अग्नि आलोक

वीर गणू एवं डरपोक राजा:

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जनता ने अतीत में मश्गूल न होकर, वर्तमान में सजग रहना चाहिए

डॉ.अभिजित वैद्य

यह कथा है किसी एक देश की – बहुत साल पहले की, लेकिन जो फिर से कभी भी, कहीं भी, आज या कल
भी घटित हो सकती है l जिस देश में यह घटना घटित हुई वह देश खंडप्राय था l यहाँ से वहाँ तक फैला हुआ
l सागर का, पर्बतों का, रेगिस्तान का तथा हिमखंडों का l कोमल सी धूप का, जलानेवाले सूरज का, गुलाबी
ठंड का, धरती का चुंबन लेनेवाले काले बादलों का, भरमार के साथ आनेवाली जल धाराओं का, पेड़-पौधों
से सजा हुआ, फल-फूलों से लदा हुआ, डोलनेवाली फसलों से सजा हुआ, प्राणी एवं पंछियों के शोर-गुल से
गुन्जनेवाला l यह देश था तरह तरह के लोगों का, अनेक भाषाओं का, पोशाकों का, रीतिरिवाजों का,
संस्कृति की अनेक धाराओं का, अनेक धर्मों का, पंथों का, जाति का l विविधता को अपनाकर हाथ में हाथ
डालनेवालों का l धरती पर स्थित अनेक देश आदिम अवस्था में तब इस देश में कंचन बरसता था l संपन्नता
एवं विपुलता के कारण मनुष्य विश्व एवं चिंतन में उलझा रहता था l समाज इतना शांत था की उसे ना युद्ध
की आवश्यकता थी न आयुधों की l इस सुजलाम सुफलाम भूमि की खोज में प्राचीन काल से अनेक लोग आते
रहे l लेकिन हजारो वर्ष पूर्व हिमनगों से लपेटे हुए और दानापानी दुर्भिक्ष जहाँ था उस कोने से कुछ लोग
इस देश की भूमि में पहुँच गए l उनके पुरखों ने कई हजार वर्ष पूर्व सुफलाम भूमि की खोज का रास्ता
नापना शुरू किया l अनेक पीढियाँ होती रही l आतेसमय उन्होंने अपने साथ अनेक रीतिरिवाज, कर्मकांड
तथा हिंसा लाई l रास्ते में अनेक संकटों का सामना करते हुए उन्हें अंत में यह देश मिल गया l हजारों वर्ष
जब कोई मानव समूह प्रचंड प्रतिकुलता का सामना करके आगे बढ़ता है तब उस समाज के गुणसूत्रों में जिंदा
रहने की लड़ाई लड़ने के विविध गुण निसर्ग गुंफता है l हिंसा, स्वार्थ, विश्वासघातकी वृत्ति, असत्य प्रवृत्ति
एक से बढ़कर एक l अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा एवं निष्ठा आदि गुण उसकी दृष्टी से जिंदा रहने योग्य नहीं
रहते l स्वाभाविकतः बाहरसे आए हुए इस मानवी समूह का यहाँ के मूलतः शांतिप्रिय समाज से तीव्र संघर्ष
शुरू हुआ l अपने गुणसूत्रों में रहे सभी गुणों के आधार पर बाहर से आए हुए इस मानवी समाज ने यहाँ के
मूल समाज को अत्यंत सुयोग्य पद्धति से, निर्दयता से पराजित करने की शुरुवात की l उस समय हारनेवालों
को गुलाम बनाने की पद्धति दुनिया में जारी थी l लेकिन हारनेवालों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अगर गुलामी में
ढकेलना संभव हुआ तो उनका आवाहन कभी भी सम्मुख नहीं आ सकता l बाहर से आए हुए इन लोगों के
पास श्रम विभाजन पर आधारित एक खास व्यवस्था थी l

यह एक सामाजिक भँडोली थी l इस रचना के
शिखर पर जो मुट्ठीभर लोग थे उनके पास इस ढलान के सभी सूत्र थे क्यों की ज्ञान की ठीकेदारी उन्होंने
अपनी मुठ्ठी में रखी थी l इस वर्ग ने उस देश के हारनेवालों को अमानवी रूप दिए l उनके लिए एक नया वर्ग
निर्माण किया और उन्हें निचले वर्ग में ढकेल दिया l यह निचला वर्ग भी कभी संघटित न हो इसलिए श्रम
विभागनी करके उनकी भी धज्जियाँ उड़ा दी l उस देश के मूल निवासी लोगों में जो संपन्न एवं बलशाली थे
और जो उनकी आज्ञा के अनुसार काम करने के लिए तैयार थे उन्हें अभय देकर अपनों से समां दिया l कई
सैकड़ों या शायद हजारों वर्षों तक यह संघर्ष होता था l भविष्य में कभी भी हमारे स्थान को ठेंस ना पहुँचे
इसकी कुछ तो व्यवस्था करना आवश्यक था l उसमें से एक उपजाऊ एवं सडियल मस्तिष्क ने इस व्यवस्था
को आजिवन व्यवस्था का रूप देकर उस व्यवस्था को उनके धर्मग्रंथों में जखड दिया l मूल भूमि में अनेकगणराज्य थे और अनेक समाज मातृसत्ताक थे l पुरुषसत्ताक व्यवस्था में से आए हुए दिमाग ने स्त्री को भी
नीचे ढकेल दिया और गुलामी की बेड़ियों में जखड दिया l बाहर से आए हुए इन लोगों ने अत्यंत होशियारी
से उस प्रचंड देश को अपने तत्त्वज्ञान में ऐसा बाँध दिया की इन बेड़ियों से छुटकारा कभी भी नहीं मिलेगा
और उन बेड़ियों में जखडा हुआ समाज कभी भी विद्रोह नहीं करेगा इसकी पूरी व्यवस्था की l
पराए जेता और मूल निवासी जित ऐसा समाज आगे बढ़ता रहा l अनेक वंश हो गए, राज्यव्यवस्था निर्माण
हुई, कई राजा हो गए लेकिन मूल समाजव्यवस्था अभंग रह गई l समाजव्यवस्था अभंग रह गई लेकिन
समाज असंख्य ठीकरियों में विभाजीत हो गया l उसमें से कुछ विवेकी एवं बुध्दिमान लोगों को जन्मतः
