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वैदिक दर्शन : संतान बिना सुख नहीं!

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पुष्पा गुप्ता

वैदिक साहित्य में पुत्र शब्द प्रयुक्त है, जिसका अर्थ संतान मात्र है. वेदों में स्थान-स्थान पर सन्तान की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है, सन्तानोत्पत्ति के लिए ही विवाह को संस्कार माना गया है।
हरिश्चन्द्रो ह वैघस ऐक्ष्वाको राजाऽपुत्र आस।
तस्य ह शतं जाया बभूवुस्तासु पुत्रं न लेभे।
तस्य ह पर्वतनारदौ गृह ऊषतुः।
स ह नारदं पप्रच्छ।I

इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न, वेधस का पुत्र, हरिश्चन्द्र नामक राजा पुत्रहीन था। उसकी सौ पत्नियाँ थीं किन्तु उनसे पुत्र नहीं हुआ। कभी उस राजा के घर में पर्वत और नारद नाम के दो ऋषि आकर ठहरे। तब राजा ने नारद से पूछा :
यं न्विमं पुत्रमिच्छन्ति ये विजानन्ति ये च न।
किंस्वित्पुत्रेण विन्दते तन्म आचक्ष्व नारद।।

जो जानकार हैं देवता मनुष्य आदि और जो जानकार नहीं हैं पशु पक्षी आदि वे सभी निश्चय ही जो पुत्र को चाहते हैं। वे पुत्र से क्या पाते हैं? हे नारद! मुझे बताओ।
स एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच।
ऋणमस्मिन्संनयत्यमृतत्त्वं चगच्छति।
पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम्।।

उस नारद ने उत्तर दिया : यदि पिता उत्पन्न हुए जीवित पुत्र का मुख देख लेता है तो उस पर अपने सारे ऋण सौंप देता है और अमृतत्त्व मोक्ष को प्राप्त करता है।
यावन्तः पृथिव्यां भोगा यावन्तो जातवेदसि।
यावन्तो अप्सु प्राणिनां भूयान्पुत्रे पितुस्ततः।।
प्राणियों के जितने भोग सुख के साधन पृथिवी में हैं, जितने अग्नि में हैं, जितने जल में हैं, एक पिता के लिए पुत्र में उससे कहीं अधिक हैं।
श्वत्पुत्रेण पितरोऽत्यायन्बहुलं तमः।
आत्मा हि जज्ञ आत्मनः स इरावत्यतितारिणी।।

पिता लोग अपने-अपने उत्पन्न हुए पुत्र से बार-बार अत्यन्त इहलोक और परलोक सम्बन्धी दुःखों को पार कर जाते हैं। क्योंकि पिता स्वयं ही पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। वह पुत्र समुद्र में नाव के समान पार कराने वाला है।
किं नु मलं किंमजिनं किमु श्मश्रूणि किं तपः।
पुत्रं ब्रह्माण इच्छध्वं स वै लोकोऽवदावदः।।
मल क्या है? अजिन क्या है? स्पत्रु दाढ़ी-मूँठ क्या है और तप क्या है? हे मनुष्यों पुत्र की इच्छा करो। वही अनिन्दनीय लोक है।
अन्नं ह प्राणः शरणं ह वासी रूपं हिरण्यं पशवो विवाहाः।
सखा ह जाया कृपणं ह दुहिता ज्योतिर्ह पुत्रः परमे व्योमन्।।
निश्चय ही अत्र ही प्राप्ण हैं। वास घर शरण रक्षक है। हिरण्य सुवर्णादि रूप का संपादक है। पशु गौ आदि, व्यवहार का निर्वाह करने वाले हैं। जाया पत्नी सखा मित्र है। दुहिता पुत्री कृपण दयनीय है। पुत्र ही ज्योति प्रकाश कारक है जो पर ब्रह्म में लीन करा देता है।
पतिर्जायां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरम्।
तस्यां पुनर्नवो भूत्वा नवमे मासि जायते।।

पति ही पत्नी के गर्भ में वीर्यरूप से प्रवेश करता है और उस माता के गर्म से फिर नया होकर नवें महीने में उत्पन्न होता है।
तज्जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः।
आभूतिरेषा भूतिर्बीजमेतत्रिधीयते।।

दह जाया (पत्नी) जाया इसीलिए कहलाती है क्योंकि (पति) इस में पुनः (पुत्र रूप से) उत्पन्न होता है। यह आपूर्ति (भी कहलाती है। क्योंकि भूति नाम है बीज (वीर्य) का और वह इस (पत्नी) में स्थापित किया जाता है।
देवाश्चैतामृषयश्च तेजः समभरन्महत्।
देवा मनुष्यानब्रुवन्नेषा वो जननी पुनः।।

देवताओं और ऋषियों ने इस (पत्नी) में महत्त्वपूर्ण तेज को भर दिया। तब देवताओं ने मनुष्यों से कहा कि यह तुम्हें पुत्र रूप में पुनः उत्पन्न करेगी।
नापुत्रस्य लोकोऽस्तीति यत्सर्वे पशवो विदुः।
तस्मात् पुत्रो मातरं स्वसारं चाधिरोहति।।
सभी पशु भी जानते हैं कि पुत्रहीन को लोक (का सुख) नहीं है इसलिए (पशुओं में) पुत्र माता या स्वसा (बहिन) से (भी पुत्रोत्पत्ति के लिए) संभोग करता है।
एष पन्था उरुगायः सुशेवो यं पुत्रिण आक्रमन्ते विशोकाः।
तं पश्यन्ति पशवो वयांसि च तस्मात्ते मात्राऽपि मिथुनीभवन्ति।।

यह मार्ग बड़े लोगों से प्रशंसित और सुखपूर्वक सेवन करने योग्य है जिसे (पुत्र के) शोक से रहित (हुए लोग) लाँघ जाते हैं। इसी मार्ग को पशु और पक्षी भी देखते हैं। इसीलिए वे माता के साथ भी मैथुन करते हैं।
~ऐतरेय ब्राह्मण (अध्याय ३४)

इतना कहकर हरिश्चन्द्र से नारद बोले :
यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्।
तथा पुरुषकारेण विना दैव न सिद्ध्यति।।
जैसे बीज भूमि में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता।

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