Site icon अग्नि आलोक

*वैदिक दर्शन : क्या है ऋतु-ज्ञान का आधार?*

Share

          ~ डॉ. विकास मानव 

कैसे हो ऋतुओं का ज्ञान? क्या चाँन्द्र महीनों से चलती हैं ऋतुएँ? कभी १५ से २० दिन आगे? कभी १५ से २० दिन पीछे? या फिर अंग्रेजी तारीखें ही हैं वैज्ञानिक ? जिनमें जीवन भर पूछो कि यह महीना ३० दिन वाला है, या ३१ दिन वाला? इस वर्ष फरवरी २८ की, या २९ की ? ये अंग्रेजी तारीखें वैज्ञानिक हैं या बेतुकी ? क्या है प्राकृतिक काल गणना का रूप? क्या है प्राकृतिक काल दर्शन? इन सभी प्रश्नों की मीमांसा कर वास्तविक तथ्य को स्पष्ट करना ही इस लेख का प्रयोजन है।

*काल दर्शन :*

      कलयति, कलयते, कलते वा इतिकालः। ‘काल’ शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्तियाँ हो सकती है। “कल गतौ संख्याने च” (पा.धा.चुरादि २९० उभयपदी), ‘कल-क्षेपे” (पा.धा.चुरादि ७२ उभयपदी), “कलआश्वादने” (पा.धा.चुरादि २०४ उभयपदी), “कल शब्दसंख्यानयोः” (पा.धा.भ्वादि ३३४ आत्मनेपदी) इत्यादि अर्थों में पाणिनि द्वारा प्रयुक्त कल धातु से कर्म में घञ् प्रत्यय करने पर काल शब्द बनता है। “कलयति सर्वं इतिकालः”, जिससे सबकुछ कलित होता है, या जो सबको कलित करता है, वह काल है।

      अर्थात् जिससे सब उत्पन्न हों, जिसमें सब समाप्त हो, जिसके द्वारा सबकी गणना हो, जिससे क्रम की व्यवस्था बने, वह काल है।

 सूर्य उदित होता है, ज्योति फैलती है, प्राणियों में चेतनता आती है। प्रातः काल होता है। प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कर्मों में संलग्न होते हैं। उन कर्मों को करने में काल व्यतीत होता है। काल में ही कर्म किया जाता है। काल के द्वारा ही, कर्म और काल को गिना जाता है, धीरे-धीरे काल जाता है-व्यतीत होता है, उसी प्रकार धीरे-धीरे नया काल आता रहता है।

       प्रातःकाल, दिन काल, सायं काल, रात्रि काल। जिस क्षण, जिस काल में हूँ, वह क्षण जा रहा है, उसके साथ संलग्न ही नया क्षण आ रहा है, वर्तमान काल भूतकाल में बदल रहा है, भविष्य काल वर्तमान काल हो रहा है। इस प्रकार यह काल ही सबका कलन करता है—परिगणन करता है। यह काल ही सबका कवलन करता है।

       काल क्रम से परिवर्तित हो रही यह चिरकालीन प्रकृति नित्य नवीन होती हुई गतिमान है, इसलिए यह चिरनवीना है। इस परिवर्त्यमान प्रकृति में सब कुछ कलन करता हुआ काल दिखाई देता है। यह काल और इस काल का क्रम जैसा वेदों ने देखा, जैसा वैदिक ऋषियों ने देखा उसकी मीमांसा करते हैं।

अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठोऽध्वरेष्वीड्यः।

 यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशे विशे।। 

     ~ऋग्वेद (४/७/१)

 अन्वय :

   इह धातृभिः वनेषु विभ्वं चित्रं प्रथमः धायि यम् अप्नवानः भृगवः विशे विशे विरुरुचुः, अध्वरेषु ईड्यः होता।