श्रेष्ठत्त्व देनेवाली यह व्यवस्था अन्याय करनेवाली लगी l उन्हें इस तरह की व्यवस्था मान्य नहीं थी l उन्होंने
इस व्यवस्था को तगड़ा वैचारिक आवाहन दिया l इस वैचारिक आवाहन का प्रतिवाद करना हमारे बस की
बात नहीं है यह बात समझ में आने पर शिखर के इस वर्ग ने हिंसा एवं असत्य की सभी मर्यादोओं को पार
करके उनका निर्दयता से विच्छेद किया l अब केवल व्यवस्था के शिखर पर ही विराजमान होना यही एक
मात्र ध्येय इस वर्ग का बन गया l सामाजिक सत्ता बनाए रखना राजसत्ता किसी की भी हो l अनेक सत्ता
आई और चली गई l सामाजिक सत्ता केवल इन “शिखर पुरोहितों” के पास ही रह गई l शिखर पुरोहित वर्ग
ने समाज को ठगने की असंख्य युक्ति निकाली l ज्ञान निम्न वर्ग की ओर कभी भी पहुँचेगा नहीं, वह हमेशा
कर्मकांड तथा पाप-पुण्य के दायरे में अटका रहेंगे और अन्याय के विरुध्द कभी भी विद्रोह नहीं करेंगे ऐसी
नामी व्यवस्था करके रखी l उन्होंने धर्मग्रंथ, पुराण, इतिहास बदल दिए l समय कितना ही आगे चला जाए,
विश्व आधुनिक बन जाए फिर भी हमारा महत्त्व कायम रहेगा ऐसी व्यवस्था की l इसके विरुध्द भी उसमें जो
विवेकबुध्दी लोग थे उन्होंने विद्रोह किए l ये विद्रोह नष्ट कर दिए l मूल व्यवस्था कभी भी बदली नहीं l
और एक दिन उस देश की भूमि पर ऐसे पराए समूह ने कदम रखा की उनके कंधे पर अलग धर्म का ध्वज
था l जिसके मणगट में उस देश के जेताओं से भी अधिक ताकत एवं जिविगीषु वृत्ति थी l हमारी समाज
व्यवस्था तथा हमारे अस्तित्त्व को मत धक्का लगाओ केवल इस शर्त पर उस देश के ऊँचे वर्ग ने इस नए
लडैता को कड़ा विरोध नहीं किया l ये हमारे बस बात नहीं इसे शायद समझ गए होंगे l वास्तव में वे
विदेशी लोग धर्म फ़ैलाने के लिए नहीं अपितु राज करने के लिए आए थे l वह भूमि उहें अच्छी लगी और उसे
अपना ही मान लिया l मूल समाज के ऊँचे वर्ग के अनेकों ने राजसत्ता में बड़े स्थान प्राप्त हो इसलिए अनेक
धर्म को भी अपनाया और उनके साथ रिश्ते भी बना दिए l निम्न वर्ग अपनी समाजव्यवस्था की विषमता से
परेशान होकर उनका धर्म स्वीकृत किया l इतना होने पर भी उस देश के ज्यादातर लोग पुराने धर्म के ही
रह गए और राज्यकर्ताओं का धर्म अल्पसंख्य रह गया l ये नए राज्यकर्ता मात्र अगले अनेक सालों तक
निर्वेधता से राज करते रहे l देश के बहुत ही बड़े भूभाग पर उन्होंने कब्ज़ा प्राप्त किया l वह देश इतना प्रचंड
था की सैंकड़ो वर्षों की कालावधि में वहाँ अनेक राजा तथा उनके राज्य निर्माण हुए थे l सभी एक दुसरे के
साथ लड़ते भी थे और समझोता भी करते थे l ये युध्द धर्म के नहीं अपितु सत्ता के लिए होते थे l इस देश की
एक ख़ास बात थी l प्राचीनकाल में उस भूमि पर कब्ज़ा करनेवाले लोगों ने समाजव्यवस्था में अपना पैदाशी
श्रेष्ठत्व काम रखने के लिए अत्यंत धूर्त एवं फरेबी व्यवस्था निर्माण करके उसे धर्मग्रंथों में बाँध दिया था l
जिससे वह देश अनेक सत्ताओं में जिस तरह से विभाजित गया था ठीक उसी तरह उनका समाज भी सैंकड़ों
टुकड़ों में विभाजित हो गया था l विभाजित हुआ कोई भी समाज विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर
सकता और प्रगति के शिखर तक भी नहीं पहुँच सकता l गिरिकंदारों में रहनेवाले एक राजाने ने नए एवं
पुराने दोनों धर्म के लोगों को साथ में लेकर उनके साथ अभूतपूर्व सामना किया l यह लड़ाई धर्म के लिए नहीं अपितु विदेशी लोगों से स्वातंत्र्य प्राप्त करना तथा सामाजिक समता के लिए थी l लेकिन राजा को
उसके ही धर्म के शिखर पुरोहितों ने कभी भी स्वीकृति नहीं दी l क्योंकि वह राजा उनकी दृष्टी से
समाजव्यवस्था के राज्यकर्ता वर्ग का नहीं था अपितु रोजमर्रा जिंदगी जीनेवाले लोगों का था, रयत का था l
आगे चलकर उस राजा के वंशजों का बदला लेकर शिखर पुरोहितों ने उनकी रियासत ही कब्जे में ली l
उस देश की सुबत्ता सुनकर कुछ सालों बाद उस देश की भूमि पर फिर एक बार ऐसे विदेशीयों ने अपना
कदम रखा की जो आधुनिक विश्व की हवा लानेवाले गौरवर्णीय थे l बीच की कालावधि में सौ वर्षों तक राज
करनेवाले राज्यकर्ताओं का ह्रास होता रहा और नई पीढियाँ नाकाम साबित हुई l आधुनिक दुनिया से
व्यापार हेतु आए हुए नए विदेशी लोगों ने अनगिनत बाजूओं से टुटा हुआ, ज्यादातर समाज अज्ञानी,
समाजव्यवस्था का गुलाम एवं दरिद्रता से युक्त वह देश जल्द ही अपने कब्जे में लिया l राज्य एवं राजाओं
को अपनों क़दमों के नीचे लिया l शिखर पुरोहितों ने तथा उनकी रचना के कुछ लोगों ने फिर से इन नए
