कर ले तो स्तम्भन पहली बार की अपेक्षा अधिक समय तक होता है. ऐसी स्थिति में स्त्री को वह सन्तुष्ट कर सकता है.
संभोग संग्राम कोई मरने-मारने वाले तथा एक-दूसरे को दुःख देने वाले, आघात प्रतिघात का युद्ध नहीं है. यह एक-दूसरे को परमानन्द देने वाले आघात- प्रतिघातों का युद्ध है. इसलिए दोनों को एकदूसरे की पूर्णता का ध्यान रखना चाहिए.
परम आनन्द पाने की प्रतीक्षा स्त्री के लिए असहनीय और असीमित दुःखदायिनी होती है. अगर लुढ़क चुका योद्धा पुनः युद्ध के मैदान में उतरेगा नहीं तब क्या होगा? तब दूसरे योद्धा को खोजना ही पड़ेगा. परन्तु धर्म और समाज उसे बाधित कर उसी तरह जीने को विवश कर देता है। इसमें प्रकृति का क्या दोष ?
पुरुष ने नारी को यह अधिकार नहीं दिया। यदि उसे यह अधिकार नहीं दिया तो पुरुष महाशय का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे नारी के साथ जब भी सम्भोग करें, उसकी यह पूरी तरह जांच कर लें कि उसकी सन्तुष्टि हुई या नहीं। अतः यदि वह सन्तुष्ट नहीं हुई हो, तो दुबारा सम्भोग करें, तिबारा करें, उसे जरूरत है तो आठ बार करें. भले ही मर जाएं, लेकिन स्त्री को जीते जी नहीं मारें.
स्त्री की सम्भोग सन्तुष्टि होने पर परिवार में पूर्ण सुख शान्ति रहेगी और बुद्धि, बल एवं प्रतिभायुक्त सन्तान की प्राप्ति होगी। आधुनिक यौन मनोवैज्ञानिक हैवलोक, एलिस आदि ने भी उत्तम सन्तान की उत्पत्ति के लिये स्त्री की सन्तुष्टि को आवश्यक माना है।
अब पुरुष का यह कर्तव्य है कि वह स्त्री से पर्याप्त सम्भोग कर उसे सन्तुष्ट करे. स्त्री का भी कर्तव्य हो जाता है कि लज्जा और सङ्कोच का त्याग कर पुरुष को पुनः पुनः उत्तेजित करती रहकर सम्भोग करवाती रहे.
पुरुष महाशय ऐसी पत्नी पर किसी प्रकार की शङ्का न करें, अपितु अपने सौभाग्य पर गर्व करें कि उन्हें ऐसी उन्मुक्त हृदया पतिव्रता नारी मिली है कि वह अपने पति से अपनी पूर्ण सन्तुष्टि की कामना करती है। दूसरे पुरुष की अपेक्षा नहीं करती.
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने पति के साथ खुलकर सम्भोग में प्रवृत्त होने वाली नारियाँ चरित्रहीन नहीं होती; परन्तु जो अपने पति के साथ सङ्कोच एवं लज्जा का नाट्य करती हैं, वे काबिल परपुरुष के साथ सब प्रकार से सम्भोग करती हुई, उसे भरपूर सुख प्रदान करती हैं.
स्त्री में कामभाव जगाने के उपाय
आलिङ्गनकुचधारणादिरिव नीवीशयस्थापनस्याप्यभिमतत्वात् स्मरोद्दीपने असाधारणकारणरूपत्वात्।
आलिङ्गन, ओष्ठपान, स्तनमर्दन आदि के समान कामदेव को जगाने में स्त्री की नाड़े की गांठ पर हाथ रखना अभीष्टतम है. यह नारी के मन में प्रेम के देवता कामदेव को जगाने का असाधारण उपाय है.
कुछ पुरुष रोते हैं की स्त्री योनि नहीं देती. वह संभोग के प्रति उदासीन है. यह सूत्र उनके लिए है.
वास्तविक रूप मेँ ऐसा तब होता है, जब आपके संभोग से स्त्री तृप्ति नहीं पति. वह कुंठाग्रस्त हो जाती है. उसकी सारी हसरतें मर जाती हैं. उसे ऐसे अपंग संभोग से घृणा हो जाती है.