इह – यहाँ इस संसार में धातृभिः- ज्ञान धारण करने में समर्थ लोगों ने वनेषु- बनों में, जंगलों में नाना आकारों में, फैले हुए, दिखाई पड़ रहे इस लोक में विभ्वं चैतन्य विद्या से व्याप्त चित्रं- अनेक प्रकार के आश्चर्यजनक गुणों वाले अद्भुत विज्ञान को प्रथमः धायि – सर्वप्रथम धारण किया, यम्- जिस विज्ञान को अप्नवानः अपना बनाते हुए- आत्मसात करते हुए, उसे जीवन व्यवहार में उतारते हुए, और उस ज्ञान की शिक्षा के द्वारा अपनी विद्या संतानों को उत्पन्न करते हुए, भृगवः – विद्या के द्वारा अविद्या को भूज डालने वाले अर्थात् जला डालने वाले परिपक्व विज्ञान से सम्पन्न ऋषियों ने विशे-विशे- जन-जन के लिए विरुरुचुः   उस विज्ञान को प्रकाशित किया। अतः वे ज्ञानदाता ऋषिगण अध्वरेषु हिंसा रहित सत्कर्मों में ईड्यः – हमारे पूज्य होता- सत्कर्म के उपदेष्टा एवं कर्ता हैं।

मीमांसा :

 वह इस प्रकार, निश्चित समय में अहोरात्र से आरम्भ कर, ऋतु, मास वर्षात्मक प्रकृति में गतिमान परिवर्तन, उसी क्रम से उसमें उत्पन्न हो रही वस्तुओं में, जीवों में ऋतुओं का प्राकृतिक प्रभाव। प्रत्येक क्रिया में गतिमान काल की अवधि, क्रम से प्रत्येक दिन-रात में परिवर्तित हो रहा तापक्रम।

     उसी प्रकार क्रमशः रात्रि और दिन में पारस्परिक गम्यमान न्यूनाधिक्य, उसी क्रम में ही प्राप्त समान कालावधि से युक्त अहोरात्र । सूर्य और चन्द्रमा का पूर्व दिशा में उदय, पूर्व से पश्चिम जाते हुए पश्चिम दिशा में अस्त होना। सभी तारों का पूर्व से पश्चिम गमन। उत्तर दिशा में ध्रुव तारा की अपरिवर्तित स्थिति, उस तारा के समीप में स्थित तारों का ध्रुव का ही परिक्रमण।

      पुनः सभी तारों का उसी ध्रुवतारे की परिक्रमा में पूर्व से पश्चिम दिशा में परिक्रमण स्थिति। आकाश में निश्चित वृत्तीय मार्ग में निश्चित नक्षत्रों की पूर्व से पश्चिम गतिमान स्थिति। उन नक्षत्रों का निश्चित काल के अन्तराल में निश्चित स्थल में दिखना। उनमें आपस में समीप स्थित नक्षत्रों में निश्चित आकारात्मिका स्थिति। तीव्र गति से चलती हुई नौका में स्थित व्यक्ति को नदी के दोनों किनारे और उन किनारों में स्थित वृक्षों का नौका की विपरीत दिशा में चल रहे होने का भ्रम।

      इन सारी चीजों को देखते हुए ऋषि के निर्मल अन्तःकरण में, उसकी ऋतम्भरा प्रज्ञा में, काल चक्र ज्ञापक मंत्र का अवतरण हुआ। जिन मंत्रों का अनुशीलन कर हम यह कह सकते हैं, कि वेदों में काल गणना एवं ऋतु विज्ञान का अत्यन्त व्यवस्थित प्राकृतिक विश्व का श्रेष्ठतम स्वरूप विद्यमान है, जिसको भलीभाँति समझकर आज मैं विश्व के समस्त बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों को उसे समझने, मनन करने और विश्व को उसका लाभ दिलाने के अनुरोधपूर्वक प्रस्तुत कर रहा हूँ।

*कालचक्र- ज्ञापक सूत्र :*

   द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।

 तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः।।

   ~ऋग्वेद (१/१६४/४८)

अस्य मन्त्रस्य दीर्घतमा ऋषिः। संवत्सरात्मा कालः देवता। स्वराट् पंक्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः।

अन्वय :

     चला, एकम्, चक्रम्, (भावयति।) तस्मिन् चक्रे त्रीणि नभ्यानि सन्ति। द्वादश प्रधयः सन्ति। तस्मिन् साकं त्रिशता, षष्टिः न ( चार्थे नः)शङ्कवः, न ( इवार्थे न ) अर्पिता सन्ति तस्मिन् चक्रे कालाः चलासः सन्ति। क, उ, तत्, चिकेत|

सूत्रार्थ :

    अपनी धुरी पर और सूर्य की परिक्रमा में चलती हुई यह चला पृथ्वी एक चक्र बनाती है। उस चक्र में तीन नाभियाँ हैं, द्वादश प्रधियाँ हैं, समान दूरी पर तीन सौ साठ कील के समान विभाग हैं। कौन प्रसिद्ध विद्वान् उस चक्र को जानता है?