राज्यकर्ताओं से हाथ मिलाया l इसके बदले में नए शासनकर्ताओं ने उनकी समाजव्यवस्था के मूल ढाँचे को
बदलना नहीं ऐसा अलिखित करार हो गया l नए शासनकर्ताओं ने एक भला काम किया, उन्होंने इस देश में
अनेक नए बदलाव खुद के स्वार्थ हेतु किए l उनका मूल उद्देश आर्थिक था l सत्ता एवं आधुनिकता उस
आर्थिक स्वार्थ हेतु आवश्यक थी l उस देश की भूमि में स्थायीरूप में रहने का उनका उद्देश नहीं था l अपने
धर्म का प्रसार करना उनका उद्देश नहीं था l वहाँ की संपदा लुटाकर अपने देश में भेजने का उनका उद्देश था
l उस देश का आर्थिक शोषण किए बिना यह असंभव था l लेकिन इसकी वजहसे वहाँ असंतोष की चिंगारी
सुलग गई और लोगों के मन में विदेशियों की गुलामी से मुक्त होने की इछा निर्माण होने लगी l अनेक नेताओं
तथा विशेषतः एक महानुभव ने इस इछा को सही मोड़ देकर उसका रूपांतर अभूतपूर्व जनआंदोलन में
किया l कुछ मुट्ठीभर निडर युवाओं ने हाथ में तलवार लेकर क्रांति का प्रयास नहीं किया ऐसा नहीं अपितु
दरिद्रताग्रस्त स्वजनों एवं विदेशियों की गुलामी में हजारों वर्ष सिकुडनेवाले सामान्य लोग हाथ में तलवार
लेकर लड़ना असंभव था l महानुभव ने जनता की संख्यात्मक ताकत ही तलवार बनाई l तलवार हाथ में न
लेकर लड़ने के अनेक अभिनव मार्ग उन्होंने ढूँढ लिए l जनआंदोलन अधिक शक्तिशाली साबित हुआ l शिखर
पुरोहित इस आंदोलन से डरपोकी से दूर रह गए l विदेशियों से लड़ने की उनकी हिम्मत नहीं थी l जिन
विदेशियों ने देश को गुलाम बनाया वे हमारे दुश्मन नहीं हैं, हमारे असली दुश्मन दुसरे धर्म के तथा विचारों
के लोग है ऐसी भगोड़ी बातें करते रहे l जिनको उन्होंने समाज के निम्न वर्ग में ढकेल दिया और उनके कंधे से
कंधा मिलाकर लड़ते रहे तो आगे चलकर हाथ में सत्ता आनेपर उहें भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा और
अपना जन्म से प्राप्त वर्चस्व नष्ट होगा ऐसा भी डर शायद उनके मन में होगा l उन्हें उनकी सामाजिक रचना
की व्यवस्था को मान्यता देनेवाली राजव्यवस्था चाहिए थी l सामान्य और विशेषतः बहिष्कृत जनता को
आंदोलन में सहभागी कर लिया इसके लिए उनका महानुभव पर गुस्सा था l यह कृति धर्मविरोधी थी l
अब उन्हें भविष्य की दीर्घ रचना करना आवश्यक था l सबसे पहले उन्होंने पुरोहित संघ नामक छुपी
संघटना स्थापित की l जन्मतः श्रेष्ठत्व जिन्हें मंजूर था वे इसमें सम्मिलित हुए l दूसरे धर्म के लोग भले उस
देश में सैंकड़ों वर्ष रह चुके हैं और उन्होंने अपने देश के लिए खून बहाया हो फिर भी वे हमारे नहीं है, उन्हें
अलग करना चाहिए ऐसा उन्होंने निश्चित रूप से तय किया था l इसके लिए उन्होंने ठंडे दिमाग से वैचारिक
जहरीले विचार तथा विविध क्षेत्रों में जहरीले लोगों को नियुक्त किया l इस देश में प्राचीन धर्म तथा सौ
साल पहले बाहर से आए हुए शासनकर्ताओं का धर्म एकत्रित रूप से नहीं रह सकते, इन दोनों का मिलाकर
एक देश निर्माण नहीं हो सकता, ये दोनों ही धर्म मूलतः दो अलग देश है ऐसे विचार उन्होंने फैलाना शुरू

कर दिया l दूसरे धर्म के कुछ धर्मांध एवं स्वार्थी लोगों ने ही इन विचारों का समर्थन करना शुरू कर दिया l
तीसरे धर्म के अन्य धूर्त शासनकर्ताओं ने इस बात को और अधिक सिर पर उठा लिया l लेकिन अंत में
जनआंदोलन बलशाली साबित हुआ, दूर के विदेशी चले गए l नई गणतंत्र व्यवस्था का जन्म हुआ लेकिन देश
के टुकडें हो गए l महानुभव एवं उसे माननेवाले दुसरे अनेक महान लोगों के कारण बचा हुआ बड़ा टुकड़ा
सामाजिक, राजकीय एवं धार्मिक समता का संविधान लेकर आया l यह अघटित था l सामाजिक समता एवं
सभी का समान सहजीवन शिखर पुरोहित संघ को अमान्य था l समता एवं समानता पर आधारित नया
गणतंत्र लानेवाले महानुभव को सबक सिखाना आवश्यक था l लेकिन यह सबक केवल उसके लिए सिखाई
ऐसा इतिहास में लिखा जाना महँगा पड़ेगा इसलिए देश के टुकडें करने का आरोप उसके माथे पर लगाकर
उन्होंने विश्वासघात से उसके सीने में खंजीर घुसेड दिया l लेकिन इतना करने पर भी राजसत्ता हाथ में आना
असंभव था l सत्ता महानुभवों के शीष्यों के हाथ में रह गई l इन शिष्यों में से एक द्रष्टा, सुसंस्कृत एवं विद्वान्
नेताने अपने उतने ही द्रष्टा सहयोगी नेताओं की सहायता से उस देश को आगे बढ़ाया और आधुनिकता की
नींव डाली l देश के जीवन के हर क्षेत्र की निर्मिती की l देश फिर से तरोताजा होकर दौड़ने लगा l इस नेता
का पूरा विश्व भी सन्मान करने लगा l बाद में आए हुए नेता कम-अधिक बलशाली रहे l ऐसा होने पर भी
देश में अनेक समस्याएँ कायम थी l नए प्रश्न निर्माण हो रहे थे, राजकीय नैतिकता का ह्रास हो रहा था,
