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ऐतिहासिक भूगोल की पुनर्रचना का जोर-शोर से प्रयास

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अंजनी कुमार

पिछले कुछ सालों से भारत के ऐतिहासिक भूगोल की पुनर्रचना का जोर-शोर से प्रयास चला। इस अभियान के तहत ऋृग्वैदिक काल की सरस्वती नदी की खोज, महाभारत काल का भूगोल और मध्यकालीन भारत में इमारतों के धार्मिक विध्वंस और निर्माण को लेकर पुरातत्व विभाग, शोधकर्ताओं, पुरातत्वविदों, भाषा विज्ञानियों और इतिहासकारों आदि को नये सिरे से गोलबंद किया गया और सुनियोजित तरीके से अभियान चलाया गया। इस अभियान में नीतिगत निर्णय से लेकर राजनीतिक तौर-तरीके भी अपनाए गये। इस दिशा में अलग-अलग स्तर पर चर्चा, आयोजन, पुस्तकों का प्रकाशन, पुरातत्व से हासिल तथ्यों का नये सिरे से प्रदर्शन और पुरातत्व की योजना और उसकी कार्रवाइयों को मीडिया के साथ रोजमर्रा की खबरों के माध्यम से जनता के बीच ले जाने की प्रक्रिया अपनाई गई।

पिछले समय में पुराना किला की पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई को जिस तरह मीडिया में ले जाया गया और ‘लोकप्रियता’ के आधार पर उसमें हासिल हो रहे तथ्यों को जनता के प्रदर्शन के लिए पेश किया गया, वह इसकी मिसाल है। लोग मीडिया द्वारा प्रचारित महाभारतकालीन अनुमानित हासिल तथ्यों को देखने के लिए प्रदर्शन स्थल पर पहुंच रहे थे, जबकि जो तथ्य हासिल हो रहे थे वे मौर्यकाल तक जा रहे थे। कुछ तथ्यों की ऐतिहासिकता पर प्राचीनता का धुंध भी ओढ़ाया जा रहा था। यद्यपि इस मामले में पुरातत्वविदों ने अपनी ईमानदारी का प्रदर्शन किया और अनुमानों को हवा देने से इंकार कर दिया था।

महाभारतकालीन भूगोल की रचना में निश्चित ही प्रो. बी.बी. लाल की अहम् भूमिका रही है। उन्होंने पुरातत्व से हासिल तथ्यों को लेकर कई अनुमान पेश किये। कुछ तथ्यों का विश्लेषण ऐतिहासिक तौर पर महत्व के थे। खासकर, हस्तिनापुर खुदाई में मिले भूरे रंग के पॉलिस किये हुए बर्तनों की खोज। ये खनकदार थे और लोहे के प्रयोग की लोकप्रिय होने की गति को दिखा रहे थे। उन्होंने यह काम 1950-60 के दशक में किया और बाद के दिनों में भी वह इस दिशा में काफी सक्रिय रहे।

खासकर, अफगानिस्तान के ऊपरी हिस्सों में बर्तनों के प्रयोगों में आ रहे बदलावों और पश्चिमोत्तर भारत के पुरातत्व में हासिल चिन्हों को लेकर उन्होंने कई व्याख्याएं दीं। वह पुरातत्व विभाग, भारत के महानिदेशक भी रहे। निश्चित ही उनकी खोजें, अनुमान और उनके पेश किए गये ऐतिहासिक भूगोल को लेकर निरंतर चर्चा बनी रही। वह इन प्रसंगों को मूलतः भारत के प्राचीन ग्रंथों को आधार बना रहे थे और कनिंघम के प्राचीन भारत के ऐतिहासिक भूगोल के बरक्स एक संदर्भ ले रहे थे।

अलेक्जैंडर कनिंघम भारत में एक प्रशासक के तौर पर आये। वह भारत के राजनैतिक भूगोल को इसी नजरिये से देख रहे थे। धीरे-धीरे वह इतिहास और फिर अपने समकालीन पुरातत्व की गतिविधियों के साथ जुड़ते गये। उन्होंने भारत के भूगोल को उसकी ऐतिहासिकता के संदर्भ में देखना शुरू किया। उन्होंने भारत के पुरातत्व विभाग को एक व्यवस्थित रूप दिया। जब उन्होंने ‘प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल’ लिख रहे थे, तब उन्होंने उस समय के उपलब्ध संदर्भ स्रोतों का व्यापक प्रयोग किया और इस दिशा में उन्होंने उसके व्यवहारिक पक्षों पर काम किया। यह भारतीय पुरातत्व में एक अप्रतिम कार्य था।