 मीमांसा :

 चलती हुई इस पृथ्वी का नाम वेद में ‘चला’ है। इसकी चाल दो प्रकार की है। पहली, यह अपनी धुरी पर घूम रही है, दूसरी साथ साथ ही यह सूर्य की परिक्रमा भी कर रही है। यह अपनी धुरी पर २३ अंश २८ कला झुकी हुई भी है। मंत्र कह रहा है कि इस प्रकार यह चला-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए एक चक्र बनाती है। उस चक्र में समान कोण की दूरी पर ३६० कीलें हैं। कोई भी चक्र या वृत्त ३६०° अंश का ही होता है। इस चक्र में १२ प्रधियाँ अर्थात् परिधि स्थानीय स्तम्भ हैं। ३६०/१२ बराबर ३०°-३०° अंश की दूरी द्वादश मासरूप द्वादश स्तम्भ है। चूँकि पृथ्वी अपनी धुरी पर २३° अंश २८’ कला झुकी हुई ही यह परिक्रमा कर रही है, इसलिए पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्य की सीधी किरणों के दृष्टिगत इस चक्र की तीन नाभियाँ हैं।

      पहली नाभि जब सूर्य की किरणें पृथ्वी की दैनिक चाल के दृष्टिगत, सूर्य की परिक्रमा कर रही पृथ्वी के उस बिन्दु पर पहुँचने पर जहाँ पहुँचने से सूर्य की किरणें पृथ्वी के विषुव अर्थात् मध्य भाग पर सीधी पड़ती हैं, इस चक्र की विषुव नाभि है।

     पृथ्वी की दैनिक गति के कारण सूर्य की सीधी किरणों के दृष्टिगत पृथ्वी के मध्य का जो वृत्तात्मक भाग एक बार सीधी किरणों के सामने से घूम जाता है, उसे कहते हैं विषुववृत्त । घूमते हुए इस वृत्त की विषुवत् रेखा अर्थात् भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ने के कारण इस दिन सम्पूर्ण पृथ्वी पर रात दिन बराबर होता है। छः-छः महीने के अन्तराल से यह दिन वर्ष में दो बार आता है।

      पहला जिसके बाद इस विषुव वृत्त के उत्तरी गोलार्ध में रात की अपेक्षा दिन बढ़ने लगता है। और दक्षिणी गोलार्ध में ठीक इसके विपरीत घटने लगता है। इस विषुव दिन से वैदिक वर्ष का आरंभ होने से यह हुआ आदि विषुव।

इसके छः माह बाद पुनः सारी पृथ्वी पर रात दिन बराबर हो जाते हैं। इसके काल चक्रात्मक वर्ष के मध्य में आने से इसे कहते हैं मध्य विषुवा इसके साथ ही दक्षिणी गोलार्ध में रात्रि की अपेक्षा दिन का बढ़ना और इसके उलट रात्रि का घटना तथा उत्तरी गोलार्ध में दिन का घटना व रात्रि का बढ़ना शुरू हो जाता है। इस प्रकार मंत्र में कही हुई यह हुई पहली नाभि, जो वर्ष के आरंभ में और वर्ष के मध्य में आती है। इसे कहते हैं विषुवनाभि।

      पृथ्वी, आदिविषुव बिंदु से अपने चक्रात्मक परिक्रमा पथ पर ९०° अंश की दूरी, ३०°-३०° अंश की मासिक दूरी के अनुसार तीन माह में चलकर उत्तरी गोलार्ध में दिन बढ़ने और रात्रि घटने के शीर्ष दिवस पर पहुँचती है, तो इस दिन सूर्य की किरणें अपनी धुरी पर घूमती हुई पृथ्वी के जिस वृत्तात्मक फलक पर सीधी पड़ती हैं। उसे उत्तरवृत्त कहते हैं।