आलिङ्गन, चुम्बन और स्तन पकड़ने के अलावा स्त्री की नीवी पर हाथ रखना भी आवश्यक है। नीवी शब्द योनि का उपलक्षक है जिसका लक्षणा शक्ति से अर्थ है योनि।
नीवी योनि को ढकने वाले वस्त्र जींस, सलवार, लंहगा, पेटीकोट, पैंटी के बन्धन के स्थान को भी कहा जाता है। जिस प्रकार अधरपान, चुम्बन, आलिङ्गन आदि साधन कामभाव को जगाने वाले हैं; उसी प्रकार योनि के ऊपर और आस-पास हाथ फेरना, सहलाना भी स्त्री के अन्तर्गत कामभाव को जगाता है.
इन सबसे नारी के शरीर में बिजली जैसा करेण्ट दौड़ जाता है और वह नर के हाथ को सर्पिणी की तरह फूत्कार के साथ ‘ना’ ‘ना’ कहती हुई सहसा पकड़ ही लेती है. परन्तु वह हाथ, उसके अन्दर स्थित धीरे धीरे सुलगती कामाग्नि पर घी का काम करता है। उसकी की ‘ना’ ‘ना’ पुरुष को भरपूर कामसुख प्रदान करने का स्पष्ट निमन्त्रण देती है तथा स्वयं भी उस परमानन्द को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करती है।.
यदि पुरुष ने उसको अभिधा में ग्रहण कर लिया तो समझो कि वह मारा गया। यह तो उसी प्रकार है जैसे कि किसी ने किसी को “बड़े प्यार से योनि दिखाई, वे बोले ये जख्म कहाँ से लाई।” अतः उस ‘ना’ ‘ना’ का अर्थ व्यञ्जना से ‘हां’ ‘हां’ में ग्रहण करना है और उस हाथ को कामदेव के मन्दिर के खजाने को लूटने की भाँति आगे को बढ़ाते ही जाना है और उस खजाने का दरवाजा बलात् खोल ही देना है, फिर जब दरवाजा खुल ही गया, तब तो अलौकिक सुख रूपी खजाने को मन भर के लूटने का अवसर प्राप्त कर ही लेना है।
देखिये महाकवि विल्हण का एक श्लोक, जिसमें कि शशिकला के नारे की गांठ खोलने को नाभि प्रदेश पर रखा गया कवि का शशिकला द्वारा पकड़ कर रोका हुआ हाथ, कामदेव के मन्दिर के खजाने को लूटने वाले चोर की भाँति था :
तन्नीविबन्धन विमोचनाय नाभिप्रदेशनिहितः कविना प्रकोष्ठः।
कन्दर्पमन्दिरनिधानहरः, करोऽस्य, रुद्धः स तस्कर इव क्षितिराजपुत्र्या॥
कालिदास के ‘कुमार सम्भव’ के अनुसार जब शिव अपना हाथ पार्वती के नारे की गांठ खोलने के लिए उनकी नाभि की ओर बढ़ाते हैं तो कांपती हुई पार्वती जी उनका हाथ थाम लेती हैं. परन्तु न जाने कैसे उनके नाभि प्रदेश पर बँधी हुई साड़ी हट जाती है. पेटीकोट की गांठ ढीली होकर स्वतः खुल जाती है, योनि दिखने लगती है।
नाभिप्रदेशनिहितः सकम्पया, शङ्करस्य रुरुधे तया करः।
तद्दुकूलमथ चाभवत् स्वयं, दूरमुच्छ्वसित नीविबन्धनम्॥
अर्धनारीश्वर (एक जान- एक ज़िस्म का स्तर):
सर्दगृदिव्याघातजन्यस्यानन्दस्यानुभूतेभगनिष्ठत्वं रसानन्दानुभूतेरुभयत्र संश्लिष्टत्वात्।
स्त्री की योनि में नाभि से चार अङ्गुल नीचे तक पुरुष के लिङ्ग के प्रहार से उत्पन्न चिदाभास आनन्द की अनुभूति दोनों को ही होती है. यह अनुभूति उनके एक-दूसरे से चिपक जाने के कारण होती है.