बुद्ध की ऐतिहासिकता, जनपदों की उपस्थिति और फिर मौर्यकाल के अवशेषों के उत्खनन ने भारत के इतिहास लेखन को निश्चित ही एक बड़ा मोड़ दिया। हड़प्पाकालीन नगर व्यवस्था और मौर्यकालीन शहरी विकास के बीच के समय को भरने का कार्य पुरातत्व गतिविधियों द्वारा जारी रहा। खासकर, उत्तरवर्ती हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेष जब राजस्थान, हरियाणा से उतरते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अतरंजीखेड़ा में खुदाई से मिले अवशेषों की व्याख्या की गई, तब हमें भारतीय इतिहास के वे पन्ने खुलते हुए दिखते हैं जिसमें निरंतरता और विशिष्टता का उद्भव दोनों ही दिखता है। स्थापत्य और मूर्तिकला में भी इस निरंतरता और विशिष्टता को देखा जा सकता है। इस संदर्भ में नमित अरोरा द्वारा ‘द वायर’ के लिए पेश की गई ‘द इंडियन सिरीज’ को देखना काफी उपयोगी है।

इस विशिष्टता और निरंतरता की प्रक्रिया में ऋृगवेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत और रामायण, श्रुतियां और स्मृतियों की ऐतिहासिकता तय करने को लेकर थी। प्रो. बीबी लाल एक इतिहासकार होने की वजह से इन ग्रंथों की ऐतिहासिकता को इन्हीं समयावधि के बीच रखना ज्यादा उचित समझा और उन्होंने उत्तर हड़प्पाकल और जनपदों के उद्भव के बीच महाभारत का काल तय किया जो 900 से 1200 ईसा पूर्व बैठता है। यह काल निश्चित ही भारतीय समाज में एक नये बदलाव का समय है जिस समय अतिरिक्त पूंजी संचय एक नई राज्य व्यवस्था को जन्म देने की स्थिति में आ रही थी।

इस संदर्भ में धर्म, श्रम, नीति, नियम और सामाजिक संरचना को लेकर काफी उठापटक दिखने लगती है। यही कारण है कि इस समय के जो पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं उसमें नगर बेहद छोटे हैं, और थोड़ी देर के काल के मिले सिक्के भी बहुत थोड़ी मात्रा में ही हैं। यह गणतंत्रों के उभरने का समय था और इनकी राज्य व्यवस्था अपने भूगोल को नये सिरे से निर्मित करने के लिए व्याकुल थी जिससे कि अतिरिक्त आय के साधनों का और संग्रहित साधनों को लूटने का अवसर मिल सके।

इस संदर्भ में काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक ‘हिंदू पॉलिटी’ जरूर पढ़ी जानी चाहिए। इस संदर्भ में सिर्फ बौद्ध साहित्य ही नहीं, जैन और उपनिषद, पुराण, महाकाव्यों और स्मृतियों में आये उल्लेखों को देखा जा सकता है। निश्चित ही साहित्य में कल्पना की उड़ान काफी होती है और इसमें भूगोल का विस्तार मिथकों, स्मृतियों से बड़े पैमाने पर गढ़ा जाता है। इसमें नायकों का निर्माण देवताओं के साथ जोड़ देने से वे और भी बड़े हो जाते हैं।

धार्मिक पुस्तकों को इतिहास का मुख्य स्रोत बना देने और उसकी कल्पना की उड़ान के साथ इतिहास की उड़ान को रफ्तार दे देने से इन स्रोतों के नायकों को न सिर्फ महान देवत्व हासिल हो जाता है, साथ ही देवताओं को जमीन पर उतार लाने का मौका मिल जाता है। इन्हें आज अपने समय में उतारने के लिए सिर्फ आस्था ही नहीं इतिहास को उसी के अनुसार गढ़ा जाना भी जरूरी है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि उन्हें ऐतिहासिक महत्व की जगहों पर ही उतारा जाय।