      चलती हुई पृथ्वी के चक्रात्मक परिक्रमा पथ के जिस स्थलपर पृथ्वी के पहुँचने पर यह अहोरात्र घटित होता है, वह स्थल बिंदु इस वेद मंत्र में कहे कालचक्र की दूसरी नाभि है। इसे कहते हैं उत्तरनाभि।

       इस उत्तर नाभि से अपने परिक्रमा पथ पर चलती हुई चला- पृथ्वी ९०° अंश पर पड़ने वाले मध्य विषुव से होती हुई १८०° अंश चलकर उस स्थल पर पहुँचती है, जहाँ घूमती हुई पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध का वह भाग सूर्य की सीधी किरणों के सामने से घूमता है, जो इस दक्षिणी गोलार्ध में सबसे बड़ा दिन और सबसे छोटी रात बनाता है।

       इस अहोरात्र में सूर्य की सीधी किरणों के सामने से घूमने वाले इस वृत्तात्मक कल्पित फलक को दक्षिण वृत्त कहते हैं। और चक्रात्मक परिक्रमा मार्ग के जिस कल्पित बिन्दु पर पहुँचने से यह अहोरात्र घटित होता है, वह बिन्दु है, इस वेद मंत्र की तीसरी नाभि। इसे कहते हैं दक्षिणनाभि। इस प्रकार ये तीन नाभियाँ है, इस काल चक्र की। क्रमशः विषुवनाभि, उत्तरनाभि और दक्षिणनाभि।

वेदों में ही बताये १२ महीने ही १२ प्रधियाँ हैं इस काल चक्र की। विषुव से ३०-३० अंश की दूरी चलने में चला अर्थात् पृथ्वी द्वारा लगाया गया काल ही होता है, एक माह का काल।

     निरुक्त में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए यास्क ने लिखा है :

    द्वादश प्रधयश्चक्रमेकमिति मासानां मासा मानात्।

    (निरुक्तं ४/२७)

   एक चक्र की १२ प्रधियों से मंत्र में महीनों का मान दिया गया है। विनता चला पृथ्वी की घूर्णन एवं परिक्रमण रूपी द्विविध चाल से बन रहे इस चक्र में अचल काल के सभी अवयव, होरा, विहोरा, प्रहोरा अर्थात् घंटा, मिनट, सेकंड और घटी, पल, विपल, दिन-रात्रि, अहोरात्र, मास, ऋतु, वर्ष चल रहे हैं। मंत्र कहता है कि “क उ तच्चिकेत”- कौन प्रसिद्ध विद्वान उस काल चक्र को जानता है? क्योंकि बिना उसे जाने काल कलना को जाना ही नहीं जा सकता।

वेदों में मंत्र के साथ ही द्रष्टा ऋषि का नाम, मंत्र का देवता, छंद और स्वर लिखा हुआ है। इस मंत्र के द्रष्टा ऋषि का नाम दीर्घतमा है। संवत्सर  आत्मा काल ही देवता है। स्वराट् पंक्ति छन्द है। पञ्चम स्वर है। वेद मंत्रों का गंभीरतापूर्वक मनन करने के बाद मैंने पाया कि ऋषियों द्वारा देखें मुख्य सत्य के अनुसार ही ऋषि का नाम हो गया है।

      यहाँ भी सूर्य की परिक्रमा करती हुई पृथ्वी का मार्ग भी गोलवृत्ताकार न होकर दीर्घवृत्ताकार है। सूर्य परिक्रमा का यह पथ अतिविशाल होने के साथ पृथ्वी के सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन से अतिशयता से जुड़ा है। अतिशयता में ‘तमप्’ प्रत्यय होता है।

      इसलिए दीर्घतम इस चक्र के द्रष्टा ऋषि का नाम दीर्घतमा हो गया। मंत्र में जिस सत्य का वर्णन होता है, वही सत्य उस मंत्र का देवता होता है।

*ऋतु अनुसार आर्तव मास :*

     ऋतु- पुनः पुनः ऋच्छति आगच्छतीति ऋतुः। जो बार बार आये और जाये उसे ऋतु कहते हैं। ऋगतौ धातु से ‘आर्तेश्च तुः “(उड़ादि सूत्र १/७४) से तुः प्रत्यय होता है और वह कित् होता है। कित् होने से “आद्यन्तौ टकितौ “इस अष्टाध्यायी सूत्र से ऋ धातु के अन्त में तुः करने से ऋतु शब्द बनता है।