दरिद्रता बढ़ रही थी और विषमता भी l दूसरी ओर शिखर पुरोहित संघ ने विदेशी राजवटके समय विविध
क्षेत्रों को खोखला करने की शुरुवात तो की थी, अब विदेशी चले जाने पर इस कार्य को उन्होंने अधिक जोश
एवं भूमिगत पध्दती से शुरू किया l एक राजकीय सबल वर्ग निर्माण करके गणतंत्र व्यवस्था में प्रवेश भी
किया था l विदेशी चले गए, देश अपनों के हाथ में आ गया लेकिन व्यवहारिक तौर पर समाजव्यवस्था उनके
ही हाथ में रह गई l हजारों वर्षों की ज्ञान ठीकेदारी से हर क्षेत्र के चोटी पर उनकी विचारसरणी को
माननेवालों को आसनस्थ करना सहज संभव था l यह सब करते समय उनकी व्यवस्था को हादरा देनेवाला
हर नेता, विचारवंत को बदनाम करने की जबरदस्त ‘कानाफूसी यंत्रणा’ खड़ी की l कई बार सीधे खुलेआम
हमले भी किए l देश उसी अवस्था में भी अग्रेसर हो रहा था l मूल महान नेता का प्रभाव एवं लोकप्रियता
इतनी प्रचंड थी की उसके आधार पर स्वतंत्रता के लिए लड़ा हुआ राजकीय पक्ष ही प्रबल रहा और उस नेता
की आगे की पीढियाँ सत्ता में आती रही l अतः उनके पक्ष एवं परिवार की ठीकेदारी नष्ट करना शिखर
पुरोहित संघ की आवश्यकता रही ओर उनके कड़वी वैचारिक जो विचारधारा है वह भी आवश्यकता बन
पड़ी l इससे एक अघटित हुआ l सत्ता में दीर्घकाल से रहनेवाले मूल पक्ष को हटाने के लिए परस्पर विरोधी
विचारधाराएँ एकत्रित हुई l महान नेता के महान वंशज ने की हुई गलतियों के कारण अंशतः ही सही शिखर
पुरोहित संघ अपने वैचारिक विरोधकों के साथ मिलीभगत करके देश के सत्तास्थान पर आसनस्थ हुआ l अब
देश का हर क्षेत्र खोंखला करने का सुवर्ण अवसर प्राप्त हुआ l प्राचीन काल से कुटलनीति यह उनका सांकेतिक
शब्द था l पाताळयंत्री एवं षडयंत्री प्रवृत्ति उनका स्थायीभाव था l प्रतिगामी एवं पुरोगामी की यह
अनैसर्गिक युति अल्पवधी में खत्म हुई l इसकेबाद सत्ता के सारे सूत्र अजीब लोगों की ओर आते रहे और अंत
में फिर मूल राजकीय विचारधारा की ओर आ गई और स्थिर हुई l शिखर पुरोहित संघ ने इस सभी
कालावधि में अनेक षडयंत्र रचाई, अनेक नेताओं को कानाफूसी यंत्रणा के माध्यम से बदनाम किया l मूल
पक्ष था उनको जिनका आधार है उस परिवार को हटाना संभव नहीं होने लगा l इस परिवार के कुछ लोगों
ने देश के लिए लड़ते समय अपना बलिदान भी दिया था l लेकिन नेताओं को खो देने के बाद भी उनका पक्ष
जड़ मजबूत होने के कारण सत्ता में काबू रख पाया l परिवार ने नेतृत्त्व विद्वानों की ओर सौंप दिया l उन्होंने
देश की आर्थिक स्थिति अच्छी बनाई l आधुनिकता पर जोर दिया l देश में विपुलता छा गई l जनता आर्थिक

स्तर पार करते रही जिससे लोगों का सामाजिक स्तर बदल गया l शिखर पुरोहित संघ ने अचूकता से इसका
फायदा उठाया l उन्होंने लाखों तोता एवं चिड़ियों के समूह पाल दिए l ये तोता एकमुख से कोई अफवा फ़ैल
देते थे और अपने नेता की पुकार करते थे l चिड़ियाँ एकसूर में चहचहा करके विरोधों का मजाक उड़ाते थे
या अपने नेताओं की स्तुति करते थे l तोता एवं चिडियों की आवाज देश के कोने कोने में गूँजती थी और
जनता का बुध्दिभेद करके सत्य छिपाकर देते थे या असत्य को जनता के माथे पर लाद देते थे l इसके साथ
उन्होंने भोंकने तथा चर से काटनेवाले हिंस्त्र कुत्तों की फ़ौज खड़ी की l इन कुत्तों को बकरी के मुखौटे चढाए
गए l
इन यंत्रणाओं को निर्माण करने पर शिखर पुरोहित संघ दो साजिशे किई l उसमें से एक मूल पक्ष के महान
नेता के वारिस को नालायक ठहरानेवाली l वह परिवार अगर खत्म हुआ तो मूल पक्ष नष्ट होगा और तो
सक्षम विपक्ष खत्म होगा l केवल तोता एवं चिड़ियों का समूह या हिंस्त्र कुत्तों के आधार पर यह असंभव था
l इसके लिए धर्म के नशे में बेभान होकर, ढोल बजानेवाले, तुतारी फूँकनेवाली और आवश्यकता होने पर
हिंसा करनेवाले पथक निर्माण करना आवश्यक था l इसके लिए सामाजिक स्तर के निम्न वर्ग के लोगों की
आश्यकता थी l क्योंकि समाज की चोटी पर रहकर सुरक्षितता एवं सुख भोगनेवाले शिखर पुरोहितों को यह
अच्छी तरह से मालूम था की अपने बच्चों को इस काम में जुटाना मुर्खता है l बीच की कालावधि में शिखर
पुरोहितों ने देश का संविधान निम्न वर्गों को ज्यादा अवसर देता है ऐसा शोरगुल मचाकर अपने बच्चों को
अन्य प्रगत एवं अमीर देशों में भेज दिया था l मस्तिष्क साफ-सुथरा बनाए हुए इस बच्चों का केवल एकही
काम, आमिर देश का भौतिक सुख, आधुनिकता,समता एवं स्वतंत्रता का उपभोग लेना और खुद के देश में
विषमता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक हुक्मशाही पर आधारित राजकीय व्यवस्था
प्रस्थापित करनेवाली अपनी मातृसंघटना को निधी उपलब्ध कर देना l