इतिहास में धर्म की कल्पना जब ठोस रूप लेती है तब वह इसी रूप में विध्वंसक हो जाती है। वह इतिहास को नष्ट कर उसी के खंडहरों पर आसन लगाती है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना एक मंदिर बना देने के लिए चला आंदोलन तक सीमित नहीं था। यह इतिहास और पुरातत्व को देखने का एक नजरिया था, जिसका हिस्सेदार आम जनता को बनाया गया। यही वह प्रक्रिया है जिसमें इतिहास की लोकप्रिय इमारतों, स्थलों को पहले एक विवाद का हिस्सा बनाया जाता है, फिर उसे धर्म के दावेदारी में विभाजित किया जाता है, इसके बाद उसकी प्राचीनता, पवित्रता के साथ उसे जोड़ा जाता है और फिर आस्था को इतिहास की पीठ पर लाद दिया जाता है। इसके बाद पुरातत्व विभाग की टीम उतरती है।

ज्ञानवापी, शाही ईदगाह से लेकर भोजशाला और ढाई दिन का झोपड़ा तक और ताजमहल से लेकर कुतुबमीनार तक में यही प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं। यहां ऐतिहासिकता को एक ऐसे तथ्य की तरह पेश किया जाता है जिसके साथ अन्याय, अपवित्रता, विध्वंस और कब्जा जैसी शब्दावलियां जुड़कर आती हैं और सारा आग्रह पवित्रता को पुनःस्थापित कर न्याय की धारणा को स्थापित करना हो जाता है। इसमें किसी एक पक्ष में जाने का अर्थ उपरोक्त अवधाराणाओं के साथ नत्थी हो जाना है।

इतिहास को एक जीवंत राजनीतिक युद्ध में बदल दिया जाता है। सदियों की गुलामी से मुक्ति की आकांक्षा लोगों को एक ऐसे ऐतिहासिक बोध से भर देती है जिसमें वह वर्तमान में युद्ध के उन्माद में हिंसक हो उठता है। सरल भाषा में कहें तो इतिहास को एक जॉम्बी में बदल दिया जाता है। यह फासिज्म का दौर होता है।

आजकल पुरातत्व विभाग बड़े पैमाने में हरियाणा से लेकर उत्तर प्रदेश के मथुरा तक महाभारत काल और कृष्ण की नगरी के अवशेषों की तलाश में लगा है। यहां मुझे इतना ही कहना है कि जिस काल की हम तलाश कर रहे हैं, उसमें उत्तर हड़प्पा काल में धीरे धीरे नगरों के पतन और गांवों में पनप रही नई उत्पादन व्यवस्था, तकनीकों के प्रयोग के अध्ययन को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में दिलीप के. चक्रवर्ती की पुस्तक ‘इंडियाः एन आर्कियोलॉलिक हिस्टरी- पैलियोलिथिक बिगनिंग्स टू अर्ली हिस्टरी फाउंडेशन’ देखना उपयुक्त होगा। साथ ही आर.एस. शर्मा की ‘अर्बन डीके इन इंडिया’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

इतिहास में कल्पना की उड़ान भरने और जॉम्बी बन जाने से बचने के लिए जरूरी है कि हम इंसानों की ठोस जमीन पर बने रहें। वेदों, उपनिषदों और यहां तक कि पुराणों और महाकाव्यों के वर्णित देवताओं का भूगोल और उनकी निर्मिति मध्य एशिया से लेकर ग्रीस के प्राचीनतम नगरों और उनके अभिलेखों, लेखों, रचनाओं तक में विस्तारित है। उसी तरह भाषा की दुनिया यूरोप, मध्य एशिया से होते हुए भारत तक एक समानता लिए हुए फैली है। इसकी संस्कृति निरंतर एक दूसरे भिड़ने, अलग होने, मिलने और अपसारित होने और विशिष्टता हासिल करने में अभिव्यक्त होती है।

भारत के इतिहास के स्रोतों को इन व्यापकताओं के संदर्भ में रखे बिना और पुरातत्व की ठोस हासिल तथ्यों की ठोस व्याख्या में गये बिना पुरातत्व की खुदाई के नाम पर सिर्फ इतिहास ही नष्ट नहीं होता है, इतिहास को नष्ट करने वाली फासिस्ट प्रवृत्तियों को भी बल मिलता है और इन शक्तियों को हिंसक होने के लिए जमीन तैयार करती है। इसी कारण से पुरातत्व हमारे रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हुआ है। इसे सिर्फ इतिहास की खोज में हो रही खुदाई के तौर पर देखना इतिहास से मुंह मोड़ने जैसा है। हमें इसे लेकर सतर्क रहना होगा और इन खुदाइयों से हासिल तथ्यों पर नजर रखना होगा। 

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