नाभि से चार अंगुल नीचे तक शिश्न का आघात दोनों को आनन्द प्रदान करता है. स्त्री की नाभि के चार अङ्गुल नीचे गर्भ-शय्या होती है, जो अवर्णनीय, अलौकिक आनन्द के अनुभव का केन्द्र विन्दु है। गर्भशय्या पर पुरुष के लिङ्ग का स्पर्श स्त्री को परमानन्द के अथाह सागर में डुबो देता है। इस आनन्द को चिदाभासानन्द की संज्ञा दी गई है.
अन्य सभी आनन्द मन, अहंकार, बुद्धि और मानव के प्रधानकारण प्रकृति तक ही सीमित रह जाते है; परन्तु यह आनन्द प्रकृति तत्त्व के पुरुषस्थ होने पर पुरुष अर्थात् आत्मा को प्राप्त होता है. जब सभी तत्त्व आत्मस्थ हो जाते हैं, तब वहाँ व्यक्ति की समस्त इन्द्रियाँ मन, अहंकार, बुद्धि और त्रिगुणात्मक प्रकृति भी पुरुष में लीन होकर उस भोक्ता पुरुष को भरपूर सहयोग प्रदान कर आनन्द के सागर में डुबो देती है।
चिद् = जीव (आत्मा) आभास= प्रतीत होना। अतः आत्मा को अनुभव होने के कारण यह आनन्द चिदाभासानन्द कहा गया है। ध्यान साधना की समाधि में ऐसा आनन्द होता है; परन्तु मेरी तरह जिसने यह आनन्द भोगा हो, वही समझ सकता है. परन्तु मेरी तरह इस आनन्द का अनुभव उसे भी अवश्य हुआ होगा, जिसने स्त्री की योनि में नाभि से चार अङ्गुल नीचे अर्थात् उसकी गर्भशय्या तक अपने लिङ्ग का प्रहार किया होगा. स्त्री तो सबकुछ पा जाती है, ईश्वरत्व तक भी. यह आनन्द सर्व सुलभ नहीं।
बहुत सौभाग्यशाली पुरुष को ही इस चिदाभासानन्द का अनुभव हो पाता है. उसे जब अनुभव होगा, तभी वह अपने स्त्रीपक्ष को वह आनन्द दे सकेगा. यद्यपि इस आनन्द के अनुभव के लिये पुरुष के लिङ्ग का पांच इंच लम्बा होना ही पर्याप्त है, तथापि स्त्री जब तक यह आनंद नहीं पा ले तब तक इस लिंग से उसकी योनि को पूजते रहना आवश्क है.
जो स्त्री चिदाभासानन्दानुभव कर लेती है, वह सारे दरवाजे को खोल देती है. वह पुरुष को आँखें मींचकर अपने आगोस में कस लेती है. वह कसाव इतना मजबूत होता है कि वहाँ दोनों शरीर एकदूसरे में पूरी तरह समाकर एक हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उस समय पुरुष के शरीर से संश्लिष्ट अर्थात् सम्यक् प्रकार से चिपकी हुई युवती पुरुष को भी उस आनन्द के अथाह सागर में डुबो देती है. फिर वह उस पुरुष को अपना भगवान्, कामदेव, मानकर सदा-सदा के लिये उसकी पुजारिन बन जाती है।
अतः यह दोनों की जीवात्मा को प्राप्त होने वाला आनन्द वाक् इन्द्रिय के वर्णन का विषय नहीं, न बुद्धि ही इसे समझने में समर्थ हो सकती है। इसका वर्णन जीवात्मा ही कर सकता है; परन्तु उसे प्रकृति सहित बुद्धि, अहं, मन तथा इन्द्रियों की आवश्यकता होगी, जिसमें वे सभी असमर्थ हैं। अतः इसे वर्णनातीत ही कहना उचित होगा।
रतिकल्लोनिनी कहती है :
नातस्तोषकरं स्त्रीणां नीचं नात्युच्चकं तथा।
कोमलत्वात् पराङ्गस्य, दीर्घं लिङ्गं न तोषकृत्।
तथा जनयन्ति महा कण्डूमङ्गनानां सुदुःसहांम्।
न जातु हीनलिङ्गेन, प्रयाति उपशमं हि सा।
न तो स्त्री को अधिक बड़ा लिङ्ग सन्तुष्ट करता है, न अधिक छोटा। अधिक बड़ा लिङ्ग उसकी कोमल योनि में अत्यन्त कष्ट पहुँचाता है। अधिक छोटा लिङ्ग स्त्री की योनि की खुजली तक नहीं मिटा पाता। लिङ्ग तीन इंच हो तो आसनादि से काम चल सकता है; परन्तु अधिक छोटा होने पर नारी सन्तुष्टि नहीं होती. चार-पांच इंच का लिंग पर्याप्त होता है.