इसमें एक सबसे बड़ी रूकावट थी, जनमत l गणतंत्र व्यवस्था में सत्ता जनमत के आधार पर हाथ में लेना
संभव और होशियारी का होता है l इसके लिए मूल धर्म के लोगों के मत एकमुश्त गड्डे में प्राप्त करना
आवश्यक है l प्राचीन काल से असंख्य टुकड़ों में विभाजित समाज को इकठ्ठा करना हमारे लिए आवश्यक है l
लेकिन सामाजिक टुकडें करनेवाली व्यवस्था रद्द की तो अपना जन्म से जारी श्रेष्ठत्व बचेगा नहीं l सामाजिक
एवं राजकीय व्यवस्था के सूत्र हाथ से छुट जाएँगे l इसका अर्थ है गणतंत्र व्यवस्था के आधार पर जनमत ही
प्राप्त करना और सामाजिक विषमता पर आधारित व्यवस्था ने बहाल किया हुआ श्रेष्ठत्व भी कायम रखना l
किसी पराए दुश्मन का डर बिना दिखाए यह असंभव था l इसका अंदाज उन्हें देश स्वतंत्र होने के पूर्व होने
के कारण सैंकड़ो वर्ष देश के कोने-कोने में एकता से रहनेवाले दुसरे धर्म के लोगों को दुश्मनी बहाल कर दी l
ऐसा करने के पीछे एक और उद्देश था l हम जो अन्याययुक्त सामाजिक विषमता को जन्म देकर देश की
बहुसंख्य जनता को अज्ञान एवं दरिद्रता में सैंकड़ों वर्ष सड़के रखा, जिस जनता पर अनन्वित अत्याचार किए
वह जनता कभी ना कभी हमारे विरुध्द बंड करके खड़ी हो जाएगी इसका डर भी उनके मन में हमेशा रहता
था l दूसरा धर्म हमपर आक्रमण करेगा, हमें निगल जाएगा ऐसी पुकार की और अपने धर्म की फूट विदेशी
आक्रमण के डर से फिर जुड़ जाएगी l इसके लिए दूसरे धर्म के लोगों के बारे में बड़ी मात्रा में द्वेष फैलाना
आवश्यक है l हम और वे इकठ्ठा नहीं रह सकते ऐसी भावना निर्माण करनी चाहिए l इतना ही नहीं अपितु
उनमें सामजिक संघर्ष हमेशा धधकता रहना चाहिए l दुर्दैव से उस धर्म के कुछ धर्मांध लोगों ने इस रचना
की सहायता की l उनके धर्म की राजकीय सत्ता दीर्घकाल तक उस देश पर कायम थी l वास्तव में उस समय
में भी शिखर पुरोहित धर्म के लोग बड़ी मात्रा में थे l बल्कि उन राज्यकर्ताओं ने धर्म एवं ईश्वर के नाम पर

गरीब जनता को लूटनेवाले अनेक शिखर पुरोहितों को शासन किया था l और इसी बात का फायदा उठाकर
शिखर पुरोहितों ने उन शासनकर्ताओं को क्रूर मानकर उनकी क्रूरता की अनेक कहानियाँ बताना शुरू कर
दिया I शिखर पुरोहितों के धर्म ने एक समय उनके धर्म को देश से निकाल देनेवाली विवेकवादी एवं
समतावादी धर्म की राज्यव्यवस्था को जो दीर्घकाल तर रही थी उसे कूटनीति एवं प्रचंड हिंसा से हटाया ही
था l उन्होंने निर्माण किए हुए हजारों प्रार्थनास्थलों को अपने प्रार्थनास्थलों में रूपांतरित किया था l नए
विदेशी राज्यकर्ता आने पर स्वाभाविकतः उन्होंने अपने प्रार्थनास्थलों का निर्माण किया l यह इतिहास था l
इसका फायदा लेने की योजना बनाकर शिखर पुरोहित उचित अवसर मिलने की राह देख रहे थे l देश की
स्वतंत्रता नजर आने पर पूर्व राज्यकर्ताओं ने हमारे प्रार्थनास्थल ध्वस्त करके निर्माण किए, उन्हें गिराकर
हमारे प्रार्थनास्थल हमें वापस दो ऐसा विवाद उन्होंने जारी ही रखा था l स्वतंत्रता के कुछ दशकों बाद सत्ता
में हिस्सा मिलने पर उन्होंने उस दिशा में वातावरण बिगाड़ने की शुरुआत की थी l मूल महान नेता के पक्ष
के अनेक नेता भ्रष्ट हो रहे थे l इसके विरुध्द भी वातावरण सुलग उठता था l परिणामस्वरूप शिखर
पुरोहितों के राजकीय पक्ष को एक तहसील में जनमत प्राप्त होकर हाथ में सत्ता आ गई l उनके पक्ष के
महामहंत ने उस तहसिल के सुभेदार पद पर सीधे अपने एक निष्ठावान सेवक की नियुक्ति की l यह सेवक
अल्पशिक्षित था l अनेक वर्ष अपने महंतो की पादुका सँभालने का काम करता था l अपने स्वामी के लिए
किसी का भी हत्या करने की उसकी तैयारी थी l स्वामी के लिए उन्होंने पत्नी को भी त्याग दिया l एक
इलाका हाथ में आने पर अब देश के सिंहासन की ओर चले जाना आवश्यक था l इसके लिए शत्रुता की
देशव्यापी बहुत बड़ी आग लगाना आवश्यक था l उनके महामंत सीधे अपना रथ एवं सैन्य लेकर एक विवाद्य
प्रार्थनास्थल पहुँचे l न्यायालय का आदेश दुतकारकर उन्होंने उसे ध्वस्त कर दिया l देश भड़क उठा l हिंसा
की आग सुलग गई l जहाँ सत्ता थी उस तहसिल में उनके कुछ सैनिकों पर दूसरे धर्म के कुछ लोगों ने
जानलेवा हमला किया l दो धर्म के लोगों में संघर्ष शुरू होने के लिए यह काफी था l महामहंत ने दूसरे धर्म
का प्रार्थनास्थल ध्वस्त किया जिससे हिंसाचार बढ़ गया l लेकिन दूसरे धर्म के लोगों ने किए हुए हमले के
कारण व्यापक हिंसाचार भड़क उठा l दूसरे धर्म के हजारों लोगों का क़त्ल किया गया l निष्पाप महिलाओं