    ऋतुर्वर्षादिषट्सु च आर्तवेमासि च पुमान्।

     (मोदिनीकोश)

आर्तव ऋतोर्भव: आर्तवः” जो ऋतु से उत्पन्न हो उसे आर्तव कहते हैं। “ऋतोरण”(पा.अ. ५/१/१०५) इस सूत्र से प्रथमा समर्थ ऋतु प्रातिपदिक से ‘अस्य’ इस षष्ठी अर्थ में अण् प्रत्यय करने से आदि वृद्धि होकर आर्तव शब्द बनता है।

      वेद में उक्त वैदिक काल चक्र के अनुसार छ: ऋतुएं और ऋतु अनुसारी अर्थात् आर्तव १२ महीनों के नाम इस प्रकार हैं :

     १.वसंत ऋतु>मधुमास>माधवमास

 २.ग्रीष्म ऋतु >शुक्रमास>शुचिमास

३.वर्षा ऋतु > नभमासस> नभस्यमास

४.शरद ऋतु >इषमास>ऊर्जमास

५.हेमंत ऋतु >सहमास>सहस्यमास

६.शिशिर ऋतु>तपमास> तपस्यमास,】

      ध्यान रहे ये महीने चैत्र, वैशाख आदि नाक्षत्र चाँद्र महीने नहीं है। वैदिक कालचक्र से अनभिज्ञ लोग इन्हें चाँद्र महीनों का पर्यायवाची समझते हैं, जो पूरी तरह गलत है।

      बहुत से भारतवासी भी ऐसा समझते हैं कि आर्यभट्ट ने ही दुनिया को सबसे पहले यह बताया कि पृथ्वी घूमती है, सूर्य नहीं। किन्तु आर्यभट्ट स्वयं अपनी पुस्तक के मंगल श्लोक में कहते हैं कि, मैंने वेद रूपी रत्नसागर में डुबकी लगाई, वहाँ से अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कुछ रत्न ला पाया। उन्हें ही आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

वेद में स्पष्ट है कि “पृथ्वी के घूर्णन एवं परिक्रमण से दिन- -रात और ऋतुएँ होती हैं। 

    द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत। 

तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः॥

     ~ऋगवेद (१/१६८/४८)

 इस मंत्र की हिन्दी व्याख्या मैंने ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मणानुसार की है। लोगों के मन में किसी प्रकार का कोई संदेह न रहे एतदर्थ वह मूल ब्राह्मण, उसका संधि-विच्छेद किया हुआ स्वरूप, और हिंदी अनुवाद भी दे रहा हूँ।

     स वा एष न कदाचनास्तमेति नोदेति । तं यदस्तमेतीति मन्यन्तेऽह्न एव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यते। रात्रीमेवावस्तात् कुरुतेऽहः परस्तात्।

      अथ यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यन्ते रात्रेरेव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यतेऽहरेवावस्तात् कुरुते रात्रिं परस्तात्। स वा एष न कदाचन निम्नोचति। एतस्य ह सायुज्यं सरूपतां स लोकतामश्नुते य एवं वेद, य एवं वेद।

     ~ऐतरेय ब्राह्मण (१४/६)

संधि-विच्छेदपूर्वक श्रुति.

स वा एष न कदाचन – अस्तम् एति न उद् एति। तं यद्-अस्तम् – एति – इति मन्यन्ते- अह्न एव तद् – अन्तम् – इत्वा अथ आत्मानम् विपर्यस्यते। रात्रीम् एव अवस्तात् कुरुते अहः परस्तात्।

     अथ यद् एनं प्रातः उद् एति – इति मन्यन्ते रात्रेः एव तद् अन्तम् इत्वा अथ आत्मानम् विपर्यस्यते अहः एव अवस्तात् कुरुते रात्रिम् परस्तात्। स वा एष न कदाचन निम्नोचति। न ह वै कदाचन निम्नोचति। एतस्य ह सायुज्यं सरूपतां सलोकताम् अश्नुते य एवं वेद।