इससे अधिक बड़े लिंग की मांग वे स्त्रियां करती हैं जिनकी योनि फैलकर नाला बन चुकी होती है. उन्हें अपनी योनि सही करानी चाहिए. ऐसी योनि उनको आनंद नहीं दे सकती, पुरुष को तनिक भी नहीं. लिंग का मोटा या बड़ा होना नहीं, पर्याप्त समय तक कड़ा और खड़ा रहना ज़रूरी होता है.
शरीर शास्त्र के अनुसार स्त्री की भग के अन्तर्गत एक नाड़िका होती है, जिसे 'चन्द्रा' कहा जाता है। यह भगांकुर के पास ही होती है। जहाँ एक तरफ मूत्रनली होती है। यही चान्द्री चिकना पदार्थ छोड़ती है, जिससे योनि में चिकनापन रहता है। जब लिङ्ग चिकना हो जाता है, तब एक और परमानन्द का केन्द्र विन्दु है, जिसे 'तिन्तिनी' कहा जाता है। यह गर्भशय्या है। यह गर्भाशय घुमावदार है और यह गर्भशय्या तृतीय मोड़ पर स्थित है.
तस्यास्तृतीये त्वावर्ते गर्भश्शय्या प्रतिष्ठिता.
गर्भाशयग्रीवा का बाहरी मुख योनि से मिला रहता है, जो मछली के मुख की भाँति लाल रहता है। इसी पर कभी-कभी शिश्न का स्पर्श स्त्री को परमानन्द के सागर में डुबो देता है. जिस समय लिंग योनि के इस भाग इस पर स्पर्श होता है, स्त्रीपुरुष नहीं होते, अर्धनारीश्वर बन जाते हैं. इस स्टेज के लिए हर स्वस्थ और हॉट फीमेल पागल रहती है. इसके लिए स्वदेशी- विदेशी 20-25 युवतियाँ हर माह मेरे पास आती हैं. सात हज़ार से अधिक गर्ल्स/फीमेल्स संतुष्ट हो चुकी हैं. हालांकि मेरा पैटर्न स्प्रिचुअल है, योनि-पेनिस के युद्ध का नहीं. इंटरकोर्स का पैटर्न कई के साथ नहीं अपनाया जा सकता. मैं इंसान हूँ, रोबोट या भगवान नहीं.
नारी की योनि में गर्भशय्या आनन्द की वैतरणी है। उससे पुरुष के लिङ्ग का स्पर्श सबसे अधिक आनन्दित करने वाला है। अतः पुरुष को चाहिये कि वह येन केन प्रकारेण उसके उस आनन्द के केन्द्र तक लिङ्ग का स्पर्श अवश्य कराता रहे.
योनिसिंचन और योग्य स्तन :
सेचनकालः सायुज्यानन्दस्यानुभवदर्शने प्रयोजकीभूतो हेतुः।
परस्पर एक-दूसरे में लीन हो जाने पर उत्पन्न आनन्द के अनुभव में वीर्यपात होने का समय कारणभूत है. वही कारण उस आनन्द को प्रदान करने वाला है.