पर बलात्कार हुए l बालकों को कुचलकर मारा गया l शत्रू की स्त्री पर बलात्कार करना धर्मकर्तव्य है यह
तत्वज्ञान शिखर पुरोहित के एक तथाकथित तत्वज्ञानी इन्सान ने रखा था l अतः बलात्कार करनेवाले
सैनिका का सन्मान किए जाने लगा l यह हुआ या कराया गया ऐसा प्रश्न निर्माण हुआ l दूसरे धर्म के लोगों
को सबक सिखाई गई ऐसा जनता को लगने लगा l देश शिखर पुरोहित के महामहंत को भूल गया और
जनता ने सूबेदार सेवक का जयजयकार शुरू किया l अब सेवक महानायक बनने की दिशा में अपने स्वामी
को कुचलकर आगे चला l
सेवक अत्यंत धूर्त एवं धोखेबाज तो था ही लेकिन मूलतः होशियार था l वह कितना भी असत्य बोल सकता
था l रास्ते में आनेवाले हरेक का काँटा निकालकर अलिप्त रहता था l उसकी वाणी में संमोहन शक्ति थी l
उसने पेहराव बदल दिया l वह राजा की तरह दिमाख में रहेने लगा l उसकी सहायता करने के लिए
उतनाही कपटी सेवक उसे मिल गया l शिखर पुरोहित संघ का इन दोनों को आशीर्वाद भी था और अभय
भी l अपने अंतिम ध्येय की और अगर पहुँचना हो तो इस सेवक उर्फ़ सूबेदार को, भले ही वह शिखर
पुरोहित वर्ग का न हो, सिंहासन पर बिठाना चाहिए यह बात उनकी समझ में आ चुकी थी l लेकिन इसके
लिए इस सुभेदार को अन्यान्य तहसीलों में लोकप्रियता प्राप्त करना आवश्यक था l सूबेदार पतालयंत्री एवं
पराकोटी का महत्वकांक्षी था l उसे देश का राजा होने के सपने पड़ने लगे l उन्होंने अपने इलाके के कुछ
अमीर व्यापारियों के साथ अलिखित करार किया l इन व्यापारियों ने अपना खजिना सूबेदार के लिए खुला

करना और राजपद प्राप्त होने पर सूबेदार ने इसकी भरपाई लाख गुना कर देना ऐसा तय हुवा l सूबेदार ने
एक अभिनव प्रचार यंत्रणा खड़ी की l इस यंत्रणा ने उसके तहसिल की न हुए विपुलता की, न हुए विकास
की और सत्ता में जो हैं उनकी काल्पनिक भ्रष्टाचार की कहानियाँ पूरे देश में एवं विश्व में फैलाना शुरू किया l
इसके साथ साथ उन्होंने अपने भविष्य के उनके पक्ष के तथा विपक्ष के स्पर्धकों को चुनकर उनको खत्म करने
की योजना बनाई l उसके दो ही बलशाली स्पर्धक थे l एक – उसके वयस्क स्वामी और दूसरा – दिवंगत
महानेता का अत्यंत युवा वंशज एवं उसका पक्ष l स्वामी से बढ़कर मैं हिंसा से बढ़कर ऊँचे पहुँच सकता हूँ
ऐसा उन्होंने सिध्द करने पर शिखर पुरोहित संघ ने उसके नाम पर मूहर लगाई l युवा नेता की ओर बढ़ने से
पहले उसके पक्ष को सत्ता से दूर करना महत्त्वपूर्ण था l शिखर पुरोहित संघ के हर स्थान पर रखे लोगों ने
सत्ताधारी पक्ष को भ्रष्ट ठहराने की मूहीम शुरू की l इसके लिए देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्त्व
करनेवाले महानुभव जैसा पेहराव करके एक अल्पशिक्षित देहाती इन्सान के हाथ में जनआंदोलन का नेतृत्व
दिया गया l महानुभव फिरसे अवतरित हुए हैं ऐसा समझकर अनेक पुरोगामी उसमें सम्मिलित हुए l देश
भड़क उठा l जनमत लिया गया l शिखर पुरोहित संघ के पक्ष को कौल मिल गया l शिखर पुरोहित संघ ने
सूबेदार का राज्याभिषेक किया l
सेवक से सूबेदार और सूबेदार से राजा ऐसी यह अभूतपूर्व यात्रा थी l हम कैसे निम्न वर्ग से आ गए हैं इसका
उन्होंने पूरी तरह से फायदा उठाया l इस नए राजा के आगमन से जनता पागल हुई थी l धीरे धीरे राजा ने
देश की व्यवस्था का हरेक क्षेत्र अपने कब्जे में लेना आरंभ किया l हर स्थान पर अपने निष्ठावान एवं लाचार
जी – हुजुरिया बिठा दिए l उनके पीछे से शिखर पुरोहितों ने हरेक क्षेत्र के मुख्य स्थानों पर अपने लोग
नियुक्त करना आरंभ किया l तोता, चिड़ियों एवं भोंकनेवाले कुत्तों के झुंड पूरे देश में खुलेआम छोड़ दिए गए
l इन सभी की मदद हेतु बुवा, बाबा – महाराज जैसी बहुत पुरानी फ़ौज पहले से ही तैनात थी l इनमें से
अनेक बुवा-बाबा-महाराज कम पढ़े-लिखे, चोर लफंगे एवं बलात्कारी थे I जनता पर अध्यात्म की मोहिनी
डालकर उन्हें अपनी ओर खिंच लेना और अंत में शिखर पुरोहित के द्वार पर लेकर रखलेना ऐसी जिम्मेदारी
उनपर सौंप दी थी l इसके बदले में उनके सभी अनैतिक कृतियाँ माफ़ थी और उसका उपभोग लेने की
अनुमति दी गई थी l ये सब अध्यात्मिक गुरु अब राजा के रट्टू तोता बन गए l
राजा ने जनता का ध्यान दूसरी ओर खिंचने के लिए नौटंकी का प्रयोग करना आरंभ किया l जनता उसके
अभिनय कौशल पर फ़िदा हो गई l राजा का अहंकार सुखावह होने लगा l अब राजा राजप्रासाद के छज्जा
में अचानक खड़े रहकर अलग अलग आज्ञा देने लगा l इससे हरेक आज्ञा से जनता की बडी मात्रा में
खींचातानी होती थी, तकलीफें होती थी l लेकिन तोता एवं चिड़ियों के समूह राजा की यह आज्ञा जनता के