    अनुवाद :

 वह यह सूर्य कभी अस्त नहीं होता, न उदित होता है। उस सूर्य को जो अस्त हुआ मानते हैं, वे घूमती हुई पृथ्वी के साथ घूमते हुए दिनकर सूर्य के सामने से विपरीत जाकर रात्रि को सामने कर लेते हैं, और दिनकर सूर्य एवं दिन को पीछे। उसके बाद जो इसे प्रातः उदय हुआ कहते हैं, वे रात्रि को ही पृथ्वी के साथ घूमते हुए रात्रि का अंतकर, रात्रि के विपरीत मुख होकर, दिन व दिनकर सूर्य के साथ दिन को सम्मुख कर रात्रि को पीछे करते हैं। वह यह सूर्य कभी नीचे नहीं जाता। वह कभी भी नीचे नहीं जाता। सूर्य ज्ञान से जुड़कर तेजस्वी व बुद्धिमान होता है। जो ऐसा जानता है।

     यही तथ्य इसी रूप में अथर्व वेदीय गोपथ ब्राह्मण में भी वर्णित है। किञ्चिद् भाषान्तर भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में दोनों वेदों और उनके ब्राह्मणों में लम्बे समय के अन्तराल का द्योतक है। 

     स वा एष न कदाचनास्तमयति नोदयति। तद्यदेनं पश्चादस्तमयतीति मन्यन्ते, अह्न एव तदन्तं गत्वाथात्मानं विपर्यस्यतेऽहरेवाधस्तात् कृणुते रात्रीं परस्तात्। स वा एष न कदाचनास्तमयति नोदयति।

     तद्यदेनं पुरस्तादुदयतीति मन्यन्ते, रात्रेरेव तदन्तं गत्वाथात्मानं विपर्यस्यते, रात्रिमेवाधस्तात् कृणुतेऽहः परस्तात्। स वा एष न कदाचनास्तमयति नोदयति, न ह वै कदाचन निम्लोचति। एतस्य ह सायुज्यं सलोकतामश्नुते, य एवं वेद।

     ~गोपथ ब्राह्मण (भाग ४/१०)

सन्धिविच्छेदपूर्वक श्रुति.

स वा एष न कदाचन अस्तम् अयति न उदयति । तद् यद् एनं पश्चाद् अस्तम् अयति इति मन्यन्ते, अह्न एव तदन्तं गत्वा अथ आत्मानं विपर्यस्यते अहर् एव अधस्तात् कृणुते रात्रिं परस्तात्। स वा एष न कदाचन अस्तम् अयति न उदयति।

     तद् यद् एनं पुरस्तात् उदयति इति मन्यन्ते, रात्रेर् एव तदन्तं गत्वा अथ आत्मानं विपर्यस्यते रात्रिम् एव अधस्तात् कृणुते अहः परस्तात् । स वा एष न कदाचन अस्तम् अयति न उदयति, न ह वै कदाचन निम्लोचति। एतस्य ह सायुज्यं सलोकताम् अश्नुते। य एवं वेद।

   अनुवाद :

    वह यह सूर्य न कभी अस्त होता है, न उदित होता है। वे जो इसको बाद में अस्त होने को जाता है, ऐसा मानते हैं, वे पृथ्वी के साथ घूमते हुए सूर्य के सामने से पीछे की ओर जाकर अपने को विपरीत कर लेते हैं। इस प्रकार दिन को नीचे करते हैं और रात्रि को सामने कर लेते हैं। वह यह सूर्य न कभी अस्त होता है, न कभी उदित होता है।

     वह जो इस सूर्य को सामने से उदित होता हुआ मानते हैं, वे पृथ्वी के साथ घूमते हुए रात्रि को घूमकर अपने को विपरीत दिशा में करते हुए रात्रि को नीचे अर्थात् पीछे कर लेते हैं। और दिन को सामने कर लेते हैं। वह यह सूर्य न कभी अस्त होता है, न उदित होता है। निश्चय ही यह कभी भी नीचे नहीं जाता है। जो इस रहस्य को जानता है, वह सूर्य के ज्ञान से युक्त होकर तेजस्वी व बुद्धिमान होता है।

Exit mobile version