समस्त भेदभाव को भूलकर एक-दूसरे में लीन हो जाने से उत्पन्न आनन्द सभी आनन्दों से उत्कृष्ट होता है, ऐसा विशेष रूप से जान लिया गया है। इस सर्वोत्कृष्ट आनन्द को उत्पन्न करने वाला है— सेचनकाल।
सेचनकाल का अर्थ है वीर्य द्वारा स्त्री की योनि को उसकी आवश्यकता भर सींचने का समय। उस समय जब कि पुरुष अपने वीर्य द्वारा स्त्री की योनि को सींचता है, एक-दूसरे में लीन हो जाने से उत्पन्न उत्कृष्टतम आनन्द का अनुभव दोनों को मिलता है.
यह आनन्द इतना उच्चकोटि का है कि किसी कोश में ऐसा कोई शब्द ही नहीं जिसके द्वारा उसे अभिहित किया जा सके. स्त्री को यह आनन्द तभी मिलेगा, जब वह पुरुष को तब तक सोने नहीं दे जब तक सिंचाई से हरीभरी नहीं हो उठे.
यदि पुरुष महाशय ने स्त्री की आवश्यकतापूर्ति से पूर्व ही उसकी योनि को सींचना रोक दिया, तब वह अबला उत्कृष्टतम दयनीय दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव करेगी।
दोषभ्यां कुचयोरुपमर्दनं तृतीयाङ्गमिति पञ्चमसूत्रे कुचयोरुपमर्दनं कामोद्बोधजनकत्वेन प्रतिपादितम्, तत्र उपमर्दनं नाम दोष्णः पौरस्त्यभागेन स्तनयोर्ग्रहणं विना उपमर्दनं कर्तुमशक्यत्वात् स्तनग्रहणे अभीप्सिततमं किं प्रयोजकमित्याशङ्कयाभीप्सिततमं स्तनग्रहणे प्रयोजकं निर्दिशति.
कुचों यानी स्तनों का उपमर्दन प्रेम के देवता काम को जगाने वाला सिद्ध किया गया है। उपमर्दन भुजा के अग्र भाग (हाथ) से दोनों स्तनों को पकड़े विना नहीं किया जा सकता।
उरोजससङ्ग्रहणे तद्गतकाठिन्यस्य प्रयोजकत्वम्।
स्तन पकड़ने में स्तन के अन्तर्गत कठिनता होने का प्रयोजकत्व है.
उरोजों के संग्रहण में उनकी कठोरता ही प्रयोजक है। यदि स्तनों में कसाव नहीं है, तो किसी भी पुरुष की उन्हें पकड़ने की इच्छा नहीं होती। स्तन ग्रहण का विचार ही नहीं आता। स्त्री के अत्यन्त ढीले हैं या अत्यंत मोटे और बड़े हैं तो उनको पकड़ने में किसी भी पुरुष की रूचि उत्पन्न नहीं होती।
काठिन्यस्योपादानकारणरूपत्वात्।
स्त्री के अन्तर्गत प्रेम के देवता कामदेव के जगाने वाले कार्य में कसे हुए स्तनों का पकड़ना ही उपादान कारण है.
उपादान का अर्थ है-लेना, प्राप्त करना. जिससे जो सामग्री ली जाती है या उत्पन्न होती है, उसे उपादान कहते हैं।
कामदेव को जगाने का उपादान कारण कठिन स्तनों का उपमर्दन है; क्योंकि कठिन स्तनों के उपमर्दन से ही पुरुष के तथा स्त्री के मन में कामभाव जागृत होता है। आज स्तन भी इच्छानुरूप बनवाए जा सकते हैं. बस पैसा चाहिए. आप निर्धन हैं तो हमारे मिशन की निःशुल्क सेवा ले सकती हैं.
मेरे पास परमतृप्ति की अनुभूति के लिए जब कोई षोडशवर्षीया लड़की आती है तो उसको मेरी थेरेपी का अनुभव बहुत जागृत और दिब्य होता है. उसके अनछुए स्तनों को लेने पर मेरे भीतर भी दिव्य ऊर्जा का संचार होता है. इसलिये की उसके स्तन उसकी चढ़ती जवानी के प्रतीक होते हैं और सही हाथ मेँ होते हैं. वह किशोरी अपनी छाती पर धीरे-धीरे खिलते हुए उन अजीब फूलों के इस उपयोग को अभूतपूर्वं उपलब्धि समझ कर मदमस्त होकर इठलाती है और मुझे उनका अदृश्य रसपान कराये बिना नहीं मानती। उस समय वह अपने आप में से बाहर होती है।
महाकवि प्रसाद के शब्दों में कहूँ तो :
इतना न चमत्कृत हो बाले ! मन का कुछ उत्साद करो।
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती, ठहरो कुछ सोच विचार करो।।
कहने का आशय यह है कि कसे स्तनों वाली युवती के स्तनों को दबाने से सबसे अधिक तीव्रता से दोनों के ही मन में अभूतपूर्व कामभाव जागृत होगा। ऐसे स्तनों का उपमर्दन स्त्री और पुरुष दोनों के लिये कामोद्बोध का उपादान कारण है.