हित में किस तरह से उपयोगी है इसका चीखना चारों ओर डडकर जनता को घनचक्कर बना देते थे l राजा के
ध्यान में यह बात आ गई की अब जनता पूरी तरह से उसकी काबू में आ गई है l जनता अब कितनी
संमोहित हो गई है यह देखने के लिए राजा ने धीर धीरे विविध प्रयोग करना शुरू कर दिया l एक दिन
उसने घोषित किया की देश के सभी लोग घर के बाहर आकार खुली सड़क पर जहाँ जगह मिले वहाँ दिन के
सातवें प्रहर में शीर्षासन करे l देश के करोड़ों लोग देश के लिए पलटी हो गए l उसमें अनेक लोगों की गर्दन
या कमर टूट गई l लेकिन यह त्याग देश के लिए है ऐसा मानकर उन्होंने सहन किया l राजा ने और एक
प्रयोग किया l सभी देशप्रेमी जनता ने खुले तौर पर मशाल सुलगाकर उसमें अपने हाथों को जला दे ऐसा
आवाहन किया l हाथ जलाकर लेने की स्पर्धा शुरू हो गई l अनेक लोगों के हाथ जल गए तो जलकर मर गए

l लेकिन जनता कहती रही देश के लिए हम कुछ भी सह लेंगे l अब जनता पूरी तरह से कब्जे में आ चुकी थी
l
रास्ते में आनेवाले स्वकीय एवं पराए इन सभी को निर्दयता से नेस्त-नाबूद किया ही था l उसका अष्टप्रधान
मंडल, प्रशासक मंडल,लष्कर एवं देश की गणसभा भी एडी के नीचे ली l देश के विद्वान्, तत्वज्ञ, तंत्रज्ञ,
साहित्यिक, कलाकार ये सब राजा की हर कृति को जमीन पर लेटकर ‘साधु साधु’ कहकर सन्मति दे रहे थे l
यह समय था व्यापारियों के उपकारों की अदायगी करने की l जिन व्यापारियों ने उसे सूबेदार पद से राजा
के पद तक पहुँचाने के लिए अपना खजाना खोलदिया था उनके लिए अब राजा ने देश का खजाना खोल
दिया l जनता राजा की वाणी एवं पोशाक पर मोहित हो गई थी l राजा हमें अमीर बनाएगा ऐसा विश्वास
उनके मन में था l राजा ने इन व्यापारियों को जनता का जो भी था वह एक एक करके कौड़ी के दाम में देना
शुरू किया l जिसने विरोध किया वह काराग्रह में गया या तो अपने प्राण गँवाए l राजा को विरोध का अर्थ
है देश को विरोध ऐसा समीकरण बन गया l जिससे बडी बडी हस्तियाँ डर गई l देश पूरी तरह से कब्जे में
आ गया था l राजा अब विश्वसम्राट बनने का सपना देखने लगा l उन्होंने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया l
अश्वमेध के घोड़े पर बैठकर राजा स्वयं विश्वभ्रमण की ओर चल पड़ा l विश्व में अनेक सामर्थ्यवान देश एवं
उनके सामर्थ्यशाली राजा-महाराजा हैं यह राजा को मालूम था l अश्वमेध के पीछे छिपकर उसने विविध
देशों को व्यापार का लालच दिखाना शुरू किया l राजा अपने देश के व्यापारियों के लिए पाँवड़ा बिछा रहा
है यह देखकर विद्वान् राजाओं ने उसका बडी मात्रा में स्वागत किया l राजा के साथ अश्वमेध के पीछे उसका
परममित्र व्यापारिका अश्व रहता था l जिस देश में जाएगा वहाँ का थोडा बहुत व्यापार वहाँ के राजा के
गले पड़कर अपने इस परममित्र के लिए प्राप्त करता था l यह परममित्र तथा दूसरे मुठ्ठीभर कुछ व्यापारी
अब देश के सभी क्षेत्र के स्वामी बनते रहे l उसमें से अनेकों ने सार्वजनिक खजाना लूट लिया l देश में अभी
भी पुराना संविधान होने के कारण कानून की चपेट में ये लूटारू पकड़े नहीं जाने चाहिए इसलिए राजा ने
उन्हें सुरक्षित रूप से विदेशों में भगाकर जाने की व्यवस्था की l परममित्र तो संपत्ति की चोटी पर जा पहुँचा
और धरती का कुबेर बन गया l यह सफर करते समय राजा के मन में देश के महान नेता के वंशज का डर
था l महान नेता के वलय का प्रभाव अभी भी अच्छा था l उनके कुछ वंशजों ने देश के लिए बलिदान किया
उसका भी वलय था l उसमें से स्पर्धक हो सकनेवाले और अब हयात रहनेवाले युवा वंशज को नेस्तनाबूत
करना आवश्यक है l महान नेता की बदनामी का षडयंत्र शिखर पुरोहित वर्ग ने बहुत पहले से जारी रखा था
l महान नेता देश में सभी धर्म के लोगों को समान मानता है, शिखर पुरोहितों ने निर्माण की हुई सड़ी हुई
व्यवस्था दुत्कार देता है, आधुनिकता का पुरस्कार करता है इसलिए उसपर गुस्सा था l वास्तव में महान
नेता जन्म से शिखर पुरोहित ही था l लेकिन शिखर पुरोहितों की यह परंपरा थी की हम में से अगर कोई
सामाजिक व्यवस्था को, अपने कर्मकांड का विरोध करेगा तो उसकी हत्या करते थे l राजा ने आदेश दिया
की महान नेता के युवा वंशज को, जिसे राजा उपहास से युवराज कहता था, मूर्ख बनाओ, जनता के मन में
वह ‘गणू’ होने की प्रतिमा तैयार कीजिए और उसके शेष परिवारवालों को भ्रष्ट साबित किया जाए l राजा
की पूरी प्रचार यंत्रणा पूरी सक्षमता से काम में जुट गई l इसके लिए करोड़ो रुपयों की सुवर्णमुद्रा मित्र
व्यापारियों ने राजा को बक्षिस के रूप में दे दी l देश की जनता को राजा के व्यापारी मित्र पहले से ही