अंत में शिश्नगत दृढ़ता की बात :
शम्बरोरेरायोधने उदञ्जिस्थाने अनुक्षण शम्बरारेरायोधनमिति।
सम्भोग समर में लिङ्ग की पर्याप्त समय तक की दृढ़ता ही सभी प्रकार के आनन्दों के अनुभव का कारण है.
स्त्री की योनि में प्रतिक्षण प्रहार करने में पुरुष के शिश्न की दृढता ही साधकतम है। यदि प्रतिक्षण प्रहार कार्य है, तो शिश्न की दृढ़ता उसका कारण है; क्योंकि कारण कार्य में परस्पर अयुतसिद्ध सम्बन्ध होता है। जिसका अर्थ है कि जिसके विना जो सिद्ध न हो सके ऐसा साधन ही किसी कार्य का कारण होता है तथा एक के नष्ट होने पर उसी क्षण दूसरा नष्ट हो जाये उनमें परस्पर कारण कार्य सम्बन्ध होता है।
जैसे घट का कारण मिट्टी, वस्त्र का कारण धागा। मिट्टी नहीं तो घट नहीं। धागा नहीं तो वस्त्र नहीं। ठीक उसी प्रकार यहाँ पर स्त्री की योनि में प्रतिक्षण प्रहार का कारण शिश्न का दृढ होना है। यदि शिश्न की दृढ़ता है तब प्रतिक्षण प्रहार है। यदि शिश्न में दृढ़ता नहीं होगी, तो प्रशिक्षण प्रहार भी नहीं हो सकेगा। अतः प्रतिक्षण प्रहार रूपी कार्य में लिङ्ग का कठोर (कड़ा) होना साधकतमकारण है।
योनि में लगातार प्रहार करने की प्रयोजक लिङ्ग की दृढ़ता ही है। अतः पुरुष के लिङ्ग में दृढ़ता होनी चाहिये।
लिंग में दृढ़ता अधिक वीर्य के सञ्चय से होती है। अधिक वीर्य इकट्ठा हुए विना शिश्न में दृढ़ता (कठोरता) नहीं हो सकती। शिश्न के कठोर हो जाने पर प्रत्येक क्षण लगातार प्रहार करने में समर्थ होता है।
यद्यपि योनि के स्थान में प्रतिक्षण लगातार प्रहार करना नामक कर्म ही आयोधन है। आयोधन व्याघात से भिन्न कर्म नहीं। आयोधन और रण एक ही अर्थ के वाचक हैं। आयोधन का अर्थ रण है। रण में लगातार योद्धा एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं तथा व्याघात का अर्थ भी लगातार प्रहार करना है। अतः व्याघात और आयोधन शब्द एक ही अर्थ संग्राम के वाचक है। इसीलिये इस सूत्र में जो आयोधन शब्द प्रयोग किया गया है, वह हेतु के साथ अनुमित किया जा सकता है; क्योंकि इसका अर्थ रण है।
रण में आघात प्रतिघात लगातार होते हैं, सो इसमें भी। अतः सम्भोग भी एक प्रकार का रण ही है।
पेनिस काम भर काम नहीं करता और आप काम करवाने के लिए मेडिसिन लेते तो वह इसे धीरेधीरे एकदम मृत बना देती है.
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वात्स्यायन कहते हैं :
रतिविलासभेदानामानन्त्यात्.’
सारतः सम्भोगसमर में योनिस्थान में लगातार प्रहार करने में पुरुष के शिश्न की दृढ़ता ही परम कारण है। 💞