खुलेआम लूट रहे थे l दूसरी ओर राजा उसके रट्टू तोताओं को पोसने के लिए, खुद की अय्याशी के लिए एवं
विरोधों को मारने के लिए या नेस्तनाबूत करने के लिए देश का खजिना उपयोग में लाते थे l इतना करने पर
भी गणू गणसभा में जनकौल प्राप्त करके आता ही रहा l राजा की दुष्कृतियों की गिनती निर्भयता से
गणसभा में पढ़ता रहा l लेकिन बाकी जनकौल तो राजाही जीतता रहा l कोई कहता है की काली जादू

करनेवाला कोई एक मांत्रिक राजा को मिल गया है और वह संदूक में कौल ही उसे ही बदल देता है l लेकिन
इसी व्यवस्था में भी गणू राजा के विरुध्द पूरी ताकत से खड़ा रहने लगा l राजा के ध्यान में यह बात आ गई
की हमें अब गणतंत्र व्यवस्था ही नष्ट कर देनी चाहिए या जनकौल हमेशा जितने की नई यंत्रणा निर्माण
करनी चाहिए l अनेक तहसीलों में राजा ने अत्यंत कपटी सूबेदार बिठाए थे लेकिन अभी भी अनेक इलाके
विरोधी विचारधारा के सूबेदारों के हाथ में थे l अनेक विरोधी सूबेदारों की सत्ता उन्होंने कूटनीति,
जबरदस्ती तो कभी सुवर्णमुद्राओं की बिखरन करके ध्वस्त कर दी थी l देश के मजदूर, किसान, कामगार
आदि सभी को अपनी एडी के नीचे लेने के अनेक कानून राजा ने बनाए थे l लेकिन अभी भी देश की पूरी
सत्ता हाथ में नहीं थी l गणू इस मार्ग की सबसे बडी रूकावट थी l इसी भी फरेबी सत्ताधीश को सत्ता से दूर
होना पसंत नहीं होता l उसे सत्ता कायम रखने के आलावा विकल्प नहीं होता l राजा के इस अनिर्बंध
महत्त्वकांक्षा के मार्ग पर हमें मजबूती से खड़े रहना चाहिए इसका एहसास गणू को था l
और एक दिन गणू ने अभूतपूर्व निर्णय लिया l उसने इस खंडप्राय देश की एक सीमा से दूसरी सीमा तक
पैदल चलना आरंभ किया l हजारों मिल, धूप, बारिश, ठंड, हवा, पहाड़, घाटी, रेती, बर्फ किसी की भी
परवाह न करके गणू एकही कमीज पहनकर चलता रहा l लोग विस्मयचकित हो गए l गणू को देखने,
मिलने उसके साथ बात करने के लिए लाखों लोग इकठ्ठा होने लगे l आनेवाले हरेक को गणू जादू की झप्पी
देता रहा l उनके अश्रू पोंछते रहा l उनके साथ प्यार से बातें करने लगा l इस देश का अर्थ केवल भूमि नहीं है
ऐसे कहता रहा l गणू से मिलने के लिए अब विद्वजन, विविध क्षेत्र के पंडित, साहित्यिक, कलाकार, पूर्व
सैनिक लगे l जिसे गणू कहकर हमारे सम्मुख रखा वह कोई अलग ही है, असामान्य है यह अब जनता की
समझ में आ गया l राजा का सिंहासन डगमगाने लगा l राजा ने अपने विश्वसनीय सहयोगियों के साथ
षडयंत्र शुरू की l गणू को रोकना उचित नहीं और उसे मारने के लिए गुंडों को भेजना तो कभी भी उचित
नहीं होगा l ऐसा किया तो जनता भड़क उठेगी l राजा छटपटाकर रुक गया l गणू चलता रहा l लोग इकठ्ठा
होते रहे l अंत में गणू देश के हिमशिखर तक पहुँच गया l देश का ध्वज उसने शिखर पर लहराया और रुक
गया l जिसे गणू कहकर लज्जित किया जाता था वह किसी को सिध्द्पुरुष तो किसी को वीरपुरुष लगने लगा
l इस पदयात्रा ने गणू के व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा तथा ऊँचाई प्राप्त कर दी l राजा नाटा लगने लगा l राजमहल
के ऊपर रक्षकों के दायरे में खड़ा होकर दहाड़ लगाकर किसी नटसम्राट से भी अच्छा अभिनय करनेवाला
राजा डरपोक भी लगने लगा l
हिमशिखर पर देश का ध्वज लहराने पर गणू ने चलना रोक दिया और सीधे राजधानी की गणसभा में पहुँच
गया l गणू ने राजा की भ्रष्टता के विरिध्द दहाड़ लगाई और पूरा देश थर्रा गया l राजा ने पसीना पोंछ लिया
l राजा डर से काँप गया l अब कुटिल नीति के आलावा कोई रास्ता नहीं था l राजा ने देश के ज्यादातर
न्यायमहंत पहले से ही अंकित किए थे l उनमें से कोई डरकर तो कोई लोभी बनकर राजा के चरणों में
लुढ़कते थे l राजा ने मुखौटा पहनेवाले एक कुत्ते को छु किया l कुत्ता तेजी से निकला और एक लाचार
न्यायमहंत के सम्मुख खड़ा रह गया l डरे हुए न्यायमहंत ने गणू को कारागृह में डाल दिया क्योंकि अनेक वर्ष
पूर्व राजा पर गणू ने विनोद किया था ऐसा आरोप लगाया l
यह कथा है एक देश की, बहुत साल पहले घटित हुई l लेकिन अब भी, कभी भी, कल भी, आज भी और कल
भी, कहीं पर भी पुनः घटित हो सकती है l यह कथा समाप्त भी हो सकती है और आगे जारी भी रह सकती
है l दुष्ट राजा का अंत होकर या गणू के बलिदान के साथ ख़त्म हो सकती है l

ऐसी कहानी का अंत किस तरह से करना है यह काल के हाथ में नहीं होता अपितु उस देश की जनता के
हाथ में होता है l इसके लिए जनता ने अतीत में मश्गूल न होकर, भविष्य के झूटे सपनों के जंजाल में न
फँसकर, वर्तमान में सजग रहना चाहिए l

पुरोगामी जनगर्जना एप्रिल -2023

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